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सुखमय जीवन की अनमोल कुंजियाँ


महामारी, रोग व दुःख शमन हेतु मंत्र

अग्नि पुराण में महर्षि पुष्कर जी परशुराम जी से कहते हैं कि ”यजुर्वेद के इस (निम्न) मंत्र से दूर्वा के पोरों की 10 हजार आहुतियाँ देकर होता (यज्ञ में आहुति देने वाला व्यक्ति या यज्ञ कराने वाला पुरोहित) ग्राम या राष्ट्र में फैली हुई महामारी को शांत करे । इससे रोग-पीड़ित मनुष्य रोग से और दुःखग्रस्त मानव दुःख से छुटकारा पाता है ।

काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषपरि ।

एवा नो दूर्वे प्रतनु सहस्रेण शतेन च ।। (यजुर्वेदः अध्याय 13, मंत्र 20)

विद्यालाभ व अद्भुत विद्वता की  प्राप्ति का उपाय

‘ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं वाग्वादिनी सरस्वति मम जिह्वाग्रे वद वद ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं नमः स्वाहा ।’ इस मंत्र को इस वर्ष गुजरात और महाराष्ट्र को छोड़कर भारतभर के लोग 8 जून को दोपहर 1-45 से रात्रि 11-45 बजे तक तथा केवल गुजरात और महाराष्ट्र के लोग 5 जुलाई को रात्रि 11-02 से 11-45 बजे तक या 6 जुलाई को प्रातः 3 बजे से रात्रि 11-12 बजे तक 108 बार जप लें फिर मंत्रजप के बाद उसी दिन रात्रि 11 से 12 बजे के बीच जीभ पर लाल चन्दन से ‘ह्रीं’ मंत्र लिख दें । जिसकी जीभ पर यह मंत्र इस विधि से लिखा जायेगा उसे विद्यालाभ व अद्भुत विद्वत्ता की प्राप्ति होगी ।

कर्ज निवारक कुंजी

प्रदोष व्रत यदि मंगलवार के दिन पड़े तो उसे ‘भौम प्रदोष व्रत’ कहते हैं । मंगलदेव ऋणहर्ता होने से कर्ज निवारण के लिए यह व्रत विशेष फलदायी है । भौम प्रदोष व्रत के दिन संध्या के समय यदि भगवान शिव एवं सद्गुरुदेव का पूजन करें तो उनकी कृपा से जल्दी कर्ज से मुक्त हो जाते हैं । पूजा करते समय यह मंत्र बोलें-

मृत्युञ्जय महादेव त्राहि मां शरणागतम् ।।

जन्ममृत्युजराव्याधिपीडितं कर्मबन्धनैः ।।

इस दैवी सहायता के साथ स्वयं भी थोड़ा पुरुषार्थ करें ।

(इस वर्ष ‘भौम प्रदोष व्रत’ 5 व 11 मई तथा 15 व 21 सितम्बर को है ।)

सुख-शांति व धनवृद्धि हेतु

सफेद पलाश के एक या अधिक पुष्पों को किसी शुभ मुहूर्त में लाकर तिजोरी में सुरक्षित रखने से उस घर में सुख-शांति रहती है, धन आगमन में बहुत वृद्धि होती है ।

संकटनाशक मंत्रराज

नृसिंह भगवान का स्मरण करने से महान संकट की निवृत्ति होती है । जब कोई भयानक आपत्ति से घिरा हो या बड़े अनिष्ट की आशंका हो तो भगवान नृसिंह के इस मंत्र का अधिकाधिक जप करना चाहिए ।

ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।

नृसिंह भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ।।

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता है कि “इस विशिष्ट मंत्र के जप और उच्चारण से संकट की निवृत्ति होती है ।

तो कल्पनातीत मेधाशक्ति बढ़ेगी-पूज्य बापू जी

नारद पुराण के अनुसार सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय उपवास करे और ब्राह्मी घृत को उँगली से स्पर्श करे एवं उसे देखते हुए ‘ॐ नमो नारायणाय’ । मंत्र का 8000 (80 माला) जप करे । थोड़ा शांत बैठे । ग्रहण समाप्ति पर स्नान के बाद घी का पान करे तो बुद्धि विलक्षण ढंग से चमकेगी, बुद्धिशक्ति बढ़ जायेगी, कल्पनातीत मेधाशक्ति, कवित्वशक्ति और वचनसिद्धि (वाक् सिद्धि) प्राप्ति हो जायेगी ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल मई 2020, पृष्ठ संख्या 48,49 अंक 328-329

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नित्य उपासना की आवश्यकता क्यों ?


