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Bhakton Ke Anubhav

पूज्य बापू जी के प्रेरक जीवन-प्रसंग


ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की थोड़ी समय की भी निष्ठापूर्वक की गयी सेवा गजब का रंग लाती है। उससे लौकिक-अलौकिक लाभ तो होते ही हैं, साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी होती है। प्रस्तुत है इसी के कुछ ज्वलंत उदाहरण पूज्य बापू जी के हृदयस्पर्शी जीवन प्रसंगों में-

डीसा (गुज.) के रहने वाले स्वर्गीय भाणजीभाई प्रजापति अपने जीवन का एक प्रसंग बताते हुए कहते थे कि “पूज्य बापू जी ने जिस आश्रम में रहकर 7 साल तक घोर तपस्या की थी, मैं उस आश्रम के सामने ही मूँगफली की लारी  लगाता था।

एक बार बापू जी वहाँ पर आये और बोलेः “मेरी यह चिट्ठी डाकघर के डिब्बे में डाल आओ।”

मैं खुशी से वह चिट्ठी डाल आया। सेवा का ऐसा  सुअवसर मुझे 2-3 बार मिला था। एक मेरी ग्राहकी बिल्कुल नहीं हुई थी पर जैसे ही मैं चिट्ठी डालकर आया तो मेरी इतनी ग्राहकी हुई कि पेटी पैसों से भर गयी पर मूँगफली खत्म ही नहीं हो रही थी। तभी से मैं आश्रम में बार-बार आने लगा और बापू जी के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गयी।

‘तेरी 7 पीढ़ियों की समस्याएँ हल हो जायेंगी’

एक दिन मैंने बापू जी से कहाः “महाराज जी ! मेरे को बड़े साँईं जी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी बापू) के पास जाना है।”

बापू जी बोलेः “क्यों जाना है ?”

“जी, दर्शन करना है और कुछ घर की परेशानी बतानी है।”

“ठीक है, तू मेरे साथ चलना, जो भी समस्या होगी हल हो जायेगी। तू परेशानी तो बोल।”

मेरी सारी समस्याएँ बापू जी ने सुनीं और थोड़ी देर आँखें बंद कर लीं, फिर बोलेः “देख, मैं जैसा बोलूँगा तू वैसा करेगा तो तेरी इस जन्म की ही नहीं, 7 पीढ़ियों की समस्याएँ हल हो जायेंगी।”

मैंने कहाः “जी महाराज जी ! करूँगा।”

“तू मेरे गुरुदेव को सिर्फ इतना बोलना कि साँईं जी ! मुझे आत्मा के दर्शन कब होंगे ?”

दर्शन की कतार में मेरी बारी आयी तो मैंने पूज्य लीलाशाह जी बापू से वैसा ही कहा तो उनकी आँखें करुणा से भर आयीं और वे मुझे ऊपर से नीचे तक देखने लगे।

मैं बहुत चंचल था, फिर से बोलाः “साँईं जी ! कब होंगे दर्शन ?”

“होंगे पुट (बेटा) ! होंगे।”

साँईं जी ने मुझ पर शक्तिपात किया तब से मुझे अपने-आप इतनी हँसी आने लगी कि बंद ही नहीं होती थी। तब घरवाले मुझे पागल समझते थे। कोई भी बात बोलें तो मैं बहुत हँसता था। फिर कुछ दिनों में मेरी स्थिति सामान्य हो गयी और मेरी सारी समस्याएँ हल हो गयीं।

गुरुकृपा से हुए हनुमान जी के दर्शन

मैं बापू जी के पास आता-जाता रहता था तो एक दिन बापू जी बोलेः “अरे भाणा ! तू हनुमान जी के दर्शन करेगा ?”

