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बाहरी शरीर के साथ आंतरिक शरीर की चिकित्सा करो, इसके बिना पूर्ण स्वस्थता सम्भव नहीं – पूज्य बापू जी



रोग दो शरीरों में होते हैं – बाह्य शरीर में और आंतरिक शरीर
(मनःशरीर, प्राणशरीर) में । उपचार बाहरी शरीर के होते हैं और रोग
मनःशरीर, प्राणशरीर में होते हैं । आंतरिक शरीर का इलाज नहीं हुआ
तो रोग पूर्णरूप से ठीक नहीं होता और लम्बे समय तक रहता है ।
‘मलेरिया ठीक हो गया…’ फिर से मलेरिया हो जाता है । ऐसे ही कई
बीमारियाँ थोड़ी ठीक हुईं लेकिन फिर दूसरा रूप ले लेती हैं, 2-5 साल में
फिर से उभर आती हैं । कइयों को दवाइयों के रिएक्शन (दुष्प्रभाव) भी
होते हैं । तो आंतरिक शरीर को रोग तोड देता है और चिकित्सा बाहर
के शरीर की होती है इसलिए वे प्रयास विफल हो जाते हैं ।
वैद्यों और डॉक्टरों को केवल बाहरी शरीर का ज्ञान है अतः वे
केवल बाहरी शरीर की चिकित्सा करते हैं या औषधि के द्वारा बाहरी
शरीर को ही स्वस्थ करने का प्रयत्न करते हैं जबकि चिकित्सा करते हैं
या औषधि के द्वारा बाहरी शरीर को ही स्वस्थ करने का प्रयत्न करते हैं
जबकि चिकित्सा आंतरिक शरीर की करना भी अनिवार्य है । रोग सीधे
आंतरिक शरीर को जकडता है । पूर्णतः रोगमुक्त होने के लिए औषधि
पूर्ण उपाय नहीं है अपितु पूर्ण स्वस्थता तो वैदिक मंत्रों के द्वारा ही
सम्भव है ।
यजुर्वेद और अथर्ववेद में विविध रोगों की निवृत्ति के लिए चिकित्सा
के विविध उपाय, मंत्र एवं विधियाँ बतायी गयी हैं । अमुक-अमुक रोग
के लिए अमुक-अमुक मंत्र जपो या निरंतर श्रवण करो तो ऐसे आंदोलन
पैदा होंगे जिनसे प्राणशरीर, मनःशरीर स्वस्थ हो जायेंगे तो व्यक्ति पुनः

स्वस्थ हो जायेगा । 6 महीने औषधियों का उपयोग करने से जो काम
होता है वह मंत्रध्वनि से 6 दिन में हो सकता है ।
यह मंत्र मूल पर असर करेगा, त्रिदोषों को हर लेगा
कुछ मंत्र समस्त व्याधियों को समाप्त करने में समर्थ हैं फिर चाहे
वे व्याधियाँ पित्त संबंधी हों, चाहे वात या कफ संबंधी । वायु से 80
प्रकार की, पित्त से 40 प्रकार की और कफ से 20 प्रकार की बीमारियाँ
बनती हैं । इनमें से 2-2 दोषों की एक साथ विकृति के भी अन्य अनेक
प्रकार की बीमारियाँ बनती हैं ।
ऐसे ही छोटी-मोटी कई बीमारियाँ बन जाती है पर सभी बीमारियों
की जड़ है – वात, पित्त व कफ का असंतुलन । और मंत्र इसी जड़ पर
असर कर दे तो बस, हो गया संतुलन !
वात-पित्त-कफ के असंतुलन से होने वाली सभी बीमारियों को इस
विशिष्ट मंत्र से दूर किया जा सकता है । मंत्र है
त्र्यम्बकं यजामहे ऊर्वारुकमिव स्तुता वरदा प्र चोदयन्ताम् ।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं ब्रह्मवर्चसं मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ।।
यह 3 मंत्रों का समन्वित रूप है और इसके उच्चारण अथवा श्रवण
से सभी प्रकार की बीमारियाँ दूर हो जाती हैं ।
मेरे पास ऋषिकेश की एक बच्ची आयी थी आखिरी बार दर्शऩ
करने, घरवाले उठा के ले आये थे । बोलीः “साँईं मैं जा रही हूँ । मुझे
कैंसर है, सारे शरीर में फैल गया है । डॉक्टरों ने ऐसा-ऐसा कहा है ।”
मैंने कहाः “अरे क्या है ! ऐसे कैसे जायेगी ?” मैंने उत्साह भरा,
मंत्र दे दिया । 6-8 दिन बाद आकर बोलती है कि “साँईं ! रिपोर्ट्स
नॉर्मल आयी हैं ।”

