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दोषों को नष्ट करने हेतु – पूज्य बापू जी


अपने में जो कमजोरी है, जो भी दोष है उनको इस मंत्र द्वारा स्वाहा कर दो । दोषों को याद करके मंत्र के द्वारा मन-ही-मन उनकी आहुति दे डालो, स्वाहा कर दो ।

मंत्रः ॐ अहं ‘तं’ जुहोमि स्वाहा । ‘तं’ की जगर पर विकार या दोष का नाम लें ।

जैसेः ॐ अहं ‘वृथावाणीं’ जुहोमि स्वाहा ।

ॐ अहं ‘कामविकारं’ जुहोमि स्वाहा ।

ॐ अहं ‘चिंतादोषं’ जुहोमि स्वाहा ।

जो विकार तुम्हें आकर्षित करता है उसका नाम लेकर मन में ऐसी भावना करो कि मैं अमुक विकार को भगवत्कृपा में स्वाहा कर रहा हूँ ।’

इस प्रकार अपने दोषों को नष्ट करने लिए मानसिक यज्ञ अथवा वस्तुजन्य (यज्ञ सामग्री से) यज्ञ करो । इससे थोड़े ही समय में अंतःकरण पवित्र होने लगेगा, चरित्र निर्मल होगा, बुद्धि फूल जैसी हलकी व निर्मल हो जायेगी, निर्णय ऊँचे होंगे । इस थोड़े से श्रम से ही बहुत लाभ होगा । आपका मन निर्दोषता में प्रवेश पायेगा और ध्यान-भजन में बरकत आयेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 32 अंक 333

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असावधानी से की हुई भलाई बुराई का रूप ले लेती है – पूज्य बापू जी


हकीकत में हम इतने महान हैं कि उसका  वर्णन करने लिए शारदा जी बैठें तो थक जायेंगी किंतु हमारी महानता पूरी नहीं होगी । हर मनुष्य इतना महान है । जैसे हर बीज में अनन्त वृक्ष छुपे हैं ऐसे ही हर जीव में अनन्त शिवत्व का सामर्थ्य छुपा है लेकिन अपनी अक्ल नहीं और शास्त्रों की मानते नहीं इसलिए दीन-हीन, लाचार होकर दुःख भोग रहे हैं ।

एक छोटी सी कहानी समझ लेंगे । हंस ऊँची उड़ान उड़ रहे थे । वसंतु ऋतु का मौसम था । सुबह-सुबह का समय था । एक हंस ने देखा कि ‘एक चूहा बेचारा ठिठुर गया है । नदी की ठंडी हवाओं के कारण उस बेचारे को ठंड लग गयी है ।’ हंस के चित्त में दया आयी, वह नीचे उतरा । वह ठिठुरे हुए चूहे को अपने पंखों में लेकर गर्मी देने लगा । चूहे की थोड़ी ठंडी दूर हुई तो वह फूँक मारता गया और उसका पंख कुतरता गया । जिस पंख से हंस ने उसे गर्मी दी, सत्ता दी, शक्ति दी, उसी पंख को काटता गया । हंस को पता न चला । जब एक पंख का काफी हिस्सा कट चुका था और ठीक बिन्दु पर उसके मांस को दाँत लगे, काटते-काटते चूहा मूल तक आया तो रक्त की धार बह चली और हंस को थोड़ा  पता चला किंतु अब उसकी उड़ने की शक्ति शांत हो गयी । एक पंख से कैसे उड़े ! चूहे को कृतघ्न मानकर उसने छोड़ दिया किंतु सोचा कि ‘भलाई का बदला अगरा बुराई मिलता है तो भलाई कौन !’

फिर सोचा, ‘भलाई का बदला तो भला होता है किंतु असावधानी से की हुई भलाई बुराई का रूप ले लेती है । मेरा तो एक पंख कटा, संसार के लोग अपने मनरूपी चूहे को सत्ता देते हैं और मनरूपी चूहा व्यक्ति की सत्ता पाकर व्यक्ति के ईश्वरीय उड़ान के कर्म और ज्ञानरूपी दोनों पंखों को कुतरता जाता है, फिर व्यक्ति उड़ने योग्य नहीं रहता । मेरा तो एक पंख बचा है, दूसरा फूट निकलेगा किंतु जो मन को सत्ता असावधानी से देते जाते हैं और मन उनकी शक्तियों को क्षीण करता जाता है व कब गगनगामी होंगे और परमात्मा की यात्रा करेंगे ! यह आश्चर्य है !’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 25 अंक 333

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ब्रह्मवेत्ता संत ने क्यों किये 3 कुटियाओं को प्रणाम ?


