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वर्तमान में टिको


 

मोह आगे और पीछे धकेल देता है।लेकिन विवेक वर्तमान में ,अपने साक्षी में, अपने अंतर्यामी प्रभु में.. विवेक अपने परमात्मतत्व की स्मृति कराने में सहाय् देता है। ध्यान करते समय भी ऐसा कभी न सोचें कि मेरा भविष्य में ये होगा अथवा भूतकाल में ये हो गया..नहीं ! अगड़म-बगड़म स्वाहा !..इधर उधर की बात स्वाहा ! “अभी मैं मेरे राम में आराम चाहता  हूँ ! अभी मेरे चैतन्य स्वरूप में, सोहं स्वरूप में, निज आत्मा में मैं परितृप्त हो रहा हूँ ! मैं शांत चेतसा हूँ ! “

ऐसी प्रज्ञा अपने शांत स्वरूप की, अपने आत्म स्वरूप की स्मृति जगानी होती है। सुनसान बैठना नहीं होता है अथवा भूत और भविष्य की जाल बुनने में समय खराब नही करना होता है। वर्तमान में स्थित होने के लिए वर्तमान तत्व में, वर्तमान देव में , अंतर्यामी  में, अपनेआप मे जगना है । जो भूत की और भविष्य की कल्पना करता है , चिंतन करता है उसे अपनी स्मृति आ जाए तो भूत और भविष्य की मुसीबत पैदा करने वाली जो कलना है वह शांत हो जाए। हे रामजी ! इस जीव को एक महा व्याधि लगी है..कलना, फुरणा, अविद्या, माया ये महारोग लगे है। और उसी फुरणे का ही नाम है.. भूत और भविष्य के फुरणे का नाम ही कलना है। ज्यों ज्यों कलना शांत होती है, त्यों त्यों जीव निष्कलंक होता है । ज्यों-ज्यों कलना शांत होती है, त्यों-त्यों वो अपनेआप में ओज, बल, तेज पाता है। ज्यों ज्यों कलना में बहता है त्यों-त्यों अपने को पापी,अपने को दीन हीन, दुःखी, लाचार, मोहताज महसूस करता है। ज्यों-ज्यों  कलना शांत होती है और अपने निष्कलंक वर्तमान आत्मा में जगता है,त्यों त्यों अपने को प्रसन्न, सुखद, बलवान और स्वावलंबी बनाता जाता है।

भूतकाल की व्यक्तियों, वस्तुओं, पदार्थों के चिंतन की धारा या भविष्य में मिलने की कुछ आकांक्षा अभी वर्तमान में कंगाल बना देती है। तुम अभी वर्तमान में शहंशाह हो जाओ तुम्हारा भविष्य मधुर हो जाएगा। भूतकाल बीत गया उसमे कलना की धारा में बह मत जाओ। कलना को कलना समझकर निष्कलंक आत्मा का चिंतन करते ओमकार की पावन गूँजन करते रामनाम का पवित्र स्मरण करते, सोहम् शब्द का अनुसंधान करते, अजपा गायत्री विकार दण्डोदेय अजपा जाप तुम्हारे जीवन के विकारों को हरने का सामर्थ्य रखता है। शासोश्वास को कभी निहारा.. वर्तमान में ..तो विकारी आकर्षण दूर हो जाता है, विकारों के बीच रहते हुए भी निर्विकारी आत्मा में प्रीति होने लग जाए तो बेड़ा पार हो जाता है, कल्याण हो जाता है !

सूर्योदय के बाद सोने वाला अथवा सूर्य अस्त के समय सोने वाला अथवा दिन को नींद निकालने वाला व्यक्ति अपनी आयुष्य नाश करता है। ऐसे ही सूर्योदय के पहले उठने वाला और रात्रि को दूसरे प्रहर आराम करनेवाला, तीसरे प्रहर आराम करनेवाला और चौथे प्रहर अपने वर्तमान देव में जगनेवाला व्यक्ति अपनी दीर्घ आयुष्य भोगता है । गीले पैर भोजन करनेवाला व्यक्ति अपनी दीर्घ आयुष्य भोगता है । लेकिन गीले पैर सोना नही चाहिए, झूठे मुँह सोना नही चाहिए, मलीन होकर नही सोना चाहिए । हाथ पैर धोकर, पोंछकर, शुद्ध होकर सोना चाहिए। जैसे नींद लेनी है तो शरीर की शुद्धि की जरूरत है ऐसे ही समाधि सुख लेना है तो हल्के विचारों को हटाकर दिव्य विचारों से अपने चित्त को स्नान करा लो तब तुम ध्यान में, साधना में जप में शीघ्रता से सफलता को पाओगे । तुम स्नेह करते जाओ, तुम्हारी वर्तमान स्मृति को जगाते जाओ , देखो मन कहाँ जा रहा है ..या तो भूतकाल के चिंतन में होगा या तो भविष्य की कल्पना जाल बुनेगा। उसको देखो और कह दो कि अब मैं तेरी चोरी जान गया हूँ ौ।

हजारों तीर्थ कर लें, सैंकड़ों मंदिर, मस्जिद , गिरजाघर भेठ ले लेकिन जबतक वर्तमान देव में नही जगेगा, भूत और भविष्य की धारा में बहता रहेगा तबतक उसके जीवन की आध्यात्मिक वीणा नही बज सकती। आध्यात्मिक वीणा, जीवन की वीणा सुननी हो , तो जीवन के होते सुनी जाती है। वीणा सुननी हो तो भविष्य पर नहीं है, भूत पर नहीं है, वीणा अभी बज सकती है…सोहम् की वीणा सतत बज रही है, साक्षित्व की वीणा सतत बज रही है, प्रेम प्रसाद की वीणा सतत बज रही है, तुम्हारे राम की वीणा सतत बज रही है और उसीकी सत्ता लेकर तुम्हारी दिल की धड़कने चल रही है ! तुम्हारा देव आकाश, पाताल में नही …

प्रेम पपीहा तब लिखूँ जब पिया हो परदेस  

तन में,मन में, जन में ताको क्या संदेश ?

बिछडे हैं जो प्यारे से दरबदर भटकते फिरते है

जिसका आनंद , जिसका सुख बाहर है …

कुछ खाकर, कुछ देखकर कुछ भोगकर सुखी होने की जिसके जीवन में गलती घुसी है वो भले ही दरबदर लोक लोकांतर में कभी स्वर्ग में तो कभी बिस्त में, कभी पाताल में तो कभी रसातल में तो कभी तलातल में, कभी इन्द्रियों के दिखावटी सुख में तो कभी मन के हवाई किल्लों के शेखचिल्ली किल्लों में उलझने के उन टकरावों में आदमी टक्कर  खाते खाते थक जाता है और पाता है कि मैं चल नहीं सकता ..मेरा काम नही ईश्वर की तरफ चलना !..अरे ! मनुष्य जन्म मिला है , ईश्वर शांति पाना तुम्हारा जन्म सिद्ध अधिकार है , ईश्वर की तरफ चलने के लिए ही तुम्हारा अवतार हुआ है , ईश्वर तत्व का सुख पाने के लिए ही तुम्हारे पास बुद्धि और श्रध्दा है ! नही कैसे चल सकते ? असंभव नही.. यही काम आप कर सकते है ! दूसरे काम में तो सदा के लिए आप सफल हो भी नही सकते ! संसार में हर क्षेत्र में सदा सफल होना कठिन है लेकिन ये जो  सदा तत्व है उसमें एक बार ठीक से जम गई बात तो फिर सदा सफल ही सफल है !तो सावधान रहें…भूत और भविष्य की कल्पनाओं में अपने को न बहने दे ! भजन करते है भगवान का..भगवान आ जाए, और पूछे -बोलो…बोले-महाराज, पत्नी बीमार है ठीक हो जाए ..अथवा ये हुआ तो ये हो जाए । आपने भगवान से लेना कुछ तरकीब नही सीखा। तुम अगर भगवान तत्व में विश्रांती पाए हुए हो तो ये छोटी छोटी बातें… तो तुम्हारी बुद्धि तेजस्वी होने से उसका सोलुशन अपनेआप निकलेगा ! छोटे छोटे प्रोब्लेम तो अपनेआप समेटते जाएँगे, विदा होते जाएँगे.. तुम वर्तमान में टिकते जाओ तो !

पति कहने में चले , पत्नी कहने में चले , छोरा कहने में चले , शरीर मे रोग न हो, भोग मिलते रहे ये जो कल्पनाएँ है वो तुम्हारे वर्तमान के खजाने को लूट लेती है और कंगाल बना देती है। अभी इतना है, यहाँ हूँ और फिर इतना पाऊँगा और वहाँ पहुँचूँगा तब सुख होगा…नहीं ! जो जहाँ है, जिस समय है, वहाँ अपने सुखस्वरूप को स्मरण कर ले.. बेड़ा पार हो जाएगा! जो वस्त्र घर में मिले स्वाभाविक पहन लो, जो भोजन बने सादा सुदा वो खा लो,जहाँ नींद आए सो जाओ । ऊँचे महलों की कल्पना न करो और सुहावने बिस्तर सजाने की जरूरत मत बनाओ जरूरत बनानी है तो भूत और भविष्य की चिंतन की धारा को तोड़कर निश्चिंत तत्व में आराम पाना और जितने निश्चिंत.. एक विचार उठा.. भूत का या भविष्य का ..दूसरा उठेगा उसके बीच की अवस्था वो परमात्म अवस्था है, वो चैतन्य अवस्था है, वो साक्षात्कारी घड़ियाँ है। उसमें जो सदा जगे है वो भगवान है,जो जगने का प्रयत्न करते है वो साधक है और उसका जिनको पता ही नहीं है, वे सरकती हुई चीजों में उलझने वाले संसारी है।फिर चाहे वो संसार की चीज इस पृथ्वी की हो चाहे किसी लोक लोकांतर की हो , लेकिन है सब संसार ! जो सरकता है उसको संसार बोलते है । और देखो जरा सावधानी से देखो  प्रारम्भ में थोडा सा ही कठिन लगेगा लेकिन फिर बहुत आसान हो जाएगा और सारी कुंजियाँ तुम्हारे हाथ लग जाएगी। देखो मन भूत में जा रहा है कि भविष्य में जा रहा है..जरा बारीकी से देखो ..अभी क्या है ? जाने को सोचता है तो भावी में जा रहा है कि भूत में जा रहा है..कल ऐसा ऐसा था-कि भूत में जा रहा है, पहले ऐसा ऐसा था-कि भूत में जा रहा है, अभी ऐसा ऐसा होगा, भूत में जा रहा है …उसको देखो की ..ऐ ! भूत में जाने वाले, ऐ भविष्य में गिरने वाले ! अभी वर्तमान में जरा … । तो भविष्य में और भूत में जो कल्पनाएँ गिरती है आप अपनी स्मृति जगाइए ! स्मृति जग गई प्रभु मिल गए ! स्मृति जग गई प्रभु मिल गए ! भूत भविष्य का तो चिंतन होता है ..चिंतन उस वस्तु का होता है जो तुम्हारे पास नही है! जो अभी नही है अथवा तुम्हारे से दूर है उसका चिंतन होता है। चिंतन उसका होता है जो तुम नही हो ! ध्यान दें…जो तुम नहीं हो उसका चिंतन होता है! जो तुम हो उसकी स्मृति होगी ..तुम नहीं हो उसका चिंतन होता है..ध्यान से सुने ,आँखे खोलकर सुने…जो तुम नही हो उसका चिंतन होता है, जो तुम्हारा नही है उसका चिंतन होता है। शरीर की वस्तुओं का चिंतन होगा लेकिन तुम्हारा जो प्रियतम है उसका चिंतन नहीं होता। जो लोग भगवान के विषय में दयालू है ..भगवान ऐसे है,भगवान चतुर्भुजी है ,खुदा ऐसा ऐसा ऐसा…धरम के नाते भगवान की, बिस्त की, इसकी उसकी महिमा करते है वे लोग भी तुम्हारे चित्त में कामनाओं का भूत सँवार कर देते है। जरा बात कड़क लगेगी ..वो कामनाओं का भूत सँवार होते ही आप अपने अच्युत पद की स्मृति की योग्यता खोने लग जाते है । और यही कारण है कि लाखों लाखों लोग धार्मिक है .. लाखों लाखों लोग किसी न किसी भगवान को, देव को, इष्ट को , गुरु को मानते है लेकिन चित्त की विश्रांती पाए हुए लोग, परमात्म प्रसाद को पाए हुए लोग कोई विरले जिज्ञासु ही मिल पाते है दूसरे नही।

कल हम लोगों ने सुना कि शिष्य के चार लक्षण है। शरणागत हो.. माना गुरुतत्व के , गुरुदेव के विचारों के अनुगामी होकर  ,गुरु के अनुभव का अनुगामी होकर शरणागत होना माना उनके पीछे पीछे चलना । और श्रोत्रिय ब्रम्हवेत्ता सच्चे गुरुओं को तुम्हारे बाह्य वस्तुओं की इतनी आवश्यकता नही होती तुम्हारे बाह्य प्रणाम और पूजा और सत्कार और वस्तुएँ उन्हें वो प्रसन्नता नही देगी जितनी प्रसन्नता…और ब्रम्हवेत्ता की प्रसन्नता प्राप्त करना बहुत जरूरी है ..गुरु की प्रसन्नता हासिल करना समझो ईश्वर के राज्य में जाने का पासपोर्ट और टिकट प्राप्त करना है!

तो वो महापुरुष कैसे प्रसन्न होते है ? कि महापुरुषों को अपना अनुभवगम्य जो सिद्धान्त जितना प्यारा होता है वैसा तो अपना देह भी प्यारा नही होता है। अपने सिद्धांत के लिए सुकरात ने देह बली दे दी। जीजस ने आपने देह की  बली दे दी, मंसूर ने अपने देह की बली दे दी सिद्धांत के लिए। तो सिद्धांत जितना महापुरुषों को अपना प्यारा होता है उतना शरीर भी प्यारा नही होता है। तो महापुरुष जो निर्देश करते है अपने सिद्धांत अपने परमात्मतत्व में वर्तमान में ठहरने को कहते है। आप अगर ठहरने को तत्पर है तो आप ठीक उनको प्रसन्न कर लेंगे।आप उनके बताए हुए नुस्ख़े आजमाकर अपने को ऊँचा उठा लेंगे तो वो आपको सदा प्रसन्न मिलेंगे ! लेकिन आप जान बूझकर भी अपनी पुरानी आदत की धारा में बह जाएँगे उस वक्त गुरु, गुरु मंत्र और गुरु तत्व तुम्हारे हृदय में होता है वो तुम्हे थामता है, रोकता है, संकेत करता  है ! जबतक तुम तुम्हारे गुरु बनकर सच्चाईयों से निकालने को नही डँटते हो तबतक जीवन का दिया जगमगाता नही और ज्यों ज्यों तुम्हारी कमजोरियों को निकालकर तुम आगे बढ़ते हो त्यों त्यों गुरु तुम्हें तुम्हारे इर्द गिर्द विस्तृत मिलेंगे !

मैंने सुना किसी ग्रन्थ में कि कोई भूल हो जाती है तो प्रायश्चित करना पड़ता है । ग्लानि नही…हाय हाय ..पश्चाताप करके ग्लानि नही …लेकिन स्नान ,संध्या, प्राणायाम आदि करके जप अनुष्ठान करके उस पाप का निवारण किया जाता है। जहाँ जहाँ पे ग्लानि या खिन्नता या चित्त मलीन हो ऐसी जब घटनाएँ ,ऐसा वातावरण हो जैसे रस्ते पे जाते है कोई गंदी वस्तु दिखी, चित्त मलीन होता है, उस वक्त सुर्यनारायण का दर्शन , गुरु मंत्र का जाप ,भगवद दर्शन, अग्नि दर्शन ये उस रास्ते की ..कहीं केय पड़ी है, कहीं मरा ढोर का कुछ चमड़ा वमडा पड़ा है, कहीं कुछ पड़ा है गंदी वस्तु, तो चित्त तुम्हारा थोडा उद्विग्न होता है । तो उस वक्त उद्विग्नता का भाव तुम्हारे चित्त में आते ही तुम्हारी इन्द्रियों पर, तुम्हारे मन पर बुरा असर न पड़ जाय इसलिए वहाँ ऐसी स्मृति करनी पड़ती है देव की, गुरुमंत्र की । और जो प्रायश्चित है वो मंत्र जाप करनेसे प्रायश्चित हो जाता है , गुरुमंत्र का जाप करनेसे प्रायश्चित हो जाता है । लेकिन गुरुमंत्र के त्याग के पाप का कोई प्रायश्चित नही ! गुरुमंत्र के त्याग का प्रायश्चित  नही ऐसा मैंने कथा शास्त्र में सुना।

दूसरा-आत्म प्रशंसा

अपने व्यक्तित्व, अपने देहाध्यास की , अपने स्वरूप की प्रशंसा ..जैसे वशिष्ठ बोलते है – मैं समर्थ गुरु हूँ…हे रामजी शिष्य में जो सद्गुण चाहिए वो तुम्हारे में है और गुरु में जो अनुभूति चाहिए वो मेरे में है।

श्रीकृष्ण बोलते है सब कर्मों को छोड़ मेरे शरण आ जा ,मैं सब पापों से तुझे मुक्त कर दूँगा।

ये प्रशंसा वो क्षुद्र “मैं ” नही है , ये तो वास्तविक स्मृति है अपने स्वरूप की ! ये देह का चिंतन होकर नही बोला जा रहा है , अपने स्वरूप की स्मृति जग रही है ये अनुभूति बोली जा रही है !

हम जब बोलते है अहं ब्रम्हास्मि – मैं ब्रम्ह हूँ.. तो मैं अहं पर जोर है कि ब्रम्ह पर जोर है ? देह की अहं को लेकर बोलते है कि वास्तविक “मैं” को जानकर बोलते है?  वास्तविक “मैं” को जानना होगा तो भूत और भविष्य की धाराएँ जहाँ से बिखरती है आगे और पीछे उस वर्तमान में उस “मैं” को अपना स्वरूप मानकर “अहं ब्रम्हास्मि” होता है !

तो और पापों का तो प्रायश्चित है लेकिन गुरुमंत्र के त्याग का जो पाप है उसका प्रायश्चित नही है !

सुना है महाभारत का कोई प्रसंग …श्रीकृष्ण और अर्जुन कहीं चले गए थे अश्वथामा आदि  को पकड़ने के लिए कैसा भी कुछ निमित्त से और युधिष्ठिर महाराज को बड़ा श्रम पड़ा युद्ध में । अर्जुन के न होनेसे उनको खूब सहना पड़ा । संध्या हुई जब युद्ध बंद हुआ तो विश्रांती लेने के लिए खूब दूर रथ खड़ा कर दिया अपना एकांत में। अर्जुन और कृष्ण आए देखा कि नियत जगह पर रोज की जगह पर भाई का रथ नही, चिंतित हुए इधर उधर खूब निहारा तब दिखाई पड़ा और पहुँच गए । थके थे जरा खिन्नमना हो गए थे । तो युधिष्ठिर महाराज ने अर्जुन को देखकर ही अपना थोड़ा कोप – धिक्कार है  अर्जुन ! तेरे गांडीव धनुष को ..तेरे होते हुए इतना मेरे को इतना सहना पडे और इतना लाचारी की अवस्था गुजरना पड़े ..जैसे छोटा भाई कहीं जाए और देर करे और बड़ा भाई डाँट दे तो युधिष्ठिर ने डाँट दिया .. धिक्कार है तेरे गांडीव धारण को । महाराज, अर्जुन ने अपना बाण चलाया गांडीव धनुष्य पर। कृष्ण बोलते है कोई शत्रु तो है नही बाण किस लिए चलाता है?

बोले-जिस भाई को मैं पूजता आ रहा था, जिसको पिता तुल्य मान देता था,देव तुल्य निहारता था विवश होकर आज मुझे उनकी हत्या करनी पड़ेगी क्योंकि मैंने कसम उठाई थी कि मेरे गांडीव की कोई निंदा करेगा तो मैं उसका शिरच्छेद कर दूँगा, मेरा प्रण था !

कृष्ण कहते है कैसी बेवकूफी की बात करता है ! युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा भ्राता का तुम ?… 

अर्जुन-“हालाकि ये मेरे भाई है और मै नतमस्तक हूँ इनके आगे ..और ये गुण की खान हैं। ये तो मेरे भाई नहीं मेरे पिता हैं , माता हैं, देव हैं, सर्वस्व हैं लेकिन अब गांडीव धनुष की निंदा किये हैं अब और कोई उपाय बताइये ।”

कृष्ण ने कहा -“प्रतिष्ठित व्यक्ति, श्रेष्ठ व्यक्ति का अपमान भी उसकी मृत्यु है। युधिष्ठिर को तुम तु-कारक बात कर लो तो मानो तुमने उनकी हत्या कर ली ! “

अर्जुन ने कहा (युधिष्ठिर को) -” तेरे को बोला था हम जा रहे हैं अब तू धीरज नही धारा !”

कृष्ण ने कहा बस हो गया ! तूने भाई की मौत कर दी !

आदरणीय व्यक्ति का अनादर करना ये उसकी मौत कर दी। अर्जुन विषाद की खाई में गिरा । फिर उठाया बाण चढ़ाया धनुष पर, (कृष्ण) बोले – अब क्या है.. कौन तीसरा तो कोई दिखता नही ! युधिष्ठिर ही है अकेले आप हम है ..अब क्या ख्याल है ? इधर को लाना है ?

बोले- “नही “

अर्जुन-“जो छोटा भाई होकर बड़े भाई की हत्या कर दे, भ्राता हत्यारा उसको क्या दंड होना चाहिए ?

(कृष्ण)- उसको मृत्यु दंड होना चाहिए

तो मृत्यु दंड का प्रायश्चित्त वहाँ (मरने के बाद) जाकर करे और मरे.. वहाँ यमराज के वहाँ भोगे ?.. उससे मैं अपने आप का मृत्यु कर देता हूँ , मृत्यु दंड भोग लेता हूँ, अपने आप की हत्या कर देता हूँ , अपने आप को बाण लगा देता हूँ । “

कृष्ण ने फिर समझाया – जो भूत और भविष्य की कल्पनाओं में उलझते है …और वर्तमान में जो व्यक्ति जगे हैं, जगे हुए व्यक्तियों के लिए बड़ा श्रम पड़ता है कि अज्ञानियों के बीच उनको ज्ञान कराने में न जाने वो कहाँ कहाँ धक्केलेगा ! अर्जुन जैसा व्यक्ति जब कभी इधर जाता है तो कभी उधर जाता है ,कृष्ण पकड़कर मैदान में लाते है , वो फिर भविष्य में जाता है। पहले अर्जुन भूत में गया – मेरी शपथ..मेरे गांडीव का कोई अनादर करेगा उसका शिरोच्छेद करुँगा.. पहले की मेरी शपथ ..और फिर ..फिर मरने के बाद  प्रायश्चित करना पड़े ? अभी अपने को दे !

अज्ञान जबतक है तबतक आदमी वर्तमान में आने को ही..उसको टाइम ही नही मिलता बेचारे को !

ज्यों अपने को मारने को तत्पर हुआ त्यों फिर श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया, समझाया, डाँटा । तो बोले- नहीं कोई उपाय बताओ इस प्रायश्चित्त का !

बोले-अपनी प्रशंसा खुद कर ले..आत्म श्लाघा कर ले.. इसका कोई प्रायश्चित्त नही ! वो आत्महत्या का पाप ही लगता है !

