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Avataran Divas

अपना जन्म-कर्म दिव्य बनाओ – पूज्य बापू जी


(विश्ववंदनीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का 74वाँ अवतरण दिवसः 1मई)

भगवान व भगवान को पाये हुए संत करूणा से अवतरित होते हैं इसलिए उनका जन्म दिव्य होता है। सामान्य आदमी स्वार्थ से कर्म करता है और भगवान व संत लोगों के मंगल की, हित की भावना से कर्म करते हैं। वे कर्म करने की ऐसी कला सिखाते हैं कि कर्म करने का राम मिट जाय, भगवदरस आ जाय, मुक्ति मिल जाय। अपने कर्म और जन्म को दिव्य बनाने के लिए ही भगवान व महापुरुषों का जन्मदिवस मनाया जाता है।

वासना मिटने से, निर्वासनिक होने से जन्म-मरण से मुक्ति हो जाती है। फिर वासना से प्रेरित होकर नहीं, करूणा से भरकर कर्म होते हैं। वह जन्म-कर्म की दिव्यतावाला हो जाता है, साधक सिद्ध हो जाता है। भगवान कहते हैं-

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोर्जुन।।

ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः 4.9)

तुम अज हो, तुम्हारा जन्म नहीं होता, शरीर का जन्म होता है। अपने को अजरूप, नित्य शाश्वत ऐसा जो जानता है, उसके जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं।

जन्म मरण व कर्मबंधन कैसे होता है ?

पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि – 17 तत्त्वों का यह सूक्ष्म शरीर, उसमें जो चैतन्य आया और उस सूक्ष्म शरीर ने स्थूल शरीर धारण किया तो जन्म हो गया और स्थूल शरीर से विदा हो गया तो मृत्यु हो गयी। स्थूल शरीर धारण करता है तो कर्मबंधन होते हैं वासना से। लेकिन जो भगवान के जन्म व कर्म को दिव्य जानेगा वह भगवान को पा लेगा।

अपने जन्म-कर्म दिव्य कैसे बनायें ?

साधारण मनुष्य अपने को शरीर मानता है और कर्म करके उसके फल से सुखी होना चाहता है लेकिन भगवान अपने को शरीर नहीं मानते, शरीरी मानते हैं। शरीरी अर्थात् शरीरवाला। जैसे गाड़ी और गाड़ी का चालक अलग हैं, ऐसे ही शरीर और शरीरी अलग हैं। तो वास्तव में हम शरीरी हैं। शरीर हमारा बदलता है, हम शरीरी अबदल हैं। हमारा मन बदलता है, सूक्ष्म शरीर बदलता है। जो बदलाहट को जानता है, वह बदलाहट से अलग है। इस प्रकार जो सत्संग, गुरुमंत्र, ईश्वर के ध्यान-चिंतन के द्वारा भगवान के जन्म और कर्म को दिव्य रूप में समझ लेता है, उसकी भ्रांति दूर होकर वह जान जाता है कि ʹजन्म-मृत्यु मेरा धर्म नहीं है।ʹ

स्नानगृह में स्नान करके आप स्वच्छ नहीं होते हैं, शरीर होता है। भगवन्नाम सहित ध्यान, ध्यानसहित भगवत्प्रेम आपको स्वच्छ बना देगा। आपका अंतःकरण वासना-विनिर्मुक्त हो जायेगा। आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे और आपका जन्म दिव्य हो जायेगा।

ૐकार मंत्र् उच्चारण करें और ૐकार या भगवान या गुरु के श्रीचित्र को अथवा आकाश या किसी पेड़-पौधे को एकटक देखते जायें। इससे आपके संकल्प-विकल्पों की भीड़ कम होगी। मन शांत होने से बुद्धि में विश्रांति मिलेगी और ૐकार भगवान का नाम है तो भगवान में प्रीति होने से भगवान बुद्धि में योग दे देंगे।

