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गौण और मुख्य अर्थ में सेवा क्या है ?


सांसारिक कर्तव्यपूर्ति मोह के आश्रित एवं उसी के द्वारा प्रेरित होने से गौण कर्तव्यपूर्ति कही जा सकती है, मुख्य कर्तव्यपूर्ति नहीं । अतः वह गौण या स्थूल अर्थ में ‘सेवा’ कहलाती है, मुख्य अर्थ में नहीं । वेतन लेकर रास्ते पर झाड़ू लगाने  वाली महिला का वह कार्य नौकरी अथवा ‘डयूटी’ कहलाता है सेवा नहीं । घर में झाड़ू लगाने वाली माँ या बहन की वह कर्तव्यपूर्ति गौण अर्थ में सेवा कहलायेगी ।  परंतु शबरी भीलन द्वारा गुरु मतंग ऋषि के आश्रम परिसर की झाड़ू बुहारी वेतन की इच्छा या पारिवारिक मोह से प्रेरित न होने के कारण एवं ‘सत्’ की प्राप्ति के उद्देश्यवश मुख्य अर्थ में सेवा कहलायेगी और यही साधना-पूजा भी मानी जायेगी । यहाँ तीनों महिलाओं की क्रिया बाह्यरूप से एक ही दिखते हुए उद्देश्य एवं प्रेरक  बल अलग-अलग होने से अलग-अलग फल देती है ।

पहली महिला को केवल वेतन मिलता है, माता या बहन को पारिवारिक कर्तव्यपूर्ति का मानसिक संतोष और परिवार के सदस्यों का सहयोग मिलता है परंतु शबरी भीलन को अपने अंतरात्मा की तृप्ति-संतुष्टि, अपने उपास्य ईश्वर के साकार रूप के दर्शन व ईश्वरों के भी ईश्वर सच्चिदानंद ब्रह्म का ‘मैं’ रूप में साक्षात्कार भी हो जाता है । प्रथम दो के कर्तव्य में परमात्म-भाव, परमात्म-प्रेम एवं परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य की प्रधानता न होने से बंधन बना रहता है किंतु शबरी भीलन की सेवा में कर्म करते हुए भी वर्तमान एवं पूर्व के कर्मों के बंधन से मुक्ति समायी हुई है । अतः केवल ईश्वरप्राप्ति के लिए, ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए अद्वैत वेदांत के सिद्धान्त के अनुसार सर्वात्मभाव से, ‘मेरे सद्गुरुदेव, मेरे अंतर्यामी ही तत्त्वरूप से सबके रूप में लीला-विलास कर रहे हैं’ इस दिव्य भाव से प्रेरित हो के जो सेवा की जाती है वही पूर्ण अर्थ में सेवा है, निष्काम कर्मयोग है । अतः पूज्य बापू जी की प्रेरणा से देश-विदेशों में संचालित समितियों का नाम है ‘श्री योग वेदांत सेवा समिति’ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 326

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महामूर्ख से कैसे बने महाविद्वान ? – पूज्य बापू जी


एक लड़का महामूर्ख था । उसका नाम था पाणिनि । उसे विद्यालय में भर्ती किया तो 14 साल की उम्र तक पहली कक्षा में नापास, नापास, नापास…. । बाप ने बोला कि “इससे तो मर जा !”

माँ ने कहाः “मेरे पेट से तू पैदा हुआ, इससे अच्छा होता कि मेरे पेट से पत्थर पैदा होता तो तेरे बाप की नाराजगी नहीं सहनी पड़ती ।”

हर वर्ष पिता की नाराजगी और डाँट मिलती थी । 14-15 साल की उम्र में पिता-माता की डाँट से होने वाली ग्लानि से कुएँ में कूद के आत्महत्या कने का विचार किया । कुएँ पर गया । महिलाएँ पानी खींचती थीं तो रस्सी से पनघट पर निशान पड़ गये थे, जिन्हें देखकर उन्हें विचार आया कि ‘रस्सी के आने जाने से जड़ पत्थर अंकित हुआ तो अभ्यास से मेरी जड़ मति भी सुजान होगी ।’

खोज लिया किन्हीं गुरु जी को । उन्होंने उसे शिवजी के ‘ॐ नमः शिवाय ।’ मंत्र के छंद, देवता, बीज आदि बताकर जप-अनुष्ठान की रीत बता दी और उसका जीवन बदल गया ।

जैसे डायनेमो घूमता है तो ऊर्जा बनती है, ऐसे ही मंत्र बार-बार जपते हैं तो आध्यात्मिक ऊर्जा पैदा होती है, प्राणशक्ति और जीवनीशक्ति – दोनों विकसित होती हैं । परमात्मा से जो चेतना आती है वह जप करने से ज्यादा आती है इसलिए मंत्रदीक्षा का महत्व है । मंत्रजप से शरीर के रोग, मन की चंचलता और बुद्धि के दोष भी मिटते हैं ।

जहाँ बल का खजाना है वहाँ गुरुकृपा से मंत्र ने पहुँचा दिया । शिवजी की आराधना की । शिवजी तो नहीं आये लेकिन शिवजी का नंदी आ गया ।

नंदी ने कहाः “भगवान शिवजी समाधि में हैं । तुम अपना ध्यान भजन चालू रखो । शिवजी समाधि से उठेंगे और आनंदित होकर डमरू बजायेंगे । डमरू से जो ध्वनि निकलेगी उसका जिसकी जो मनोकामना होगी उसी के अनुसार अर्थ लगेगा ।”

