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संशय द्वन्द्व से छुटकारा कैसे पायें ?


जीवन में संशय और द्वन्द्व सदैव रहते हैं । इनसे छुटकारा कैसे हो ?

संशय माने दुविधा । ‘यह ठीक है कि वह ठीक है ?’ तो द्वन्द्व है, दुविधा है, संशय है । उसकी निवृत्ति के लिए वेदांत का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि जब तक मन में किसी कर्म के संबंध में, भोग के, संग्रह के, सत्य के संबंध में दुविधा रहेगी – ‘ऐसा है कि वैसा है ?’ तब तक मनुष्य अपने जीवन को तनाव से मुक्त नहीं कर सकता । इसलिए वेदांत माने सत्य का यथार्थ का ज्ञान है ।

दूसरी बात है कि जीवन में दुःख है कि नहीं ? यदि दुःख है तो उसको मिटाने के लिए आप यदि संग्रह करना चाहोगे कि ‘रुपया मिलेगा तब दुःख मिटेगा’ या भोग करना चाहेंगे कि ‘अमुक भोग मिलेगा तब दुःख मिटेगा’ या परिस्थिति चाहेंगे कि ‘ऐसी परिस्थिति बने तब दुःख मिटेगा’ तो वह आपके हाथ में नहीं है । आप पराधीन रहेंगे । न वैसा संग्रह होगा, न वैसा भोग मिलेगा, न वैसी परिस्थिति बनेगी । एक ऐसा ज्ञान चाहिए जिससे संग्रह के बिना भी आप दुःख से मुक्त रह सकें । इसके लिए वेदांत की अति आवश्यकता है ।

तीसरी बात ऐसी समझो कि आप जो बनाओगे वह एक दिन बिगड़ेगा, उसमें परिवर्तन होगा, उसमें वृद्धि भी होती जायेगी तब भी आप उसको पूरा नहीं कर पाओगे । परिवर्तन होगा तो सँभाल नहीं सकोगे । नाश होगा तो सँभाल नहीं सकोगे । तो एक ऐसा ज्ञान जीवन में चाहिए कि चाहे जितना भी परिवर्तन हो जाय, चाहे जितनी भी सामाजिक परिस्थिति बदल जाय, उसका असर आपके जीवन पर न पड़े और आप निर्द्वन्द्व, निर्भय रह अपने मार्ग पर चलते रहें इसके लिए यथार्थ के, परमार्थ के ज्ञान की, टुकड़े-टुकड़े ज्ञान की नहीं – सम्पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता है । अर्थात् वह ज्ञान नहीं जो दर्जा एक में पढ़ाया गया, मैट्रिक तक पढ़ाया गया और बी.ए. तक पढ़ने में बदल जायेगा, वह ऐसा ज्ञान  नहीं है । और वह ज्ञान ऐसा भी नहीं है जो भारत में पढ़ने पर तो ज्ञान हो और अमेरिका में या अन्य जगह पर पढ़ने पर वही अज्ञान हो जाय । तो वेदांत माने ज्ञान की वह चरम और परम सीमा जिसको फिर बदला हीं जा सकता ।

ज्ञान तो नया-नया भी होता है, रोज नये-नये आविष्कार होते रहते हैं और ज्ञान में कोई जड़ता तो होती नहीं कि ‘इतना ही ज्ञान है’ । तो ज्ञान की परम या चरम सीमा का क्या अर्थ होता है ? यदि आप सामने की वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करेंगे तो जितने-जितने सूक्ष्म यंत्र बनते जायेंगे या गणित की जितनी उत्तमोत्तम प्रक्रिया का आविष्कार होता जायेगा, जितना रासायनिक द्रव्यों में परिवर्तन कर सकेंगे, उतना उसका ज्ञान बढ़ता जायेगा और उसका कभी अंत नहीं होगा । तो यह दुनिया में जो कुछ हो रहा है वह दूसरी वस्तुओं के ज्ञान के आधार पर हो रहा है । यह सही है कि इसमें कभी स्थिरता नहीं आयेगी । वह आगे, आगे, आगे बढ़ता ही जायेगा । आज एक सुन्दर दिखेगा तो कल दूसरा सुन्दर दिखेगा । आज एक की आवाज मीठी लगेगी तो कल दूसरे की लगेगी, आज एक तरह की स्वादिष्ट वस्तु बनेगी तो कल दूसरी तरह की बनेगी और पिछले-पिछले छूटते जायेंगे, अगले-अगले आते जायेंगे ।