मैं ऐसा मैं ऐसा,  मैं ऐसा….मैं ऐसा मैं ऐसा का देहाध्यास से जो मैंने ये किया, मैंने वो किया,मैं ऐसा हूँ ऐसा जो अहंकार है वो सचमुच में आत्महत्या कर देता है ! अपने आत्म भाव को जगाने पर तो पर्दे डाल देता है ! “मैंने ये किया” ..क्या किया? तो आप दो हाथ पैर वाले हो गए ! ..”मेरा ये है,मेरा वो है ,मैंने इतना किया,मैंने ये किया “..तो ये जब गहराई से आप सोचते है,बोलते है तो ये आत्महत्या करते हैं !

इसीलिए कृपानाथ जब ऐसा बोलने का मौका मिले, सोचने का अवसर आए तो उस समय तुम अपनी स्मृति भी याद रखना कि मैं मैं मैं ने अपने सोहं स्वरूप को तो जाना नही ..किया सब इसने !..इसने माना देह ने, इन्द्रियों ने, मन ने किया .. देह से बॉडी से हुआ, इन्द्रियों से हुआ ..मुझ चैतन्य में करना धरना नही ! सोहम् ! …आप आत्महत्या के पाप से बच जाएँगे ! आत्मश्लाघा के पाप से बच जाएँगे और आप सचमुच में निष्पाप होने लगेंगे ! जिसने अपने आत्मा की हत्या, अपने शुद्ध स्वरूप का अनादर किया ..रामतीर्थ बोलते है कि शास्त्रों में कईं प्रकार के पापों का वर्णन आता है कि ये पाप है तो उसका प्रायश्चित्त ये है । कोई मातृ हत्यारा है , कोई बिल्ली मार लिया ,किसीने  कुत्ता मार दिया, किसीने घोड़ा मार दिया किसीने गधा मार दिया किसीने कीड़ी मार दिया किसीने कुछ मार दिया या हत्या किया उनको तो हम पापी मानते है लेकिन जो अपनेआप चैतन्य परमात्म स्वरूप की स्मृति न करके वो ईश्वर हत्या करने का जिसने पाप किया उसने और कौनसा पाप नही किया ? अपने ईश्वरत्व भाव को जो मार बैठा है उसने और क्या नही मारा ?

और जिसने अपने ईश्वरत्व भाव को जगा दिया उसके द्वारा त्रिलोकी युद्ध में खत्म भी हो जाए तो उसे पाप नही लगता ! उस ज्ञानी को कोई पाप बाँध नही सकता ! और कोई पुण्य ऊपर नही उठा सकता वो ऐसी ऊँचाई को छू लेता है ! और ऐसी ऊँचाई कहीं स्वर्ग में या उधर नही है, ऐसी ऊँचाई यह है कि भूतकाल और भविष्यकाल में जो चिंतन की धारा जाती है वो निश्चिन्त तत्व से उठती है । निश्चिन्त तत्व की स्मृति करना और भूत और भविष्य का प्रभाव अपने ऊपर से हटाना समझ लो कि सब साधनाओं का मूल पाना है ! सारी सफलताओं का मूल पाना है ! केवल ये नुख्सा भी आ जाए और आजमाएँ तो काम बन जाए !  हम माला करते है कभी भी देखो कि या तो भूत पर है ..आशा किये है कि माला करेंगे अनुष्ठान सिद्ध होंगे कोई आएगा !..होता है न ? कुछ धड़ाखा- भड़ाखा होगा , कुछ होगा !.. नही ! कुछ होनेवाला नही है और जो होगा वो होकर खत्म हो जाएगा ! माला भी करे तो स्मृति जगाने के लिए ! वर्तमान में टिकने के लिए माला हो जाए !तो बेड़ा पार हो जाएगा !

मैंने कहा था कल कि कोई कपड़े ऐसे होते है कि जिनको खूब सोडा, खार, साबुन और धमाधम की जरूरत होती है। कोई वस्त्र तो ऐसे कि पानी मे से डुबोकर निकाल दो बस ! जैसे शुद्ध वस्त्र है ,रात भर सोए है..चलो तमस के परमाणु हैं , दौड़ के सुखा दो हो गया ठीक ! ऐसे ही थोड़ा बहुत जिनको अज्ञान है , थोडा  बहुत ये है उनको तो जरा सा गुरु कृपा और जरासा उपदेश दो और पार हो जाते है! उत्तम प्रकार का जो शिष्य है, जिज्ञासु है वो तो उपदेश मात्र से तर जाता है ! उपदेश मात्र से जग जाता है ! मध्यम प्रकार का है.. वो मनन और निदिध्यासन से..जो उपदेश सुना है उसका बार बार मनन करे और मनन में से तन्मय होता जाए ..निदिध्यासन..तो वो आनंद, वो शांति उसकी प्रगट होगी और प्रगाढ़ होगी तो साक्षात्कार हो जाएगा ! और जो कनिष्ठ है  वो तर्क वितर्क करके भी उपासनाएँ वुपासनाएँ करके और शम दम करके और फिर कहीं कभी जगता है ।

सनातन धर्म में, सनातन साहित्य में वेदांत फिलोसोफी ये आखिरी है ! और सब अपनी अपनी जगह पर कर्मकांड देवी-देवता ये सब ठीक है लेकिन हृदयस्थ के देव को जो जानने की विद्या है वो वेदांत विद्या है ! दूसरे मजहब और मत पंथों में प्रश्न उत्तर को स्वीकार नही ! क्यों?..कि शिष्य प्रश्न करे उत्तर देने की …बौद्धिक क्षमता की कसौटी पर  दूसरे जो ग्रन्थ बने है धार्मिक , बौद्धिक कसौटी की क्षमता पर वो नही उतर सकते लेकिन वेदांत ये कहता है कि शिष्य को अधिकार देता है ..

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ..

शिष्य का अगर महत्वपूर्ण अधिकार है साधक का तो वेदांत जगत में है !…बाकी तो तुम मान लो …खुदा है ..तुम मान लो !…वैकुंठ में भगवान बैठे है तुम मान लो !…सातवे अरब पर खुदा बैठे है ..अरे जरा तो ख्याल करो सातवे अरब पर बेचारे को ठंडी नही लग जाएगी ?  अब तो उसको उतारो अपने हृदय में जगाओ यार ! और अपना जो अहम है उसको सातवें अरब में भेज दो ! तुम ऐसा करो ऐसा करो इतना दान पुण्य इतना नमाज वमाज पढ़ो ,इतने अच्छे आदमी हो जाओ तुम्हें बिस्त मिलेगा ! उसमें में संदेह ना करो , मान लो ! बिस्त में क्या है कि हूरे  हैं, शराब के चश्मे है ..मान लो !..अब शराब के चश्मे उधर ? जय जय !

तो ये उपासनाएँ तो मान्यता से चल जाती है ..अभी थोड़ा संयम कर लिया..ये दुकानदारी है !….अभी इतना इतना दे दो फिर इतना इतना इतना सारा मिल जाएगा ! वेदांत दुकानदारी को नही मानता ! स्वार्थी जीवन की…स्वार्थ की बात नही ..प्रलोभन की बात नही !..वो तो तुम्हें जगा देता है कि तुम अपनी महिमा को जान लो ,तुम अपनी मैं को जान लो ! जो यह है उसको यह रहने दो और “मैं” को ठीक से जान लो !  शरीर “मैं” में आ जाता है गलती से..हकीकत में “यह” है। मेरा हाथ ..तो “मैं” हाथ नही हुआ । यह बाल है । यह क्या है ? बोले मैं हूँ..नही, ये बाल है। तो यह क्या है ? कि ये नाक है। तो यह क्या है ? कि ये हाथ है। तो यह क्या है ? ये पैर है।

ये क्या है ? कि ये पेट है ।यह क्या है ? कि यह कमर है। तो “यह” हो गया कि नही ? यह कमर है ! …फिर संकल्प विकल्प होते है …वो क्या है ? ये क्या है ? कि ये मन है ..मेरा मन ..तो मैं मन नही..मेरा मन..मेरा मन खिन्न है …मेरे मन में ये चिंता हो गई  …अरे मेरे मन में ये चिंता हो गई ऐसा जानकर ही तू निश्चिंत हो जा यार अभी चुटका बजा ले!

मुझे प्रॉब्लम हो गया ..तुझे कभी कोई प्रॉब्लेम छू नही सकता ! जब प्रॉब्लम होता है तो तेरे भूत और भविष्य के चिंतन में ही प्रॉब्लम होता है ! और आप नही चाहते तभी भी ये चिंतन होता रहता है ।क्योंकि आदत पुरानी है और मन का स्वभाव भी है ! तो चिंतन होता रहता है इसलिए चिंतन में धाराएँ बढ़ जाती है तो स्मृति नही जगती !

योग, शास्त्र, प्राणायाम आदि ध्यान आदि कराके पूर्व और भूत और भविष्य के चिंतन से हटाकर वर्तमान में ठहराता है। कर्मकांड मलीन चिंतन और मलीन क्रिया से बचाकर फिर सात्विक में लगाता है। धर्म तुम्हारी वृत्ति को सात्विक बनाता है।उपासना तुम्हारी वृत्ति को सात्विक बनाती है। लेकिन जो वेदांत ज्ञान है वो तुम्हारी वृत्ति को उद्गम स्थान का बोध कराके तुम्हें वृत्ति के पार अपने स्वरूप में जगा देता है। इसीलिए

शावक गर्जन्ति शस्त्राणि जम्बुका विपनेय

न गर्जन्ति महाशक्ति वेदांते ????

बाकी के सियार और पशु, वन प्राणी तबतक जोर मारते है वट दिखाते है जबतक कि सिंह नही गरजा और सिंह की गर्जना होते ही सब पूँछ दबा के    कहाँ चले गए पता नही ! ऐसे ही जीवन में आत्मज्ञान के विचार आने के बाद सारे इधर उधर के विचार कहाँ चले गए, आकर्षण और दबाव कहीं पता नही चला ! इसीलिए जीवन में शेर के विचार लाओ, वेदांतिक विचार लाओ । जब भूतकाल की चिंतन धारा हो ,भविष्य की चिंतन धारा हो .. वर्तमान में क्या है ? अभी तो यार मजे से बैठ कल की बात कल ! आनेवाले कल की बात आनेवाले कल पर !

तो उसका मतलब ये नही कि तुम्हारा व्यवहार, व्यवहार उच्छलंक कर दो बसआलसी हो जाओ.. नहीं… तुम अपने चित्त को वर्तमान में डंटाए रखो और बाकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होगी। एक बात और ध्यान देने योग्य है। तुम्हारे काम में वर्तमान की व्यक्तियाँ आती है। तुम्हारे काम में वर्तमान की वस्तुएँ आती है । न भविष्य की वस्तु तुम्हारे काम में अभी आती है ..न भविष्य में होनेवाले व्यक्तियों के..और अपने पुत्र परिवार वाले । भविष्य में होनेवाले भी तुम्हारे काम में नहीं आते और भविष्यवाले भी तुम्हारे काम नहीं आते और भूतवाले भी तुम्हारे अभी काम में नहीं आते । तो जब-जब तुम्हें काम लेना होता है तुम्हारे काम हमेशा वर्तमान की वस्तुएँ आती हैं, वर्तमान के व्यक्ति आते हैं, वर्तमान के ही साधन तुम्हारे काम आते हैं कि भूतकाल के आते है ? नही ! अभी जो तुम्हारे पास है वोही तो काम आएँगे ! भविष्य में जो बनेंगे वो अभी तो काम नहीं आएँगे । तो हमेशा आपको काम तो वर्तमान की वस्तुयें आती हैं, काम तो वर्तमान के व्यक्ति आते हैं , काम तो वर्तमान ही आता है। उसके बिना तो काम चल नही सकता, तो जो वर्तमान में तुम्हारे काम आता है उसका तुम सदुपयोग करो तो भविष्य का टेंशन … क्या करें लड़की बड़ी है इसीलिए टेंशन करना पड़ता है.. लड़की सोचती है मेरी उम्र हो गयी इसलिए टेंशन.. अच्छा टेंशन से अगर काम बन जाता तो सारे टेंशनवाले आदमी आपके काम के हो जाते ! नही ..वर्तमान में जो ठीक है उसकी सूझ बूझ ठीक होती है तो उसका भविष्य भी आता है तो वर्तमान होके आता है ।भविष्य भी आएगा..कल जो आएगा वो भी आज होके आएगा न ! आज शनि है कल रवि है, लेकिन रवि को जब होंगे तो वो रवि कल रहेगा क्या ? रवि भी आज होकर आएगा।तो आज होके जो आना है उसको आज में जीने की कला सीख ले !ऐसे ही ध्यान भजन में बैठते है न तो ये मिलेगा ये होगा,ये करूँगा,ये किया है ऐसे विचार उठे तो अगड़म दगड़म स्वाहा ! ऐसा किया, आप फिर ठहर जाएँगे वर्तमान में ठहरेंगे लेकिन टिकेंगे नही ,आदत है ! फिर इधर उधर आ जाए ..इसका थोडा सा बारीकी से आप विचार करेंगे अनुसंधान करेंगे न तो आपकी वो जो गैप है धारा थोडी बढ़ जाएगी ! एक संकल्प उठा दूसरा उठने को है उसके बीच की जगह बढ़ जायेगी वो बढ जाना ही परमात्मा में स्थित होना है ! और वो अगर 3 मिनट रह जाए तो महाराज निर्विकल्प समाधि हो जाएगी ! केवल 3 मिनट, खाली 3 मिनट ! साक्षात्कार हो जाएगा ! जो ईश्वर का अनुभव है वो तुम्हारा अनुभव हो जाएगा , जो कबीर का अनुभव वो तुम्हारा अनुभव जो समर्थ रामदास का अनुभव वो तुम्हारा अनुभव ! जितने ज्यादा उसमें टिके उतना सामर्थ्य बढ़ जाएगा !

 

श्वासोश्वास की साधना


मन के शिष्य इतना शांति नही रख सकते, मन के गुलाम इतने संयमी नही हो सकते, इतनी संख्या मन के गुलामों की हो तो क्या-क्या हो जाए?  ये तो गुरुभक्तों का परिचय है। अभी थोडा परिचय और देना। जो नए-नए है, वो पुराने साधकों से प्राणायाम की विधि सीख ले और घर में ये दस प्रणायाम करके फिर श्वास अंदर गया “ॐ” बाहर आया तो गिनती। और भी पुराने साधक है तो श्वास अंदर गया तो “सोह” सोह माना वह चैतन्य जिसकी शक्ति से हाथ उठता है, जिसकी शक्ति से मन सोचता है, जिसकी कभी मौत नही होती। वह चैतन्य “सोह”। श्वास बाहर आया तो “हम”, वो मैं हूँ, बस ! साक्षात्कार का एकदम सीधा रास्ता है, फिर उसके लिए ज्यादा समय नही लगता ईश्वर प्राप्ति का, फिर उसको दुःख नही दबा सकता है, उसको संसार की चिंता नही दबा सकती है, उसके ऊपर ग्रह-नक्षत्र बाहर का प्रभाव नही पड़ सकता है। जैसे भगवान नारायण निर्लिप्त है ऐसे वो निर्लिप्त नारायण का स्वरूप बन जाएगा। उसको बोलते है अपर ईश्वर। वो ईश्वर चतुर्भुजी चार हाथ नही है अथवा शंभ सदाशिव जैसा डमरू और ये नही है, फिर भी शिवजी जिसमें टिके है, भगवान नारायण जिसमें टिके है वो सच्चा शिष्य गुरु का उसी पद में टिक जाता है। ऐसे महापुरुष के लिए अष्टावक्र संहिता में लिखा है –

“तस्य तुलना केन जायते ।।“ ऐसे आत्मरामी सोहं स्वरूप में टिके हुए पुरुष की तुलना कौन कर सकता है?

“तस्य तुलना केन जायते ।।“  किससे तुलना करोगे?

“धीरो न द्वेष्टि संसारं।।“ फिर वो संसार की किसी परिस्थिति से द्वेष नही करता।

”आत्मानं न दिक्षति।।“ फिर वो आत्मा परमात्मा को चाहता नही है, परमात्मा जिससे परमात्मा है उसी आत्मा का ज्ञान तो उसको हो गया है।

“आत्मानं न दिक्षति।।“ “हर्षम अंहर्ष।।“

हर्ष के समय हर्षित भी होगा, नाराज के समय नाराज भी होगा। फिर भी एक ऐसी सोहम की अनुभूति में डटा रहेगा कि देखेगा कि ये व्यवहार चलाने के लिए मन कर रहा है, मैं उससे न्यारा हूँ। मौत भी आ जाए तो समझेगा कि ये मेरी मौत नही हो रही है, ये जन्म जिसका हुआ वो शरीर मर रहा है, मैं शरीर के पहले था, अब भी हूँ और बाद में रहूँगा। दुःख के पहले भी मैं सोहम साक्षी था, दुःख के समय भी वो दुःखी नही होगा, दुःख का भी साक्षी हो जाएगा। वाहवाही के समय, वो वाहवाही में फूलेगा नही, वाहवाही का भी साक्षी हो जाएगा। तो दुःख, सुख, मान, अपमान सब उसके आगे छोटे हो जाएँगे। वह सबसे ऊँचे अनुभव में विराजेगा।

हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति॥

मरते समय वो अपनी मौत नही मानता है। और शरीर के जीने से अपना जीवन नही मानता है। ये तो अज्ञानता से निगुरे लोग मानते है कि शरीर का जीवन को अपना जीवन मानते है। शरीर के रोग को अपना रोग मानते है। निगुरे लोग, मन के दुःख को अपना दुःख मानते है निगुरे लोग। निगुरे है ! क़ईयों को गुरु मिलते है तो गुरु भी, अब जैसे शिक्षक तो मिले लेकिन वो तीसरी क्लास, पाँचवी क्लास  अथवा मैट्रिक पास वाला शिक्षक मिला तो विद्यार्थी  भी उतना ही जाएगा। ऐसे ही आध्यात्मिकता में भी कईं कर्मकांडी  गुरु होते है, कई देवी के उपासक होते है, कई कृष्ण के उपासक होते है, कई किसी के उपासक होते है, तो गुरुओं की भी अपनी-अपनी स्थिति होती है, चेला वही तक पहुँचेगा। कोई-कोई करोडो में कोई-कोई आत्मसाक्षात्कारी गुरु होता है जैसे श्रीकृष्ण थे, आत्मसाक्षात्कारी थे, श्रीराम थे तो

आत्मसाक्षात्कारी थे, अष्टाकवक्र आत्मसाक्षात्कारी थे। “मनुष्याणां सहस्रेषु ।।“ हजारों मनुष्यो में कोई ईश्वर के रास्ते ठीक से चलते है। बाकी तो अपना मनमाना चिल्लाते रहते है, जैसा मन में आया ऐसे ही करते रहते है।

“मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।।“

हजार लोग श्रद्धा रखते है उसमें भी कोई विरला ठीक से सिद्धि की तरफ चलता है।

“यततामपि सिद्धानां।।“

ऐसे सिद्धि की तरफ, सिद्धि माना हृदय की शुद्धि, जो संकल्प होवे वह होने लग जाए, ऐसी ऊँची अवस्था आने लगती है। तुम्हारे में भी कई साधकों की ऐसी स्थिति हो जाती है, लेकिन फिर खानपान हल्का खा लेते है, जिस किसी से हाथ मिला लेते है, जिस किसी से, फिर साधना को नष्ट कर लेते है। तो कोई-कोई सिद्धि को प्राप्त होता है और सिद्धि में भी कोई-कोई विरला तत्व को प्राप्त होता है। तो फिर उसको अनुभव होगा कि “मैं ये शरीर नही हूँ”। और मैं हृदय में रहनेवाला एक जरा सा आत्मा नही हूँ, वही चैतन्य जो हृदय में है वही बाहर है। और फिर बाहर-भीतर का भेद भी मिट जाता है, व्यापक ब्रह्म वहाँ वाणी नही जाती, ऐसी स्थिति में कोई-कोई विरला संत पहुँचता है। ऐसा संत अगर गुरु रूप में मिल जाए तो साधकों को कितना ऊँचा लाभ होगा। मेरे को ऐसे गुरु मिल गए इसीलिए मेरे को लाभ जोरदार,  नही तो तीन साल की उमर में चमत्कार होने लगे थे। मेरी दस साल की उमर थी तो रिद्धि-सिद्धियों के खेल हुए।  फिर बाईस साल की उमर तक घर में जो भी साधना उपासना करते थे, कभी काली माँ आ गई ऐसा डर लगता था तो रजाई तान लेते थे, हनुमानजी की उपासना की तो हुप-हुप   के पेड़ पर चढ़ जाते पत्ते खाने  का भाव आवेश हो जाता।  ये सब हुआ। तो दूसरों की नजर से तो लगता था कि अपने को   बहुत है, लेकिन जब गुरुजी मिले तब पता चला कि राम राम ! जब गुरुजी की कृपा मिली और उपदेश मिला और थोड़ा उसी अनुसार सोहमस्वरूप में जग गए तो लगा कि ओहो ! अब भगवान विष्णु, भगवान ब्रह्मा, भगवान शिव और दूसरे सब भगवान आ जाए तो भी मेरे को कोई लाभ नही। और नही आते तो कोई हानि नही। वे भगवान जिससे भगवान है वही आत्मा मेरा ब्रह्म है। तो उदालक को ये साक्षात्कार हुआ था। तो उदालक राजकुमार थे। उनका  राजतिलक होनेवाला था लेकिन पिताजी तिलक करके मेरे को राज्य देंगे, फिर मैं राजकाज में लगा रहूँगा। अभी पिता राजकाज का बोझा छोड़ के एकांत में ईश्वरप्राप्ति के लिए जा रहे है। अब बुढ़ापे में ईश्वर मिले ना मिले, ईश्वर प्राप्त करानेवाले बढ़िया गुरु मिले ना मिले, तो पिताजी मेरे को राज्य दे जाएँगे। इसके पहले, मैं राजकाज में पडूँ, इसके पहले मैं अपने आत्मा-परमात्मा को पा लूँ । तो उदालक रातो-रात राजतिलक होने से पहले चुपचाप रात को भाग गए घर से, दौड़ते, दौड़ते,  दौड़ते सीमाओं को पार करते-करते, जहाँ सुबह होती वहाँ गिरी गुंफा में कहीं छुप जाते, घुड़सवार कहीं खोज ना ले, रात होती तो चलते-दौड़ते । इस प्रकार एकांत में किसी गुंफा में उदालक घासफूस का आसन लगाया, कंदमूल ले आए, जलवल का व्यवस्था किया और अपने मन को समझाने लगे। तूने आँख से जुड़कर कितना भी संसार देखा, संसार नश्वर है, अब जिससे आँख देखती है उस परमात्मा में तू शांत हो जा, कान से मिलकर तूने कितना कुछ सुना, अब जिससे सुना जाता है उस सोहमस्वरूप में शांत हो जा, जीभ से मिलकर कितना-कितना खाया और ये लूली लटकाकर आखिर में जल जाएगी। ऐसे ही कामविकार के इन्द्रिय से मिलकर तू सुखी होने के लिए भटका लेकिन क्या सुख मिला? बंधन ही मिले। कामविकार ! तो बकरा एक दिन में चालीस बकरियों के साथ काला मुँह करता है। तो कामी बनने से तो तेरा सत्यानाश होगा। मन ! अब मैं तेरे कहने में नही चलूँगा, अब मैं तो ज्ञान के आश्रय से, गुरुओं के उपदेश से, अपने आत्मस्वरूप में आता हूँ। ऐसे करके सोहम की उपासना, कभी कीर्तन, कभी शांत, फिर भी मन भाग जावे। पिताजी ढूँढते होंगे, घुड़सवार कहाँ पहुँचे होंगे? अरे ! ये तो सब मन की वृत्ति है। जगत तो अत्यंत तुच्छ है, इस तुच्छ जगत का चिंतन करके तुच्छ क्यों बनता है? हरि ॐ ततसत और सब गपसप। मन शांत होवे। फिर मन कभी सुन्न हो जाए तो ॐ ॐ ॐ करके मन को चेताये, फिर मन में थोड़ा हर्ष आनंद आए। ऐसे करते-करते उदालक का ध्यान यहाँ लगने लगा। कभी प्रकाश दिखे, कभी नीला वर्ण दिखे, कभी जीभ तालू में लगे, कभी हँसी आए। इस प्रकार के अनुभव होने लगे। जब साधना बढ़ गई तो एक बार मन्त्र बोले तो उसका सौ गुना हो जाए  और उस मंत्र के अर्थ में शांत हो जावे। तो जितना आदमी शांत होता है, मंत्र करके उतनी उसकी शक्ति बढ़ती है।  अशांतस्य कुतह सुखम। अशांत को सुख कहाँ और शांत आदमी को दुःख कहाँ? फिर उदालक को आनंद आने लगा और फिर तो एक घण्टा, दो घण्टा बीत जाए। शांतआत्मा, निःसंकल्प। जब ऐसी स्थिति हुई तो अप्सराएँ आई, गन्धर्व आए और उदालक की प्रशंसा करने लगे। स्वर्ग के देवता आए। “उदालक! आज तो तुम धनभागी हो गए हो, तुमको स्वर्ग का विचरण करना हो तो भी आ सकते हो। तुम आत्मा-परमात्मा में शांत  होकर शांतमना हो गए। तुम्हारे दर्शन से हमारे पुण्य बढ़ रहे है, उदालक आपका स्वागत हो !” उदालक ने देखा कि ये स्वागत में क्यों फँसना? निंदा में क्यों फँसना? ये स्वागत भी मरनेवाले शरीर का, निंदा भी मरनेवाले शरीर की । शरीर से पहले जो था, शरीर के बाद जो रहता है, वह मैं आत्मा में परमात्मा में विश्रांती पाए। वो जैसे आए, उदालक की सराहना करनेवाले यक्ष, गंधर्व, किन्नर, देवता वैसे ही करकरा  के चले गए, उदालक अपनी मस्ती में ज्यों के त्यों। ऐसे करते-करते भगवान ब्रह्माजी प्रगट हुए कि आज जीव तू ईश्वर रूप हुआ। हम भगवान जिससे भगवान है उस आत्मा में तूने स्थिति पाई। भगवान विष्णु प्रगट हुए, भगवान शिव प्रगट हुए। उदालक ने अपना शरीर पंचभौतिक है और वो दिव्य शरीर है इस हिसाब से उनका स्वागत किया, पूजन किया तब ब्रह्मा, विष्णु, महेश आपस मे प्रसन्न होकर कहे कि आज ये जीव हमारा रूप बन गया है। आज इन्होंने अपनेआप को जान लिया है, अपने स्वभाव को जान लिया है। “स्व” “भाव” ! लोग मन के स्वभाव को बोलते है मेरा स्वभाव बिगड़ा है, नही नही ! मन का स्वभाव बिगडता है, अपना स्वभाव तो शंकरस्वरूप सहज संभारा , लागे समाधि अखंड अपारा ।।