मैंने भी बोल दियाः “हाँ महाराज ! करूँगा। आप करायेंगे ”

“हाँ-हाँ, तू मेरे साथ चल।”

मुझे एकांत में बनास नदी के किनारे ले गये और वहाँ रहने के लिए कहा। वहाँ एक पीपल के पेड़ के नीचे मैंने अपनी झोंपड़ी बनायी। बापू जी ने हनुमान जी का मंत्र दिया और बोलेः “तू अनुष्ठान चालू कर।”

भोजन में कभी दूध तो कभी मूँग लेता। सातवें दिन बापू जी बोलेः “देख, आज हनुमान जी आयेंगे, सावधान रहना, डरना नहीं और जप नहीं छोड़ना।”

रात भर  जपता रहा। सुबह 4 बजे मेरी कुटिया में प्रकाश-प्रकाश दिखा तो मैं डर गया।

बाद में बापू जी ने सब बताया तो बापू जी ने मेरे ऊपर गंगाजल छिड़का और बोलेः “अनुष्ठान एक दिन और बढ़ा, हनुमान जी को आना ही पड़ेगा। कैसे नहीं आयेंगे !”

दूसरे दिन सुबह 4 बजे हनुमान जी आये तो कुटिया में इतना प्रकाश फैल गया कि मुझसे देखा नहीं जा रहा था। उसी प्रकाश में पीपल के पेड़ से एक तेजस्वी कपि उतरते हुए दिखे और आवाज सुनाई दीः “बेटा ! यह मंत्र बंद कर दे, कलियुग चल रहा है, तू मेरा तेज सह नहीं पायेगा।”

मैंने हनुमान जी को प्रणाम किया और खुशी-खुशी बाहर आया कि ‘बापू जी को बताऊँ !”

आश्रम पहुँचा और मैंने जैसे ही आश्रम का दरवाजा खोला तो देखा कि चबूतरे पर बापू जी और हनुमान जी आमने-सामने बैठे हैं ! मुझे देख के हनुमान जी दीवार को चीरते हुए बाहर चले गये।”

चार अक्षरों में पूरा ज्ञान

साधनाकाल में पूज्य बापू जी जब डीसा में रहते थे, उस समय पहली बार जब पूज्य श्री मधुकरी (भिक्षा) करने गये थे तो एक सिंधी माई ने भिक्षा देने से मना कर दिया था। यह प्रसंग तो सभी ने सुना ही होगा। उस घर से चलकर बापू जी जब दूसरे घर गये तो वहाँ जिन्होंने भिक्षा दी थी उनका नाम है मिश्री बहन। वे उस दिन को याद करते हुए कहती हैं कि “उस दिन मैंने खीर पूड़ी बनायी थी। बापू जी जब हमारे घर आये तो मैंने उन्हें वही भिक्षा के रूप में अर्पण की थी।

बापू जी ने पूछाः “क्या नाम है बेटी ?”

मैने नाम बताया, फिर बोलेः “साँईं लीलाशाह जी बापू के आश्रम में सत्संग होता है, तू जाती है वहाँ ?”

“नहीं महाराज !”

“जाया कर।”

बापू जी ने सत्संग का समय भी बताया कि सुबह-सुबह होता है। उनकी पावन व हितकारी वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दूसरे दिन तो जो काम मुझे 8 बजे करना था वह सारा 6 बजे ही निपटाकर मैं सत्संग शुरु होने के 15 मिनट पहले ही पहुँच गयी।

वहाँ जा के देखा तो क्या माहौल था ! सब लोग एकदम शांत बैठे थे। बापूजी ने शिवजी की तरह ध्यानस्थ थे और लोग उन्हें देख-देख के ध्यान कर रहे थे।

फिर सत्संग हुआ, किसी ने श्री योगवासिष्ठ महारामायण पढ़ा, बापू जी ने उस पर व्याख्या की। बापू जी वेदांत के ऊपर ही सत्संग करते थे। ऐसा रोज होता था। फिर तो मुझे भक्ति, साधना का ऐसा रंग लगा कि वर्णन करने को शब्द नहीं हैं। श्री योगवासिष्ठ के श्रवण का चस्का लगा कि अगर मैं योगवासिष्ठ नहीं सुनूँ तो नींद ही न आये। वर्षभर में कभी बापू जी एक महीने के लिए हिमालय चले जाते थे। जब भी बापू हिमालय जाते तो मुझे बड़ा रोना आता था कि ‘अब मुझे योगवासिष्ठ कौन सुनायेगा ? मैं तो एकदम अनपढ़ हूँ।’

एक बार बापू जी लौटे तो मैंने बोलाः “बापू जी ! आप तो चले जाते हैं और मुझे योगवासिष्ठ सुनने को नहीं मिलता और दूसरा कोई सुनाने वाला है नहीं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे पढ़ना आ जाये।”

बापू जी प्रसन्न होकर बोलेः “क्या बात है ! तू पढ़ेगी ?”