मंत्र अंदर के शरीर को ठीक कर देता है तो बाहर का शरीर भी
उसके अनुरूप चलने लगता है । रोगी स्वयं जपे, नहीं तो फिर हवन
आदि करके अन्य लोग भी यह मंत्र जपें तब भी उसको फायदा हो
सकता है ।
त्रिदोषजन्य बीमारियों में आऱाम हेतु
वायु सम्बंधी बीमारी है तो महाशिवरात्रि के दिन शिवजी को
बिल्वपत्र चढ़ायें और रात को ‘ॐ बं बं बं बं…’ इस प्रकार ‘बं’ बीजमंत्र
का सवा लाख जप करें तो जोड़ों का दर्द, गठिया, यह-वह… 80 प्रकार
की वायु संबंधी बीमारियाँ शांत हो जायेंगी । अथवा तो ‘ॐ वज्रहस्ताभ्यां
नमः’ इस मंत्र का जप करें तो भी वायु-सम्बंधी बीमारियों से आराम
मिलेगा ।
पित्त सम्बंधी बीमारियों में बायें नथुने से श्वास लेकर रोकें और ‘ॐ
शांति… ॐ शांति…’ जप करें फिर दायें नथुने से छोड़ें । ऐसा केवल 5
बार करें । ज्यादा करेंगे तो भूख कम हो जायेगी ।
ऐसे ही कफ सम्बंधी बीमारियाँ मिटानी हों तो दायें नथुने से श्वास
लेकर रोकें और ‘रं’… रं… रं… रं… ‘ इस प्रकार मन में जप करें और
‘कफनाशक अग्नि देवता का प्राकट्य हो रहा है’ ऐसी भावना करें । श्वास
60 से 100 सेकेंड तक रोक सकते हैं फिर बायें नथुने से धीरे-धीरे छोड़
दें । यह प्रयोग खाली पेट सुबह शाम 3 से 5 बार करें । कफ-सम्बंधी
गडबड़ छू हो जायेगी ।
हवा, पानी जगह बदलने से भी रोग होते हैं । कहीं पित्त की
प्रधानता होती है, कहीं वायु की और कहीं कफ की प्रधानता होती है ।
रोगप्रतिकारक शक्ति कमजोर होती है तो वातावरण के असर से
बीमारियाँ जल्दी आ जाती हैं, बाहर कहीं जाते हैं तो बीमार हो जाते हैं

