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Bhakton Ke Anubhav

……..और दर्शनमात्र से पीड़ा हर ली


दिनांक 24-12-1996 को मेरी 11वीं पूनम निमित्त पूज्य श्री के दर्शन हेतु सूरत आश्रम में आया था। उस दिन पूरा दिवस ध्यान शिविर में व्यतीत हुआ किन्तु शाम 7 बजे से कमर के निचले हिस्से में असह्य पीड़ा होने लगी। करीबन 2 घंटे पीड़ा सहता रहा। मेरे सब साथी सूरत आश्रम द्वारा बनवाये गये निवासस्थान वृन्दावन में चले गये थे।

जब पीड़ा अति असह्य हुई तो पू. लीलाशाहजी उपचार केन्द्र में वैद्य अमृतभाई को बताया। उऩ्होंने ऐक्यूप्रेशर का उपचार करने को एवं एक ऑईल मालिश करने को कहा, किन्तु ऐक्यूप्रेशर बंद हो चुका था और मालिश की दवा का भी उपयोग नहीं कर सकता था।

पीड़ा इतनी बढ़ी कि मुझे एक फीट भी चलना मुश्किल हो रहा था। लगता था, किसी भी समय प्राण जा सकते हैं क्योंकि पीड़ा का प्रभाव गुप्तांगों में प्रवेश कर चुका था। साथी भी पास में कोई नहीं था। सब निवासस्थान वृन्दावन में पहुँच गये थे। मैं पू. लीलाशाह उपचार केन्द्र के पास वाले स्टॉल के बगल में बैठ गया। 2 कि.मी. कैसे जाऊँ, जबकि एक फीट भी चलना मुश्किल था ? क्या करूँ ?

मैंने पूज्यश्री से मन-ही-मन करूणाभरी प्रार्थना की। मैं प्रार्थना ही कर रहा था कि अचानक किसी ने पुकाराः ʹबापू आये…. बापू आये…..ʹ मैं चौंका ! देखा कि श्वेत वस्त्रधारी मेरे पूज्यश्री मेरे सामने से पधार रहे हैं। मैंने दुःखभरे नेत्रों से उनके दर्शन किये। तनिक पूज्यश्री ने मुझे निहारा। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पूज्यश्री अपने नेत्रों से कुछ प्रकाश किरणें मेरे शरीर में डाल रहे हैं। उस समय यह असह्य पीड़ा न जाने कहाँ चली गयी थी। मैं सुखद होकर पूज्यश्री के दर्शन करता रहा। मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि गुरुवर मेरी करूणा-पुकार सुनकर कुछ निमित्त बनाकर आये हों। जबकि कल्पना भी नहीं थी कि पूज्यश्री इस समय मैं जहाँ बैठा था वहाँ आश्चर्यमय रूप से उपस्थित होकर मेरी पीड़ा हर लेंगे।

फिर मैंने देखा कि पूज्यश्री गाड़ी में बैठकर बाहर गये। जब वे ओझल हुए तो पता भी न चला कि मुझे जो असह्य पीड़ा थी, वह कहाँ गई। पश्चात गुरुमंदिर में ठहरे मेरे एक साथी आये। उऩ्होंने मुझे वहीं सुलाया। वहीं आराम पाया।

सचमुच गुरुदेव की कृपादृष्टि मात्र से ही हमारी सारी पीड़ाएँ स्वतः गायब हो जाती हैं। अब तो पूज्यश्री से इतनी ही प्रार्थना है कि हमें जन्म-मरण की पीड़ा से छुटकारा मिल जाए….

मेरे पूज्यश्री ने मेरी रक्षा करके मुझे बचाया है। हे गुरुवर तुम्हारी जय हो !

देवराम राठोड़

जिला परिषद, जलगाँव (महाराष्ट्र)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 26 अंक 50

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पूज्यश्री का प्रसाद संजीवनी है


ऐसा कहा जाता है कि जो काम दवा से नहीं होता वह दुआ से हो जाया करता है। लेकिन मेरा अनुभव तो यह कहता है कि दुआ के साथ-साथ पूज्यश्री के हाथों से यदि प्रसाद मिल जाय तो हमारी दुआ भी स्वीकार हो जाती है।

मैं विगत 23 वर्षों से दमा का मरीज था और गत 10 वर्षों से यूरिक एसिड और एक वर्ष से ब्लड कॉलस्ट्राल की बीमारी से पीड़ित था। यानी मेरा शरीर बीमारियों का घर था। मैं अपनी इन बीमारियों से बुरी तरह ग्रस्त था। ऐसे में मई 1994 में हृषिकेश में मुझे पूज्यश्री के दर्शनलाभ का सुअवसर मिला। पूज्यश्री ने मुझे प्रसादस्वरूप टॉफियाँ दीं और उनको लेते ही मैं दो प्रमुख बीमारियों – अस्थमा एवं यूरिक एसिड के चंगुल से मुक्त हो गया। मानो मुझे प्रसाद में संजीवनी मिल गयी। फिर नवम्बर 1995 में मुझे ब्लड कॉलस्ट्राल ने आ घेरा जो कि 300 मि.ग्रा. (नार्मल वेल्यू) से भी अधिक था।