“जी, बापू जी !”

पूज्य श्री बोलेः “स्लेट और चाक ले के आ।”

मैं लेकर गयी तो बापू जी ने 4 अक्षर लिख के दिये और बोलेः “जब तू ये बिना देखे लिखना सीख जायेगी तो तुझे पढ़ना आ जायेगा।

मैं अभ्यास करती रही। ब्रह्मवाक्य सत्य सिद्ध हुए। जब मैं उऩ अक्षरों को बिना देखे लिखना सीख गयी तो मुझे पढ़ना आ गया। आज मैं योगवासिष्ठ पढ़ती हूँ और हिन्दी व गुजराती – दोनों भाषाएँ पढ़ लेती हूँ।”

आश्चर्य की बात तो यह है कि जब उन बहन जी से पूछा गया कि “वे 4 अक्षर वर्णमाला के कौन-से अक्षर थे ?” तो उन्होंने बताया कि “वे अक्षर – अ आ इ ई…. (पूरी वर्णमाला) में से कुछ थे ही नहीं, वे अलग ही अक्षर थे। मैं जब से पढ़ना सीखी तब से वे अक्षर भूल गयी।”

जैसे शिवजी द्वारा प्राप्त 14 सूत्रों से पाणिनी मुनि ने संस्कृत का व्याकरण रचा था, ठीक वैसे ही बापू जी ने 4 अक्षरों से पूरी वर्णमाला सिखा दी और एक अनपढ़ को श्री योगवासिष्ठ महारामायण जैसे वेदांत के गूढ़ ग्रंथ का जानकार बना दिया।

बापू जी ने ऐसा ध्यान सिखाया…

मिश्री बहन आगे बताती है कि “मैं रोज बापू जी का सत्संग सुनती और बस, मुझे केवल ध्यान करने की इच्छा होती थी। एक दिन मैं ध्यान करने बैठी तो मेरे ध्यान में समस्त देवी-देवता तथा इन्द्रदेव आये बोलेः “चलिए हमारे स्वर्ग में, हम आपको लेने आये हैं।” मैंने कहाः “मुझे तो ब्रह्मज्ञानी सदगुरु पूज्य बापू जी मिल गये हैं, मेरे तो वे ही सब कुछ हैं। तुम्हारा स्वर्ग तुम्हें मुबारक हो, हमको नहीं चाहिए।” इतना सुनकर इन्द्रदेव आशीर्वाद देकर चले गये।”

वे बहन जी कहती हैं कि “पूज्य बापू जी ने मुझे आज्ञा दी थी कि “हर गुरुवार को यहाँ (डीसा में) बहनों-बहनों को बुलाकर सत्संग करना।” एक दिन मैं पूज्य श्री के दर्शन करने अहमदाबाद गयी तो मैंने बापू जी से प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! आपकी आज्ञा है कि ‘तू हर गुरुवार को सत्संग करेगी।’ पर यहाँ कोई आता ही नहीं है।”

बापू जीः “अगर कोई नहीं आता है तो मेरी तस्वीर रख के सत्संग कर।”

उन्होंने गुरु आज्ञा मानी तो आज वे अनपढ़ बहन अन्य बहनों को योगवासिष्ठ की व्याख्या सुना रही हूँ। यह गरुकृपा का ही चमत्कार है। धन्य हैं गुरुदेव, जिन्होंने 4 अक्षरों में भाषा का पूरा ज्ञान कराया, साथ में परमात्माप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर किया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 11-13 अंक 294

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श्री आशारामायणजीः एक कल्पवृक्ष


सं. लोकसे – 181, 184 212, ऋ.प्र. – 238, श्रीनिवास जी एवं आदित्य भाई के बताये अनुसार, रवीश