परंतु यदि यह ज्ञान बाहर की वस्तुओं का न हो, अपना हो – जहाँ से हाथ उठाने की शक्ति काम करती है, वह क्या है ? जहाँ से आँख देखने का काम करती है, वह क्या है ? जहाँ संकल्पों का उदय होता है, वह क्या है ? जहाँ से पूर्व-पश्चिम का पता चलता है वह क्या है ? जहाँ से भूत-भविष्य का पता चलता है वह क्या है ? जहाँ से स्वप्न उठता है, जहाँ सुषुप्ति होती है और जहाँ दोनों से विलक्षण जाग्रत का ज्ञान होता है, उस आत्मा के बारे में, अपने स्वरूप के बारे में जो ज्ञान होता है वह मशीन की नोक पर नहीं होगा, वह प्रयोगशाला में नहीं होगा । वह अपने स्वरूप का ज्ञान स्थिर होगा, अचल होगा और उसमें निष्ठा रखकर आप दुनिया में जो भी करोगे उसमें आपको दुविधा नहीं होगी । आप तो वैसे-के-वैसे ही निर्द्वन्द्व रहोगे, आप चाहे भोग करो चाहे योग करो, चाहे राग करो चाहे त्याग करो, चाहे संयोग हो चाहे वियोग हो, चाहे जीवन हो चाहे मरण हो लेकिन यह जो अपने आत्मा का ज्ञान है, शुद्ध आत्मा का ज्ञान, जिसमें किसी वस्तु का मिश्रण नहीं है, वह ज्ञान बदलेगा नहीं । वह मरेगा नहीं, वह सुषुप्ति में अलग और जाग्रत में अलग – ऐसा नहीं होगा और उस ज्ञान में यदि आपकी निष्ठा हो जाय तो आप सर्व देश (स्थानों) में, सर्व काल में, सभी समाजों में, सभी परिस्थितियों में एकरस रहकर बिना तनाव के जीवन्मुक्ति का सुख अनुभव करते हुए आगे बढ़ सकोगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 334

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क्या महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए ?


परमहंस योगानंद जी से उनके किसी शिष्य ने पूछाः “अपने लिए कार्य न करके सब कुछ ईश्वर के लिए करने का अर्थ क्या यह है कि महत्त्वाकांक्षी होना अनुचित है ?”

योगानंद जीः “नहीं ! तुम्हें ईश्वर का कार्य करने के लिए महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए । यदि तुम्हारा संकल्प निर्बल और तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा मृत है तो तुम जीवन को पहले ही खो चुके हो । किंतु महत्त्वाकांक्षाओं को सांसारिक आसक्ति न उत्पन्न करने दो ।

केवल अपने लिए वस्तुओं को चाहना विनाशकारी है, दूसरों के लिए वस्तुओं को चाहना विस्तार करने वाला होता है किंतु ईश्वर को प्रसन्न रखने की चेष्टा ही सबसे उत्तम भाव है । यह तुम्हें ईश्वरप्रीति में सराबोर कर ईश्वरत्व के साथ एक कर देगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 334

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चित्त में आत्मप्रसाद स्थिर करने में सहायक रात्रि