और फिर अपने मूल जन्म-स्थान के वातावरण में आते हैं तो सब ठीक
हो जाता है ।
स्थूल शरीर के साथ प्राणशरीर, मनःशरीर का सीधा संबंध है । जो
मन से ज्यादा कमजोर होता है उसको बीमारी ज्यादा पकड़ती है और
मनोबल बढ़ता है तो बीमारी जल्दी निकल भी जाती है ।
दूसरों का आश्रय जितना कम लें उतना अच्छा
जो सेठ-सेठानियाँ है, बड़े लोग हैं वे थोड़ी असुविधा हुई तो नौकर
सेविकाएँ रख लेते हैं और जरा-जरा बात में सुविधा के अधीन होकर
जीते हैं, उनको रोग भी लम्बे समय तक घेरे रखते हैं । अपना काम
खुद ही करें, मन-प्राण मजबूत रखें । नौकरों से सेवा लेने की आदत नहीं
डालनी चाहिए, नहीं तो फिर नौकरों के नौकर हो जाते हैं, सेवकों के ही
सेवक बन जाते हैं । दूसरों की सेवा लेना ज्यादा बुद्धिमानी नहीं है ।
रोग बीमारी में अकेले रहना चाहिए । दूसरों का आश्रय ज्यादा नहीं लेना
चाहिए । नर्स का डॉक्टर का आश्रय जितना कम लें उतना अच्छा ।
अंतर्मन का आश्रय लें । हमको फालसीपेरम मलेरिया (जहरी मलेरिया)
हुआ तो कभी-कभी स्थिति बहुत खराब होती तो ‘ॐ…ॐ…’ बोलता फिर
मन को पूछता कि ‘ॐ…ॐ…’ कौन कर रहा है ? ऐसा करके साक्षी भाव
से पीड़ा का आनंद लेता तो खूब हँसी आती । हम अपने-आपसे खूब
मजाक करते, ‘पीड़ा हुई है शरीर को, मुझ आत्मा को पीड़ा नहीं होती ।
‘ॐ… ॐ…’ क्या है ? ॐ… ॐ…
बीमार रहना पाप है
ॐकार मंत्र भी आयु बढ़ाने वाला है, कई बीमारियों को भगाने की
ताकत रखता है । भगवान का मंत्र फिर भी लोग अस्वस्थ हैं ! मुफ्त में
चीज मिलती है तो महत्त्व नहीं जानते इसलिए दूसरों का सहारा खोजते

रहते हैं- ‘फलानी औषधि ठीक करेगी, फलाना ठीक करेगा, फलानी जगह
ठीक होंगे…। उपचार तो बाहर के शरीर का हुआ, अंदर का शरीर तो वही
रहेगा तो फिर वह दूसरी बीमारियाँ ले आयेगा । इसलिए अंतःशरीर को
मजबूत करो ।
पूर्ण आरोग्यता तो मनःशरीर और प्राणशरीर – दोनों को स्वस्थ
रखने से ही मिलती है । इन दोनों शरीरों को स्वस्थ करने के लिए प्रणव
(ॐकार) का जप करें । प्रणव परब्रह्म है । उसका जप सभी पापों का
हनन करने वाला है । प्रातः स्नान के पश्चात दायें हाथ की अंजलि में
या कटोरी म जल लेकर उसे निहारते हुए ॐकार का 100 बार जप्
करके अभिमंत्रित किये गये जल को जो पीता है वह सब पापों से मुक्त
हो जाता है । चाँदी अथवा सोने की कटोरी हो तो अति उत्तम, नहीं तो
ताँबे आदि की भी चलेगी ।
पानी को निहारते हुए ॐ का जप करें । नेत्रों के द्वारा मंत्रशक्ति
की तरंगे पानी में जायेंगी और ॐ के जप से मनःशक्ति तथा प्राणशक्ति
का विकास होगा । यह अंतरंग प्रयोग सब कर सकते हैं ।
अंतःशरीर को मजबूत करो तो बाह्य शरीर के थोड़े उपचार से भी
व्यक्ति स्वस्थ हो जायेगा । अंतर्मन स्वस्थ नहीं होता है तो बाहर के
बहुत उपचार के बाद भी जान नहीं छूटती जवानी में भी ! चलो बुढ़ापा
है, कोई तीव्रतम प्रारब्ध है तो श्रीरामकृष्णदेव को, महावीर स्वामी को,
रमण महर्षि को भी रोग से जूझना पड़ा वह अलग बात है लेकिन जरा-
जार बात में लम्बे समय तक बीमार रहना पाप है । हाँ-हाँ, काहे को
बीमार रहना लम्बे समय तक ?
केवल ॐकार अथवा ह्रीं के जप से दिव्य लाभ होते हैं । गौ-चंदन
धूपबत्ती से धूप करें और ॐ ह्रीं, ॐ ह्रीं… जप करें तो अंतरिक्षगत