बुद्धियोग किसको बोलते हैं ? कि जिससे सुख-दुःख में बहने से बच जाओगे। संसारी सुख में जो बहते हैं, वे वासनाओं में गिरते जाते हैं। उनका जन्म-कर्म तुच्छ हो जाता है। दुःख में जो बहते हैं, वे दुःखों में गिरते जाते हैं। आप न सुख में बहोगे, न दुःख में बहोगे। सुख-दुःख आपके आगे से बह-बह के चले जायेंगे। सुख बह रहे हों तो उनको बहुतों के हित में लगा दो और दुःख बह रहे हों तो उनको बहुतों के हित में लगा दो और दुःख बह रहे हों तो उनको विवेक-वैराग्य को पुष्ट करने में लगा दो। दुःख को दुःखहारी हरि की तरफ मोड़ दिया जाय तो वह सदा के लिए भाग जाता है और सुख को ʹबहुजनहितायʹ की दिशा दे दी जाती है तो वह परमानंद के रूप में बदल जाता है। इस प्रकार आप सुख-दुःख के साथ नहीं बहोगे तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जायेगा।

जब व्यक्ति अपनी देह में सीमित होता है तो बहुत क्षुद्र होता है। जब परिवार में सीमित होता है तब उसकी क्षुद्रता कुछ कम होकर व्यापकता थोड़ी बढ़ती है लेकिन जो विश्वव्यापी मानवता का, प्राणिमात्र का मंगल चाहता है, उसका जन्म और कर्म दिव्य हो जाता है। गांधी जी के पास क्या था ? नन्हीं सी लकड़ी व छोटी सी धोती लेकिन बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय लग गये तो महात्मा गाँधी हो गये। संत कबीर जी, समर्थ रामदास और भगवत्पाद साँईं लीलाशाहजी के पास क्या था ? ʹबहुजनहिताय-बहुजनसुखायʹ लग गये तो लाखों-करोड़ों के पूजनीय हो गये। सिकंदर और रावण के पास कितना सारा था लेकिन जन्म-कर्म तुच्छ हो गये।

दिव्य जीवन उसी का होता है जो अपने को आत्मा मानता है, ʹशरीर की बीमारी नहीं है। मन का दुःख मेरा दुःख नहीं है। चित्त की चिंता मेरी चिंता नहीं है। मैं उनको जानने वाला हूँ, मैं चैतन्य ૐस्वरूप हूँ।ʹ

भगवान बोलते हैं- जन्म कर्म च मे दिव्यं…. ʹमेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं।ʹ वासना से जो जन्म लेते हैं, उनका जन्म तुच्छ है। वासना से जो कर्म करते हैं, उनके कर्म तुच्छ हैं। लेकिन निर्वासनिक नारायणस्वरूप को जो ʹमैंʹ मानते हैं और लोक-मांगल्य के लिए जो लोगों को भगवान के रास्ते लगाते हैं, उनका जन्म और कर्म दिव्य हो जाता है।

सदगुरु की कृपा नहीं है, ʹगीताʹ का ज्ञान नहीं है तो सोने की लंका मिलने पर भी रावण का जन्म-कर्म तुच्छ रह जाता है। हर बारह महीने बाद दे दियासिलाई लेकिन शबरी भीलन को मतंग ऋषि मिलते हैं तो उसका जन्म-कर्म ऐसा दिव्य हो जाता है कि रामजी उसके जूठे बेर खाते हैं।

मंगल संदेश

मैं चाहूँगा कि आप सभी का जन्म और कर्म दिव्य हो जाय। जब मेरा हो सकता है तो आपका क्यों नहीं हो सकता ? अपने कर्मों को देह व परिवार की सीमा में फँसाओ मत बल्कि ईश्वरप्रीति के लिए बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय लगाकर कर्म को कर्मयोग बनाओ। शरीर को ʹमैंʹ, मन को ʹमेराʹ तथा परिस्थितियों को सच्ची मानकर अपने को परेशानियों में झोंको मत। ʹशरीर बदलता है, मन बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, उनको मैं जान रहा हूँ। मैं हूँ अपना-आप, सब परिस्थितियों का बाप ! परिस्थितियाँ आती हैं – जाती हैं, मैं नित्य हूँ। दुःख-सुख आते जाते हैं, मैं नित्य हूँ। जो नित्य तत्त्व है, वह शाश्वत है और जो अनित्य है, वह प्रकृति का है।ʹ

तो देशवासियों को, विश्ववासियों को यह मंगल संदेश है कि तुम अपने जन्म-कर्म को दिव्य बनाओ। अपने को आत्मा मानो और जानो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 244