आत्मा तो नित्य है। आत्मा को कोई बिगाड़ नही सकता। बिगाड़ता है तो मन, ज्यों-ज्यों संसार की इच्छा करता है, संसार का चिंतन करता है, त्यों-त्यों मन हल्का हो जाता है और जो संसार के चिंतन में भी अपने साक्षीस्वरूप का चिंतन करता है, त्यों-त्यों मन उन्नत होता है और ज्यों-ज्यों  साक्षी स्वभाव में शांत होता है, त्यों-त्यों मन अमानी हो जाता है और ब्रह्म बन जाता है। जैसे वाष्प है, पानी है और बर्फ है, तो बर्फ पराधीन हो जाती है, उसको कोई उठाए तब चले क्योंकि जड़ हो गई। पानी थोड़ा स्वाधीन है, लेकिन वाष्प तो और भी स्वाधीन है। ऐसे ही मन ज्यों-ज्यों संसार का चिंतन करता है, त्यों-त्यों स्थूल हो जाता है। और ज्यों साधना करता है, त्यों-त्यों सूक्ष्म हो जाता है और साधना में टिकता है तो सूक्ष्मतम हो जाता है, नारायण स्वरूप हो गया। पचास साल नही हुए “पचास वर्ष थई गया पच्ची पोताणु हाथ संसार ना व्यवहार मा था धीरे धीरे खीँच लहे” साधना में ही ज्यादा समय लगाना चाहिए। संसार ने किसी को सुख नही दिया। संसार भले-भलों को रुला देता है। भगवान रामजी के पिताजी थे, उनको भी संसार ने पूरा सुख नही दिया और जितना भी सुख मिलेगा या तो नाक से मजा आएगा परफ्यूम  या जीभ से मजा आएगा या तो काम इन्द्रिय से आएगा। इन मजा में तो सजा ही छुपी है। अपनी शक्ति का ह्रास होता है।

जप करते-करते जब ध्यान में जाते है, ब्रह्मस्वरूप आत्मा में स्थिति होने लगती है और प्रभात काल बहुत अच्छा होता है। सुबह का शांत वातावरण बहुत सुखदाई होता है और उस शांत वातावरण में श्वासोश्वास की गिनती। अपनी तरफ से श्वास खेंचे नही, श्वास चल रहा है, आँख खुली रखे, नाक के आगे हिस्से पर नजर रखे, श्वास अंदर गया तो “सोह”, सोह माना वह चैतन्य जिसमें उदालक टिके थे, जिसमे शिवजी टिके है, जिसमें भगवान नारायण टिके है, जिसमें ज्ञानवान टिकते है, वह “सोह” श्वास अंदर गया तो “सोह” बाहर आया तो “हम” “सोहम”, तो बुद्धि के अनुकूल होता है, तो बुद्धि में जिसका प्रतिबिंब पड़ने से आनंद आता है वो मैं हूँ। मन के अनुकूल होता है तो मन में जिसकी झलक पड़ती है वो मैं हूँ, झलक को देखनेवाला मैं हूँ, मैं चैतन्य हूँ, मैं अमर हूँ। जिसकी सत्ता से आँख देखती है, जिसकी शक्ति से हाथ उठता है वह मैं हूँ चैतन्य हूँ। हाथ को पता नही ये हाथ है लेकिन मुझ चैतन्य को पता है कि ये हाथ है। मन को पता नही मैं मन हूँ लेकिन मैं जानता हूँ मेरा मन दुःखी है, मेरा मन सुखी है।

सोहम, इससे आखरी सिद्धि मिल जाती है आत्मा परमात्मा को।

प्राणायाम करके हम थोड़ा ध्यान करते थे फिर चलते थे, तो थोड़ा यूँ  चले तो आकाश में उड़ने की सिद्धि आ गई ऐसा लगता था, लेकिन फिर वो छोड़ दिया हमने। आकाश में तो पक्षी भी उड़ते है, उड़ने की सिद्धि मिल गयी तो क्या है? पानी में चलने की सिद्धि आ जाती है। लेकिन वो तो मछलियाँ भी चल रही है। वो सिद्धि जहाँ से पैदा होती है उस आत्मा “सोहम” में जगो। ऐसे यूँ करके कोई चीज वस्तू निकाल के दे देवे, ऐसे लोग भी है। अच्छा है अपनी-अपनी जगह पर लेकिन आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार के आगे वो सब कुछ भी नही है।

एक ऐसा संन्यासी साधू था। कुछ वर्ष पहले की बात है, तो कोई भी आए, तो उसको यूँ करके वस्तू निकाल के दे दे, तो वो खुश हो जाते, प्रभावित हो जाते, तो कोई खास भगत हो तो वो जो माँगे तो वो चीज उसको दे देते थे। कोई तांत्रिक थे, अच्छे। अखंडानंद सरस्वती नौ सन्यासियों को लेकर, दसवे वह गए, रात को कि आज ऐसी चीज माँगे कि वो अपने प्रेत से मंगा के देने में समर्थ न हो, तो रात को दस बजे संत लोग गए। बोले हम तुम्हारे अतिथि है महाराज !

बोले – भोजन-वोजन किया है?

बोले – भोजन किया नही है। तुम्हारे यहाँ ही भोजन करेंगे आप मनचाहा भोजन करा देंगे न?

तो बोले – क्या खाना है बोलो?

बोले – मालपुए खाने है।

अब सोचा की दस आदमी के रात को मालपुए कहाँ से मँगा के देखे प्रेत से।

बोले – दस बजे रात को मालपुए ? वाह साधू लोग ! ठीक है !

बातों में रखा और जो कुछ उसको संकल्प करना था अपना विधि करना था मन से किया, जैसा भी, थोड़ी देर में उसने यूँ हाथ हिलाया तो उसके हाथ में एक तगारी (तसला)  और दस आदमी खाए उतने मालपुए ! तो अखंडानंद सरस्वती बोलते है कि हमने वो मालपुए खाए, भूख भी मिटी, स्वाद भी आया, रात को नींद भी अच्छी आई। फिर सुबह लोटा लेके मालपुए खाली करने को गए। आप समझ गए न। लोटा लेके, मालपुए खाली, ऐसा कोई चीज नही जो मिली और खाली न करनी पड़े, छोड़नी न पड़े। बचपन मिला तो छोड़ना पड़ा, जवानी मिली वो भी चली गई खाली हो गई, बुढापा आता है वो भी चला जाता है, मौत आती है वो भी चली जाती है। लेकिन सदा रहता है अपना सोहम स्वभाव। उसको छोड़ के जो भी मिलेगा वो सब माया का खेल है। तो जब लोटा लेके मालपुआ खाली करने गए, मतलब डबल गए, अब तो समझ गए न, लैट्रिन गए जंगल में, तो हरिजनों की बस्ती में माईयाँ लड़ रही थी। एक माई बोलती है कि “रांड ! दस आदमी खाए उतने मालपुए, मैं बरातियों के यहाँ से उठा लाई थी। पत्तल-वत्तल में से कैसे भी और मैंने संभाल के घर में रखे, अब तसला भी नही और मालपुए भी नही। रांड! तू ही ले गई होगी !”

बोली- “मुझे अपने बेटे की सौगंध है जो मालपुए ले गई हूँ”

तो बोली – तो क्या भूत ले गए क्या? तू नही गई तो दूसरा पड़ोस में कौन है? बाहर के चोर आके थोड़े ही मालपुए की जगह खोज लेंगे और ले जाएँगे! तू ही ले गई होगी रांड ! सच बता ?

उसने बोला मेरे बेटे की कसम है मैंने तेरे मालपुए देखे ही नही !

“क्या बेटे की कसम है? रांड ! तेरे को कीड़े पड़ेंगे। ऐसा होगा…”

वो माईयाँ अपनी-अपनी भाषा मे। अखंडानंद लिखते है कि हमको बड़ी ग्लानि हुई कि धत तेरे की ! ये ही वो प्रेत, इनका साधा हुआ प्रेत वो मालपुए उठा के लाया, हमने खाए। अब मालपुए तो खाली कर दिए, लोटे गए, मालपुए तो खाली हो गए लेकिन ग्लानि खाली नही हुई कि धत तेरे की!

ऐसे ही कहीं अंगूठियाँ  बनवा के रख दी, कहीं कुछ रख दिया, कंकू की डिबिया रख दिया अपने निवास के पास में और वो फिर कोई भगत आया तो मन में बोला कि तू ये ले आ वो ले आ, प्रेत दिखता नही सूक्ष्म शरीर होता है उनका, वो ला के अपने हाथ मे रख देता है तो अपने यूँ करके दे दिया तो सामनेवाला बड़ा प्रभावित हो जाता है कि गुरुजी ने ये दे दिया, गुरुजी ने ये दे दिया, लेकिन इसमें कोई एक प्रकार की विद्या है। इससे सामनेवाले की आत्मा का उद्धार तो नही होगा न, वो इम्प्रेस हो गया।

ज्ञान के शिखर पर


 

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । 

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥

 

गीता के सातवें अध्याय का यह आठवां श्लोक है । यहाँ कहते है श्रीकृष्ण जी कि हे अर्जुन मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ,  आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ  ।

यह विश्व सब है आत्मा ही, इस भाँति‍ से जो जानता
यश वेद उसका गा रहे, प्रारब्धवश वह बर्तता 
ऐसे विवेकी सन्त को, निषेध है विधान है
सुख दुःख दोनों एक से, सब हानि लाभ समान है ।

 

रसोऽहमप्सु  कौन्तेय. . .

अप माना जल. . जल में जो रस है वह रस परमात्मा है । विज्ञान की दृष्टि से जल को खोजोगे तो हायड्रोजन और ऑक्सिजन दो गैस मिलेंगे । दो गैस से रस पैदा नहीं  होता विज्ञान बाहर की आँखों से देखना चाहता है और विज्ञान की आँख से जो दिखेगा वो दृश्य दिखेगा । दृश्य के भीतर जो अदृश्य रस है वो विज्ञान की आँख से नहीं  दिखता । जैसे इस आँखों से फूल दिखा गुलाब का फूल दिख रहा है,  तो इस गुलाब के फूल को देखा तुमने कहा कि “वाह वाह !बड़ा सुंदर है!”कोई तार्किक, कोई वैज्ञानिक “आहा!बड़ा सुंदर है!” कहा है सुंदरता? हाँ बोलोगे ये गुलाबी है. . .  गुलाबी है तो  है इसमें. . . बड़ा रस आया देखने में जरा   तो रस तो भीतर आएगा ! तो, भीतर रस कहाँ आता है ये  बाह्य साधनों से नहीं  देखा जाता । भीतर का रस जो है वो भीतर बहुत अत्यंत सूक्ष्म गहरे जो लोग जाते है उनको पता चलता है । जैसे कोई एक मित्र दूसरे मित्र से मिले . . मिले, बिछड़े हुए साथी थे, दोस्त थे, मिले. .  एक पहले क्षण एक दूसरे का हाथ हाथ में आ गया बड़ा आनंद आया और प्रथम मित्र ने दूसरे मित्र का हाथ पकड़ के अपने गले लगा दिया उसका हाथ प्रेम में आके . . बड़ा रस हुआ, बड़ा रस टपका, बड़ा आनंद आया । अब आप देखते है कि हाथ ले जाओ लेबोरेटरी में चमड़ा,  हड्डी, माँस,  रगें होंगी । लेबोरेटरी में जाँच करो तो भाई इनमें रस कैसे आया? हाथ हाथ से मिला और रस आया और गले लगा दिया हाथ को गले पे लगा दिया ऐसे एकदम प्रेम में आके लगा देते है हृदय से गले से  । तो इसमें क्या कौनसी चीज है जो एक दूसरे को रस आया?   और हाथ हाथ में मिलता है तो कहते रहेंगे कि “यार, हम तो जन्म जन्म के साथी है, तुम तो जन्म जन्म के मित्र बने रहो” आदि आदि ।
जो सूक्ष्म है वह इन्द्रियों का विषय नहीं  है । जो वास्तविक में रस है वो कर्णों  का विषय नहीं  है । विज्ञान इन इन्द्रियों को जो जैसा दिखता है ऐसे का निर्णय करता है और वेदांत और योगदर्शन- आध्यात्मिक विज्ञान ये इन्द्रियाँ जिससे देखती है वह मन और मन को जो सत्ता देता है वो चित्त और चित्त को जो चेतना देता है उसकी तरफ इशारा है ।
श्रीकृष्ण कहते हैं जल में रस मैं हूँ. . . अब जल में जो रस है, वैसे विज्ञान की तरफ से हम खोजेंगे तो जल में तो दो गैसेस है. . जल कहीं खारा होता है, कहीं कड़वा होता है, कहीं मीठा होता है. . कहीं… वोही जल एक प्रकार का हम पीते है तो हमारे अंदर भी  अपने स्वाद के होंगे . . पसीना आदि भिन्न भिन्न   . . . श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसमें जो रस है वो मैं हूँ । तो जल में जो रस है वो मैं हूँ. . तो जल में रसत्व कहाँ से आया? कैसे आया ?  और जल में रसत्व यदि पकड़ में आ जाये
भगवान शंकर ने पार्वती को कहा विज्ञान भैरव नाम के ग्रन्थ में कि “हे उमा,  अकार,  उकार, मकार ॐ जो है उसमें अकार और उकार को छोड़के जो मकार में ठहर जाता है वो मुझे प्राप्त हो जाता है । तो, हम तो ॐ ॐ बोलते है, अकार भी बोलते है उकार भी बालते है, मकार भी बोलते है . . . बोलते है लेकिन उसमें अत्यंत सूक्ष्म वृत्ति जबतक नहीं  होती तबतक उसके रस स्वरूप में हम नहीं  ठहर पाते! ऐसे जल तो हम पीते है,  जल पीने से . . किसीने गंगा जल पीया, किसीने यमुना का जल पीया, किसीने कुछ पीया,  किसीने शराब पी, किसीने कोका पीया,  तो किसीने फैंटा पी . . पीने की बोतले अनेक लेकिन पीते वक्त जल में जो रस आया . . . सच पूछो तो जल में जो रस आया वो तुम्हारे अंदर भीतर रस था और वो भीतर अत्यंत सूक्ष्म रस तुम्हारा  बाहर के जल में भी अत्यंत सूक्ष्म रस रूप में जो चेतना है उसका स्वाद आया ! और भीतर जिसके पास रस नहीं  है,  जो भीतर की यात्रा नहीं  कर पाया उसको हायड्रोजन ऑक्सीजन के सिवा तीसरा कोई तत्व दिखेगा नहीं ! और जिसने भीतर की यात्रा किया वो जल को  देख द्रवीभूत हो जाएगा! आप जाएँगे गंगा किनारे या नदी के किनारे जाएँगे,  आँखों से तो दिखेगा कि पानी बह रहा है लेकिन हृदय तुम्हारा रस से भर जाएगा । तुम्हारा माना हुआ, जाना हुआ कोई जगह होगा,  कोई सागर पे गए,  नदी पे गए, तालाब पे गए, कोई ऐसी जगह तो तुम थोड़े फ्री हो जाते हो, तुम थोड़े आनन्दित हो जाते हो, तुम थोड़े रसपूर्ण  हो जाते हो! तो,  जल में जो रस तत्व है उसने तुम्हारे भीतर छुपे हुए रस को प्रगट करने का मौका दिया! जैसे परफ्यूम आदि होते है गंधें, तो गंध. . . . हे अर्जुन जल में रस हूँ , चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार,  आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व मैं हूँ  । तो पृथ्वी में जो गंध है वो भी उस चैतन्य सत्ता की है । और गंध. . .  आगे चलकर कहेंगे. . कि  वो वो गंध जो पवित्र गंध मैं हूँ  ।  तो पृथ्वी में पवित्र गंध. . . सुगंध कह देते. . . नहीं ! सुगंध पवित्र नहीं  होती । पवित्र जो गंध है वोही पवित्र होती है । सुगंध तो . . कईं ऐसी सुगंधे है, पैरिस आदि में इसके स्पेशलिस्ट लोग है कि कौनसी सुगंध से आदमी की काम वासनाएँ जगती है, कौनसी सुगंध से आदमी के चित्त में विकार हावी हो जाते है, कौनसी सुगंध से आदमी वैश्या के करीब खींच जाए, वैश्या को कौनसी सुगंध लगानी चाहिए,  दूसरों को संसार के खड्डे में उतारने के लिए कौनसी सुगंध होनी चाहिए ।

तो श्रीकृष्ण ने सुगंध नहीं  कहा, पवित्र गंध कहा । दुर्गंध और सुगंध हम तो दो ही समझते है लेकिन श्रीकृष्ण ने बड़े माप तौल के शब्द यूज़ किया कि सुगंध! सुगन्ध वही है जो सु . . सु माना श्रेष्ठ मार्ग पर लगा दे . . जिस मार्ग से जिस सुगंध से हमारा जीवन उर्ध्वगामी हो जाये वो  सुगंध है । और जिन गंधों से हमारा जीवन विकारों की तरफ आ जाए वे पवित्र गंधें नहीं  है. .  सुगंधें भले हो. . गुलाब में सुगंध है अच्छी है ठीक है, परफ्यूम में सुगंध है लेकिन ये सारी सुगंधे जो बाह्य सुगंधे है वे हमें विकारों में ले जाती है अहंकार में ले जाती है और इन्द्रियों की जगत में खिंचती है । बुध्द की सुगंध,  महावीर की सुगंध,  पवित्र गंध,  कोई ज्ञानवान की पवित्र गंध. . है तो उनका शरीर भी पंच भौतिक, हमारा शरीर भी पंच भौतिक, है तो पेड़ वृक्षए  पृथ्वी पर एक पेड़ है मिर्च का उसमेंसे तीक्ष्णता आती है , दूसरा है गन्ने का पौधा लगा है, गन्ने में  मधुरता आ रही है, मिर्ची में तीक्ष्णता और  खड़े तो उसी जगह पे है, वोही खेत, वोही हवा, वोही प्रकाश, वोही आकाश, वोही धूप, वोही किसान, वोही पानी . . तो ऐसे ही हमारा शरीर वैसे ही पाँच भूतों के है लेकिन जिस बीज में, बीज में जैसे जैसे संस्कार है ऐसा ऐसा. . मिर्च पृथ्वी से वो ले लेता है तीक्षणता,  गन्ना पृथ्वीसे मधुरता ले लेता है, ऐसे ही हमारे चित्त में जैसे जैसे संस्कार है तो उस प्रकार की हमारी यात्रा होती है और हमारी गंध उस प्रकार की प्रगट होती है । कुछ ऐसी गंधें है जिससे हमारे विकार पैदा हो, कुछ ऐसी गंधें है जिससे हमारे चित्त में द्रविभूतता आ जाती है, कुछ ऐसी गंधें है जिससे हमारे चित्त में कामुकता आ जाती है लेकिन भगवान बोलते है पवित्र गंध…  अब पवित्र गंध आ जाये तो जैसे आदमी काम की तरफ गिर पड़ता है ऐसे ही राम की तरफ भी चल पड़ता है  ।   तो पृथ्वी में पवित्र गंध मैं हूँ तो जल में रस मैं हूँ . . .

महात्मा लोग यात्रा करके आ रहे थे  । रास्ते में भंडारा करने का विचार किया । कुछ महात्मा सीधा-वीधा माँगकर ले आये  । एक बाबाजी को कहा उस टोली के महात्मा के आगेवान ने कि तुम जरा घी चेता के लाओ, घी माँग के लाओ । वो सीधे सादे महात्मा थे, वो गए दुकानदार के पास, ग्राहकी थी. .  थोड़ी देर ठहरे, बाद में करमण्डलु का ढक्कन खोलकर दुकानदार के आगे हाथ लंबा किया कि सेठजी जरा इसमें सवा तोला घी दे देना,  दान में । सेठ ने कहा महात्मा आया हुआ है साधु बना है और घी खाने का शौक नहीं  गया ? मोफत का है? तुम्हारे बाप का है?  चल यहाँ से! . . डाँट दिया. . वो महात्मा आये. . बोले “घी तो नहीं  मिलता” ।  दूसरे महात्मा को बुलाया जिसका नाम था पलटू.. उनको बोला कि भंडारा करना है अभी सवा तोला घी से तो क्या सवा सेर घी चाहिए । तुम जाओ चेता के लाओ । ”  वो गए गाँव मे और गाँव के नम्बरदार अपने कहे मुखी -सरपंच, वो अखबार पढ़ रहे थे, ये महात्मा जा के खड़े हो गए । तो अखबार पढ़ते पढ़ते उन्होंने कहा “कहिए महात्मा कैसे आये? ” . .
बोले, “पहले अखबार छोड़ो और हमको कहो बैठिए महाराज”

सरपंच ने कहा “महाराज बैठिए”. . .

“कुर्सी मंगाओ!”. .