(आकाशगत) तथा भूमिगत उत्पातों की शांति होगी तथात भूत-पिशाच,
टोना-टोटका – सबका प्रभाव हट जायेगा ।
बिना लोहे का शस्त्र
शक्त्यान्नदानं सततं तितिक्षार्जवामार्दवम् ।
यथार्हप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम् ।।
‘अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता,
सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (गुरुजनों का आदर-पूजन)
करना – यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र् है ।
(महाभारत, शांति पर्वः 81.21)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023 पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 365
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कौनसा सौंदर्य कल्याणकारी ? – पूज्य बापू जी



सौंदर्य की प्रति सहज ही आकर्षित होना मानव की स्वाभाविक वृत्ति
है किंतु सांसारिक सौंदर्य के प्रति आकर्षण भोगवृत्ति उत्पन्न करके काम
के चंगुल में फंसाता है, जिसका फल दुःख, क्लेश और बंधन है कारण
कि यह मोहजनित (अज्ञानजनित) है । अतः आकर्षण उस परमात्मा के
प्रति ही होना चाहिए जिसकी रचना या कृति यह सांसारिक सौंदर्य है ।
तब यह आकर्षण वास्तव में असत् नहीं सत् है क्योंकि यह उस परम
सौंदर्य़ के प्रति है जो निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार, अनुपम और सत्-
चित्-आनंदस्वरूप होकर जड़ जंगम में समाहित है ।
हमें अपनी रूपासक्ति-वृत्ति को वर्जित नहीं परिवर्तित करना है ।
मनुष्य अपनी किसी भी वृत्ति का सदुपयोग या दुरुपयोग कर सकता है ।
यह उसके विवेक पर निर्भर करता है । सौंदर्य के प्रति आकर्षण की इसी
वृत्ति के दुरुपयोग के स्थान पर स्वकल्याण हेतु सदुपयोग करने का
सकेत करते हुए रत्नावली ने संत तुलसीदास जी से कहा थाः
हाड़ मांस की देह मम, ता में इतनी प्रीति ।
या ते आधी जो राम प्रति, तो अवसि मिटे भवभीति ।।
मानव की सहज, स्वाभाविक रूपासक्ति की वृत्ति यदि भगवान या
भगवान को पाये हुए महापुरुषों के प्रति हो जाय तो कल्याण हो जाय ।
भक्ति-जगत में रूप-उपासना की यही विलक्षणता है । जब यह
अवधारणा (विचारपूर्ण धारणा) अत्यंत पुष्ट हो जाती है कि परमात्मा के
समान कोई दूसरा नहीं है तब रूपासक्ति संसार से हटकर ईश्वर के
किसी सगुण-साकार रूप के प्रति सहज ही दृढ़ हो जाती है । सभी
सगुण-साकार भक्तों ने अपनी इसी दृढ़ अवधारणा से ही सांसारिक
रूपासक्ति की वृत्ति को परिष्कृत और परिमार्जित करके भगवान की

