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ऊँचें में ऊँचा है सेवा-धर्म ! – पूज्य बापू जी


सेवा साधक के लिए अपनी क्षुद्र वासना व अहं मिटाने की परम औषधि है । सेवा से अंतःकरण की शुद्धि होती है और शुद्ध अंतःकरण का ब्रह्मज्ञान से सीधा संबंध है । यह सेवा ही है जो सर्वेश्वर तक पहुँचने का पथ प्रशस्त करती है । निष्काम भाव से सभी की सेवा करने से स्वयं की सेवा का भी द्वार खुल जाता है ।

किसी को बुरा नहीं मानो, किसी का बुरा नहीं चाहो, किसी का बुरा मत करो तो निर्भय हो जाओगे , इससे दुनिया की बड़ी सेवा हो जायेगी । जो भी कर्म करते हो उसका बदला न चाहो तो भगवान और शांति अपने हाथ की चीज़ है । अनेक जन्मों की बिगड़ी बाजी सुधर जायेगी । हमारे आश्रम के बच्चे-बच्चियाँ देखो, सेवाभाव से कर्मयोगी हो जाते हैं ।

सेवा के लिए सेवा करें । भगवान की प्रसन्नता के लिए, भगवान को पाने के लिए सेवा करें । ‘सब तें सेवक धरम कठोरा ।’ सेवा-धर्म सबसे ऊँचा है । यह विकारों को, अहंकार को, लापरवाही – सारे दुर्गुणों को हटा देता है । कोई सेवा के नाम पर किसी का फायदा उठाता है कि ‘मैं तो सेवा करता हूँ, मेरे को यह चाहिए, वह चाहिए…..’ तो उसका सत्यानाश हो जाता है । कोई वाहवाही के लिए सेवा करता है तो उसको भी वह सेवा ईश्वरप्राप्ति नहीं करायेगी । यदि कोई सुविधा के लिए सेवा करता है कि ‘चलो, सेवा करेंगे तो अपने को सुविधा मिलेगी ।’ तो सुविधा तो मिल जायेगी लेकिन सेवा का फल जो भगवान हैं वे नहीं प्रकट होंगे । सेवा से भगवान प्रकट हो सकते हैं । शबरी ने सेवा ही तो की । अंतरात्मा राम भी प्रकट हुए और बाहर दशरथनंदन राम भी आ गये, सेवा में इतनी ताकत है ।

अगर मैं वाहवाही की इच्छा से, कुछ लेने की इच्छा से सत्संग करता तो इतना लाभ नहीं होता । ‘लोगों का भला हो’ इस भाव से, ईमानदारी से करता हूँ तो भगवान की शक्तियाँ मेरे कार्य में लग जाती  हैं । भगवान भी लग जाते हैं लोगों के अंतरात्मा में प्रेरणा देकर । भगवान और भगवान की सत्ता निष्काम कर्मयोगी के साथ कदम मिला लेती है ।

‘जिनि सेविया तिनि पाइआ मानु ।’

जिन्होंने ईमानदारी से, तत्परता से सेवा की उनको लोग मान देते हैं । लेकिन मान का भोगी नहीं होना चाहिए, हम मान के लिए सेवा नहीं करते, मान के बदले में सेवा क्यों खोना ? मान हो चाहे अपमान हो… हम जानबूझ के जहाँ अपमान हो ऐसी जगह चले जाते थे । मान की इच्छा भी न रखे सेवक, यश की इच्छा भी न रखे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 17 अंक 317

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ऐसे लोग अपनी 7-7 पीढ़ीयाँ तारते हैं-पूज्य बापू जी


मशीन को काम दिया जाता है और इंसान को ज्ञान दिया जाता है । एक होता है ऐहिक ज्ञान, दूसरा अलौकिक ज्ञान और तीसरा ब्रह्मज्ञान । ऐहिक ज्ञान और अलौकिक ज्ञान – ये जहाँ से आते हैं वह है वास्तविक ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) । ब्रह्मज्ञान के आराधकों को अथवा ब्रह्मज्ञान के पिपासुओं को उस वास्तविक ज्ञान का आदर करना चाहिए । उसका जितना आदर होगा उतना ही उनकी बुद्धि उधर के लिए समय लगायेगी और उतना ही उनकी इन्द्रियों और मन पर बुद्धि का अधिकार जमता जायेगा । ज्यों-ज्यों इन्द्रियों और मन पर बुद्धि का अधिकार जमता जायेगा त्यों-त्यों बुद्धि ‘ऋत’ आत्मा में विश्रांति पाती जायेगी । ‘ऋत’ माने सत्य और सत्य में विश्रांति पाते ही बुद्धि को सत्यस्वरूप परब्रह्म-परमात्मा का साक्षात्कार होगा । तब वह बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा कही जाती है । गीता में भगवान ने कहाः ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।’ उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित हो गयी ।

इसलिए अन्नदान, भूमिदान, कन्यादान, गोदान, गौरस-दान से भी ज्यादा मंगलकारी ऋषियों के सत्संग का दान करने वालों को तो धन्यवाद, उनके माता-पिताओं को भी धन्यवाद और उनको जो उत्साहित करें उनको भी धन्यवाद ।

भगवान कहते हैं-

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।

प्रसाद से सारे दुःख मिटते हैं ।

धनभागी हैं वे लोग, जो ‘ऋषि प्रसाद’, ‘ऋषि दर्शन’ बाँटते हैं-बँटवाते हैं ! उनके माता-पिता को भी धन्यवाद है ! ऐसे लोग अपनी 7-7 पीढ़ीयाँ तारते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 317

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साँईं श्री लीलाशाह जी की अमृतवाणी


हम क्या हैं और अपने को क्या समझते हैं ?

हम अनित्य पदार्थों को नित्य समझ बैठे हैं । यह हम भारी भूल कर रहे हैं । क्या यह शरीर हमारा है ? इस पर हमारा भरोसा कैसा ? इस पर इतना गर्व क्यों ? हम अनित्य पदार्थों की कितनी चिंता करते हैं । स्वयं क्या हैं यह हम सोचते ही नहीं । हम सेठ हैं लेकिन अपने को मोटर समझ बैठे हैं । हम मकान के स्वामी हैं परन्तु स्वयं को मकान मान बैठे हैं अर्थात् हम अजर-अमर आत्मा हैं किंतु अपने को यह शरीर समझ बैठे हैं ! कितनी विडम्बना है न ! जरा विचारो और विवेक जगाओ ।

दुःखस्वरूप संसार सुखरूप कैसे हो ?

सागर का पानी खारा होता है । वही पानी सूर्य के ताप के कारण भाप हो के ऊपर जाता है और बादलों का रूप ग्रहण करता है । फिर वही वर्षा होकर बरसता है । वह पानी खारा नहीं होता, मीठा होता है । सागर के पानी का खारापन सूर्य के ताप से निकल जाता है ।

इसी प्रकार यह संसार खारा अर्थात् दुःखरूप भासता है किंतु श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के संग में रहकर सत्शास्त्रों का श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन करने से वह सुखरूप भासता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 13 अंक 317

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