कुर्सी मंगाई. . .

“महाराज कैसे आना हुआ? “. .

बोले, “अभी हाथ जोड़ो प्रणाम करो कि संत आये हो बड़ी कृपा हुई  ”

“महाराज,  संत आये हो बड़ी कृपा हुई, कैसे आये हो?  ”

बोले,  “और तो कुछ नहीं , तुम गाँव के सरपंच हो, नम्बरदार हो  । साधु बद्रीनाथ की यात्रा करते करते . . आजतक तो भिक्षा माँग के खाते थे, आज अपना भंडारा बनाने की इच्छा हुई  । आटा,  दाल, चावल, मिर्च, मसाला सब आ गया है केवल सवा सेर घी की आवश्यकता है । तुम गाँव के सरपंच हो तुम्हारे घर में तो भगवान ने दिया ही होगा, अगर तुम्हारे पास इस समय न हो तो अडोस पड़ोस से या दुकान से दिलवा दो हमको । हमको सवा सेर घी चाहिए और कुछ ज्यादा जरूरत नहीं  है । ”
वो सरपंच ने सवा सेर घी दिला दिया बोले “मेरे घर में ही पड़ा है ले जाइए महाराज”

अब सवा तोला जो भीख माँगने गया उसको नहीं  मिला और सवा सेर कुर्सी पे बैठकर आर्डर से और बड़े ठाठ से लेकर लौटा  । क्यों?  कि जिसके चित्त में दीनता, हीनता, दरिद्रता,  नकारात्मक होता है तो बाहर से भी ऐसा आता है । और जिसके चित्त में अंदरसे अपनी स्फूर्ति अपना आत्म विश्वास होता है उसको बाहर की परिस्थितियाँ भी अनुकूल हो जाती है !तो आपके अंदर भीतर रस है. . . जिव्हा पे कोई रोग हो जाए,  जिव्हा सूखी हो जाए तो मिर्च रखो, निम्बू का आचार रख दो, साखर रख दो, रसगुल्ला रख दो, तो आपको रस नहीं  आएगा! क्यों? . . कि रस तुम्हारे अंदर नहीं  है तो बाहर में रस नहीं  आएगा । आप समझना जरा बात को . . . जीभ पर कोई भी व्यंजन रख दो लेकिन जीभ गीली न हो. . हमारे शरीर . . है तो चमड़ा. .  शरीर के किसी भी हिस्से पे कोई व्यंजन रख दो तो मिठास नहीं  आती क्योंकि वहाँ सूखापन है और जिव्हा में रस है. . रस है इसीलिए और रस आते है ।  तो ये रस है, जिव्हा में जो रस है वो जल में छुपे हुए अत्यंत  सूक्ष्म रस का ही तो प्रभाव है!जिव्हा में जो,  मुँह में जो रस आ रहा है  . . . कोई पदार्थ आप खा रहे है तो जल में जो भगवान का रसस्वरूप है वह जल का रसस्वरूप आप जल पीते है और वह सूक्ष्म रसस्वरूप आपके मुख में है और वही रस तुम्हें बाहर के विषयों में रसपना देता है! तो जल में जो रस है भगवान कहते है मैं हूँ! विज्ञान की दृष्टि से देखेंगे तो दो गैसे मिलेंगी तीसरी कोई बात नहीं  मिलेगी लेकिन गैसे दो मिलेगी हायड्रोजन ऑक्सिजन लेकिन गैसों को ही देखें तो इन्द्रियों इन्द्रिय के दृष्टि से देखे तो गैसे मिलेगीं लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखे तो गैसों को सत्ता देने वाला जो चैतन्य स्वरूप रस स्वरूप है वो जल में द्रवीभूत हो रहा है ।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

सूर्य और चाँद में. . ये जिज्ञासु के लिए भगवान की सर्व व्यापकता का अनुभव करें. .   भगवान की भावना करना,  ब्रह्म भावना करना, भगवद बुद्धि करना,  भगवद भावना करना एक बात है और भगवद तत्व का साक्षात्कार करना दूसरी बात है ।  शालिग्राम में भगवद भावना की, शिवजी के बाण में शिवजी की भावना की, अंबाजी की प्रतिमा में माँ की भावना की . . ऐसे किसी वस्तुओं में भगवद भावना अच्छा है. . लेकिन भगवद भावना एक बात है . . . भगवद भावना, भावना  करनेवाले के आधीन रहती है. . भाव हमेशा भाव करनेवाले के आधीन होता है । ज्ञान भाव करनेवाले के आधीन नहीं  होता, ज्ञान वस्तु तंत्र होता है . . जो वस्तु जैसी है उस वस्तु को वैसी का वैसी जानना ज्ञान है और जो  जैसी है हमने नहीं  जानी और भावना की . . तो भावना में परिवर्तन हो जाता है . . . भावना अन्तःकरण की एक . .

किसी ने पूछा के महाराज,   भगवान के दर्शन में और आत्मसाक्षत्कार में क्या फर्क  है?  प्रभु का दर्शन हो जाए श्रीकृष्ण का, श्री रामचन्द्रजी का . .  और भगवान का दर्शन और आत्मसाक्षत्कार में क्या फर्क  है? भगवान का दर्शन ये चित्त की भाव प्रधान वृत्ति है. . . भगवान का दर्शन ये चित्त की प्रेम, माधुर्य भरी वृत्ति है और आत्मसाक्षात्कार चित्त को जो चैतन्य सत्ता देता है, अनंत अनंत चित्त, अनंत अनंत सूर्य, अनंत अनंत चन्द्रमा, अनंत अनंत नक्षत्र जिस तत्व से चल रहे है और अपने-अपने नियम से काम कर रहे है उस तत्व को “मैं” रूप में अनुभव करना ये साक्षात्कार है!

युधिष्ठिर को. . अभी जिसको दिल्ली बोलते है उस समय हस्तिनापुरी बोलते थे । महाभारत के युद्ध के बाद युधिष्ठि‍र का राज्याभिषेक हुआ ।  युधिष्ठिर को राज्याभिषेक करके भगवान श्रीकृष्ण सुभद्रा के साथ द्वारका लौट रहे थे । मारवाड़ देश में मातंग ऋषि नाम के एक ऋषि बडे सात्विक ऋषि थे । खूब तप करते थे ।  ब्रह्मचर्य का ओज और भृगु के घर जन्म लिया हुआ. . ब्रह्मचर्य,  जप, तप ने उन्हें चमका दिया था । भगवान श्रीकृष्ण ने उनका सत्कार किया । श्रीकृष्ण उनके दर्शन करने गए । उत्तंग ऋषि का श्रीकृष्ण ने सत्कार किया बाद में उत्तंग ऋषि ने श्रीकृष्ण का भी आदर किया, पूजन किया, सत्कार किया । बातचीत चली. . बातचीत करते करते श्रीकृष्ण ने बताया कि महाभारत के युद्ध का पूर्णविराम हुआ राज्याभिषेक करके आये, कौरव ऐसे मारे गए, पांडवों का विजय हुआ. . . जब कौरवों के विनाश की बात सुनी उत्तंग ऋषि ने,  कुपित हो गए. .

“कुरु वंश में  इतने महारथी थे इतने बलवान व्यक्ति और उन सबका विनाश तुमने करवा दिया? तुम चाहते तो उनकी रक्षा कर सकते थे, तुम्हारे में बल था उनको बचाने का और फिर तुमने उनको मरवा दिया? ”

कुपित होकर श्राप देने को तैयार हो गए ।  श्रीकृष्ण ने कहा कि उत्तंग ऋषि तुम श्राप देने के पहले मेरी जरा बात सुन लो । आप भृगु के कुल में हुए हो,  ब्रह्मचर्य का बल है आपमें,  जप का, तप का,  धारणा, ध्यान का तुम्हारे पास सामर्थ्य है लेकिन मेरी बात जरा सुन लो. . तुम्हारे जप से, तुम्हारे ब्रह्मचर्य व्रत से, तुम्हारे सत्य व्रत से, तुम्हारे पास तो शक्ति है लेकिन सब शक्तियों का जो मूल कारण है वो मैं हूँ!  मैं तुम्हारे इन शापों से प्रभावित नहीं  होता हूँ । कारण कभी कार्यों से प्रभावित नहीं  होता ।  बुदबुदे कईं उछल पाथल करें,  लहरें कईं उछल पाथल करें उससे समुद्र कहीं सूख नहीं  जाता । सब लहरियाँ समुद्र में भले ही खेल करे लेकिन समुद्र का कुछ बिगड़ता नहीं , ऐसे ही सब भूतों का मैं आदि कारण हूँ  ।  मुझपर तुम्हारे श्राप का कोई असर होगा नहीं ,  पहले तुम सुन लो मेरे को । मैं जिस जिस देश में,  जिस जिस काल में,  जिस जिस रंग में, जिस जिस रूप में अवतरित होता हूँ उस-उसकी मर्यादा तो मैं करता हूँ ! गन्धर्वों के शरीर में जब उतरता हूँ तो गन्धर्वों के अनुकूल आचार करता हूँ ।  रामावतार में जब प्रगट होता हूँ तो फिर मर्यादा के अनुसार आचार व्यवहार करता हूँ । ऋषि के वहां प्रगट होता हूँ तो ऋषि के जैसा शोभे  ऐसा करता हूँ ।  ठीक मानव रूप  में मैं आया धर्म की स्थापना करने साधु संतों का आदि . . आपने सुना होगा न कि

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत  ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय दुष्कृताम्  ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४८॥

 

 

इसलिए मैंने जो मेरेसे हुआ परित्राणाय साधुओं के लिए, दुष्ट लोगों को विनाश करने के लिए मेरा जिस वक्त जिस हेतू के लिए जन्म होता है मैं करता हूँ और मैं अपनी मर्यादा भी निभाता हूँ  । मानव तन में आया तो मैंने कुरु वंश में पैदा हुए कौरवों को पहले दूत होकर जाके समझौता करने के लिए संधि करने के लिए मैंने उनको प्रार्थना की । पाँच गाँव पांडवों को दे दो तो भी मैं समझौता करा दूँ  यहाँ तक मैं बात को ले आया लेकिन उन्होंने मेरी एक बात नहीं  मानी और मेरे को कहा कि सुई की नोक पर धूली का दाणा भी टिक सके उतना भी हम इनको रजकण भी देने को तैयार नहीं  इसलिए मुझे युद्ध करवाना पड़ा । और युद्ध करवाना पड़ा,  युद्ध हुआ . . . युद्ध तो हुआ लेकिन कौरवों को मैंने वीरगति प्राप्त कराई है और पांडवों को मैंने राज्य दिया, मैंने तो कुछ लिया नहीं  क्योंकि मुझे कुछ लेने की आवश्यकता नहीं , सबके रूप में. .  पांडव होकर मैं भोग रहा हूँ, कौरव होकर मैं भोग रहा हूँ,  ऋषि होकर मैं तप कर रहा हूँ, मुझ कारण को किसी कार्य के पदार्थों की  आवश्यकता नहीं ,  मैं आदि कारण सबका हूँ ।

तब ऋषि का क्रोध शांत हुआ और भगवान कृष्ण की पूजा की ।

कृष्ण को देखा तो ऋषि ने पहले था ! इन आँखों से तो श्रीकृष्ण दिख गए थे  ।  भावना से किसीको भगवान दिख जाए उसकी अपेक्षा इस आँखों से वैसे ही दिख जाए वो तो अच्छा है. . आप ध्यान करते है, समाधि करते है, जप करते है, कीर्तन करते है,  भगवान की भावना करते करते आपको भगवान के दर्शन हुए  श्रीकृष्ण के, श्रीरामचन्द्रजी के, किसी देव के दर्शन हुए . . दर्शन होना अच्छा है लेकिन इस देव के पास तो साक्षात श्रीकृष्ण गए! ऋषि की पहली मुलाकात में श्रीकृष्ण के दर्शन और बाद में श्रीकृष्ण के तत्व को समझने के बाद उसकी दृष्टि बदल गयी! तो,  दर्शन में और ज्ञान में. . भगवान का दर्शन एक बात है और भगवान के तत्व का साक्षात्कार दूसरी बात है ! भगवान का दर्शन. . . ऐसे ही जल का दर्शन एक बात है और जल में जो रस है उसका साक्षत्कार दूसरी बात है ।  जल का दर्शन तो होता है हमको . . सागर लहरा रहा है . . देखा कि आहाहा कितना सुंदर है कितना मधुर है बड़ा आनंद आ रहा है . . पानी चखो तो खारा ! और उसके विश्लेषण करो तो दो गैस ! लेकिन तुम्हारे ह्रदय को जाँचो तो रस आ रहा है ! तो  जैसे तुम्हारे अंदर, तुम्हारे शरीर को,  तुम्हारे हृदय को विज्ञानी लोगों के टेबल पर टुकड़े, टुकड़े कर के अणु अणु करके रख दे तो रस कहा था नहीं  दिखेगा ! फिर भी रस आ रहा है! ऐसे ही उस पानी को तुम टुकड़े टुकड़े करके रखो तो रस नहीं  दिखेगा,  फिर भी सूक्ष्म अत्यंत सूक्ष्म जो इन्द्रियों का विषय नहीं  अनुभव गम्य है वैसा जल में रस मैं हूँ,  सूर्य में तेज मैं हूँ, जिन आँखों से तुमको ये प्रकाश दिखता है. . सच पूछो हम प्रकाश हम नहीं  देख पाते है,  चन्द्रमा का प्रकाश और सूर्य का प्रकाश . . . श्रीकृष्ण कहते है सूर्य और चन्द्रमा में जो प्रकाश है वो मैं हूँ  ।  ये  बता रहे है कि जो तुम हो वो मैं हूँ तो तुम अपने को सूर्य और चन्द्रमा में और जल में जो रस है ऐसा अपने को नहीं  समझते हो लेकिन कृष्ण समझते है . . . समझते है और तुम्हारे आगे दोहरा रहे है कि शायद तुम भी अपनेआप को ऐसे समझ लो ! यही बड़पन है कि तुम्हे बड़ा बनाने के लिए अपनी वास्तविकता का बयान कर रहे है ।

दो प्रकार के व्यक्ति होते है ।  एक होते है शोषण करके तुमपर अधिकार करके राजा होके बैठ जाए  ।  दूसरे ये होते है कि तुमको जगाकर तुमको राजा बना दे ! तो जो तुमको जगाकर तुम्‍हे राजा महाराजा बना देते है,  राजा बना देते है,  वे महाराज होते है ! श्रीकृष्ण महाराज बोले जाते है . . . भगवान श्रीकृष्ण . . श्रीकृष्ण महाराज ने कहा !. . . . कभी कभी महाराज भी बोलते है उनको  . . जो राजा बनाता है तो वो महाराज हो जाता है. . राजाओं को बनाने वाला !एक्टरों को नचाने वाला डिरेक्टर होता है न ऐसे ही राजाओं को बनानेवाला महाराज होता है ! महान राज्य उनके पास है ।

हमको जो प्रकाश दिखता है,  सच पूछो तो इन आँखों से प्रकाश दिखता नहीं , प्रकाश जिन पदार्थों पर पड़ता है वे रूपांतरित होकर हमको अभास दिखता है ! अँधे आदमी को भी प्रकाश नहीं  दिखता और आँख वाले को भी प्रकाश नहीं  दिखता  ।  अँधे आदमीको तो ये आँखे नहीं , इसलिए प्रकाश नहीं  दिखता और आँख वाले को ये रूपांतर दिखता है प्रकाश नहीं  दिखता ।  प्रकाश जिन पदार्थों पर पड़ता है और रूपांतरित होता है तो रूपांतर दिखता है वास्तविक प्रकाश नहीं  दिखता ।  और जो सूर्य में, चंद्रमा में जो वास्तविक प्रकाश है . . जैसे जल दिखता है हमको,  जल को तोड़ दिया तो हाइड्रोजन ऑक्सीजन दिखा,  लेकिन जल में जो रस है वो दिखता नहीं  वो अनुभव में आता है! ऐसे ही सूर्य में और चंद्रमा में जो प्रकाश है वो प्रकाश “मैं” हूँ! तो इस सूर्य को और चन्द्रमा को देखते हुए, इनकी इतनी प्रभा देखते हुए इन्‍ही से सारा जगत संचालित हो रहा है और यही जगत का. . भौतिक जगत के मूल कारण साधन दिखते है, लेकिन ऐसे सूर्य और चन्द्रमा भी कई है,  ऐसी पृथ्वि‍याँ भी कईं है ! और इन पृथ्वि‍यों में गंध गुण,  पवित्र गंध गुण . . सुगंध नहीं  कहा. . पवित्र गंध कहा! सुगंध. . पर्फ्यूम आदि जो गंधे है, सुगंध है वो पवित्र नहीं  है . . उन गंधों से, उन सुगंधों से तो आदमी के अंदर सुषुप्‍त जो सेक्स एनर्जी है,  सुषुप्त जो विकार है, सुषुप्त जो ममताएँ है,  सुषुप्त जो अहंता  है वो जागृत होते है । इसलिए श्रीकृष्ण ने पृथ्वी में जो पवित्र गंध है वो मैं हूँ . . . ऐसा नहीं  कहा-सुगंध. .  सुगंध  कहते तो दुर्गंध भगवान नहीं  है!. . . सुगंध भगवान है?  ना! भगवान का वास्तविक स्वरूप न सुगंध है न दुर्गंध है . . . पवित्र गंध! सुगंध तुम्‍हे  विकारों की तरफ ले जाती है और दुर्गंध तुम्हें ग्लानि की तरफ ले जाती है, और पवित्र गंध तुम्हे अपने पवित्र स्वरूप की तरफ ले आती है !

कईं लोग अपने को भग्यशाली मानते है, परफ्यूम वेरफ्यूम लगाते है इधर उधर यहाँ वहाँ . . शौक. . आ हा हा. . लेकिन वो अपने केंद्र से नीचे गिराने की चीजें हैं  ।  पेरिस में तो इसके विशेषज्ञ है कईं लोग . . परफ्यूम. . कौनसे पर्फ्यूम से, कौनसे गंध से आदमी की कौनसी ऊर्जा विकसित होगी और वह ऊर्जा, जीवन शक्ति नीचे की तरफ जाएगी . . उन लोगों ने ऐंद्रिक खोज किया . . ऐंद्रिक खोज ने आदमी को सुख के तो साधन दिए लेकिन सुख के साधनों के साथ साथ वो सुख के साधन आदमी को परमात्म गंध से, परमात्म पवित्रता से, प्रमात्म शांति से, प्रमात्म रस से वो साधन दूर ले जाते है ।  इसीलिए जो अत्यंत भोगी है उसके जीवन में विक्षेप ज्यादा होता है ।  जो अत्यंत भोगी है उसके जीवन में भय ज्यादा होता है ।  जो भोगी है उसके जीवन में विकार ज्यादा होते है, क्रोध ज्यादा होता है, अशांति ज्यादा होती है और जो कम भोग भोगता है उसमें क्रोध, अशांति, विकार कम होते है । लेकिन जो भोग और योग, राग और द्वेष,  इन पवित्र अपवित्र,  इन दोनों  से परे. . सुगंध और दूर्गंध दोनो से परे. .  जहाँ से पवित्र गंध का भी ज्ञान होता है उस स्वरूप को “मैं” मान लेता है उसकी तुलना . . अष्टावक्र कहते है- तुलना केन जायते . . . ऐसे बुद्ध पुरुष की तुलना हम किससे करे ?  श्रीकृष्ण कहते है,  ये साधक को,  जिज्ञासु को सर्वत्र ब्रह्मज्ञान कराने का एक तरीका है ! कि जल दिखे तो जल में जो सूक्ष्म रस है वो मैं हूँ ।  आपने पेय पदार्थ कोई भी पिया, पानी पिया अथवा कोई मीठा पिया, कोई खठ मीठा पिया, कुछ भी पिया . . तो ग्लास में तो किसीको पानी दिखेगा. . , दूर से ग्लास में शरबत दिखेगा. . . आँखों से तो वो शरबत दिखा,  आँखों से तो फैंटा आदि. . बात वात में जा में रंग जो होय कोका कोला संग !. . . ॐ ॐ ॐ. . तो आँखों से तो कोका कोला दिखा , रस नहीं  आया. . जब पिया तो . . आ हा हा. . श. . ठंडक बड़ी!. . . अगर उसमें ही रस होता तो वो कोई बेचता नहीं  ! कोका कोला के बाह्य स्वरूप में रस नहीं  है. . तुम्हारे अंदर,  तुम्हारे जिव्हा में रस है इसलिए वह रस ने,  बाहर के रस ने,  तुम्हारे जिव्हा के रस ने,  दोनो के अद्वैतता का अनुभव किया ! बाहर का ग्लास का पेय और तुम्हारे जिव्हा की रस में दोनों में जो सूक्ष्म एकतानता आई एक ऐसी क्षण आई, जो सूक्ष्मता,  नितांत सूक्ष्मता आई तुम्हें मजा आया! अगर तुम ज्यादा पीते हो तो ऊब जाते हो, थक जाते हो  ।  तो ज्यादा पेय तो इन्द्रियों के विषयों में आदमी थक जाता है लेकिन इन्द्रियों से परे जो सूक्ष्म रस है उनको पाने के लिए अथवा तो यूँ कहे कि श्रीकृष्ण ने ये सोचकर कहा हो कि जल  दिखे तो जल में भी सूक्ष्म अति सूक्ष्म, जल का नाम रूप बाध करके जो  प्रिय परब्रह्म है वहाँ दर्शन कर सके साधक इसलिए जल में रस मैं हूँ और सूर्य में प्रभा मैं हूँ,  चंद्रमा में प्रकाश मैं हूँ,  प्रणवः में वेदों में . . वेदों में प्रणव मैं हूँ !ये बड़ा सूक्ष्म विषय आ रहा है ! प्रणवः सर्व वेदेशु . . .