वह पाणिनि नामक लड़का बैठ गया जप करने । गुरु के दिये हुए मंत्र का जप करते-करते ध्यानस्थ हो गया । शिवजी समाधि से उठे, नृत्य किया और 14 बार डमरू बजाया ।

नृत्तावासने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् ।

उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धानेताद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।। (नंदिकेश्वरकृत काशिका)

डमरू की ध्वनि से सनकादि ऋषियों को ‘शिवोऽहम्, सोऽहम्….’ का अर्थ मालूम हुआ लेकिन इसने तो उससे 14 सूत्र प्राप्त किये – अइउण, ऋलृक, एओङ्, ऐऔच, हयवरट्, लण् आदि । इनसे संस्कृत का व्याकरण बनाया । वह लड़का संस्कृत का बड़ा विद्वान बन गया । पाणिनि को मंत्र मिल गया तो बन गये पाणिनि मुनि ! और ऐसी शक्तियाँ जगीं कि उन्होंने संस्कृत का व्याकरण बना दिया ।

उसके बाद उनके व्याकरण की बराबरी करने वाला कोई व्याकरण नहीं बना । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी उनके व्याकरण का सम्मान करते थे । पाणिनि मुनि की प्रशंसा करते हुए पंडित नेहरू बोलते हैं कि ‘कितना महान व्याकरण है इनका !’ विद्यार्थी पहली से लेकर आचार्य (एम.ए.) तक संस्कृत पढ़े तो पाणिनि मुनि का व्याकरण काम में आता है ।

मंत्रजप से चंचलता मिटती और योग्यताएँ विकसित होती हैं । यह मंत्र की कैसी शक्ति है ! जब महामूर्ख में से महाविद्वान बन सकता है तो जीवात्मा से परमात्मा का प्यारा ब्रह्मवेत्ता बन जाय तो क्या आश्चर्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक 326

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अद्भुत प्रभाव-सम्पन्न संतान की प्राप्ति कराने वाला व्रतः पयोव्रत


(पयोव्रतः 24 फरवरी से 6 मार्च 2020)

अद्भुत प्रभाव-सम्पन्न संतान की प्राप्ति की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए शास्त्रों में पयोव्रत करने का विधान है । यह भगवान को संतुष्ट करने वाला है इसलिए इसका नाम ‘सर्वयज्ञ’ और ‘सर्वव्रत’ भी है । यह फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में किया जाता है । इसमें केवल दूध पीकर रहना होता है ।

व्रतधारी व्रत के दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन करे, धरती पर दरी या कम्बल बिछाकर शयन करे अथवा गद्दा-तकिया हटा के सादे पलंग पर शयन करे और तीनों समय स्नान करे । झूठ न बोले एवं भोगों का त्याग कर दे । किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाये । सत्संग-श्रवण, भजन-कीर्तन, स्तुति-पाठ तथा अधिक-से-अधिक गुरुमंत्र या भगवन्नाम का जप करे । भक्तिभाव से सद्गुरुदेव को सर्वव्यापक परमात्मस्वरूप जानकर उनकी पूजा करे और स्तुति करेः ‘प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हैं । समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियों में निवास करते हैं । आप अव्यक्त और परम सूक्ष्म हैं । आप सबके साक्षी हैं । आपको मेरा नमस्कार है ।’

व्रत के एक दिन पूर्व (23 फरवरी 2020) से समाप्ति (6 मार्च 2020) तक करने योग्यः

1. द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।) से भगवान या सद्गुरु का पूजन करें तथा इस मंत्र की एक माला जपें ।

2. यदि सामर्थ्य हो तो दूध में पकाये हुए तथा घी और गुड़ मिले चावल का नैवेद्य अर्पण करें और उसी का देशी गौ-गोबर के कंडे जलाकर द्वादशाक्षर मंत्र से हवन करें । (नैवेद्य हेतु दूध से साथ गुड़ का अल्प मात्रा में उपयोग करें ।)

3. सम्भव हो तो दो निर्व्यसनी, सात्त्विक ब्राह्मणों को खीर (ब्राह्मण भोजन के लिए बिना गुड़-मिश्रित खीर बनायें एवं एकादशी (6 मार्च) के दिन खीर चावल की न बनायें अपितु मोरधन, सिंघाड़े का आटा, राजगिरा आदि उपवास में खायी जाने वाली चीजें डालकर बनायें ।) का भोजन करायें ।

4. अमावस्या के दिन (23 फरवरी को) खीर का भोजन करें ।

5. 24 फरवरी को निम्नलिखित संकल्प करें तथा 6 मार्च तक केवल दूध पीकर रहें ।

संकल्पः मम सकलगुणगणवरिष्ठ-महत्त्वसम्पन्नायुष्मत्पुत्रप्राप्तिकामनया विष्णुप्रीतये पयोव्रतमहं करिष्ये ।

व्रत-समाप्ति के अगले दिन (7 मार्च 2020) को सात्त्विक ब्राह्मण को तथा अतिथियों को अपने सामर्थ्य अनुसार शुद्ध, सात्त्विक भोजन कराना चाहिए । दीन, अंधे और असमर्थ लोगों को भी अन्न आदि से संतुष्ट करना चाहिए । जब सब लोग खा चुके हो तब उन सबके सत्कार को भगवान की प्रसन्नता का साधन समझते हुए अपने भाई बंधुओं के साथ स्वयं भोजन करें ।

इस प्रकार विधिपूर्वक यह व्रत करने से भगवान प्रसन्न होकर व्रत करने वाले की अभिलाषा पूर्ण करते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 325

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