ब्रह्मज्ञानी महापुरुष संसाररूपी मरुस्थल में त्रिविध तापों से तप्त मानव के लिए विशाल वटवृक्ष हैं, गंगा का शीतल जीवनदायी प्रवाह हैं । यद्यपि ईश्वर-शास्त्र अनुगामी भक्तों एवं संतों के चरित्र तो शुरु से अंत तक अमृतोपम होते हैं, तथापि उनके जीवन की कई घटनाएँ तो ऐसी रसप्रद, सत्प्रेरणाप्रद होती हैं कि जिनको एक ही बार पढ़ सुन लेने से जीवन में महान परिवर्तन हो जाता है और यदि वे ठीक से जीवन में उतर गयीं तो फिर जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण वरदान सिद्ध होती हैं । बड़े-बड़े अपराधी भी संतों के जीवन-चरित्र पढ़-सुनकर साधउ स्वभाव हो गये, पापी पुण्यात्मा बन गये, दुर्जन सज्जन बन गये और सज्जन सत्पद को प्राप्त कर मुक्त हो गये ।

ब्रह्मनिष्ठ पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू ने अपने सद्गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज के कृपा-प्रसाद से 23 वर्ष की अल्पायु में ही आत्मधन का वह खजाना पा लिया था, जिसके आगे त्रिलोकी के समग्र सुख-वैभव तुच्छ हो जाते हैं । पूज्य बापू जी के बचपन में घटित अद्भुत दैवी घटनाएँ, वाक्सिद्धि एवं ऋद्धि-सिद्धियों का प्राकट्य, पराकाष्ठा का वैराग्य, भगवत्प्राप्ति की तीव्रतम लालसा, विवाह के बाद भी जल-कमलवत जीवन, सद्गुरुआज्ञा-पालन की दृढ़ता…. जीवन का हर एक प्रसंग बड़ा ही रोचक व प्रेरणाप्रद है । इसी अमृतसागर की सारस्वरूप सुंदर छंदोमय पद्य-रचना अर्थात् ‘गागर में सागर’ समाने का भगीरथ प्रयास है ‘श्री आशारामायण जी’ ।

इसके पठन-श्रवण से चंचल चित्त में एकाग्रता,  संतप्त हृदय में आत्मिक शीतलता, निष्कामता, भगवद् रस, संयम-सदाचार व वैराग्य रस का अमृत-लाभ सहज में मिलने लगता है । इस महान ग्रंथ में कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित होती है, जो हर जीवन को पावन बनाकर मनुष्य-जीवन के सुफल की ओर मोड़ देती है । निज आत्मलाभ की उमंग जगाकर जीव में से शिव और मानव में से महेश्वर के प्राकट्य का महाविकास शुरु कराती है ।

आप माता-पिता से निभाना चाहते हैं तो ‘श्री आशारामायण जी’ आपके लिए प्रएरक पोथी है । पढ़ते जाइये, मनन कीजिये । आप समाज, देश और विश्व से निभाना चाहते हैं तो यह आपके लिए दीपस्तम्भ है । पढ़िये, समझिये और ज्ञान प्रकाश पाते जाइये । आप सद्गुरु से निभाना चाहते हैं तो यह आपके लिए माला का मेरुमणि है । प्रेम से गाइये और शांत होते जाइये । जब ईश्वरप्राप्त महापुरुष धऱती पर विद्यमान हों और उनके जीवन-चरित्र द्वारा उनकी अनंत महानता का एक कण हमारी मति में प्रवेश कर जाय तो भी ईश्वरप्राप्ति के लिए उमंग, उत्साह व आत्मविश्वास अनंत गुना बढ़ जाता है । ‘श्री आशारामायण जी’ का पाठ करने से बालक, वृद्ध, नर-नारी सभी प्रेरणा पाते हैं । इसके पाठ से मनोकामना की पूर्ति तो होती ही है, साथ ही बिन माँगे परमानंद परम पद के प्रति प्रीति हो जाती है । इच्छापूर्ति के साथ-साथ इच्छानिवृत्ति की ओर यात्रा का यह अजूबा विश्व के सबसे बड़े सात आश्चर्यों को भी आश्चर्य में डाल देता है । यही है इन करुणा अवतार की प्रकट अहैतुकी कृपा !