एक राजकुमार ने संसारी सुखों की पोल जान ली कि ‘यह जवानी है दीवानी । भोग भोगे लेकिन अंत में, बुढ़ापे में तो कुछ नहीं…. और जिस शरीर से भोग भोगे वह तो जल जायेगा ।’ उस बुद्धिमान राजकुमार ने साधुताई की दीक्षा ले ली । फिर वह अपने गुरु के साथ यात्रा कर रहा था, पैदल का जमाना था । यात्रा करते-करते उसने देखा कि गुरु जी एक जीर्ण-शीर्ण कुटिया की प्रदक्षिणा कर उसे नमन कर रहे हैं ।

राजकुमार को हुआ कि ‘मेरे गुरु इतने ऊँचे उठे हुए हैं फिर भी इस कुटिया को प्रणाम कर रहे हैं ! कुटिया में तो भगवान की कोई मूर्ति नहीं, यह कोई उपासना-स्थली भी नहीं…..।’

यात्रा चलती रही, चलती रही…. मन में शंका थी, फिर शंका को और पुष्टि मिली । रास्ते में दूसरी कुटिया मिली, उसमें कोई व्यक्ति बैठा था । गुरु जी ने उस कुटिया की भी प्रदक्षिणा की और नमन किया ।

राजकुमार यह देख के दंग रह गया किंतु सोचा, मौका पाकर गुरु जी से पूछेंगे ।’ आगे चले तो राजकुमार ने देखा कि एक नयी कुटिया है, गुरुजी उसको भी नमन कर रहे हैं । अब उससे रहा नहीं गया, बोलाः “गुरुजी ! आपने जीर्ण-शीर्ण कुटिया को नमन किया, फिर आगे चलकर जिस कुटिया में एक व्यक्ति बैठा था उस कुटिया को नमन किया और अभी नयी कुटिया को प्रणाम कर रहे हैं ! इसका रहस्य मैं समझ नहीं पा रहा हूँ । जो जीर्ण-शीर्ण कुटिया थी उसमें मंदिर तो नहीं था फिर आपने वहाँ मत्था क्यों टेका ? गुरुजी ! मंदिर में मनुष्य की बनायी मूर्ति रखी जाती है । आप मूर्तिपूजा से आगे निकले हुए हैं और वहाँ तो मूर्ति भी नहीं थी !”

“हाँ, वहाँ मूर्ति तो नहीं थी किंतु पूर्वकाल में अमूर्त आत्मा जिस पुरुष के हृदय में अठखेलियाँ करके प्रकट हुआ था ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष उस कुटिया में रह चुके थे इसलिए मैंने उसको नमन किया ।”

“गुरु जी ! दूसरी कुटिया में तो एक व्यक्ति बैठा था । वह न तो संन्यासी था और न जटाधारी था । बिल्कुल ऐसे आलसी जैसा बैठा था ।”

“उनकी चित्तवृत्तियाँ शाँत हो गयी थीं । वे विश्रांति पाये हुए थे । कर्ता-भोक्तापन से पार अपने आत्मा में आराम पा रहे थे । वे हृदय-मंदिर में प्रवेश पाकर वहाँ आराम कर रहे थे । भले उनकी वेश-भूषा से संन्यास की खबरें नहीं आती थीं किंतु वे भीतर संन्यास को उपलब्ध हो गये थे । इसलिए मैंने उनकी कुटिया को प्रणाम किया ।”

“गुरुजी ! ये दो बातें समझ में आ गयीं लेकिन यह तो नयी कुटिया है….”

“इसमें कोई ब्रह्मवेत्ता आयेंगे इसलिए मैं पहले से प्रणाम कर देता हूँ ।”

अवर्णनीय है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की महिमा ! 56 प्रकार के भोग उनके सामने रख दो, उन्हें खाते हुए उन्हें हर्ष नहीं होता और भीख माँगकर रूखा-सूखा खाने को मिले तब भी उन्हें शोक नहीं होता । जीवमात्र का मंगल चाहने वाले, मानवजाति के लिए वरदानस्वरूप ऐसे महापुरुष संसार में बड़े पुण्यों से प्राप्त होते हैं ।

पहले के महापुरुष जहाँ-जहाँ रहे, वे जगहें अब भी पूजी जा रही हैं । जिन पत्थरों पर बैठे वे पत्थर भी पूजे जा रहे हैं । उनके लगाये बरगद-पीपल भी लोगों की मनोकामनाएँ पूरी करते हैं तो उनकी स्वयं की अनुभूति कैसी होती होगी !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020 पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 333

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