मुझे पुनः बापू जी के सान्निध्य का लाभ फरवरी 1996 में मिला। इस मर्तबा तो बापू जी के दर्शन से ही मेरी बीमारी गायब हो गयी। सचमुच मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे पूज्यश्री का सान्निध्य-प्रसाद मिला और आज मैं स्वस्थ हूँ ! बस, रह-रहकर मेरे मन में यही विचार आता है कि जब बापू जी के दर्शन का इतना अनुपम फल है तो यदि उनके द्वारा मंत्रदीक्षा मिल जाय तो फिर कहना ही क्या…..?

हरिश छाबरिया

राधाकिशन वाटिका, 21/546, सिविल लाईन्स, रायपुर।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 29, अंक 49

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मौत के मुख से सकुशल वापसी


आज तक तो साधकों के मुख से सुना ही था कि श्रीआसारामायण का पाठ करने वाले साधकों की रक्षा स्वयं पूज्य श्री ही करते हैं परन्तु गत दिनों मेरे जीवन में भी ऐसा प्रसंग आया कि उन अनुभवसंपन्न साधकों में मैं भी शरीक हो गया। घटना 17 सितम्बर 1996 की है। मैं दिल्ली से करीब 1.30 बजे दिन को हरियाणा रोडवेज की बस से जयपुर के लिए रवाना हुआ। जैसे ही बस दिल्ली से बाहर निकली, मैंने श्री आसारामायण का पाठ आरंभ किया लेकिन कितनी ही बार पाठ बीच-बीच में खण्डित होने लगा। एक ओर जैसे कोई मुझे पाठ करने में विघ्न पैदा कर रहा था तो मानों दूसरी और कोई मुझसे पाठ सतत कराने की प्रेरणाशक्ति का संचार कर रहा था। यह सब क्या हो रहा था ? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। जैसे ही पाठ पूर्ण हुआ, मैं निश्चिन्त हो खिड़की के सहारे टिककर सोने की कोशिश कर रहा था कि यकायक मैं जिस ओर बैठा था उस ओर की सभी खिड़कियों के शीशे टूटने शुरु हो गये और बस जो कि 60-70 कि.मी. की गति से भाग रही थी, संतुलन बिगड़ जाने से सड़क के नीचे उतर गई और लगा कि बस अब पलटने वाली ही है। बस में कोहराम मच गया। सभी यात्रियों ने अपनी जान बचाने के लिए अगली सीट के पाईप पकड़ रखे थे। बस के असंतुलन की दशा को देख ऐसा लग रहा था, जैसे सभी मौत के मुख में प्रवेश कर चुके हैं।

यद्यपि बस में सर्वत्र जोर-जोर से चीखें आ रही थीं, किन्तु मेरे मुख से स्वाभाविक ही ʹगुरुदेव… गुरुदेव….ʹ निकलने लग गया। मानो मेरे भीतर से कोई इस संकट की घड़ी से उबारने के लिए गुरुदेव को पुकार रहा था। मैंने देखा कि सामने एक बबूल का बड़ा पेड़ है और बस उससे टकराकर चकनाचूर होने ही वाली है। मैंने आँखें बन्द कर लीं और हृदयपूर्वक पूज्यश्री को पुनः पुकारा। बस, फिर तो मानो चमत्कार हो गया ! श्री आसारामायण की इन पावन पंक्तियों का प्रत्यक्ष अनुभव हो गया।

सभी शिष्य रक्षा पाते हैं।

सूक्ष्म शरीर गुरु आते हैं।।

धर्म कामार्थ मोक्ष वे पाते।

आपद रोगों से बच जाते।।

मैं क्या देखता हूँ कि बस उसी क्षण बबूल के पेड़ के पास खड्डे में धंस जाने से रुक गई और मुझे तो क्या, बस में सवार किसी भी यात्री का बाल भी बाँका नहीं हुआ। सभी यात्रियों को पूज्यश्री की असीम अनुकंपा से एक नया जीवन मिल गया। मुझे आज पता चला कि किस तरह हृदयपूर्वक पुकारने से गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से आकर शिष्यों की तो क्या, सभी की रक्षा करते हैं। हम भले ही गुरुदेव को शिष्य-अशिष्य की परिधि में अपनी मानवीय बुद्धि से बाँधें लेकिन वे तो पूरे विश्व के गुरु हैं। सचमुच, पूरी मानव जाति पूज्यश्री को पाकर कृतार्थ हो चुकी है।

महेन्द्रपाल गौरी, डिप्टी मैनेजर एच.एम.टी.लि. अजमेर (राजस्थान)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 20, अंक 48

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