श्री आशारामायण जी के पाठ से लाखों लोगों को जो जागतिक उपलब्धियाँ व दिव्य आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुई हैं, वे वर्णन में नहीं आ सकती हैं । शब्द वहाँ बौने हो जाते हैं, लेखनी वहाँ रुक जाती है । फिर भी चंद लोगों के अनुभवों को यहाँ शब्दों में उतारने का एक अल्प प्रयास किया गया हैः-

पठानकोट के विनय शर्मा कहते हैं- “मैं ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो में हॉट सीट के लिए चुना गया । घर पर माँ ‘श्री आशारामायण जी’ के 108 पाठ कर रही थी । 108 पाठ पूरे होते ही मैं 25 लाख रूपये जीत चुका था और हम पर अभिनंदन की वर्षा होने लगी ।” ‘राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’, ‘नाट्य गौरव पुरस्कार’, मंगोलिया में बच्चों के अंतर्राष्ट्रीय शिविर में भारत का प्रतिनिधित्व करने  वाली, देश विदेश में जादू के 7000 टीवी चैनलों के टैलेंट तथा रियालिटी आदि शो में भाग ले चुकी जादूगर आँचल कहती हैं- “मैं रोज़ ‘श्री आशारामायण जी’ का पाठ करती हूँ । मैंने जो अनेक इनाम व पदक हासिल किये हैं, वे सारी उपलब्धियाँ तथा योग्यताएँ केवल पूज्य बापू जी के आशीर्वाद की ही देन हैं ।”

महिमा दुग्गल कहती हैं- “पहले मेरे मुश्किल से 60-65 प्रतिशत अंक आ पाते थे लेकिन दीक्षा लेने के बाद मंत्रजप और ‘श्री आशारामायण जी’ के पाठ से मेरी स्मृतिशक्ति और बुद्धिशक्ति में विलक्षण वृद्धि हुई और दसवीं की परीक्षा में मैंने 95 प्रतिशत अंक (सीजीपीए 10/10) प्राप्त किये ।”

‘श्री आशारामायण जी’ के पाठ में आता हैः एक सौ आठ जो पाठ करेंगे, उनके सारे काज सरेंगे ।

दाहोद-इंदौर के बीच स्थित अमझेरा गाँव में जब भी बारिश की तंगी होती है, तब 108 पाठ पूरे होने से पहले ही बारिश हो जाती है, यह हजारों किसानों का असंख्य बार का अनुभव है । जिसने जिस कामना से इसका पाठ किया, उसे उस लाभ की प्राप्ति हुई है ।

श्री आशारामायण जी के पाठ के लिए विशेष विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है । आश्रम, घर अथवा यथानुकूल किसी स्थान पर इसका पाठ कर सकते हैं । वास्तव में ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के जीवन-चरित्र की महिमा एवं इसमें छुपे रस का वर्णन लेखनी के शब्दों में समा नहीं सकता है । उन्हें तो बस पाठ करके अनुभव ही किया जा सकता है । यह तो ऐसा अमृतकलश है कि इसका जो एक बार पान कर लेता है, वह उसे पीता ही जाता है, गुण गाता ही जाता है । इस दिव्य, शीतल, अमृत-सरिता में गोते लगायें, जन्म-जन्मांतरों की थकान मिटायें, सद्गुरु-सान्निध्य को शीघ्र पायें और अपने परम लक्ष्य परमानंद स्वरूप में जाग जायें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 15, 16 अंक 268