 

विज्ञानियों का, शरीर शास्त्रियों का ऐसा मानना है कि पति पत्नी जब सेक्स में उतरते है,  विकार में उतरते है . . विकार तो नीचे के केंद्र में आदमी को ले आते है जैसे तलाव के नीचे आप जाओ तो ज्यादा देर नहीं  ठहर सकते, तलाव के ऊपर तो हाउस बोट बनाकर आप घण्टों तक रह सकते है, महीनों भर रह सकते है  ।  ऐसे ही शवासन में आप घण्टों रह सकते है तलाव के ऊपर, सरोवर के ऊपर और सरोवर के नीचे गहराई में आप ज्यादा देर नहीं  रह सकते ।  ऐसे ही राम के जो केंद्र है, शांति के केंद्र है ऊपर है . . ऊपर आदमी प्रेम में, पवित्र प्रेम में, पवित्र शांति में आदमी महीनों भर समाधि में रह सकता है,  घण्टों भर आदमी  सुनसान शांति में, पवित्र शांति में रह सकता है लेकिन घण्टों भर आदमी सेक्स विकार में नहीं  रह सकता  । जैसे सरोवर के तले में आप ज्यादा देर नहीं  रह सकते ऐसे ही आदमी को जब सेक्स उत्पन्न होता है काम विकार, तो काम विकार की घड़ि‍यों में वो ज्यादा देर नहीं  रह सकता फिर उसे ऊपर आना  पड़ता है और नीचे जाते समय उसकी सुषुप्त जो पड़ी हुई शक्तियाँ है उसका जब ह्रास होता है उतनी घड़ी उसको सुख आता है और वो काम का जो सुख है वो काम का सुख राम के सुख से आदमी को नीचे ले आता है ।  शरीर शास्त्रियों का तो इतना भी कहना है कि जिस वक्त आदमी काम सुख भोगता है उस वक्त पत्नी और पुरुष, पुरुष और स्त्री दोनों के शरीर से एक दुर्गंध निकलती है उस पॉइंट पर ।  इतनी गंदी दुर्गंध निकलती है कि उस दुर्गंध को अगर देखे तो एक दूसरे से उबान आ जाये ।  और तुम गृहस्‍थी जीवन में जरा सतर्कता से इसका अनुभव करोगे न तो काम विकार से बचने का सौभाग्य भी मिल जाएगा  ।  जिस वक्त काम विकार में आदमी अत्यंत नीचे उतरा हुआ होता है,  आखरी पॉइंट पर विकार के आखरी पॉइंट पर फिर तुम चेक करना कि मजा के साथ साथ कितनी बदबू आ रही है, कितनी दुर्गंध आ रही है ।

तो श्रीकृष्ण ने दर्गन्ध भी नहीं  कहा,  सुगंध भी नहीं  कहा,  पवित्र गंध कहा है । पवित्र गंध कैसी?  कि जैसी महावीर . . महावीर को तो हम . . प्रसिद्ध है इसलिए उनके नाम का सतउपयोग करते है . . कोई भी योगसाधना करे तो उसके शरीर से एक ऐसी पवित्र गंध निकलती है,  जो तुमको इस नाक से अनुभव नहीं  होगी ।  तुम्हारा कोई कोई तुम्हारे बीच कोई कोई ऐसा प्रेमी हृदय हो, कोई कोई सात्विक पवित्र दिल हो,  कोई कोई जो झेल सकता हो जैसे मछुअन को मच्छी की गंध अच्छी लगती है और दुसरी सुगंध बेकार लगती है,  और किसीको कोई सुगंध अच्छी लगती है ।  ऐसे ही जो आध्यात्मिक जगत में  कुछ ऊँचे उठे हुए है वे आध्यात्मिक पुरुषों की सूक्ष्म अतिसूक्ष्म पवित्र गंध को झेलकर उनका चित्त द्रवीभूत हो जाता है,  उनका चित्त आन्दोलित हो जाता है,  उनका चित्त ईश्वर की तरफ करवट लेने लगता है ।  महावीर के शिष्यों के कहना था कि महावीर इस रेंज में आ गए है ये हम कैसे जानते है?  जिस वक्त हमारे अमुक रेंज में,  अमुक इलाके में . . आप अंधेरे में महावीर को न भी दिखे हमारे गुरुजी को, लेकिन हमको एहसास होता है कि आ गए है! क्योंकि वो आये उसके पहले ही उनको छूकर आने वाली जो हवा है वो गंध पहुँचा देती थी, खबर पहुँचा देती थी कि गुरुजी महाराज आ रहे है,  महावीर आ रहे है ।
तो जिन लोगों ने साधना करके काम रस से ऊपर उठकर पवित्र रस, राम रस लिया है ऐसे व्यक्ति बोलते तो अच्छा है लेकिन ऐसे व्यक्तियों को छूकर जो हवा आती है, ऐसे व्यक्तियों को छूकर जो आँखों के जो वेव्ज आते है वे वेव्ज भी हमारे चित्त को शांति देते है और हमारे चित्त को काम से हटाकर राम के तरफ लगा देते है । इसीलिए कहा गया कि

 “हे गुरुजनों तुम तसल्ली दो सिर्फ बैठे ही रहो महफ़िल का रंग बदल जाएगा, गिरता हुआ दिल भी संभल जाएगा

हमारा दिल गिर रहा है क्रोध में,   हमारा दिल गिर रहा है काम में,   हमारा दिल गिर रहा है विकारों में,   लेकिन जो निर्विकारी पुरुष है, जिसने राम रस को ठीक से जाना है . . . राम रस  की भावना की अलग बात है . . . भगवान राम की भावना किया, अल्लाह मियाँ की भावना किया, खुदा की भावना किया, ये अलग बात है लेकिन खुदा जिससे खुद खुदा है, राम जिससे राम है, कृष्ण जिससे कृष्ण है . . . कर्षति आकर्षति इति कृष्ण. . जो आकर्षित कर दे आनन्दित कर दे उसका नाम कृष्ण है, तो आकर्षित सब आदमियों को प्राणी मात्र को, मनुष्य मात्र को नहीं,  प्राणिमात्र को आकर्षित करता है आनंद,  आकर्षित करता है सुख. . .  चिड़िया भी सुख चाहती है चकोर भी सुख चाहते है, पहलवान भी सुख चाहता है गरीब भी सुख चाहता है ।

एक सेठजी थे । सेठजी ने सुन रखा था कि दो कौवों को एकसाथ देखनेसे आदमी का भाग्य खुलता है, दो कौवों को देखना शुभ माना जाता है ।  नौकर को कह रखा था कि दो कौवे साथ में बैठे हुए मिले तो मुझे खबर करना ।  नौकर इंतजार में था मौका मिल जाय कहीं दो कौवे देखूँ,  दो कौवे देखूँ. . . दो-चार दिन के बाद एक ही जगह पर दो कौवे नौकर ने देखे, तो भागा गया,  सेठजी तो चौथे रूम में थे और सेठजी को बुलाने गए, सेठजी चप्पल वप्पल पहन के बाहर आए  देखा कि दो कौवे तो है नहीं ! एक कौवा तो चला गया था एक ही रहा  ।  सेठ ने नौकर को थप्पड़ मारी,  पिटाई की कि बेवकूफ कहीं का मैं आराम में लेटा था. . जब दो कौवा बैठने वाला ही नहीं  था एक ही कौवा रहा तो फिर  मेरे को तकलीफ क्यों दी । उन्‍होने मारपीट की इतने में कोई मित्र उनके लिए भोजन ले आया  । मेरे घर मेरी माँ नहीं  थी ऐसा ऐसा और आप भेाजन करो । नौकर ने कहा कि सेठजी अच्छा हुआ कि अपने एक कौवा देखा,  एक कौवा देखा तो आपको दावत मिली, एक कौवा देखा तो भोजन मिला और दो कौव्वे देखते तो मेरे जैसी मार मिलती तुमको,  मैंने दो कौवे देखे तो मार खाई और तुमने एक कौवा देखा तो भोजन खा रहे हो ।  ऐसे ही जल में जो रस है, तुम्हारे अंदर रस ये है दो कौवे लेकिन जल के अंदर जो रस है और तुम्हारे अंदर है इन दोनों कौवों में भी रसरूप में एकता है! ग्लास में जो तुमने पेय पिया है तो पीने जैसा, पीने योग्य और पीने वाला इन दोनों के वास्तविकता में एकता है,  दोनों के गहराई में अद्वैत है, बाहर से जल अलग है और तुम अलग हो,  हकीकत में जल और अन्न से ही तुम बने हो और तुम्हारे से ही जल और अन्न  बनता है. . . घास से माँस और माँस से घास. .  अगले इतवार को इसकी मीमांसा किया था कि ये जो कुछ भी दिखता है घास ये घास खाकर माँस बनता है और माँस फिर जला, गला,  सड़ा,  जलाया,  राख बच गयीं, और राख से फिर घास हुआ, शरीर को जला दिया बाष्प हो गया फिर बरसा तो इसमें जो जल तत्व है, पृथ्वी तत्व है, तेज तत्व है, वायु तत्व. . .  तो ये बदलता रहता है घास से माँस,  माँस से घास । हकीकत में देखा जाए तो इनमें जो मूल है. . . इस पुष्प में जो आकर्षण है. . इस पुष्प को देखकर जो तुम्हारे अंदर रस उत्पन्न होता है इसमें वो सुषुप्त रस है, इसमें वो परमात्मा की चेतना है,  सुषुप्त है और तुम्हारे वहाँ जागृत है इसलिए इसको देखकर आप आनंदित होते हो लेकिन तुमको देखकर ये आनंदित नहीं  होता! तुमको देखकर ये गुलाब का फूल आनंदित नहीं  होता लेकिन इसको देखकर तुम आनंदित होते हो. . . यहाँ जगने का सुअवसर है और यहाँ जगने में देर है ! इस गुलाब को तुम खाओ अथवा कोई पशु खाए ,  पशु में से फिर दूध बने और दूध में से फिर वो तुम बनो और फिर  देखो तो गुलाब में से तुम बने और तुम्हारे में से कालांतर में गुलाब बनता है ।  तो जिसको तुम मानते हो “मैं” उसमें तो रूपांतर होता रहता है लेकिन जिसको श्रीकृष्ण “मैं” मानते है उसमें रूपांतर नहीं  होता है ।  ये विषय जरा सूक्ष्म है. . . जिसको हमलोग मैं मानते है उसमें तो रूपांतर होता है. . जिसको श्रीकृष्ण मैं मानते है उसमें रूपांतर नहीं  होता ।

अब दृष्टि . . . कौनसी दृष्टि अच्छी? किसकी दृष्टि में सुख है?  किसकी दृष्टि में शांति है?  किसकी दृष्टि में आनंद है? भगवान की दृष्टि में सुख है? भगवान की दृष्टि सच्ची ?  भगवान की मान्यता
सच्ची की जीव की मान्यता सच्ची? भगवान को जगत जो दिखता है वो सच्चा दिखता है कि हमको
जो जगत दिखता है वो सच्चा दिखता है? मानना पड़ेगा कि हमको जो दिखता है वो हमारे अन्तःकरण की कल्पना, हमारे अन्तःकरण की भावना,  हमारे अन्तःकरण में जिस वक्त विकार है,
हमारे अन्तःकरण में जिस वक्त मलीनता है उस वक्त विकारी भोजन हमे प्यारा लगेगा  ।  हमारे अन्तःकरण में जिस वक्त सत्वगुण है उस वक्त सात्विक भोजन हमे प्यारा लगेगा  । हमारे अन्तःकरण में हमारे हृदय में तुम्हारे लिए, किसी व्यक्ति के लिए यदि राग है तो उसके गुण दिखेंगे,  अगर द्वेष है तो उसके अवगुण दिखेंगे ।  राग, द्वेष तो प्रकृति के है और वो बदलते रहते है इसलिए हम कभी मित्र को शत्रु बना लेते है,  शत्रु को मित्र बना लेते है. . मित्र और शत्रु हम बनाते है क्योंकि हमारे चित्त में जैसे जैसे भाव उठते है, जैसा जैसा विकार होता है तो हमको जगत विकारवाला दिखता है,  हमको जगत बदलनेवाला दिखता है !लेकिन हम तठस्थ ज्ञान में आ जाए . . ईश्वर की आँख से हम जगत को देखने लग जाएं तो मित्र का वास्तविक स्वरूप और शत्रु का वास्तविक स्वरूप दो नहीं  है, दोनों दिखते है लेकिन एक ही है ।  इसलिये सूफी फकीर  कहते है-

दोनों की सूरत एक है, किसको ख़ुदा कहूँ

तुझको खुदा कहूँ,  कि इसको ख़ुदा कहूँ?

दोनों की सूरत एक है जैसे तुम्हारा जीना, तुम्हारा वास्तविक स्वरूप और परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एक है,  तुम शरीर को मैं मानते हो, कृष्ण अपने मैं को मैं मानते है । तो वेदों में जो प्रणव है. . सर्ववेदेषु . . . प्रणवः सर्ववेदेषु. . आदि में वो परमात्मा का वास्तविक स्पंदन,  वास्तविक शब्द,  अकार उकार मकार. . . ये  अकार उकार मकार   प्रणवः  ये प्रणव सब वेदों में. . . वेद का कोई अंत नहीं . . . वेद माना ज्ञान. . . ज्ञान का कोई अंत नहीं  है,  जिसका अंत आ गया,  जिसकी सीमा हो गयी वो  ज्ञान नहीं  होता है,  वो भावना होती है,  वो माप होता है लेकिन उस ज्ञान की चार संहिताएँ है इसलिए उस ज्ञान को हम. . वेद माना ज्ञान, जानकारी. . . तो हम चार वेद मानते है । इसकी  1121 अथवा 1127. . . कईं आचार्य 21 मानते है कईं 27 मानते है 1121 या 1127 उपनिषदें है और इन सब उपनिषदों का निचोड़, सार कठवली. .  और इन सब कठवली आदि का सबका सार बीज रूप में, कुँजी रूप में ओंकार है ! अकार उकार मकार . .

विवेकानंद कहते थे सब धर्मग्रंथ, सब शास्त्र, सब सम्प्रदायों के  शास्‍त्र नितांत तलाव में चले जाए, रसातल में चले जाए,  फिर भी जबतक कोई सद्गुरु और सतशिष्य धरती पर मौजूद है तो धर्म फिरसे उठेगा । सतशिष्य कौन है?  कि ॐ की व्याख्या सुन सके और सतगुरु कौन है?  जिसके चित्त से ओमकार का अनाहद नाद गूँज सके  ।  तो – प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु

हे अर्जुन मैं जल में रस हूँ,  चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ,  संपूर्ण वेदों में ओंकार हूँ. . . अकार उकार और मकार. . “अ”  को छोड़कर आप  क नहीं  बोल सकते है. . . कोई भी आप स्वर बोले. . . स्वर और व्यंजन होते है न. . . तो बिना अकार के कोई आप बोले . . नहीं  होगा!. . तो,  अकार जो है सृष्टि का स्थूल विश्व,  उकार तेजस,   मकार प्राज्ञ और ॐ की जो अर्ध मात्रा है वो तूर्य ।  अभी तो रशिया के वैज्ञानिक चकित हो गए कि कोई भी शब्द आदमी भीतर कुछ सोचे और बाहर कुछ बोले तो दोनों उसकी कंप्यूटर में आ जाते है  ।  लेकिन ओमकार को भीतर से सोचता है और बाहर कुछ बोलता है तो भी दोनों जगह वो ही ओमकार आ जाता है । बाहर ॐ बोले और भीतर कुछ सोचे तो भी दोनों जगह ॐ आ जाता है ।  तो ये ॐ जो है वो और शब्दों से बिल्कुल अलग पड़ता है और ऋषियों ने इस ॐ की आकृति भी निराली बना दी कि तुम इसको अपने लौकिक भाषा के शब्दों में नहीं  लिखते  ।  इस ॐ की आकृति निराली है । तो ऐसा कोई मंत्र नहीं  जिसमें ॐ का उपयोग न किया गया हो, जिसमें ॐ का उपयोग नहीं  है वो बीज मंत्र से रहित, ॐ जो है सबका बीज है, सबका माय बाप है मूल कारण है  ।  और ये ॐ तुम्हारे जन्म से लेकर मृत्यू तक और मृत्यू से लेकर जन्म तक ये जो चैतन्य स्वरूप परमात्मा है इसी परमात्मा का वास्तविक ध्वनि प्रणवः ।  सब वेदों में सब ज्ञानों में जो ॐ है वो मैं हूँ ।

बच्चा पैदा होता है तो उसका ध्वनि देखो उआं  उआं  उआं,  मरीज जब हार जाता है चादर ओढ़ के पड़ा है तो उसकी ध्वनि देखो उं उं उं उं बोलता है  ।  तो ये ओमकार जो है,  तुम्हारा जो चैतन्य आत्मा
है इसका वास्तविक ध्वनि ओमकार है । शब्द दो प्रकार के होते है, एक अनाहत होते है, दूसरे आहत होते है ।  आहत शब्द जो टकराव से, तालू से,  शरीर से कहीं भी भाग से टकराके निकलते है वो आहत होते है और ओमकार जो है वो अनाहत है. . . अनाहत चक्र. .

किन्नाराम नामके संत हो गए काशी में बड़े प्रसिद्ध संत,  बड़े चमत्कारी सामर्थ्य वान । उनके शिष्यों का कहना था कि हमारे गुरुजी साधना बताते है कि नाभि केंद्र ऊपर शब्द अनुसंधान योग किया जाय ।  तो नाभि केंद्र पर ॐ की ध्वनि हो रही है उसका अनुसंधान करके ये शब्द ब्रह्म की उपासना करते है  ।  कुछ लोग यहाँ आज्ञा चक्र पर ज्योत निरंजन ओमकार सोहं सतनाम राधा स्वामी वाले इस प्रकार का जप देते है अपने शिष्यों को और वो जप करते है, ये शब्द की उपासना है । कुछ लोग हृदय में  इस शब्द का चिंतन करते है । तो,  जल में भगवान के सूक्ष्म स्वरूप को, तेज में भगवान के
सूक्ष्म स्वरूप को और शब्द में भगवान के सूक्ष्म स्वरूप को, अनाहत स्वरूप को जानकर सर्व ब्रह्म की जो भावना करता है वो आगे चलकर सर्व ब्रह्म तक पहुँच जाता है । दो प्रकार के व्यक्ति होते है । रमण महर्षी के पास भी ऐसे ही दो प्रकार के पार्टियाँ बन गई । जिनकी बुद्धि तत्वज्ञान को समझने में तत्वज्ञान को जानने में असमर्थ है वे भावना का अवलंबन लेते है । और जिनकी बुद्धि सुयोग्य है, तत्वज्ञान को समझने में कुशल है वे लोग तो शब्द को,  उपदेश को, गुरु के उपदेश को सुनकर उस गुरु के उपदेश को अपना अनुभव बनाके मुक्त हो जाते है ।  तो रमण महर्षी के इर्द गिर्द दो प्रकार के व्यक्ति हो गए . . एक पार्टी ऐसा कहती थी कि रमण महर्षी तो साक्षात भगवान है । इनके करीब बैठते है तो मन निर्विकारी होने लगता है, इनकी दृष्टि पड़ती है तो मन में शांति आने लगती है, और भगवान को तो हमने सुना है लेकिन इस भगवान को तो हमने देखा है! तो एक
पार्टी जो थी रमण महर्षी को भगवान मानती थी . . भावना से. . भावना वाली पार्टी । और दुसरी जो थी, रमण महर्षी कहते थे कि खोज करो “मैं कौन हूँ ” . . . अब”मैं कौन हूँ ” उसकी खोज करते करते अनाहत तत्व में ठहर जाते थे और वो ज्ञान के रास्ते चल पड़ते थे । दोनों अच्छे  है लेकिन भावना प्रधान वाले के लिए भावना एक साधन है लेकिन ज्ञान  प्रधान वाले के लिए तो श्रोतव्य है ।  बार बार कोई शब्द सुना जाय . . . तो शब्द में बड़ी शक्ति है. . मैने यहाँ शब्द कहा. . मैं यहाँ बोलता हूँ  ये रेडियो स्टेशन के यंत्र हो तो मेरा अभी यहाँ का शब्द हजारों माइल दूर ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में बोलता है 2-4सेकंड, 6 सेकंड में यहाँ बात पहुँच जाती है । वहाँ से बात 2 सेकंड में यहाँ पहुँच जाती है,  तो शब्द का नाश नहीं  हुआ,  यंत्रों ने 2 सेकंड में, 4 सेकंड में पकड़ लिया. . जो 2 सेकंड के बाद पकड़ सकते है तो ऐसे यंत्रों का विकास हो जो 10 सेकंड के बाद भी पकड़े दूरी के शब्द. . और ऐसे कई साधनों का विकास हो . .  विज्ञानी लोग बोलते है कि श्रीकृष्ण ने यदि गीता कही है तो हम कुछ वर्षों के बाद वहीं गीता श्रीकृष्ण की गीता फिर पकड़ लेंगे क्योंकि शब्द का नाश नहीं  होता,  शब्द आकाश में गूँजते रहते है, शब्द हमें भले  सुनाई न पड़े . . लेकिन वो यंत्र होते है तो यहाँ अभी के बोले हुए शब्द आप देस परदेस में इसी समय कुछ घड़ियों के बाद,  कुछ मिनट में, कुछ सेकंड में पहुँच जाते है । तो जो  कुछ सेकंड में पहुँचते है तो उसके ऐसे कुछ यंत्र है कि कुछ वर्षों के बाद भी उनको खोज लिया जाय । तो शब्द का नाश नहीं  होता इसलिए कईं उपासक, कईं साधक लोग,  कईं भक्त लोग, कईं अच्छे अच्छे सन्त अपने भक्तों को बोलते है कि बुरा कभी बोलना नहीं   ।  क्योंकि तुम कुछ बुरा बोलकर अपशब्द बोलकर भी उस आकाश में, उस व्यापक जो शब्द को एकत्रित करने का जो जगह है उसमें कुछ खलल पहुँचाते हो । तो जो कुछ तुम बोलते हो तो बढिया बोलो, अच्छा  बोलो, वो तुम्हारा सब पड़ा रह जाता है ।  अच्छा नहीं  बोल सको तो बुरा तो कभी न बोलो  । तो आकाश में जो शब्द गुण है वो मैं हूँ, सूक्ष्म. .  वेदों में जो ओमकार है वो मैं हूँ । तो सूक्ष्म तत्व की तरफ इशारा किया कि शब्द में मैं हूँ,  ओमकार. .  वेदों में जो ओमकार है,  वचनों में ओमकार  वेदों में जो ओमकार है वो मैं हूँ । तो ॐ को हम दो ढंग से देखें. .  एक तो स्थूल रूप से ॐ की आकृति . . उस स्थूल रूप से आकृति को हम आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाकर अथवा हृदय में उसकी भावना करें अथवा नाभि केंद्र पर उसका ध्यान धरे तो वे हमारी सुषुप्त ओमकार की जो सूक्ष्म शक्तियाँ है वो विकसित हो सकती है ।  दूसरा, हम ओमकार का उच्चारण करते है वैखरी के द्वारा,  वैखरी से जप करते करते फिर मध्यमा में जाएँ,  मध्यमा से फिर पश्यंति में जाए,  पश्यंति से फिर हम जब परा में आ जाते है तो अत्यंत सूक्ष्म अवस्था मौन को हम उपलब्ध हो जाते है और वो जो मौन कि अवस्था है वैखरी मध्यमा पश्यंति और परा . . परा वाणी में पहुँच जाता है तो उस आदमी को जो रस मिलता है उस आदमी को जो सुख मिलता है,  उस आदमी को जो जीवन धन्य-धन्यता का जो अनुभव होता है उसके आगे इस पृथ्वी के राज्य की तो कोई बात नहीं  त्रिलोकी का राज्य भी तुच्छ हो जाता है ।

मैंने वो मारवाड़ के संत की बात बताई तुमको उत्तंग ऋषि की. . तो उत्तंग ऋषि के साथ श्रीकृष्ण की बातचीत हुई . . . श्रीकृष्ण की बातचीत से एक बार तो उत्तंग ऋषि कुपित हो गए क्योंकि कौरवों का नाश हुआ ।  फिर जब श्रीकृष्ण ने बताया अपनी व्यापकता, अपनी सूक्ष्मता तो उत्तंग ऋषि प्रसन्न हो गए । और श्रीकृष्ण का आदर किया । श्रीकृष्ण का आदर करते हुए उत्तंग ऋषि ने उनको विदाई दी तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि “ऋषि तुम कुछ माँग लो” ।

बोले,  “भगवान जब तुम सभी हो तो तुम्हारे विश्व रूप का, तुम्हारे सर्व व्यापक रूप का मुझे दर्शन कराओ” ।

भगवान प्रसन्न होकर सर्व व्यापक रूप का  दर्शन कराए । और फिर अपने ही कृष्ण रूप में आ गए और कहा कि “उत्तंग और कुछ तुम माँग लो । ”

“भगवान यहाँ मारवाड़ में जल नहीं  है, जल की बड़ी तंगी रहती है कोई कृपा करो यहाँ जल हो जाये । ”

भगवान ने कहा ” ऋषि जब तुम्हे  प्यास लगे, जब तुम  जल का स्मरण करोगे तो उस वक्त जल तुमको पीने को मिल जाएगा। ”

ऐसा कहके सुभद्रा के साथ श्रीकृष्ण चल दिए द्वारका की तरफ  ।  गर्मियों के दिन थे । मारवाड़ भूमि में और गर्मी. . ऋषि को बहुत प्यास लगी, पानी की तकलीफ रही उसमें समय स्मरण हो आया कि मुझे श्रीकृष्ण ने वरदान दिया है कि जब जब जल की जरूरत पड़े तो मुझे स्मरण करना ।