‘ऋग्वेद’ (1.113.11) में कहा गया हैः

ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः।

अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ।।

‘जो मनुष्य ऊषा के पहले शयन से उठकर आवश्यक (नित्य) कर्म करके परमेश्वर का ध्यान करते हैं वे बुद्धिमान और धर्माचरण करने वाले होते हैं । जो स्त्री-पुरुष परमेश्वर का ध्यान करके प्रीति से आपस में बोलते-चालते हैं वे अनेक प्रकार के सुखों को प्राप्त होते हैं ।’

परमात्मा के नित्य पूजन, ध्यान, स्तुति के महत्त्व को महर्षि वेदव्यासजी ने महाभारत के अनुशासन पर्व (149.5-6) में बताया है कि “उसी विनाशरहित पुरुष का सब समय भक्ति से युक्त होकर पूजन करने से, उसी का ध्यान, स्तवन एवं उसे नमस्कार करने से पूजा करने वाला सब दुःखों से छूट जाता है । उस जन्म, मृत्यु आदि 6 भावविकारों से रहित, सर्वव्यापक, सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष देव की निरंतर स्तुति करने से मनुष्य सब दुःखों से पार हो जाता है ।”

परमेश्वर की उपासना-अर्चना करने से आत्मिक शांति मिलती है । जाने अनजाने किये हुए पाप नष्ट होते हैं । देवत्व का भाव मन में पैदा होता है । आत्मविश्वास बढ़ता है । सत्कार्यों में मन लगता है । अहंकाररहित होने की प्रेरणा मिलती है । बुराई से रक्षा होने लगती है । चिंता और तनाव से मन मुक्त होकर प्रसन्न रहता है । जीवन को शुद्ध, हितकारी, सुखकारी, आत्मा-परमात्मा में एकत्ववाली ऊँची सूझबूझ प्राप्त होती है । ऊँचे-में-ऊँचे ब्रह्मज्ञान की सूझबूझ से शोकरहित, मोहरहित, चिंतारहित, दुःखरहित, बदलने वाली परिस्थितियों में अबदल आत्मज्ञान का परम लाभ मिलता है ।

आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।

आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते ।

आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते ।

पुण्यात्मा, धर्मात्मा, महानात्मा, दर्शनीय, चिंतनीय, मननीय, आदरणीय, सर्वहितकारी, पूर्ण परोपकारी, पूर्णपुरुष, आत्मसाक्षात्कारी, ब्रह्मवेत्ता के लिए महर्षि वसिष्ठ जी कहते हैं- “हे राम जी ! जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं से कीड़ी बड़ी है । कीड़ी से कीड़ा-मकोड़ा, कच्छ (कछुआ), बिल्ला, कुत्ता, गधा, घोड़ा दि बड़े है पर सबसे बड़ा है हाथी । परंतु हे राम जी ! सुमेरु पर्वत के आगे हाथी का बड़प्पन क्या है ? ऐसे ही त्रिलोकी में एक-से-एक मान करने योग्य लोग हैं । देवाओं में मान योग्य एवं सुख-सुविधाओं में सबसे बड़ा इन्द्र है । किंतु ज्ञानवान के आगे इन्द्र का बड़प्पन क्या है ?”

संत तुलसीदासजी ने लिखा हैः

तीन टूक कौपीन की, भाजी बिना लूण ।

तुलसी हृदय रघुवीर बसे तो इन्द्र वापड़ो कूण ।।’

पीत्वा ब्रह्मरसं योगिनो भूत्वा उन्मतः ।

इन्द्रोऽपि रंकवत् भासते अन्यस्य का वार्ता ?