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गुरुकृपा से जीवन-परिवर्तन


साध्वी रेखा बहन
20 साल पहले दीवाली के दिनों में शिविर भरने मेरी बड़ी बहने उल्हासनगर से अहमदाबाद आ रही थीं तो मैं भी घूमने के बहाने आ गयी। आश्रम में बहुत भीड़ थी और मैंने पूज्य बापू जी को कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा था। प्राणायाम, ॐकार का गुंजन आदि के लिए तो मुझे लगता था कि ये क्या करते हैं !
दीवाली का दूसरा दिन था। मैं नजदीक से दर्शन के लिए लाइन में लगी थी। मेरे हाथ में मावे (दूध का खोआ) का डिब्बा था, उस पर सिंधी में ‘जयशंकर’ लिखा हुआ था तो पूज्य बापू जी पढ़कर बोलेः “उल्हासनगर से आयी है न ? माला करती है ?”
“साँईं माला तो बूढ़े लोग करते हैं।”
“तो तुम…..?”
“जब बूढ़ी हो जाऊँगी, तब माला करूँगी।”
बापू जी मुस्कराये और बोलेः “अच्छा, जवान लोग मिठाई तो खाते हैं ?”
मैंने कहाः “हाँ, मिठाई तो खा लूँगी।”
फिर बापू जी ने कहाः “तुम माला (गुरुमंत्र की) नहीं कर सकती तो सारस्वत्य मंत्र तो ले सकती हो ?”
“बापू जी ! उससे क्या होगा ?”
“बुद्धि बढ़ेगी, अच्छे अंकों से पास होगी।”
“हाँ, यह मंत्र तो मैं ले सकती हूँ।”
बापू जी ने मुझे ऐसे करके सारस्वत्य मंत्र की महिमा बतायी। अगले दिन मैंने सारस्वत्य मंत्र लिया। मंत्रदीक्षा के बाद बापू जी पंडाल में सबको नजदीक से दर्शन दे रहे थे। मुझे माला करते हुए देखा तो बापू जी ने पूछाः “क्यों, माला तो बूढ़े लोग करते हैं न ?”
मैंने कहाः “यह तो सारस्वत्य मंत्र है।”
फिर बापू जी आगे चल दिये।
बाद में पता चलेगा….
बापू जी व्यासपीठ पर आकर बोलेः “जिन्होंने दीक्षा ली है, मंत्र लिया है वे आगे आ सकते हैं।”
परंतु मुझे लगी थी भूख, मैंने नाश्ता करने आश्रम के बाहर चली गयी। मैं उधर गयी और इधर बापू जी ने पुछवाया कि ‘वह उल्हासनगर वाली बच्ची कहाँ गयी ?”
मैं स्टॉल पर पहुँची थी। वहाँ 3 बड़े-बड़े पाव खाये और चाय पीकर आयी, फिर लाइन में लगी। जब मैं बापू जी के सामने आयी तो बापू जी ने यही पूछाः “सच बता, तू कहाँ गयी थी ?”
“मैं बाहर नाश्ता करने गयी थी।” तब यह समझ नहीं थी कि यह गलत बात है।
“क्या खाया ?”
“3 बड़े-बड़े पाव खाये।”
“पच गया ?”
“जी, घऱ में तो 4-4 खाते हैं और ऊपर से लस्सी भी पीते हैं। कुछ नहीं होता।”
“अभी कुछ नहीं होगा, बाद में पता चलेगा।”
उस समय मुझे पूज्य बापू जी की बात समझ में नहीं आयी थी। कुछ वर्षों बाद जब मुझे हृदय की तकलीफ हुई, तब मुझे बापू जी की बात याद आयी।
बापू जी ने ज्ञान पाने का लक्ष्य दिया
फिर बापू जी ने पूछाः “तुम आश्रम में खाना क्यों नहीं खाती हो ?”
मैंने कहाः “बापू जी ! हमें होटलों में खाने की आदत है।”
“फिर ऐसे ही तुम रोज बाहर खाओगी ?”
“कल तो हम वैसे ही चले जायेंगे।”
“पर अब तुम बाहर नहीं खाना। तुम मैया (पूज्य बापू जी की धर्मपत्नी पूजनीया लक्ष्मी माता जी) के पास जाना, वे तुमको पापड़ वगैरह कुछ दे देंगी। उससे खा लोगी ?”
“पापड़ के साथ मैं खाना खा सकती हूँ।”
अगले दिन मैंने मैया जी के पास जाकर प्रणाम किया और बोलीः “पूज्य बापू जी ने आपसे भोजन लेने के लिए कहा है और उसमें पापड़ जरूर दीजियेगा।” मैया जी ने मुस्कराते हुए पापड़ सिंकवाकर मुझे दिये।