उत्तंग ऋषि ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया . . श्रीकृष्ण का स्मरण किया,  घड़ीभर में देखा तो कोई चांडाल आ रहा है । चांडाल कुत्तों से घिरा हुआ आ रहा है, मलिन वस्त्र है, और भी अद्भुत उसने देखा कि चांडाल पेशाब करता हुआ आ रहा है, धार बहती आ रही है उसकी पेशाब की और नजिक आ कर खड़ा हो गया ।

“ऋषि तुम्हें प्यास लगी है?  पी लो । ”

गुस्सा उत्तंग ऋषि को तो क्रोध आया कि. . .
“तू समझता क्या है?  तुम्हे शरम नहीं  आती एक साधु को इस रूप में तुम पानी पिलाना चाहते हो श्राप देता हुँ”

इतना सुनकर वो तो चांडाल उसी वक्त अंतर्ध्यान हो गया कुत्तों सहित और वहाँ भगवान श्रीकृष्ण प्रगट हुए । श्रीकृष्ण पर उत्तंग ऋषि नाराज हो गए कि तुम मेरे को वरदान दे गए थे कि जब प्यास लगे तो प्यास ऐसे ढंग से मिटाने के लिए?   ऐसा चांडाल मेरे पास भेजा तुम क्या समझते हो? ”

श्रीकृष्ण ने कहा”वो चांडाल नहीं  था,  वो इंद्र था । इंद्र को मैंने मनाया कि तुमको जब प्यास लगे तो वो तुम्हें अपना अमृत पिलाए लेकिन इंद्र नहीं  मान रहा था । फिर इंद्र ने शर्त डाला कि आप यदि केशव कहते है तो मैं उनको पिलाऊँगा लेकिन मैं ऐसा रूप बनाकर जाऊँ और वो मुझे स्वीकार कर ले तभी तो वो स्वर्ग का अमृत  पिएँगे । तो मैंने तुमको स्वर्ग का अमृत पिलवाकर अजर अमर करना चाहा था लेकिन तुम अच्छे रूप में तो मेरेको देखते हो लेकिन बुरे रूपों में भी सत्ता मेरी है वो तुम्हारेको तत्वज्ञान नहीं  है! इसीलिए तुम वो अमृत का मौका चूक गए! चलो,  फिर भी कोई बात नहीं , अब मैं जाता हुँ, अब तुम्हें जब जब प्यास लगे तो आकाश की तरफ निहारना और बादल घिर जाएँगे, बरसेंगे और तुम्हारी प्यास तृप्त हो जाएगी । और उन बादलों का नाम उत्तंग बादलों में उत्तंग मेघ होगा ।

तबसे कहा जाता है कि मारवाड़ में जो बरसते है वो उत्तंग मेघ होते है कभी कभी ऐसी लोक वायका भी है और पुराणों में बात आती है ।

खैर. . . जो आदमी. . . दुसरी एक बात थी कि मैंने एक बार बताया था कि तुलसीदास जी गोस्वामी तुलसीदास जी . . वो यात्रा करने को जा रहे थे रामेश्वर की तरफ. . . भगवान जिस रास्ते से पैदल पैदल गए उसी जंगल झाड़ियों के रास्ते से गोस्वामी तुलसीदास यात्रा करने को जा रहे थे । यात्रा में एक सिकुड़ा रास्ता आया और झाड़ी. . .  छोटासा रास्ता था, उस रास्ते से कोई दुर्जन आदमी किसी वैश्या के साथ भोग विकार कर रहा था । अब यदि वापस जाते है तो उसको संकोच होता है और वहाँ से गुजरते है तो भी संकोच होता है, क्या करूँ? क्षणभर में बुद्धि ने निर्णय दिया कि आँखे बंद करके अंधे का ढोंग कर लो! तुलसीदास ने आँखे बंद कर दी और लकड़ी ठोकते ठोकते “भाई अंधे को कोई रास्ता दिखा दे, अंधे को कोई रास्ता दिखा दे”. . . विकारी व्यक्ति ने देखा कि ठीक है ये बाबा है तो सही अंधा है कोई बात नहीं ! अपने  ए बाबा जहाँ से तुम आये वहाँ से गुजर जाओ सीधे ही रास्ता है चले जाओ”

ये तो अंधे का ढोंग कर रहा था!अंधे तो थे नहीं !आँखे बंद करली थी खाली. .  थोड़ा दूरी गए उस घाटी से निकले आँखे खोली तो सियारामजी खड़े मिले! तो तुलसीदास जी पूछते है कि प्रभु इस जंगल मे ऐसी जगह पर आप कैसे?
“महाराज! अच्‍छों में अच्छी अच्छी चीजों को तो सब कोई प्यार करता है . . अच्छी अच्छी अनुकूल अवस्थाओं को तो सब लोग स्वीकार करते है, भगवान की प्रसादी मानते है लेकिन जो प्रतिकूलता को भी प्रभु की लीला मानता है, प्रभु की प्रसादी मानता है. . जो अच्‍छों में तो ईश्वर का दर्शन करते है ऐसे लोग तो बहुत है लेकिन जो बुरों में भी ईश्वर का दर्शन करें ऐसों का दर्शन करने को मैं आ जाता हुँ !

तो हमारा चित्त अमुक प्रकार से अमुक भावों से भर जाता है तो हमारी कुछ आदत पड़ जाती है . . तो हमारे आदत के अनुकूल कोई बात होती है, हमारे आदत के अनुकूल कोई पदार्थ होता है, हमारे आदत के अनुकूल कोई घटना होती है तो हम हर्षित होते है । और हमारे आदत के प्रतिकूल जो होती है तो हम शोकातुर होते है! हर्ष भी तुम्हारे चित्त को हिलाता है शोक  भी तुम्हारे चित्त को हिलाता है ! तो ये ज्ञान नहीं  हुआ,  ये दशाएँ हुई चित्त की. . चित्त की दशा में जबतक आप रहो फिर चाहे भगवान कृष्ण के साथ रह लो चाहे भगवान विष्णु के साथ रह लो चाहे प्राइम मिनिस्टर के साथ रह लो लेकिन चित्त की दशा में जबतक बना रहा हमारा जीना तबतक हमारा मरना भी मौजूद है । वेदांत हमें ऐसी चीज बताता है कि चित्त . . एक चित्त नहीं  हजारों हजारों चित्त जिस चैतन्य में त्रसरेणु कई नाईं फुरफुरा रहे है वो चैतन्य तुम्हारा आत्मा  है  । उसको अगर तुम जान लो तो अनुकूलता में तुम हर्षित नहीं  होओगे और प्रतिकूलता में तुम विक्षोभ को नहीं  प्राप्त होओगे,  तुम असंग द्रष्टा सुख रूप अपने आप को जानकर सदा के लिए मुक्त हो जाओगे । मरने के बाद मुक्ति नहीं  जीते जी मुक्ति!

मुआ पछिनो वायदो नकामो को जाणे छे काल . . .

आज अत्यारे अब घड़ी साधु जोइलो नकदी  रोकड़ माल…

तुम इस श्लोक से इतना तो जरूर समझ सकते है कि . . .

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु 

भगवान  ये बताते है कि हे अर्जुन मैं जल में रस हुँ,  चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हुँ, संपूर्ण वेदों में ओमकार हुँ,  आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व मैं हुँ. . पुरुषों में पुरुषत्व. . . पुरुषों में पुरुषत्व क्या है? पुरुष वह है जो पुरुषार्थ करें. . .

पुरुषार्थ क्या है? . . कि पुरुषः अर्थः इति पुरुषार्थ. . जो परब्रह्म परमात्मा पुरुष है उसको पाने के लिए जो प्रयत्न करें उसको पुरूष बोलते है ।

 

इतवार को कहा था कि हमारे मुँह मे बत्तीस दाँत है । एक दाँत टूट जाए तो जीभ बार बार वहीं जाती है. . जो इकत्तीस है तो उसकी कोई कदर नहीं , बत्तीस थे तब कोई कदर नहीं  और जब नहीं  है तब जीभ बार बार जाती है । एक बार दो बार देख लिया कि टूट गया बात खत्म हो गई. .  नहीं !फिर भी वहीं जाती है अभाव में. . तो हमारे मन का स्वभाव है अभाव में जाता है! जो नहीं  है उसको पाने के लिए जाता है और जो मिल गया तो उसकी कोइ कीमत नहीं !

तो परमात्मा सदा मिला हुआ है उसके तरफ हमारा मन नहीं  जाता और संसार हमारे पास है नहीं  और रहेगा नहीं  . . तो जो हैं नहीं  उसको पा रहे है . . उसको पा रहे है नहीं , जो है वो भी तो जा रहा है! ये बात आपको जरा सूक्ष्म लगेगी थोड़ी सूखी लगेगी थोड़ी कठिन लगेगी लेकिन है नितांत आपके हित की, ध्यान से सुन लेना ।

पुरुष वह है पुरुषार्थ करके जो है उसको ठीक से समझ ले. .  जो सदा मौजूद है और जिसको पाने के बाद कुछ पाना नहीं , जिसको जानने के बाद कुछ जानना नहीं , जिसमें स्थिर होने के बाद बड़े भारी दुःख भी तुम्हें चलित न कर सके ऐसे तत्व को पाना पुरुषार्थ है ।

लोग तो क्या समझते,  जिसके पास यश नहीं  वो यश पाने को पुरुषार्थ समझ लेता है, धन नहीं  है तो धन पाने को पुरुषार्थ समझ लेता है, बाहर की पढ़ाई लिखाई नहीं  है तो पढ़ने पुरूषार्थ समझ लेता है, कार नहीं  है तो कार लाने को पुरुषार्थ समझ लेता है, हलवा नहीं  है यो हलवा बनाने को पुरुषार्थ मान लेता है. . जो हलवा अभी नहीं  है उसको तुमने बनाया, थोड़ी देर में तो नहीं  हो जाएगा भैया! कितनी देर पेट में रखोगे?  कितनी देर संभालोगे? जो नहीं  था उसको तुमने बनाया, जो नहीं  है उसको तुमने लाया, जो जगत को जो नहीं  है और नहीं  की तरफ जा रही है, पहले नहीं  था बाद में नहीं  रहेगा तो अभी भी तो नहीं  की तरफ जा रहा है. . जो नहीं  की तरफ जा रहा नश्वर भोग नश्वर सत्ता नश्वर पद उसको जो थामने में लग जाय उसको अज्ञानी बोलते है शास्त्रीय भाषा में और जो पहले था अब भी है बाद में रहे उस तत्व को प्राप्त करके उस तत्व को जानकर जो निहाल होने को तत्पर है उसको बोलते है पुरुषार्थ,  उसको बोलते है मनुष्य, पूरुषः . . .

पुरुषः अर्थ इति पुरुषार्थ . .

उस पुरुष को जिसको पाने के बाद कुछ पाना नहीं . .  जो सदा प्राप्त है उसकी तरफ हमारी नजर नहीं  जाती और जो सदा छूट रहा है उसीको हम संभालने में लग रहे है ।   शरीर सदा मौत की तरफ बढ़ रहा है । शरीर एक एक श्वास हमारा मौत की तरफ बढ़ रहा है, छूट रहा है । जब शरीर छूट रहे है तो शरीर के भोग क्यों नहीं  छूटेंगे? शरीर के पद क्यों नहीं  छूटेंगे? शरीर के नाम रूप के तरफ हम . . जो  नहीं  है, जो शाश्वत नहीं  है उसकी तरफ हम लगे है और जो शाश्वत है उसके तरफ की कोई खबर नहीं ! कोई लोग लगते है  भजन को पूजन को तो भाव करते है. . . हे भगवान हे दयालू तू दर्शन दे!. . जो अभी आकृति‍ नहीं  है वो आ जाय! अभी जो अभी नहीं  है वो आएगी तो भी तो नहीं  हो जाएगी !जय श्रीकृष्ण! अभी जो पत्नी नहीं  है वो एक दिन नहीं  हो जाएगी, अभी जो कार नहीं  है आएगी तो एक दिन नहीं  हो जाएगी, अभी जो प्रतिष्ठा नहीं  है वो एक बार आएगी तो फिर हमारे जैसे तुम्हारे जैसे कईं प्रसिद्ध प्रतिष्ठित लोग हो गए होंगे जिनकी गिनती रखना असंभव है  । लेकिन जो सदा के साथ  तुम्हारे साथ था, अब भी है, और मृत्यु के बाद भी तुम्हारे साथ रहेगा और उस तत्व को जो पाने को पुरुषार्थ करे वो पुरुष है!तो पुरुषों में जो पुरुषत्‍व है, वो पुरुषार्थ करने का जो पवित्र पुरूषार्थ करने की जो हिम्मत है. .  तो भगवान हिम्मत भी देते है और हिम्मत का फल जो अपना स्वरूप वो भी उसको भी प्रगट कर देते है । तो. .

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषम् नृषु

नरों में, मनुष्यों में जो पुरुषत्व है वो मैं हूँ और आकाश में जो सूक्ष्म शब्द है वो मैं हूँ. . . तो पृथ्वी में जो पवित्र गंध है, पवित्र गंध है वो मैं हूँ, जल में जो रस है वो मैं हूँ, सूर्य में और चंद्रमा में जो प्रकाश है वो मैं हूँ, पुरुषों में जो पुरुषत्व है वो मैं हूँ. . . तो बताओ तुम्हारे में थोडा पुरुषत्व है कि नहीं ?  तुम्हारे जीभ  में रस है कि नहीं ? तुम्हारे में अंदर प्रकाश है इसलिए बाहर  के प्रकाश को तुम समझ सकते हो, सुन सकते हो । जो कृष्ण में था वही का वही उतने का उतना वैसे का वैसा पूरे का पूरा . . . मैंने अगले इतवार को बताया था मेरे पास जो रूप है, रंग है, जो चेहरा है, जो चीज है, हो सकता है कि वैसी की वैसी उतनी की उतनी दूसरे के पास नहीं  है और जो दूसरे के पास है वो तीसरे के पास नहीं . . तो एक चेहरा दूसरे चेहरे से नहीं  मिलता,  एक व्यक्ति की धन सम्पत्ति दूसरे के पास उतनी बराबर नहीं  होती  । ऐसा कोई जोड़ा नहीं  मिलेगा कि दोनों को एक जितना ही धन एक जितना ही रूप एक जैसा ही रंग एक जैसा ही बुद्धि ऐसे दो व्यक्ति पूरी पृथ्वी पर नहीं  मिलेंगे पूरे ब्रम्हांड में नहीं  मिलेंगे!

छे कोई ऐवो माणस, एना ने एना जेवो बीजो माणस सोधी लावे एवी कोई बेन छे के एना ने एना जेवी बीजी  सोधी लावे एटलाज दिवसनी एटलाज  महीनानी एटलाज रूप नी एटलाज रंग नी एटलीज उंची एटलीज लांबी   एटलीज पौडी एटलीज जाड़ी एटलीज पातडी एटलीज काली एटलीज धोली ऐवी न ऐवी बीजी कोई सोधी लावे अने एनी पासे जेटला पैसा छे जेटला छोकरा छे एटला न एटला पेली ने होय एने जवा छोकरा छे तेने तेवा न तेवा छोकरा होय…

छोकराओं की बात नहीं  अपना चेहरा दूसरों से मिला के ले आओ!नहीं  होता!. . तो बाहर की जो नहीं  चीजे है वो बराबरी की दो व्यक्तियों को नहीं  मिलती । ठीक है न? इस बात को तो मानोगे न तुम?

भावना की, भगत की बुद्धि से मानोगे  कि वकील की बुद्धि से मानोगे? वकील बुद्धि से भी मान सकते हो भगत की बुद्धि से भी मान सकते है. . . बाहर की चीजें दो व्यक्तियों को एक जैसी नहीं  है  । लेकिन करोड़ों करोड़ों व्यक्तियों को भीतर का तत्व एक का एक! ईश्वर. . जो चैतन्य आत्मा मेरे पास है वही का वही उतने का उतना वैसे का वैसा तुम्हारे पास है! जिस सत्ता से मेरी आँख देखती है वही की वही सत्ता तुम्हारे आँखों को देखने की शक्ति देती है । जिस सत्ता से मेरी वाणी चलती है उसी सत्ता से तुम्हारी जीभ भी चलती है । जिस सत्ता से मेरे कान सुनते है उसी सत्ता से तुम्हारे कान सुनते है । तो भगवान, भगवद सत्ता सबमें वही की वही! तो जगत के पदार्थ मिलते है तो बराबरी के दूसरे को नहीं  मिलते,  लेकिन भगवान जब मिलता है तो सबको बराबरी का मिलता है. .  जो परमात्मा मेरेको मिला है तुमको भी उतने का उतना जो वशिष्ठ जी को मिला था, जो कबीर को मिला था, जो नानक को मिला था, जो श्रीकृष्ण के हृदय में चमका है, जो श्रीराम के हृदय में चमका है, जो मोहम्मद के हृदय में चमका है, जो ईसा के हृदय में चमका है . . तुमको साक्षात्कार होगा तो तुम्हारे अंदर भी उतने का उतना,  वैसे का वैसा और वही का वही होता है तो इसलिए ज्ञानी अनेक होते हुए भी उनका अनुभव एक हो जाता है!

ऋषि कहता है. .

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 

वह पूर्ण है! और पूर्ण का मतलब ऐसा नहीं  कि आधा – पूरा . . हमारा जो गणित है. .  एक लाख रुपये से एक नया पैसा निकालो तो आंकड़ा टूट जाएगा और दो पैसे डालो तो भी आंकड़ा टूट जाएगा. . वो पूर्ण  में से  तो कितना भी निकले तबभी पूर्ण, कितना भी  प्रविष्ट हो जाये तबभी पूर्ण! ऐसा जो पूर्णस्वरूप है वो पूर्ण स्वरूप सबका आत्मा है,   जो कृष्ण का आत्मा है । अगले इतवार को सातवा  और छठा श्लोक चला था

सुत्रे मणी गणा एव. .

जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में ऐसे ही वो चैतन्य सारे जगत में ओतप्रोत है । इस प्रकार  का ज्ञान यदि साधक को. . .  शब्द में इतनी शक्ति है  कि बार बार जो शब्द सुने जाते है उस प्रकार की चित्त की वृत्ति बन जाती है  । तो बार बार श्रवण करनेसे . . .

दो प्रकार के व्यक्ति होते है -चित्त मलीन अकृतउपासक और दूसरे होते है कृत उपासक  ।  अकृत उपासक माना जिसने धरम, करम, सेवा, पूजा करके अपने हृदय को पवित्र नहीं  किया ।  उसको भीतर की शांति, भीतर का सुख का कोई पता नहीं  और उसकी तरफ उसका लगाव भी नहीं  होता । मन की मलीनता के कारण हृदय में छिपे हुए आत्मा की तरफ, हृदय में छिपे हुए परमात्मा की तरफ झुकाव नहीं  होता और भीतर बैठे हुए रसस्वरूप परमात्मा का रस नहीं  आता और आदमी बाहर के रसों में अपना जीवन गंवा देता है । अच्छा. . .

तो बाहर के रसों में जीवन न गंवाकर भीतर का रस पाने की इच्छा  करनेवाले दो प्रकार के व्यक्ति होते है. . एक होते है कृत उपासक, दूसरे होते है अकृत उपासक ।  कृत उपासक क्या?  जिसने उपासना की है. . .  धरम,  करम,  करके दान, पुण्य,  सेवा, स्मरण, परोपकार आदि करके जिसने अपने हृदय को सुयोग्य बनाया है ऐसे व्यक्ति को तत्वज्ञान की थोडीसी बातें सुनकर आत्म विश्रांति‍ हो जाएगी,  आत्म दर्शन हो जाएगा, प्रभु का दर्शन ही जायेगा, प्रभु तत्व का रस मिल जाएगा ।  दूसरे वे व्यक्ति है कि जिन्होंने उपासना नहीं  की है ।  तो वे लोग  सुनेंगे तो आत्मज्ञान तो नहीं  होगा, साक्षात्कार तो नहीं  होगा.
. . . लेकिन सुनते सुनते कल्मष कटते जाएँगे,  सुनते सुनते पाप कट जाएँगे,   समझ में आ जाए तो तो बेड़ा पार है,  लेकिन जैसे बार बार पानी की धार पड़ते हुए अति बरसात पड़ती है तो मारवाड़ में भी हरियाली हो जाती है । ऐसे ही जिसका पूरा थोथा हॄदय है  वो भी बार बार ये तत्वज्ञान की बातें सुनता है तबभी उसमें शांति, आनन्द और उपासना के योग्य हृदय बन जाता है ।

वेद के एक लाख मंत्र है । 80हजार मंत्र कर्मकांड के है,  16 हजार मंत्र उपासना के है और 4हजार मंत्र है ज्ञान के ।  तो 80हजार मंत्र,  हररोज नये मंत्र से तुम कर्मकांड करो तो भी कर सकते हो,  ऐसे  विभिन्न विभिन्न मंत्र है सुंदर  ।

वेदांत को बार बार श्रवण करे तो 80हजार मंत्र के अनुष्ठान का फल -अन्तःकरण की शुद्धि हो जाएगी । सुना हुआ. . तुम न भी चाहो तबभी सुने हुए शब्द तुम्हारे चित्त में वही भावना पैदा कर देते है. . . वही विचार पैदा कर लेते है. . इसलिए सुनने में खबरदारी रखो. . मलीन वचन सुनो नहीं . . तुम्हारे को जीवभाव में, विकारों में बाँध ले ऐसे  साहित्य को, ऐसे वचनों को सुनो नहीं , पढ़ो नहीं  ।  तो वेदांत को बार बार सुनने से 80 हजार मंत्र कर्मकांड का काम पूरा हो जाता है!

बार बार सुने हुए को फिर मनन करने लग जाओ तो 16हजार मंत्र जो उपासना कांड के है वेद के उसका काम पूरा हो जाता है, उसका फल मिल जाता है ।

बाकी के रहे 4हजार. . . 4हजार को. .  सुने हुए को मनन करो. . मनन किये हुए को करते करते निदिध्यासन. . उसी रस में डुबकी मारते जाओ तो 4हजार मंत्रों का काम भी पूरा हो जाता है, फिर प्रणवः सर्व वेदेशु . . . उस प्रणवः के तत्व का ज्ञान मिल जाय. . . उसी वक्त साधक कृत कृत्य हो जाता है,  जो पाने योग्य था जिसके लिए मनुष्य जन्म हुआ था वो सिद्ध हो जाता है ।

अगर इस तत्व को पुरुषार्थ करके नहीं  पाया तो मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवा दिया! धन इकठ्ठा किया, यश इकठ्ठा किया, कुछ किया,  कुछ किया, मृत्यु के झटके में सब छूट जाएगा । इसलिए सबकुछ पाने के बाद भी ये पाना बाकी रह जाता है और इसको पा लिया तो सबकुछ न भी पाओ तोभी कोई परवाह नहीं ! एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए. . . सब इकठ्ठा कर लो, सब पा लो लेकिन जिससे पाया जाता है उसकी तरफ पीठ करके जीओ तो तुम्हारे पाए हुए की कोई कीमत नहीं ! और जिससे पाया जाता है उसको जरा तुमने समझा, उसको पाने के लिए तुमने थोड़ी महनत की तो तुमने अपना तो कल्याण किया अपनी 21 पीढ़ियों का भी कल्याण कर दिया !