ब्रह्मवेत्ता के आगे इन्द्र भी रंकवत् भासता है । इन्द्र को सुख के लिए अप्सराओं का नृत्य, साजवालों के साज,  और भी बहुत सारी सामग्री की आवश्यकता पड़ती है जैसे पृथ्वी के बड़े लोगों को सुख के लिए बहुत सारी सामग्री और लोगों की आवश्यकता पड़ती है लेकिन आत्मज्ञानी आत्मसुख में, आत्मानुभव में परितृप्त होते हैं । तीन टूक लँगोटी पहनकर और बिना नमक की सब्जी खा के भी आत्मज्ञानी आत्मदेव में परम तृप्त होते हैं ।

स तृप्तो भवति। स अमृतो भवति ।

स तरति लोकांस्तारयति । (नारदभक्तिसूत्रः 4 व 50)

तस्य तुलना केन जायते । (अष्टावक्र गीताः 18.81)

उस आत्मज्ञान के सुख में सुखी महापुरुष के दर्शन से साधक, सज्जन, धर्मात्मा उन्नत होते हैं, परितृप्त होते हैं और उन महापुरुष को मानने वाले गुरुभक्त देर-सवेर सफल हो जाते हैं । भगवान शिवजी ने कहा हैः

धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः ।

धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद् गुरुभक्तता ।।

‘जिसके अंदर गुरुभक्ति हो उसकी माता धन्य है, उसका पिता धन्य है, उसका वंश धन्य है, उसके वंश में जन्म लेने वाले धन्य हैं, धरती धन्य है !’

उपासना से इन सभी लाभों की प्राप्ति तभी हो सकती है जब सच्चे मन, श्रद्धा एवं भावना से उपासना की जाय । जैसे जमीन की गहराई में जाने से बहुमूल्य पदार्थों की प्राप्ति होती है, ठीक वैसे ही श्रद्धापूर्वक ईश्वरोपासना द्वारा अंतर्मन में उतरने से दैवी सम्पदा प्राप्त होती है ।

उपासना की मूल भावना यही है कि जल की तरह निर्मलता, विनम्रता, शीतलता, फूल की तरह प्रसन्न एवं महकता जीवन, अक्षत की तरह अटूट निष्ठा, नैवेद्य की तरह मिठास-मधुरता से युक्त चिंतन व व्यवहार, दीपक की तरह स्वयं व दूसरों के जीवन में प्रकाश, ज्ञान फैलाने का पुरुषार्थ अपनाया जाय ।

भगवान श्रीकृष्ण गीता (18.46) में कहते हैं-

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।।

‘उस परमेश्वर की अपने कर्मों से पूजा करके मनुष्य सिद्धि (स्वतः अपने आत्मस्वरूप में स्थिति) प्राप्त करता है ।’

पूज्य बापूजी कहते हैं- “पूजा-अभिषेक में 40 किलो दूध चढ़ाओ या 40 ग्राम, पर पूजा करते-करते तुम मिटते जाते हो कि बनते जाते हो, ईश्वर में खोते जाते हो कि अहंकार में जगते जाते हो – इसका ख्याल करो तो बेड़ा पार हो जायेगा । शिवजी तुम्हारे चार पैसे के दूध के लिए भूखे हैं क्या ? तुम्हारे घी और शक्कर के भूखे हैं क्या ? नहीं…. वे तुम्हारे प्यार के, उन्नति के भूखे हैं । प्यार करते-करते तुम खो जाओ और तुम्हारे हृदय में शिव-तत्त्व प्रकट हो जाय । यह है पूजा का रहस्य !”

एक बार चैतन्य महाप्रभु से एक श्रद्धालु ने पूछाः “गुरुदेव ! भगवान सम्पन्न लोगों की पूजा से सन्तुष्ट नहीं हुए और गोपियों की छाछ व विदुर के शाक उन्हें पसंद आये । लगता है कि पूजा के पदार्थों से उनकी प्रसन्नता का संबंध नहीं है ।”

चैतन्य महाप्रभुः “ठीक समझे वत्स ! प्रभु के ही बनाये हुए सभी पदार्थ हैं फिर उन्हें किस बात की कमी ? वास्तव में पूजा तो साधक के भाव-जागरण की पद्धति है । वस्तुएँ तो प्रतीकमात्र हैं, उनके पीछे छिपा हुआ भाव भगवान ग्रहण करते हैं । भावग्राही जनार्दनः । पूजा में जो-जो वस्तुएँ भगवान को चढ़ायी जाती है, वे इस बात का भी प्रतीक हैं कि उन पूजा सामग्रियों को निमित्त बनाकर हम अपने पंचतत्त्वों से बने तन, तीन गुणों में रमण करने वाले मन, बुद्धि, अहं, इन्द्रिय-व्यवहार को किस प्रकार उन्हें अर्पण कर अपने अकर्ता-अभोक्ता स्वभाव में जग जायें ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 38,39 अंक 328-329

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क्यों होती हैं महामारियाँ ?