रूपमाधुरी का पान किया है । इष्ट अथवा गुरु के साकार स्वरूप के
ध्यान व चिंतन से भक्त अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध करके अपने को
वास्तविक प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचा देता है ।
परमात्मा तक पहुँचा देता है ।
परमात्मा की सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणमयी है, केवल परमात्मा ही
गुणातीत है अतः लौकिक सौंदर्य़ भी 3 वर्गों में विभाजित किया जा
सकता हैः 1.सात्त्विक 2 राजस 3. तामस सौंदर्य । श्री रामचरितमानस में
लौकिक सौंदर्य के ये तीनों रूप दृष्टिगत होते हैं ।
1.सात्त्विक सौंदर्यः यह तप, तेज, शील, शुचिता, मर्यादा आदि दैवी
सम्पत्ति युक्त सौंदर्य है । जैसे – सती (पतिव्रता), तपस्वी, ऋषि, बालक
आदि का सौंदर्य एवं नदी, पर्वत आदि का प्राकृतिक सौंदर्य ।
श्रीरामचरितमानस (अयो.कां. 324.2) में वर्णित भरतजी का सौंदर्य
सात्त्विक सौंदर्य का सुंदर उदाहरण हैः
सम दम संजम नियम उपासा ।
नखत भरत हिय बिमल अकासा ।।
‘शम, दम, संयम, नियम और उपवास आदि भरत जी के हृदरूपी
निर्मल आकाश के नक्षत्र (तारागण) है ।’
2.राजस सौंदर्यः बाह्य संसाधनों उपकरणों आदि से शरीर या स्थान
को सुसज्जित करना राजस सौंदर्य है । जैसे राजा-रानी, महल, नगर,
उद्यान आदि का सौंदर्य ।
3.तामस सौंदर्यः कालुष्य (मन की मलिनता), दुर्भावना, व्यभिचार,
किसी के अनिष्ट आदि से संबंधित सौंदर्य तामस सौंदर्य है । जैसे
शूर्पणखा व कालनेमि का सौंदर्य ।

सात्त्विक सौंदर्य से सात्त्विक भाव, राजस सौंदर्य से राजस भाव तथा
तामस सौंदर्य से तामस भाव का मन में उदय होता है । इस आधार पर
अपना कल्याण चाहने वाला व्यक्ति तामस सौंदर्य को सर्वथा त्याज्य
माने, राजस सौंदर्य के प्रति उदासीन भाव रखे और सात्त्विक सौंदर्य को
श्रेष्ठ मानकर उसकी अभिवृद्धि हेतु प्रयत्न करे ।
ऐसा जो करते हैं वे मानव धनभागी हैं ! आप जपते हैं, औरों को
जपाते हैं, आप ऋषि प्रसाद पढ़ते हैं, औरों को घर बैठे इसे देते-दिलाते
हैं, वे सात्त्विक सौंदर्य के धनी दिव्य प्रेरणा का प्रसाद देकर समाज का
सात्त्विक सौंदर्य, सज्जनता बढ़ा रहे हैं । उनसे महामानवता की सुवास
आती है, पृथ्वी पर के देवत्व की झलक मिलती है । उनके माता-पिता
को भी खूब धन्यवाद और प्रणाम हैं !
जितना-जितना मानव आत्मज्ञान से वंचित हुआ है और उसके मन,
बुद्धि मोह-माया में, अहंकार मे लगे हैं उतनी-उतनी व्यक्ति की, देश
की, मानव जाति की अधोगति हुई है और जितना-जितना वह
आत्मविचार की तरफ आय़ा है उतना-उतना उसका बल बढ़ा है, उसे
सफलता आ मिली है । – पूज्य बापू जी
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 365
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गुरुभाई को सताना बना प्रतिबंधक प्रारब्ध – पूज्य बापू जी