जनक आदि की कईं कथाएँ आती है. . .  कर्नल का साथी था नौकर, उससे किसीने पूछा कि तुम्हारे साहब को मच्छर नहीं  काँटाते ?  मच्छरदानी नहीं  लगाते?  बोले,  हमारे साहब इतना पीते है, इतना पीते है कि आधी रात तो बेहोश होते है, उनको पता ही नहीं  होता और जब वो होश में आते है तो मच्छर बेहोश हो जाते है! मच्छरों ने जो साहब को काँटा तो ब्लड में जो अल्कोहल था न वो भी तो आया न तो फिर मच्छर बेहोश हो जाते है!. . . नहीं  समझा अभी तुम?  दारू इतना पीते है कि होश में भी नहीं  होते है, मच्छर काटते है तो पता नहीं !और जब होश में आते है तो मच्छर स्वयं ब्लड के असर से बेहोश होते है ।   दारू तो कभी होश में और कभी बेहोशी में लाता है लेकिन आत्मज्ञान का दारू एक बार पीओ, एक बार होश में आ जाओ फिर बेहोशी कभी नहीं  होती । एक बार होश में आ जाओ उस परमात्म तत्व को देख जान के, फिर कभी बेहोशी नहीं  आती । सो ज्ञानी को सोते समय नींद में भी होश में होता है ।  प्रगाढ़ निद्रा में भी वो निद्रा को देखता रहता है,  निद्रा से पृथक होता है । सच पूछो तो तुम सो जाते हो लेकिन तुम्हारा वो यार तो जगता ही रहता है,  वो कभी थकता ही नहीं !प्राणों को वोही तो चला रहा है, बालों को वोही बढ़ा रहा है, तुम्हारे रक्त वाहिनियों में  दबकार्य उसीकी सत्ता है । तुम्हारी आँख की निगाहें उसीकी सत्ता है,  तुम्हारा हर सोच विचार का केंद्र अभ्युदान, अभ्युदय स्थान. . . जैसे तरंग का अभ्युदय स्थान क्या है, तरंग का उद्गम स्थान क्या है?  सागर, सरोवर! ऐसे ही तुम्हारे हर विचार का उद्गम स्थान तो चेतना है, लेकिन विचार संस्कारों से आक्रांत हो जाते है . . इसीलिए हम समझते है कि कुछ दूर है कहीं पाना है, कहीं जाना है, कुछ लाना है, इतना करे तब सुख हो, इतना पाए तब सुख हो. . . सुख तो . . .

बंदगी का था कसूर बंदा मुझे बना दिया 
मैं खुदसे था बेखबर तभी तो सिर झुका दिया,
वो थे मुझसे दूर मैं उनसे दूर था 
आता था नजर तो नजर का कुसूर था! 
जी में आता है किसीको देखू 
सूरत जो दिखा दी तो ले जाओ नजर भी . . .

इस भेद की नजर, तेरे मेरे की नजर अब न रहे तो भी हरकत नहीं . .  क्योंकि तेरा मेरा सब . . सागर के किनारे खड़े हुआ सागर की गहराई की एकाकारता को  क्या जाने?  लहरों को देखकर सागर का माप मापनेवाला लहरों की गहराई में तो एकता है उसको क्या दिखेगी?  ऐसे ही हम लोग सब सागर की लहरें है  गहराई में तो देखो शांत पानी है. . . शांत पानी के आधार से ही अशांत लहरियाँ दिखती है. . शांत पानी को हटा लो तो अशांत लहरियाँ कहाँ रहेगी? तो अशांति भी है तो उसीकी सत्ता से है और शांति भी है तो उसीकी सत्ता से है, ऐसा जो समझता है वो परम् शांति को पा लेता है!

अशुद्ध मन में भय होता है और भय खड़ा होता है, जैसे भूत नहीं  होता है न तबभी आदमी को भूत दिखता है और काँपने लगता है ।  अशुद्ध मन में चिंताएँ,  भय, खिन्नता और शुद्ध मन में प्रेम, आनंद,  प्रसन्नता, निर्भयता ये सद्गुण आने लगते है ।

तो मन को शुद्ध करने के लिए सेवा,  स्मरण,  जप,  तप, उपासना, ये जो है मन को शुद्ध करती है । ऐसा नहीं  है कि जप तप करनेसे भगवान आ जाते है, अथवा जप तप करनेसे भगवान हृदय में बन जाते है,  अथवा जप तप करनेसे भगवान अपना मुँह दिखाते है. . . भगवान तो सदा मुँह दिखाने को तैयार, बोलनेको तैयार! लेकिन जैसे सूरज नहीं  ढकता,  हमारी आँखों के आगे बादल आ जाते है,  ऐसे ही भगवान तो नहीं  ढकता,  हमारे आगे अज्ञान का पर्दा आ जाता है, मन मलीन होता है तो ईश्वर का रस नहीं  आता, ईश्वरीय शांति का अनुभव नहीं  होता । तो मन की मलीनता दूर करने के लिए उपासनाएँ है ।  तो साकार उपासक जो है साकार  अवलंबन लेकर मूर्ति का,  जलाशय का, देवी का, गुरु का,  गोविंद का चित्र रखकर अपने मन को शुध्द करता है एकाग्र करता है ।  दान करके, यज्ञ करके, होम करके, हवन करके, सेवा करके, बुहारी करके आदि आदि ये सब चित्त को शुद्ध करने के साधन है  ।

निराकार उपासक क्या करते है. . निराकार उपासक निःशब्द में जाते है . . . आहत शब्द जो ध्वनि है टकराकर निकलती है . . . क ब ज घ जो भी हम बोल रहे है. . लेकिन ॐ  तो आहत है लेकिन उसको शांति से हम एकाग्र होकर देखें,  ध्यान करें ध्वनि का तो अत्यंत सूक्ष्म अनाहत नाद  सोहं चल रहा है. . उसको सुनने से भी आदमी का चित्त शुद्ध एकाग्र हो जाता है. . और एकाग्र चित्त में जो भी संकल्प उठता है वो सिद्ध हो जाता है! इसीको गुरु नानक ने कहा . .

अनहद सुनो वडभागि‍या सकल मनोरथ पूरे. . .
अनहद सुनो. . आहत नहीं . . अनहद सुनो वडभागि‍या

. . . अभागे लोग तो नहीं  सुन सकते, भग्यशाली लोग को तो यश मिलेगा धन मिलेगा लेकिन जिसके बड़े भाग होंगे वो अनहद सुनेगा ।  अनहद  सुनो वडभागीया   सकल  मनोरथ पूरे . . सकल मनोरथ पूरे का दूसरा अर्थ भी है कि आदमी सुख चाहता है और अनहद सुनेगा तो ऐसा सुख आएगा कि फिर संसार के मनोरथ नश्वर मनोरथ उठेंगे ही नहीं  . . .
इसलिए सकल  मनोरथ पूरे . . ऐसा भी कहा जाता है. . खैर. . . कुछ भी हो . . . प्रणवः सर्व वेदेषु  . .

सब वेदों का सार . . . त्रिपदा गायत्री . . .

त्रिपदा गायत्री का भी सार बीज रूप में अकार उकार मकार. .  प्रणवः. .

भैरव विज्ञान में भगवान शिव ने कहा कि – “हे उमा,  इस ॐ को जो जानता है वो मेरे को जान लेता है,  इस ॐ को जो समझ लेता है उसने मेरेको समझ लिया,  इस ॐ को जिसने पा लिया उसने मेरे को पा लिया”

तो ॐ अक्षर तो सबने पा लिया है . . . नहीं !. .  अ उ और म. . . तो अ और म  को छोड़कर उ बीच की संधी. .  बीच की संधी में यदि कोई टिक गया तो उसने सारे ब्रम्हांड के राज को जान लिया! एक विचार उठता है दूसरा उठने को है उसके बीच की अवस्था में यदि टिक गया, बेड़ा पार हो गया! फिर तुम्हारे और कृष्ण में बाहर से फर्क दिखेगा,  अंदर से तुम एक ही हो!तुम्हारे में शिव में तुम्हारे में अष्टावक्र में बाहर से फर्क दिखेगा लेकिन भीतर से तुम वही हो! ऐसी ऊँची अवस्था है! ॐ  ॐ  ॐ

पहले समझ ले कि दर्शन छः प्रकार के है ।  आस्तिक दर्शन,  छः प्रकार के नास्तिक दर्शन है . . नास्तिक दर्शन ईश्वर को नहीं  मानते. . . जैसे यंत्र एकत्र करनेसे घड़ी बनती है, चक्रपति चक्र कमान उसको चलाती है ऐसे ही वे लोग बोलते है कि ऐसे ही दुनिया बन गयी अणुओं से परमाणुओं से और चल रही है, रेल गाड़ी चल रही है, बोल रही है  प्रकाश डाल रही है सब,  ऐसे ही हम लोग भी बन गए अपने आप, ईश्वर विश्वर कुछ नहीं ! रेल गाड़ी तो चल रही है लेकिन उसको बनानेवाला तो है, उसको कंट्रोल करनेवाला तो है, अगर अपनेआप चलती तो अपनेआप बनती! अपनेआप व्हिसल बजाती अपनेआप रुकती !  यंत्र ऐसे  आएँगे कि अपने आप ही व्हिसल बजेगी अपनेआप ही रुकेगी ऐसी गाड़ियाँ भी बनेगी, ऐसी कारें बनेगी  बिना ड्राइवर के तुमको छोड़ के चली आए कार वापस लेकिन उनके कंप्यूटर सिस्टम में वो काँटे स्विच दबानेवाला तो फिर व्यक्ति चाहिए चैतन्य !

तो शार्ट में इतना समझे कि छः नास्तिक दर्शन है . . . विचार तो करते है लेकिन उनके विचार में ईश्वर का कोई स्थान नहीं . . ईश्वर का स्वीकार नहीं  करते  । ऐसे तर्क लडाके, दुनिया ऐसे बनी, ऐसे बनी, ऐसे बनी, जैसे बच्चे है सोचते है यार ये पानी इतना बह रहा है इतना सारा पानी कहाँ से आता होगा?  नदी के किनारे खड़े बच्चे बोलते है इतना सारा पानी कहाँ से आया? बोले, वो बड़ा बड़ा बड़ा बड़ा बड़ा आदमी होगा. .  अपने थूकते है, अपने मुंह में से पानी आता है अपने छोटे है तो छोटा पानी,  एक कोई ऐसा बड़ा आदमी होगा कहीं दूर पर उसके मुँह से लार निकलती होगी  ।  दूसरे ने कहा ऐसा नहीं  हो सकता. . लार इतनी नहीं  हो सकती, हम कोई बुद्धू नहीं  है, उसने तर्क लड़ाया . . बोले वो गर्मी के दिन है और दंड बैठक करता होगा , बड़ा बड़ा बड़ा आदमी होगा उसके सारे शरीर से पसीना छूटता होगा,  बड़े में बड़ा आदमी  उसका ही चलता होगा । तीसरे ने कहा ये भी नहीं  हो सकता है । एक दूसरे से बढ़िया तर्क लड़ा रहे थे, एक दूसरे को हरा भी रहे थे  । तीसरे ने कहा ऐसा नहीं  हो सकता है. . अपने सीटी बजाते है न, तो छोटे है तो थोड़ी देर सीटी बजाते है वो इतना बड़ा होगा इतना लंबा लंबा लंबा बड़ा बड़ा बड़ा उसकी सीटी बजती है तभी नदी चलती है । तो ये बाल तर्क है !

ऐसे ही जो बुद्धि में जीते है, मन में ही जीते है और बुद्धि में कोई सत्व नहीं  है. . खाओ,  पीओ, ऐश करो. . इन लोगों की अल्प मति, वे लोग विचार तो करते है, कल्पनाएँ करते है लेकिन ईश्वर -विश्वर को कुछ मानते नहीं ! उन लोगों ने भी दर्शन बनाए । जैसे नॉवेल वॉवेल कथा लिखनेवाले ऐसे होते है कि पढ़नेवाले को कभी आँसू टपक आते है,  कभी खून में गर्मी आ जाती है नॉवेल की कथा पढनेसे । लेकिन नॉवेल लिखने वाले के मन की उल्टी ही तो होती है . . वो कोई सत्य घटना थोडे ही लिख रहा है! उसकी कल्पना में और कल्पनाओं को आक्रांत करके तुम तुम्हारे चित्त में आंदोलन पैदा हो जाए, तुम द्रवीभूत हो जाओ, तुम रस में आ जाओ वीर रस में, भाव रस में, श्रृंगार रस में, किसीभी रस में, नव रस में, किसीभी रस में आ जाओ ये नॉवेल का   । फ़िल्म में गए. . है तो पर्दा. . लेकिन ऐसे दृश्य खड़े हुए . . कभी तुम हँसे,  कभी तुम रोए,  कभी तुम्हारे में गुस्सा आया, कभी भय आया. . तो इससे तुम तरंगित होते गए  . . और बाहर आये कि आहाहा बहुत मजा आया, रुमाल तो गीला है आँसुओं से लेकिन मजा आया क्योंकि तुम तरंगित हुए, तुम बिखरे . . तुमने आत्मरस लिया ऎसी बात नहीं  लेकिन तुम क्या हो तुमको पता नहीं  लेकिन तुम बिखरे!तो ऐसे नास्तिक दर्शन छः है ।  वो ईश्वर को नहीं  मानते ।

दूसरे है अस्तिक दर्शन छः ।  वे ईश्वर को मानते है ।  उन्हें दर्शन शास्त्र कहा जाता है ।  वो दर्शनशास्त्र है पूर्व मिमांसा, उत्तर मिमांसा, न्याय,  दैशेषिक,  सांख्य और योग । ये छः दर्शन है, षड्दर्शन बोला जाता है उसे । इन छः दर्शनों में, ईश्वर को . . . पाँच दर्शनों में ईश्वर को भेद बुद्धि से माना जाता है । ईश्वर का तो स्वीकार है, उसकी प्रकृति आदि का. . . लेकिन ईश्वर अभिन्न  हमारा आत्मा है ऐसा अद्वैत ज्ञान नहीं  । वे आस्तिक दर्शन तो है लेकिन भेदवादी है, भेद रखते है, आत्मा परमात्मा में भेद, दूरी. . देश विशेष में, काल विशेष में ईश्वर मानते है कोई ।

एक ही है वेदांत दर्शन जिसको समझने से सब दर्शनों का समावेश हो जाता है उसमें  ।  अपनी अपनी जगह पर अपनी अपनी यात्रा तक कईं लोग ऊँचे गए है और उन्होंने जो सोचा है, बोला है, नीचे खड़ा हुआ है  वो अपने से एक कदम ऊपरवाले को भी श्रेष्ठ मानता है, दो कदम ऊपरवाले को भी श्रेष्ठ मानता है, पाँच कदम ऊपरवाले को भी श्रेष्ठ मानता है. . तो संसारी आदमी कोई भी दर्शन पढ़ेंगे तो उनको लगेगा बात ये सच्ची है, ये ठीक है. . न्याय पढोगे तो बोलेंगे ये ठीक है,  वैशिष्य पढ़ेंगे तो बोलेंगे हाँ ये सिद्धांत सच्चा है, सांख्य पढ़ेंगे तो बोलेंगे ये सच्चा है, योग पढ़ेंगे तो बोलेंगे ये सच्चा है ।  लेकिन जो वेदांत दर्शन को, अद्वैत ज्ञान को जो उपलब्ध हुए महापुरुष, आखरी तत्व को. .  उनको लगेगा कि ये दर्शन अपनी अपनी जगह पर ठीक है लेकिन हमारा इष्ट, हमारा सुख,  हमारा आनंद अभी नहीं  है,  इतना इतना करेंगे मरने के बाद आनंद मिलेगा इससे वो राजी नहीं  होता, वेदांत दर्शन को जाननेवाला । वो बोलता है

बिछड़े है जो ऐसे दर बदर भटकते फिरते है
हमारा यार है हममें हमको बेकरारी क्या?

 

वेदांत दर्शन के रास्ते जानेवाले अपने सुख को, अपने इष्ट को, अपने आनंद को मरने के बाद पाने की इच्छा में नहीं  रहते. . अपना सुख, अपना आनंद अपना ही स्वरुप है . . हम जिस चीज को प्यार करते है वो चीज आनंद देती है और जिस चीज को घृणा से देखते है वो दुःख देती है ।

अनुकूलवेदनीयं सुखं . .
प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं. . .

 

ये मन की अनुकूलता प्रतिकूलता से सुख और दुःख की प्रतीति होती है लेकिन मनकी प्रतीति जिस परमात्मा से होती है . . कुछ नहीं , कुछ नहीं , कुछ नहीं ,   शून्यम. . .   शून्य को जो देखनेवाला है वो शून्य तो नहीं  . . नहीं  को जो देखनेवाला है, कुछ नहीं  को जो देखनेवाला है वो सबकुछ है, वही सत,  चित, आनंद रूप है ऐसा वेदांत दर्शन को जाननेवाले वेदांत दर्शन मानता है । तो उस दर्शन को समझाने के लिए दो प्रकार के ग्रंथ चले ।

 

एक है प्रक्रिया ग्रंथ और दूसरे है सिद्धांत ग्रंथ । जैसे KG  से फिर एकड़िया, बगड़ा,  तिगड़ा ऐसे करते करते आदमी चले. .  तो ये विचारचंद्रोदय,  विचारसागर,  पंचीकरण, पंचदशी ये सब प्रक्रिया ग्रँथ है. . छोटा छोटा समझा के फिर बड़ी बात,  फिर उससे बड़ी, फिर उससे बड़ी,  फिर उससे बड़ी,  ऐसे . . . उनको प्रक्रिया ग्रँथ कहा जाता है । दूसरे होते है सिद्धांत ग्रँथ. . सिद्धांत, जो लक्ष्य है उसको समझाने के लिए  ऐतिहासिक कथाएँ कहेंगे, पुराणिक कथाएँ कहेंगे लेकिन फिर कह के बोलेंगे ये चित्त के फुरणे से प्रतित होता है. . . चित्त के शांत होने से कुछ बना नहीं . . हे रामजी जगत तीनों काल में बना नहीं  ।
अध्यारोप अपवादाभ्यां. . .

निष्प्रपंच में प्रपंच की कल्पना करें . . क्योंकि हमलोग कल्पना में जीते है कहानि‍यों में जीते है . . हमारा जीवन भी तो एक कहानी है! हमारा जीवन कहानी है तो हमको कहानी में रस आता है!जैसे वो कृष्ण की और ऋषि की कहानी बताई,  एक बार सुन ली आपको याद रह जाएगी! आप दूसरे को भी सुना देंगे ।  तो ये कहानियाँ,  घटनाएँ . . तो हमारा जीवन भी   घटनाओं और कहानियों में जीता है तो फिर वो तत्ववेत्ता महापुरुष को उस प्रकार की बातें उस प्रकार की कहानियाँ, कथाएँ सुनाकर फिर बोलेंगे कि ये सब स्वप्न मात्र है, सब बीत गया ।  राजा वयम   के शरीर से, जाँघ से पुत्र की प्राप्ति हुई, उसने राज्य किया, राजा रहोगुण ने राज्य किया,  अम्बरीष ने राज्य किया, फलाना किया लेकिन हे रामजी बना कुछ नहीं , सब स्वप्ना हो गया!श्रीकृष्ण आये और अर्जुन को विषाद योग हुआ और श्रीकृष्ण ऐसा कहेंगे, ऐसा कहेंगे और अर्जुन फिर ऐसा पूछेगा  ये पूरा भविष्यवाणी वशिष्ठ ने बता दी । फिर कहा कि हे रामजी बना कुछ नहीं . . वही आत्मा कृष्ण होकर मुस्कुरा रहा है, वही आत्मामलीन संवित है श्रोता बनी हुई है, शुद्ध संवित है वक्ता बनी हुई है. . ये सब संवित का विलसमात्र है बाकी एक ही परम सत्य अद्वैत परब्रह्म परमात्मा है ।

पूरी वार्ता कहेंगे . . कर्कटी राक्षसी नीने तप किया,  हिमालय गयी ब्रम्हाजी ने वरदान दिया फिर दूसरों के हृदय में घुस जाती थी खून पीती थी और जो ॐ का जप करता था उसका वो पिंड छोड़ देती थी । इसप्रकार लोगों के हृदय का रक्तपान करते करते कर्कटी राक्षशी आखर परेशान  हो गयी । फिर उसने जाकर हिमालय  में समाधि की ।
वो कर्कटी राक्षशी सूक्ष्म शरीर से किसी गिद्ध में घुस गई उसके श्वास के द्वारा,  और गिद्ध को प्रेरित करके हिमालय ले गई और उसको फिर वहाँ अंदर खड़बड़ाहट करके उल्टी करा दी उसने और उल्टी में वो बाहर निकली, गिद्ध तो चला गया, गिद्ध पक्षी  । फिर उसने वहाँ समाधि की, ध्यान किया  ।  ध्यान करते  करते उसको शुद्ध संवित में विश्रांती मिली  ब्रम्हाजी आये वरदान देने को, अब उसकी कोई रुचि नहीं  रही ।  ब्रम्हाजी ने कहा कि “बेटी तू बैठी थी जिस हेतु से वो इच्छा तेरी पूरी होगी।”

बोली “अब पितामह मेरे को कोई इच्छा नहीं  है । ”

ब्रम्हाजी ने कहा “जबतक शरीर है, ज्ञानी का, अज्ञानी का तो शरीर का आहार, व्यवहार उसको चाहिए ।   तो राक्षसी  ये तेरा भोजन मनुष्य है, तेरा भोजन माँस है ।   पहले आसक्त होकर खाती थी, वासना तृप्त करने के लिए खाती थी, खाने के लिए जीती थी । अब जीने के लिए तू भक्षण कर लेना, अज्ञानी,  मूढ़ों का भोजन करना ताकि वो अज्ञानी मूढ़ जो है पृथ्वी पर बोझा है, पापाचारी है उनका भोजन करनेसे वो भी पापकर्म से छूट जाएँगे,  तेरा शरीर की भी रक्षा होगी,  उनकी भी थोड़ी बहुत सद्गति होगी । ”

इसप्रकार वरदान पाकर वो कर्कटी राक्षसी जंगलों में विचरने लगी । और वो सोचती थी कि ऐसा कोई भोजन करू जो अज्ञानी हो, मूढ़ हो ।  कभी ज्ञानी के ऊपर मेरा अन्याय न हो जाए । अमुक राजा रात को जंगल में गया और कर्कटी राक्षसी ने अपना विक्राल रूप प्रगट किया भयंकर! मानो एक विशाल काली सी बादली है, काली कलूट
काली काली भैंस जैवी  वीभत्‍स ने    हाथ लांबा लांबा नख लांबा लांबा बोयां मोटा मोटा ने राजा ने बवडावा लागी

राजा को डराने लगी ।  तब राजा ने कहा कि “अरे, जो तेरा इष्ट हो, जो तुझे जरूर है वो बात कर  । ऐसा वीभत्‍स रूप बनाकर तू क्या डराती है?  तेरे जैसी मखियों को तो कईयों को मैंने उड़ा दिया । ” निदान इतनी विराट वीभत्‍स रूप धारण की हुई कर्कटी राक्षशी को राजा ने जब ललकारा तो राक्षसी कहने लगी कि “तुम मेरे भोजन हो, मैं तुम्हारा भक्षण करूंगी । ”
“तो न्याय से हमारा भक्षण करेगी तो ठीक है, अन्याय से हमारे पर हावी होगी तो तेरे सिर के हजार टुकड़े हो जाएँगे! तेरे को चाहिए क्या? ”

बोली “मेरे को चाहिए कि. . तुम अगर ज्ञानी हो,  मैं तुम्हारे से प्रश्न पूछती हूँ. .  अगर मेरे प्रश्नों का तुमने ठीक से उत्तर दिया तो मैं तुम्हारे से मित्रता करूँगी,  तुम्हारी सेवा करूँगी ।  और मेरे प्रश्नों का तुमने ठीक से उत्तर नहीं  दिया तो मैं तुम्हारे को अज्ञानी समझकर भक्षण कर जाऊँगी । ”

जो अज्ञानी,  मूढ़ होते है उनको ही भूत, प्रेत, राक्षसों का प्रभाव पड़ता है । और भूत, प्रेत भी उन्ही लोगों को नोचते है,  डाकिनी शाकिनी उन्ही लोगों को नोच सकती है,  ज्ञानवान को भी नहीं  नोचती और ज्ञानी  गुरु का जिसने गुरु मंत्र लिया है उनके ऊपर भी भूत, प्रेत का प्रभाव नहीं  होता । . . .