आयुर्वेद के ग्रंथ चरक संहिता (विमान स्थानः 3.6) के अनुसार एक ही समय में, एक ही समान लक्षणों वाले तथा अनेक लोगों का विनाश करने वाले रोगों का उदय वायु, जल, देश (स्थान) और काल के विकृत करने से होता है ।

1. विकृत वायुः ऋतु-विपरीत बहने वाली अति निश्चल या वेगवाली, अति शीत या उष्ण, अत्यंत रूक्ष तथा मलिन गंध, वाष्प, बालू, धूलि और धूएँ से दूषित हुई वायु को रोगकारी मानें ।

वर्तमान में बढ़ती वायु-विकृति अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म दे रही है । मार्च 2020 में अंतर्राष्ट्रीय जर्नल ‘कार्डियोवैस्क्युलर रिसर्च’ में प्रकाशित हुए शोध के अनुसार प्रतिवर्ष 88 लाख लोग वायु-प्रदूषण से मर रहे हैं । ‘डॉक्टर्स फॉर क्लीन एयर’ समूह ने कहा है कि लम्बे समय से प्रदूषित वातावरण में रहने से अंगों की पूर्णरूप से कार्य करने की क्षमता घटती है एवं संक्रमित होने व रोगों की चपेट में आने की सम्भावना बढ़ती है । महामारी के परिप्रेक्ष्य में ऐसे लोगों को गम्भीर जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है ।’

2. विकृत जलः जो अत्यंत विकृत गंध व विकृत वर्ण वाला हो, पीने  स्वादयुक्त न हो – अप्रिय हो, उसे दूषित जल समझें ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दूषित पानी से अतिसार, हैजा, पेचिश, टाइफाइड और पोलियो जैसी बीमारीयाँ फैल सकती हैं ।

3. विकृत देशः जिस देश (स्थान, क्षेत्र या राष्ट्र) के स्वाभाविक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श विकृत हो गये हों, जहाँ धर्म, सत्य, लज्जा, सदाचार, सुस्वभाव और सदगुण छोड़ दिये गये हों और नष्ट हो गये हों वे दूषित है ऐसा समझें ।

भारत देश जहाँ कृषि-देश है वही ऋषि देश भी है । ‘भा….रत’ अर्थात् वह देश जिसके वासियों का मूल स्वभाव है – ‘भा’ यानी ‘ज्ञान’ में ‘रत’ रहना । ब्रह्मतत्त्व के अनुभवी संतों-महापुरुषों का आदर-सम्मान करके उनसे ब्रह्मविद्या प्राप्त कर, आचार-विचार की सही पद्धति जान के तदनुसार जीवनयापन करते हुए जीवन को दिव्य बनाना यहाँ के लोगों का स्वाभाविक धर्म है, सदगुण है, यहाँ की संस्कृति है लेकिन ये पुण्यात्मा अपने इस महान स्वभाव को भूलते जा रहे थे, जिससे अपनी संस्कृति से विमुख होकर विदेशी कल्चर का अनुसरण करते हुए विकृतियों का शिकार होने लगे थे । उनकी किस प्रकार जागृति हो रही थी यह बताते हुए पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा थाः “पूज्य बापू जी सारे देश में भ्रमण करके जागरण का शंखनाद कर रहे हैं, संस्कार दे रहे हैं । हमारी जो प्राचीन धरोहर थी और जिसे हम लगभग भूलने का पाप कर बैठे थे, बापू जी हमारी आँखों में ज्ञान का अंजन लगाकर उसको फिर से हमारे सामने रख रहे हैं । बापू जी का प्रवचन सुनकर बड़ा बल मिला है ।”

भारतरत्न अटलजी हमें अपनी प्राचीन धरोहर को पुनः प्राप्त करने के लिए पूज्य बापू जी के सत्संग-सान्निध्य एवं दिव्य ज्ञान के संस्कारों की आवश्यकता बता रहे हैं ।

4. विकृत कालः ऋतु के स्वाभाविक लक्षणों से विपरीत या कम-अधिक लक्षणों वाला काल अस्वास्थ्यकर (अहितकर) जानें ।