शरद पूर्णिमाः 30 व 31 अक्तूबर 2020

शरद पूनम को चन्द्रमा पृथ्वी के विशेष निकट होता है और बारिश के महीनों के बाद खुले आकाश में चन्द्रमा दिखे तो चित्त विशेष आह्लादित होता है । यह धवल (श्वेत) उत्सव है । ‘अपना अंतःकरण प्राकृतिक पदार्थों को सत्य मानकर मलिन न हो बल्कि जो सत्यस्वरूप सबमें चमक रहा है उसकी स्मृति करके श्वेत हो, शुद्ध हो ।’ – ऐसा संकल्प करना चाहिए । जैसे श्वेत वस्त्र पर ठीक से रंग लग जाता है ऐसे ही श्वेत अंतःकरण, शुद्ध अंतःकरण प परमात्मबोध का रंग लग जाता है और व्यक्ति निर्लेप तत्त्व में ठहर जाता है । अपना चित्त इतना श्वेत करो कि आईने जैसा हो, कैमरे जैसा नहीं । कैमरा जो देखेगा वह अंदर भर लेगा लेकिन आईना जो देखेगा अंदर कुछ नहीं रखेगा, वापस कर देगा, वैसा ही दिखा देगा । ब्रह्मज्ञानी के चित्त और साधारण व्यक्ति के चित्त में इतना फर्क है कि साधारण व्यक्ति का चित्त कैमरे जैसा और ब्रह्मज्ञानी का चित्त आईने जैसा होता है । इसलिए ब्रह्मज्ञानी महापुरुष आनंदित व निर्भीक रहते हैं क्योंकि उनके चित्त पर कोई लेप नहीं लगता ।

शरद पूनम को चन्द्रमा से मानो अमृत टपकता है, जीवनीशक्ति के पोषक अंश टपकते हैं । रात्रि 12 बजे तक चन्द्रमा की पुष्टिदायक किरणें अधिक पड़ती हैं । अतः इस दिन चावल की खीर अथवा दूध में पोहे, मिश्री, थोड़ी इलायची व काली मिर्च आदि मिलाकर चन्द्रमा की चाँदनी में रख के 12 बजे के बाद खाना चाहिए ।

शरद पूनम को ‘पंचश्वेती उत्सव’ भी कहते हैं । दूध श्वेत, चावल श्वेत, मिश्री श्वेत, चौथा श्वेत चन्द्रमा की किरणें पड़ें और पाँचवाँ श्वेत सूती वस्त्र से ढक दें । हो सके तो सफेद चाँदी के गहने या बर्तन डाल सकते हैं । इससे आपकी सप्तधातुओं पर विशेष सात्त्विक प्रभाव पड़ता है । ‘भगवान का आध्यात्मिक तेज चन्द्रमा के द्वारा आज के दिन अधिक बरसा है और वे ही भगवान हमारे तन-मन-मति को पुष्ट रखें ताकि हम गलत जगहों से बचने में सफल हों, रोग बीमारियों से बच जायें और हमारी रोगप्रतिकारक शक्ति के साथ विकार-प्रतिकारक शक्ति का भी विकास हो ।’ – ऐसा चिंतन करके जो खीर या दूध-पोहा खाता है, वर्षभर उसका तन-मन तंदुरुस्त रहता है । मैं तो हर साल खाता हूँ ।

दशहरे से शरद पूनम तक चन्द्रमा की चाँदनी में विशेष हितकारी किरणें होती हैं । इन दिनों चन्द्रमा की तरफ देखते हुए एकाध मिनट आँखें मिचकाना, बाद में जितना एकटक देख सकें देखना । फिर श्वासोच्छवास को गिनना अथवा ऐसी भावना करना कि ‘चन्द्रमा की शीतल अमृतमयी शांतिदायी, आरोग्यदायी, पुण्यदायी किरणें हम पर बरस रही हैं । जैसे गुरुदेव हमारे आत्मदेव हैं वैसे ही चन्द्रमा भी हमारे आत्मस्वरूप हैं, सुख व आनंद देने वाले, औषधि पुष्ट करने वाले हैं, वे हमारा मन भी पुष्ट करें । शरद पूर्णिमा हमारे जीवन को पूर्ण परमेश्वर की तरफ ले जाय, हमारे चित्त में शीतलता लाये, सुख-दुःख में सम रहने की क्षमता लाये । लाभ-हानि, जय-पराजय, जीवन-मृत्यु – ये सब माया में हो रहे हैं लेकिन मुझ चैतन्य का कुछ नहीं बिगड़ता, इस प्रकार की आत्मनिष्ठावाली हमारी स्थिति लाये । जैसे ज्ञानवानों के चित्त में आत्मप्रसाद स्थिर रहता है, ऐसे ही हम भी अपने चित्त में आत्मप्रसाद स्थिर करें ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 13 अंक 334

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