“तो तुम अगर ज्ञानवान हो तो मैं तुम्हारे ऊपर अपना जोर नहीं  लगा सकती और अज्ञानी होंगे तो मैं तुमको खा जाऊँगी ।  धड़ाक धड़ाक करके भस्म करूँगी ! मेरे प्रश्न का उत्तर दो ।

ऐसा कौनसा चिद अणु है जो सबमें समाया है और दिखता नहीं  ?

ऐसा कौनसा शुद्ध संवित है जिससे सारा जगत दिखता है लेकिन जहाँ से उठता है उसको नहीं  देखता ?

ऐसा कौनसा त्रिसणु है कि जिस त्रिसणु से अनंत अनंत ब्रम्हांड फुड़े है?

ऐसा कौनसा तत्व है जिसको जानने के लिए बड़े बड़े बुद्धिमान कोशिश करते है और हार जाते है ?  और जो पाते है वो समझते है हमने पाया नहीं  पहले से था ?

ऐसा कौनसा वो चिदवपू है कि जिसको पाए बिना जीवन में सबकुछ पाया तो व्यर्थ !और जिसको पाने से कुछ भी न पाया फिर भी वो शहनशाह है?  दुनिया मे हर इज्जतवाले से भी ऊँची इज्जत वो व्यक्ति पाता है जो उस तत्व को जानता है, ऐसा कौनसा तत्व है?

जिसको न जानने के कारण व्यक्ति की सारी बुद्धिमत्ता, सारा अकल सारी होशियारी तुच्छ हो जाती है और जिसको जानने के बाद बड़े बड़े होशियार अकलमंद, बुद्धिमान से भी वो व्यक्ति पूजनीय हो जाता है और उसे पूजाने की कभी इच्छा ही नहीं   होती !

ऐसा कौनसा तत्व है जिसको पाने से कुछ पाने की इच्छा नहीं  होती और कुछ खोने का भय नहीं  होता, जीने की इच्छा नहीं  होती और मरने का भय नहीं  होता . . आप तो, अपना तो कल्याण कर लेता है, अपना तो उद्धार हो जाता है लेकिन उसके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों का भी उद्धार हो जाता है ।

ऐसा कौनसा तत्व है जिसको पाने से सब पाया जाता है? ”

इसप्रकार अपने ढंग के उसने प्रश्न पूछे ।

तब राजा ने कहा कि “अरे कर्कटी राक्षशी, तूने एक ही उस परब्रह्म परमात्मा के विषय में अलग अलग पॉइंटों से, अलग अलग व्यू से प्रश्न पूछे! वही चिद अणु है जिसके फुरणे से सारा जगत भासता है, वही चैतन्य वपु है जिसको जानने से सब जाना है, जिसको पाए से सब पाया जाता है । ”

तो कर्कटी ने प्रश्न किए और उन सब प्रश्नों  का उत्तर राजा ने दिया । कर्कटी की मित्रता हो गयी । राजा उसको ले गया अपने राज्य में और जो फाँसी देने योग्य थे, अपराधी थे उन मनुष्यों को अर्पण कर दिया कर्कटी को,  जैसे बाज चिड़िया को ले जाता है ऐसे ही ये राक्षसी अपना शिकार लेकर जंगल में चली गई,  उनको भक्षण किया और छः महीना तक उसको फिर कुछ जरूरत न पड़े इतना भोजन कर लिया ।  फिर राजा के साथ ज्ञान की चर्चा करती । ऐसे आती,  अपना आहार ले लेती, ज्ञान चर्चा करती और समय बिताती ।

हे रामजी, एक बार ऐसा हुआ कि वो कर्कटी गई तो आयी नहीं  । राजा ने देखा बहुत दिन हो गए आई नहीं . . सोचा कि कर्कटी हिमालय में चली गई और पद्मासन बाँधकर,  समाधिस्त होकर देह छोड़ दिया! थी वो राक्षसी तो थी. . . कर्कट कर्कट शब्द करके डराती थी, हुँकार करके लोगों को डराती थी और डरा के बाद में शिकार करके खाती थी. . . खाती थी फिर भी उनका मंगल करती थी ।  अब वो चली गई तो राज्य के लोगों का कल्याण हो इसलिए उसकी स्मृति वे करते रहे इस हेतु से राजा ने दो मंदिर बनवाए ।

हुँकार करके लोगों का मनोबल हरण कर लेती थी  बाद में शिकार करती थी और शिकार करने के लिए पहले मनोबल हरना पड़ता है ।  शेर जब शिकार करता है तो दहाड़ता है ।  बंदर तो होते है पेड़ के ऊपर, डाली पर.. शेर की गुँजाइश नहीं  जाने की,  वो नीचे बैठके खड़े होके दहाड़ता है,  तो एक धड़ाके में तो वो लोग लैट्रिन बाथरूम कर देते है, फिर दहाड़ता है तो उसमें जो कमजोर है वो डर के मारे उसकी नाड़ियाँ जो है अपना शक्ति छोड़ देती है, अपना कार्य छोड़ देती है, धड़ाक ! आप जब देखेंगे बंदर को या किसी प्राणी को गधे को या अमुक व्यक्ति को तो जो डर गया न तो नाड़ियाँ अपना अपना काम  छोड़ देती है उसको लैट्रिन बाथरूम हो जाता है, वो रोकने का काम है नाड़ियों का वो छोड़ देती है । कभी कोई आदमी जाता है और हाथ में कुछ है और आपने जैसे छूट जाता है, नाड़ियाँ काम अपना छोड़ देती है डर में । तो पहले भय. . .  तो हुँकार कर वो राक्षसी भयभीत कर देती थी और भयभीत करने के बाद भी उनका मंगल कर देती थी क्योंकि उसके तन में  माँस होता तो राक्षसी  को तो आत्म शांति थी तो उनको सब सद्गति हो जाती  । इसलिए राजा ने उसके दो मंदिर बनवाए,  और मंदिर के दो नाम रखे हिंगलादेवी और मंगलादेवी  ।

भूतपूर्व जो कर्कटी राक्षसी थी अभी हिंगलादेवी और मंगलादेवी के नाम से पूजी जाती है । आपने हमने  ये नाम सुने माताजी के ।

इतना तो कह दिया फिर कहा कि हे रामजी ये सब स्वप्ने जैसे संसार में है, तत्व से कुछ बना नहीं  तीनों काल में. .  लो. . अख्खी रामायण कह दी, हिंगलानी मंगलानी कर्कटीनी लेकिन सिद्धांत की बात समझाए जा रहे है कि कुछ बना नहीं , ये तो व्यवहार में जब चित्त का फुरणा फुरता है, जगत सत्य  भासता है तब ये तुमको सच्चा लगता है,  चित्त का फुरणा तुम्हारा शांत हो जाए रात्रि को तुम सो जाते हो तो कहा हिंगला, कहा कर्कटी,  कहा मंगला,  कहा तुम और कहा हम?  चित्त की वृत्ति कंठ में आती है तब स्वप्ना, चित्त की वृत्ति ह्रदय में विश्रांती करती है तब नींद, चित्त की वृत्ति नेत्रों में जब आती है तो जागृत . . ये है संवित का फुरणा मात्र, ये फुरणा मात्र  जगत है वैसा वास्तविक में जगत बना नहीं  ।  चित्त में फुरणा आया सत्संग हॉल बने, इतना लंबा चौड़ा सत्संग हॉल. . अब चित्त तो छोटा दिखता अब ये सत्संग हॉल बड़ा दिखता है उसमें ये शरीर  छोटा और शरीर से भी छोटा अपना हृदय और हृदय में  एक भाग में नाड़ी और नाड़ी में  संकल्प उठा कि सत्संग हॉल बने ।  फुरणा तो छोटा था ! तो निराकार तत्व जो है न वो आकृती में छोटा है लेकिन सूक्ष्मता में सारे ब्रम्हांड में फैला है ।  उसको जो जान लेता है वो कृष्ण को जान लेता है,  उस तत्व को जो मैं रूप में स्वीकार कर लेता है उसके लिए सारा बंह्मांड  अपना स्वरूप हो जाता  है ।

ऐसा एक अद्भुत आत्मा नंद में रमण करनेवाला कोई ब्रह्मवेत्ता था,  ब्रह्मज्ञानी  । किसी सेठ को हुआ कि चलो ब्रह्मज्ञानी की सेवा  सौभाग्यशाली को मिलती है ।  नौकर को आदेश कर दिया कि ये बाबाजी को रोज शाम को दूध पिला के आया करो, दिन को भोजन करते, रात को नहीं  करते होंगे तो दूध पिला के आया करो ।    निदान,  नौकर को काम सौंप दिया और वो सेठ भी कोई होगा प्लास्टिक का बना हुआ. . ब्रह्मज्ञानी की सेवा नौकरों से कराई!  नौकर क्या था. . . नौकर भी कोई आधुनिक रहा होगा, वो क्या करता था कि वो दूध के पैसे तो जेब में डाल देता था,  छाँछ मुफ्त में मिल जाती थी कहीं से, नमक मिर्ची मिलाके और छाँछ का प्याला भरके बाबाजी को पिला के आता था ! जय जय! सेठ घूमते घामते एक बार दर्शन करने गए  और गुरुजी को बोला महाराजजी को कि स्वामीजी हमारा नौकर आपको शाम को दूध पिला जाता है ?  बाबा ने सब स्वीकारा. .  बोले हाँ पिला जाता है ।

उसने पूछा -दूध पिला जाता है स्वामीजी? सेठ ने पूछा हमारा नौकर आपको दूध पिला जाता है ?  बोले-पिला जाता है ।  अब सेठ ने पिला जाता है सुना. . क्या पिला जाता है कहीं विश्लेषण नहीं  किया  ।    समय पाकर नौकर  को कोढ़ हुआ,  बीमारी हुई, घर में कोई मांदा पड़ा,  समाज में बेइज्जती होने लगी ! अब ब्रह्मवेत्ता को तो कोई फरियाद नहीं . . लेकिन प्रकृति से सहन नहीं  हुआ!  तब किसीने पूछा कि तेरे को चारों तरफ से मुसीबतों ने घेर लिया है बात क्या है सच बता ?   बोले, और तो कुछ नहीं  किया,  मैने कोई चोरी, पाप तो नहीं  किया लेकिन दूध के पैसे जेब में धरता था और बाबाजी को भीख माँग के  छाँछ पिला देता था ।

तो जो प्रणवः के वास्तविक स्वरूप को जानता है उसके लिए सब स्वीकार है ।  कोई आदर करो तो क्या,  कोई अनादर करो तो क्या, कोई अपमान करो तो क्या, कोई धोखा करो तो क्या ! अब बाबाजी के हृदय में पता चला होगा कि नहीं  चला होगा कि ये दूध के बदले छाँछ पिलाता है? पता तो चला होगा. . हो सकता है लेकिन उसको महत्व नहीं  दिया !और हो सकता है पता न भी चला हो !अगर पता चलाने का संकल्प करके एक क्षण के लिए शांत हो गए तो पता चल जाता है,  और पता चलाने का विचार ही नहीं  किया तो पता नहीं  भी चलता है!  इसलिए ज्ञानी,  अंतर्यामी इन तुच्छ चीजों में नहीं  हुआ करता ! अंतर में जो चैतन्य है उस चैतन्य स्वरूप आत्मा को “मैं ” रूप से जो जान लेता है वो फिर बाहर के तुच्छ तुच्छ चीजों को सबको जाने ये कोई जरूरी नहीं  ।  हे रामजी ये जगत सारा चित्त का विलास मात्र है ।  और इस चित्त के विलास को चित्त का विलास समझकर जो पृथक हो जाता है वो भी वेदांत के अनुकूल तत्व ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है ।   जिज्ञासु के लिए द्रष्टा और दृश्य . . . मैं द्रष्टा और ये दृश्य ऐसी भावना करके दृश्य में से राग हट जाता है, दृष्टा स्वरूप में स्थिर जो जाता है । दृष्टा स्वरूप में स्थिर हो जाने के  बाद फिर उसके लिए दृश्य और द्रष्टा दो नहीं  बचता,  उसका तन, मन, उसका जीवन उनके लिए अणु अणु में परब्रह्म परमात्मा जड़  और चेतन. .  जहाँ चैतन्य की घनिभूत अवस्था  है उसको जड़ बोलते है और जहाँ सूक्ष्म अवस्था है उसको चेतन बोलते है. .  ज्ञानी का शरीर फिर चिन्मय रूप में माना जाता है,  तो ज्ञानी के चरणों को छूकर जो रज आती है वो भी कल्याणकारी हो जाती है, पवित्र हो जाती है ऐसा वो आत्मदेव है ! तो उस आत्मदेव को समझने के लिए प्रक्रिया ग्रन्थ होते है और सिद्धांत ग्रन्थ होते है ।  किसी को सिद्धांत ग्रन्थ से अनुकूल होता है, किसीको प्रक्रिया ग्रन्थ से अनुकूल होता है ।  लेकिन ये प्रक्रिया ग्रन्थ या सिद्धांत ग्रन्थ की पद्धति से उस परमात्मा का ज्ञान मिल जाए तो उन्ही लोगों को जल्दी ज्ञान हो जाता है जिनका अंतःकरण मलीन नहीं  है, जिनका  अंतःकरण शुद्ध है,  जिनका मन पवित्र है,  उनको तो जल्दी ज्ञान हो जाता है ।  और जिनका अंतःकरण पवित्र नहीं  है वे बार बार सुनते है तो अंतःकरण पवित्र हो जाता है ।  और मैं पवित्र आत्मा हूँ ऐसा बार बार विचार करते है. .   मैं साक्षी हूँ,  मैं चैतन्य हूँ,  शुद्ध हूँ,  बुद्ध हूँ, आत्मा हूँ,   सर्व हूँ, सबमें हूँ,   सबमें हूँ, सर्वोहं,  शांतोहं,   शुद्धोहं,  बुद्धोहं,  आनंद स्वरूपोहं,  प्रेम स्वरूपोहं,  मैं प्रेम स्वरूप हूँ,  आनंद स्वरूप हूँ,   शांत स्वरूप हूँ,  मैं आत्मा हूँ,  चैतन्य हूँ,  इसप्रकार का जो चिंतन करते है तुरंत पवित्र होने लगते है !  और परमानंद उनके रुए रुए से फूट निकलता है ।  तो मैं चाहता हूँ  ऐसा आप थोड़ी देर के लिए खुली आँख रखे,  आधी बंद रखे-आधी खुली रखे,  स्वभाविक बैठे रहे . .

तुम कुछ करो मत केवल इतना पवित्र सोचो कि जैसा आत्म ज्ञान पाने के पॉइंट पे आने वाले साधक सोचते है ऐसा सोचो. . . मैं शांत हूँ,  जगत बना नहीं , सब स्वप्ना मात्र है, सब कल्पना मात्र है,  सब मन का विलास है,  ये मन का फुरणा है,  दुःख भी मन का फुरणा सुख भी मन का फुरणा. . . इस प्रकार के जो जो तुमने वेदांत के पवित्र वचन सुने है उन वचनों को दोहराते दोहराते खुली आँख. . .  आप ज्ञान समाधि को उपलब्ध  हो सकते है ।  ज्ञान की समाधि लगे तब लगे . . अभी हृदय शुद्ध हो सकता है, पवित्र हो सकता है,  हजारों यज्ञ करने से जो चीज नहीं  मिले वो ऐसा पवित्र आत्म चिंतन करने मात्र से तुम्हारे हृदय में वह शांति मिलने लगेगी,  वह आनंद फुरने लगेगा. . . मैं सबमें हूँ,  मैं सबमें हूँ. . . जहाँ से शब्द उठते है, मैं वही हूँ जहाँ से   मन उठता है,  मैं वही हूँ जहाँ से बुद्धि के निर्णय उठते है, मैं वही हूँ जहाँ से ऋषियों को खबरें मिलती है, मैं वही हूँ जहाँ से श्री रामचन्द्रजी चेष्टा करते है, मैं वही हूँ जहाँ से रावण चेष्टा करता है,  मैं वही हूँ जहाँ से श्रीकृष्ण चेष्टा करते है, मैं वही हूँ जहाँ से श्रीकृष्ण और कंस दोनों चलते है, मैं वही आत्मा. . प्रणवः. .   अनाहत शब्द वाह वाह ! मेरा ही नाम आत्मा है,  मेरे को  ही ब्रह्म बोलते है,  मैं ही चैतन्य आत्मा हूँ इसप्रकार की पवित्र भावना करते करते . . देह नहीं  है हम तो देह की भावना करने से देहा का अध्यास आ गया,  आत्मा तो हम है ही है ! हृदय को खूब प्रेम से,  धन्यवाद से, ब्रह्म भाव से भर जाने दो. . . अपने इष्ट को स्नेह करो, आपकी जिसमें श्रध्दा,  भक्ति,  प्रीति हो उस उस देव को उस उस परमात्मा को भगवान को स्नेह करते करते तुम्हारा अहं बह जाए और ब्रह्म भाव रह जाए. . .

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।  ।


हे अर्जुन मैं जल में रस हूँ,  चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, संपूर्ण वेदों में ओमकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।

यह विश्व सब है आत्मा ही
इस भांति से जो जानता 
यश वेद उसका गा रहे
प्रारब्ध वश वह वर्तता
ऐसे विवेकी संत को
निषेध है विधान  है
सुख दुःख दोनों एक से
सब हानि लाभ समान है

खूब समान सत्ता में,  अंतःस्थल  सत्ता में,  उस असीम आत्मसत्ता में हमारा मन शांत हुआ चला जाए . . .

हे मेरे मन तू बाहर कहाँ जाएगा ? कबतक भटकेगा? इस फुरणे के अनुसार तो तू कईं सदियाँ  बिता बिता कर फुरणे में फुरफुराते जन्‍मता रहा मरता रहा . . अब तू अजन्मा आत्मा में विश्रांति‍ कर ।  हे मेरे मन,  जैसे राजा जनक आत्म शांति को उपलब्ध हुए, जैसे तीतल ऋषि के चरणों में भारत का विख्यात सम्राट भगीरथ आत्म शांति को उपलब्ध हुआ, जैसे उद्दालक ऋषि आत्मशांति में आरामी हुए . . हे मेरे मन तू भी उस प्रकार आत्मशांति में आराम कर,  बाहर तेरे कोई शत्रु और मित्र सदा नहीं  रहेंगे, बाहर का शरीर तेरा सदा न रहेगा,  बाहर का देह तेरा न रहेगा,  लेकिन तेरा अंतर्यामी परमात्मा देह में रहते हुए भी विदेही देह से परे उस परमात्मा की भावना कर . .

हे मेरे मन जैसे कीड़ा भंवरे का चिंतन करते करते भंवरी हो जाता है ऐसे ही हे मेरे मन तू ब्रह्म का चिंतन करते करते तू ब्रह्म रूप हो जा ! जनक झरोखे में बैठकर अपने मन को समझाते है,  भगीरथ राजा तीतल ऋषि के चरणों में गए . . तीतल ऋषि कहते है कि हे राजन राजपाट का त्याग करके शत्रुओं के घर की भीक्षा माँगकर फिर मेरे आश्रम में आ . . मैं श्रेष्ठ हूँ ऐसी तेरी कल्पना चली जाएगी  ।  राज्य का त्याग करनेसे शत्रुओं के घर भीक्षा माँगने से तेरा अहं गल जाएगा  ।  ”

वे बड़भागी है जो परमात्मा के लिए राज्य को और अपने अहं को दांव पर लगा देते है  ।  वे सौभाग्यशाली है जो राज्य को और अहंकार को ईश्वर प्राप्ति के लिए दाँव पर लगा देते है, भगीरथ राजा ऐसा सौभाग्यशाली था . . राज्य पाट छोड़कर शत्रुओं के घर भीक्षा माँगता माँगता गुरु के द्वार पर पहुँचा  ।

तीतल ऋषि कहते है कि ” राजन, तेरा चित्त मान रहा था ” मैं राजा हूँ राज्य मेरा है” लेकिन हे राजन,  तेरे जन्म के पहले ये राज्य यहीं पड़ा था,  मरने के बाद भी रह जायेगा . . राज्य पुण्यों से मिलता है  और पुण्य अन्तःकरण करता है,  सुख अन्तःकरण को होता है,  राज्य पापों से छीना जाता है,  पाप अन्तःकरण करता है,  दुःख अन्तःकरण को होता है. .  इस सुख और दुःख दोनों को तू देखने वाला तू इन दोनों का स्वामी है राजन ! तू उस अपने स्वामी पद में जाग! कबतक चित्त के संवेदन में अपने जीवन और मृत्यु के गोते  खाते खाते युग बिताए . . हे राजन,  तू अपनी आत्मा की ओर आ जा !”

तीतल ऋषि कहने लगे  “हे भगीरथ, मनुष्य वह है जो छोटी चीज को बड़ी में मिला दे,  जो अल्प जीवन को महान में बदल दे यही मनुष्य के पुरुषार्थ का लक्ष्य है ! जिसने अपनी सेवा नहीं  की,  जिसने आत्म सेवा नहीं  की वो दूसरों की सेवा करने पर अहंकारी हो जाएगा ! जो दूसरों की सेवा करता है आत्म सेवा के लिए ही आत्मभाव से वह आत्म विश्रांती पाकर अपनेआप में जग जाता है ! हे राजन,  मोहनिशा में सब लोग सो रहे है तू कबतक सोता रहेगा?  ”

वसिष्ठ जी कहते है “हे रामजी,  इसप्रकार तीतल मुनि के उपदेश को प्राप्त करके भगीरथ राजा ज्ञातज्ञेय हुआ । अज्ञानी की दृष्टि से आदमी अज्ञानमय सोचकर संसार में आवागमन में भटकता है,  ज्ञानी के अनुभव को,  भगवान के अनुभव को सुनकर,  सोचकर आदमी भगवान के अनुभव के अनुसार मुक्तता का अनुभव करता है  ।  भगवान को जैसा जगत दिखता है वो सच्चा होता है,  जीव को जैसा जगत दिखता है वो उसकी कल्पना होती है . . भगवान को जो दिखता है वो सही है, संत को जो दिखता है वह सही है, हमको जो दिखता है वो कल्पना मात्र है  । ”

तीतल ऋषि के उपदेश से भगीरथ ने अपनी कल्पना छोड़ी. . गुरु और भगवान के दृष्टि में अपनी दृष्टि मिला दी. . गुरु और भगवान को जैसा जगत दिखता है ऐसा ही वे जगत को निहारके अपने जगदीश्वर स्वभाव में जगने लगे   ।  भगीरथ ने बाद में ध्यान करके भगवान शिवजी को गंगाजी जटा में धारण करने के लिए प्रसन्न कर लिया  ।  स्वर्ग से गंगाजी को लाए जिसका एक प्रवाह पाताल में है एक स्वर्ग में है,  उसका एक प्रवाह मृत्यूलोक में भी लाकर जीवों का उपकार करनेवाले भगीरथ राजा   आत्मज्ञान पाकर जीवन मुक्त होकर विचरे  ।  ऐसे ही तुम अपने को आत्मा शुद्ध चैतन्य, शांत,  निरामय, आनंद स्वरूप, प्रेम स्वरूप मानकर उस परमात्मतत्व को जानकर अपनेआप में आराम पाओ !