ऋतु विपरीत बारिश, गर्मी, सर्दी के कारण बीमारियाँ विशेष होती हैं । ऋतुओं के कालखंड अपने सामान्य समय से कम-अधिक होने से भी रोग व्यापक हो जाते हैं । वृक्षों की अत्यधिक कटाई के कारण बारिश का घटना या बिना ऋतु के होना, कुछ देशों द्वारा केमिकलों के सहारे वर्षा करायी जाना आदि से प्राकृतिक असंतुलन हो गया है ।

महामारी के विकट काल में जब विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियाँ भी स्थिति को नियंत्रित करने में अक्षमता अनुभव करने लगती हैं तब बड़े-बड़े शक्तिशाली राष्ट्र भी दिशाहीन अवस्था में आ जाते हैं और अपने देशवासियों को पीड़ा से बचाने में स्वयं को असमर्थ एवं विवश अनुभव करने लगते हैं । ऐसी स्थिति में जब वर्तमान स्थूल, भौतिक औषधियाँ भी विशेष कोई राहत नहीं दे पातीं तब उन सभी राष्ट्रों के कल्याण की भावना से भरकर आयुर्वेद के विश्वहितैषी महर्षि चरक ऐसा उपाय बताते हैं जो भारत के एस समाधिनिष्ठ महर्षि ही बता सकते हैं । उन्होंने चरक संहिता (विमान स्थानः 3.15-18) में महामारी की सर्वसुलभ एवं प्राणरक्षक औषधि बतायी हैः

‘सत्य बोलना, जीवमात्र पर दया, दान, सद्वृत्त (शास्त्रोक्त एवं शास्त्रों के रहस्य के अनुभवी संतों के मार्गदर्शन अनुरूप सदाचार) का पालन, शांति रखना और अपने शरीर की रक्षा, कल्याणकारी गाँवों और नगरों का सेवन, ब्रह्मचर्य का पालन, ब्रह्मचारियों तथा जितात्मा महर्षियों (आत्मवेत्ता महापुरुषों) की सेवा करना, धर्मशास्त्र की सत्कथा-सत्संग सुनना, सात्त्विक, धार्मिक और ज्ञानवृद्धों द्वारा प्रशंसित महापुरुषों का सदा सान्निध्य-लाभ लेना – इस प्रकार ये सब महामारी के भयंकर काल में, जिन मनुष्यों का मृत्युकाल अनिश्चित है उनकी आयु की रक्षा करने वाली औषधियाँ कही गयी हैं ।’

मरते हुओं को मृत्यु के मुख से बचाकर आयु प्रदान करने वाला वेद है ‘आयुर्वेद’ ! यह वेद हमें मार्गदर्शन दे रहा है कि ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य लाभ एवं उनकी सेवा ही परम हितकारी उपाय है, जिससे सत्य, जीवदया, परोपकार, सदाचार, भीतरी शांति, शरीर-रक्षा की कला, कल्याणकारी स्थल-सेवन, ब्रह्मचर्य – इन सब सदगुणों की प्राप्ति सहज में ही हो जाती है जो कि महामारी के भयंकर काल में आयु-रक्षा करने वाली औषधियाँ कहे गये हैं ।

और ऐसे महापुरुष हमसे सेवा के रूप  अपेक्षा ही क्या करते हैं ? वे यही चाहते हैं कि जो दिव्य आत्मसुख, आत्मशांति, अमिट एवं अखूट आत्मानंद का लाभ उन्हें हुआ है, उसे हम स्वयं भी पायें और दूसरों तक पहुँचायें । ऐसी सत्प्रवृत्तियों का लाभ हम स्वयं लें और दूसरों को भी दिलायें ।

महामुनि वसिष्ठ जी योगवासिष्ठ महारामायण (निर्वाण प्रकरण उत्तरार्धः 18.9,14) में तत्त्वज्ञानी पुरुषों का आश्रय लेने का उपदेश देते हुए भगवान श्रीरामचन्द्र जी को कहते हैं- “भद्र ! राजों के नाशक, देश को छिन्न-भिन्न करने वाले तथा दुर्भिक्ष (अकाल) आदि से उत्पन्न हुए जनता के क्षोभ की तत्त्वज्ञानी पुरुष तपस्या के प्रताप, सत्कर्मों के अऩुष्ठान, साम (मैत्रीभाव की नीति) आदि उपायों से ऐसे पकड़कर रोक लेते हैं जैसे भूकम्प को पर्वत ।  आपदाओं में, बुद्धिनाश में, भूख-प्यास, शोक-मोह, जरा-मरण आदि क्लेशों में, व्याकुल देशों में तथा बहुत बड़े संकटों में सज्जनों की गति संत ही हैं ।”