ऐसी ऐसी आदतों की मैं अधीन थी और माला बड़े बुजुर्ग करते हैं ऐसी समझ मेरे दिमाग में थी पर बापू जी की कैसी कृपा…. मैं कितना प्रणाम करूँ, कितना वंदन करूँ कि बुरी आदतें कब छूट गयीं यह तो पता भी नहीं चला, साथ ही बापू जी ने हमें आत्मज्ञान पाने के लक्ष्य दे दिया और उस मार्ग पर चला भी रहे हैं।
अल्पायु बदली दीर्घायु में
मैं जब 8 साल की थी तब मुझे हृदयरोग हुआ था तो पिता जी ने आपरेशन करवा दिया। डाक्टरों ने कह दिया था कि यह बच्ची 13 से 15 साल और जीवित रहेगी। डॉक्टरों के अनुसार मेरी उम्र केवल 23 साल थी लेकिन मैं 21 साल की उम्र में आश्रम आ गयी तो यहाँ के सात्विक वातावरण, खानपान, मंत्रजप व प्राणायाम तथा बापू जी की करूणा-कृपा से मैं आज 40 साल की उम्र होने पर भी जीवित हूँ और स्वस्थ हूँ।
गाँठ छूट जायेगी
6-7 साल पहले मैं बहुत बीमार पड़ गयी थी। डॉक्टर के कहने पर इकोकार्डियोग्राफी करवायी। रिपोर्ट देखकर डॉक्टरों ने मुझसे कहा कि “आप इसी समय भर्ती हो जाइये। आपके हृदय में रक्त की एक गाँठ बन चुकी है, ऑपरेशन करना होगा।। नहीं तो वह गाँठ कभी भी छूट जायेगी और सिर, कंधे, घुटने आदि कहीं भी फंस जायेगी तो आपका बचना असम्भव हो जायेगा।” मैं थोड़ी चिन्ता में पड़ गयी। फिर दूसरे ही क्षण मन से आवाज आयी कि 4 दिन बाद पूर्णिमा पर बापू जी अहमदाबाद आऩे वाले हैं। गुरुदेव की जैसी आज्ञा होगी वैसा करूँगी। पूर्णिमा पर पूज्य बापू जी पधारे। दोपहर के सत्संग के बाद बापू जी के समक्ष जाकर प्रणाम किया तो बापू जी ने मुझसे पूछाः “क्या है ?”
तो मेरी आँखों से आँसू आ गये। पूज्य श्री ने सिंधी भाषा में पूछाः “रो क्यों रही हो ?”
मैंने सारी बात बता दी। बापू जी मुस्कराते हुए बोलेः “क्या होगा ?” मैंने कहाः “बापू जी ! वे बोल रहे हैं की गाँठ छूट जायेगी।”
बापू जी बोलेः “कोई गाँठ है ही नहीं तो छूटेगी क्या ?”
सत्संग के दूसरे सत्र में बापू जी मुझे धर्मराज का मंत्र दिया और बोलेः “इसका जप करो, कुछ नहीं होगा। तुम्हें हृदयरोग है तो तुम ‘आदित्यहृदयस्तोत्र’ का पाठ किया करो।”
मैंने गुरु आज्ञा मानी और उस दिन से आज तक कभी मुझे डॉक्टर के पास नहीं जाना पड़ा।
धर्मराज छू नहीं सकता
वर्ष 2011 में महाशिवरात्रि पर नासिक में बापू जी का सत्संग था। बापू जी मंच पर घूमते हुए दर्शन दे रहे थे। बापू जी ने मुझे आगे बुलाया और कहाः “सबको अपना अनुभव बताओ।”
मैंने अनुभव बताया। फिर नासिक के भरे पंडाल में बापू जी ने एक हाथ मेरे सिर पर और दूसरा हाथ अपनी मूँछों पर रख के कहाः “मैं वचन देता हूँ, जब तक मैं नहीं कहूँगा तब तक रेखा को धर्मराज छू नहीं सकते ! जब मैं आज्ञा दूँगा ये तभी जायेगी।”
यह कैसी गुरुकृपा है ! मैंने तो ब्रह्मज्ञानी गुरुदेव की थोड़ी सी आज्ञा मानी और पूज्य बापू जी ने तो मेरी अल्पायु को दीर्घायु कर दिया, संसार में भटकने वाले जीव को परमात्मज्ञान का रस चखाकर परमात्मप्राप्ति की तरफ मोड़ दिया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 265
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