अष्टावक्र मुनि ने राजा जनक को उपदेश दिया और उनको
आत्मसाक्षात्कार हुआ यह तो सुना-पढ़ा होगा लेकिन राजा जनक और
अष्टावक्र मुनि के पूर्वजन्म का वृत्तांत भी बड़ा रोचक और बोधप्रद है ।
राजा जनक पूर्वजन्म में किन्हीं ऋषि के शिष्य थे । अष्टावक्र जी
और जनक – दोनों गुरुभाई थे । अष्टावक्र जी को योग मार्ग में रुचि थी
और जनक को ज्ञान मार्ग में रुचि थी । कोई साधक विचार प्रधान होता
है तो कोई ध्यान-प्रधान होता है, अष्टावक्र जी ध्यान-प्रधान थे और
अऩ्य शिष्य विचार प्रधान थे ।
एक बार गुरु कहीं बाहर गये थे तो ये विचार-प्रधान शिष्यगण जो
अपने को बुद्धिशाली मानते थे, उन्होंने अष्टावक्र जी का खूब मजाक
उड़ाया, उसके साथ खूब छेड़खानी की । वे बेचारे घबरा गये, रो पड़े ।
गुरु जी जब आये तो उन्हें रोता हुआ देखकर पूछाः “बेटा ! क्या
बात है ?”
जनक उम्र में बड़े शिष्य थे । जनक की तरफ उँगली करके
अषटावक्र जी ने कहा कि “ये लोग मुझे सताते हैं कि ‘यह तो सिर्फ
प्राणायाम करता है, ध्यान करता है, बड़ा योगी आ गया…’ ऐसा करके
मेरी खूब मसखरी करते हैं । गुरु जी ! आपको क्या निवेदन करूँ, मेरे
को कई महीनों से परेशान करते हैं ।”
गुरु जी ने जनक से कहाः “तुम इसको छोटा गुरु भाई समझ के
इतना सताते हो और अपने को बड़ा विद्वान व ज्ञानी मानते हो तो कान
खोल के सुन लो कि इसकी कृपा के बिना तुमको आत्मसाक्षात्कार नहीं
होगा । आखिर इनकी शऱण जाओगे तभी तुम्हें ज्ञान होगा ।”

गुरु का शाप प्रतिबंधक प्रारब्ध बन गया । जनक ने पूर्वजन्म में
आत्मविचार तो किया था, ज्ञान तो सुना था परंतु आत्मसाक्षात्कार नहीं
हुआ । सुने हुए ज्ञान का फल हुआ कि अगले जन्म में वह राजा जनक
बन गया और किये हुए योग व सुने हुए ज्ञान का फल हुआ कि अगले
जन्म में अष्टावक्र जी को माता के गर्भ में ‘स्व’ स्वरूप की अनुभूति हुई

अष्टावक्र जी के पिता कहोड़ ब्राह्मण वेद पढ़े थे । एक दिन
पत्नीत सुजाता के आगे वेद का रहस्य बता रहे थे । सुजाता के गर्भ में
जो बालक था वह बोलाः “आप जो वेद-पाठ करते हैं वह शुद्ध उच्चारण
पूर्वक नहीं हो पाता । और आप जो बता रहे हैं वे वेद के केवल शब्द हैं,
वेद का रहस्य तो परम मौन है (मन और वाणी से परे है ) । वेद का
रहस्य, वेद का अमृत वेद-पाठ से नहीं मिलता, पाठ करते-करते जहाँ से
पाठ करने का स्फुरण होता है उसमें विश्रांति पाने से मिलता है । हे
ब्राह्मण ! आप अपने को बड़ा विद्वान, ज्ञानी समझते हैं लेकिन
तत्त्वज्ञान की यात्रा अभी अधूरी है ।”
पिता को क्रोध आ गया कि “अभी गर्भ में है, 8 महीने का है और
अभी से मेरी गलतियाँ निकालता है ! जा तेरे शरीर में 8 अंग टेढ़े होंगे
!”
शिशु बोलाः “आपका शाप मेरे शरीर तक पहुँच सकता है, मुझ तक
आपके शाप की गति नहीं है, मैं असंग निर्विकार चैतन्य हूँ ।”
कहोड ब्राह्मण को हुआ कि ‘यह तो होनहार बालक है !’
माता के गर्भ में ही अष्टावक्र जी को आत्मसाक्षात्कार हो गया ।
इन्हींने राजा जनक को ज्ञानोपदेश दिया और जनक को घोड़े की रकाब

में पैर डालते-डालते ज्ञान हो गया । अब वह उपदेश ‘अष्टावक्र गीता’ के
रूप में हजारों लाखों लोग सुनते-पढ़ते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2023, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 365
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