सृष्टि का संचालन करने वाली तथा सुसंतुलन करने वाली जो सर्वोच्च सत्ता है, उसके नियम कानून को भगवान का मंगलमय विधान कहा जाता है और उसका सूक्ष्म रहस्य ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ही जानते हैं । इससे ऐसे महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य से वंचित समाज में संयम-सदाचार का ह्रास होकर अधर्म बढ़ता है । जैसे – मांसाहार व विकृत खान-पान, भोग विलास की प्रवृत्ति, प्राकृतिक नियमों की अवहेलना, मिलावट, यांत्रिक कत्लखानों द्वारा बहुत बड़ी संख्या में गाय व अन्य पशुओं की हत्या आदि आदि । इससे फिर अनेक प्रकार के दोष एवं रोग उत्पन्न होते हैं ।

पूज्य बापू जी इस घोर कलिकाल में भी सत्ययुग जैसे वातावरण का सर्जन कर रहे थे । कलह, क्लेश, अशांति का वातावरण मिटाकर सर्वत्र ईश्वरीय प्रेम, सामंजस्य व सुसंवादिता का सर्जन कर रहे थे । बापू जी ने ‘भजन करो, भोजन करो, दक्षिणा पाओ योजना’ आदि के द्वारा जप, भजन, कीर्तन, सत्संग आदि के यज्ञ स्थान-स्थान में शुरु करवाये । सत्संगों के द्वारा संयम-सदाचार का प्रचार किया और जगह-जगह आश्रम, समितियाँ, बाल-संस्कार केन्द्र, महिला उत्थान मंडल, युवा सेवा संघ, गुरुकुल – इनके द्वारा संयम सदाचार, परोपकार आदि के सुसंस्कार देने वाले केन्द्र स्थापित किये । पूज्य बापू जी जहाँ भी जाते वहाँ विलायती बबूल, नीलगिरि आदि वायु व पर्यावरण को विकृत करने वाले वृक्षों के निर्मूलन एवं तुलसी, पीपल, नीम व आँवला जैसे वायुशुद्धिकारक वृक्षों के रोपण व गोबर के कंडों पर गूगल आदि के हव द्वरा वायुमंडल के शुद्धिकरण पर जोर देते थे । जल को शुद्ध, दोषनाशक एवं शरीर-पोषक बनाने की कला सिखाते थे । पूज्य श्री ने समाज को पुण्यदायी तिथियों व योगों का खूब लाभ दिलाया । अन्य अनेकानेक लोकहितकारी सेवा-प्रवृत्तियाँ चलायीं ।

ऐसे अनेक उपायों से उपरोक्त चारों प्रकार की विकृतियाँ पूज्य श्री दूर कर रहे थे । लेकिन पिछले करीब पौने सात वर्षों से पूज्य बापू जी को कारागृह में भेजा गया है इस पर प्रसिद्ध न्यायविद् व राज्यसभा सांसद श्री सुब्रमण्यम स्वामी जी ने हाल ही में कहा है कि “आशाराम जी बापू को फँसाया गया है यह सच है । यदि सजायाफ्ता कैदियों को सरकार द्वारा छोड़ा जा रहा है तो गलत तरीके से दोषी पाये गये और शारीरिक रूप से अस्वस्थ 83 वर्षीय संत आशाराम बापू को पहले रिहा करना चाहिए ।”

शास्त्र घोषणा कर रहे हैं-

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते ।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दुर्भिक्षो मरणं भयम् ।।

(स्कंद पुराण, मा. के. 3.48.49)

….त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम् ।।

(शिव पुराण, रूद्र संहिता, सती खंडः 35.9)

जहाँ पूजनीय महात्मा का सम्मान नहीं होता और अपूज्य-असम्माननीय व्यक्तियों का सम्मान होता है, वहाँ भय, मृत्यु, अकाल, दरिद्रता – ये संकट तांडव करते हैं ।

देश के वासी एवं वरिष्ठजन सूझबूझसम्पन्न पवित्रात्मा हैं । वे सर्वहितार्थ इस शास्त्रवचन पर अवश्य ही विचार करेंगे ।

(संकलकः प्रीतेश पाटिल एवं रवीश राय)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 5-8 अंक 3328-329

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