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साधकों की सेवा का प्रेरक पर्वः अवतरण दिवस


(पूज्य बापू जी का 72वाँ अवतरण दिवसः 11 अप्रैल)
जीवन के जितने वर्ष पूरे हुए, उनमें जो भी ज्ञान, शांति, भक्ति थी, आने वाले वर्ष में हम उससे भी ज्यादा भगवान की तरफ, समता की तरफ, आत्मवैभव की तरफ बढ़ें इसलिए जन्मदिवस मनाया जाता है।
ʹजन्मʹ किसको बोलते हैं ? जो अव्यक्त है, छुपा हुआ है वह प्रकट हुआ इसको ʹजन्मʹ बोलते हैं। और ʹअवतरणʹ किसको बोलते हैं ? जो ऊपर से नीचे आये। जैसे राष्ट्रपति अपने पद से नीचे आये और स्टेनोग्राफर को मददरूप हो जाय, उनके साथ मिलकर काम करे-कराये इसको बोलते हैं, ʹअवतरणʹ। अवतरण, जन्म, प्राकट्य इन सबकी अपनी-अपनी व्याख्या है परंतु हमको क्या फायदा ? हम यह व्याख्या समझेंगे, विचारेंगे तो हम अपने कर्म-बन्धन से, देह के अहं से, दुःख के साथ तादात्म्य से और सुख के भ्रम से पार हो जायेंगे।
भगवान की जयंती, महापुरुषों का अवतरण दिवस अथवा अपना शास्त्रीय ढंग से मनाया गया जन्मदिवस एक लौकिक कर्म दिखते हुए भी इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और इसके पीछे आधिदैविक उन्नति छुपी है। और किन्हीं संत-महात्मा की हाजिरी में यह होता है तो आध्यात्मिक उन्नति का प्राकट्य होता है।
कुछ लोग केक काटते हैं, मोमबत्तियाँ फूँकते हैं और फूँक के द्वारा लाखों-लाखों जीवाणु थूकते हैं, ʹहैप्पी बर्थ डे, हैप्पी बर्थ डे…ʹ करते हैं। यह जन्मदिवस मनाने का पाश्चात्य तरीका है लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति में इस तरीके को अस्वीकार कर दिया गया है। हमारा जीवन अंधकार में से प्रकाश की ओर जाने के लिए है। अंधकारमयी कई योनियों से हम भटकते हुए आये, अब आत्मप्रकाश में जियें। तमसो मा ज्योतिर्गमय – हम अंधकार से प्रकाश की तरफ जायें। वे जो मोमबत्तियाँ, दीये जले होते हैं, उन्हें फूँकते-फूँकते बुझाकर प्रकाश को अंधकार में परिवर्तित करना तथा बासी अन्न (केक) का काट-कूट करना और फिर बाँटना…. छी ! छी ! अगर बुद्धिमत्ता हो तो केक खाने वाले को देखकर वमन आ जाय। क्योंकिक जो फूँकता है न, फूँक में लाखों-लाखों जीवाणु थूकता है। ऐसा भी लोग जन्मदिवस मनाते हैं। खैर अब सत्संग द्वारा जागृति आने से उस अंध-परम्परा में कमी हुई है, सजगता आयी है लेकिन अभी भी कहीं-कहीं मनाते हैं।
जन्मदिवस मनाने के पीछे उद्देश्य होना चाहिए कि आज तक के जीवन में जो हमने अपने तन के द्वारा सेवाकार्य किया, मन के द्वारा सुमिरन किया और बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्रकाश पाया, अगले साल अपने ज्ञान में परमात्म-तत्त्व के प्रकाश को हम और भी बढ़ायेंगे, सेवा की व्यापकता को बढ़ायेंगे और भगवत्प्रीति को बढ़ायेंगे। ये तीन चीजें हो गयीं तो आपको उन्नत बनाने में आपका यह जन्मदिवस बड़ी सहायता करेगा। परंतु किसी का जन्मदिवस है और झूम बराबर झूम शराबी… पेग पिये और क्लबों में गये तो यह सत्यानाश दिवस साबित हो जाता है।
शरीर आधिभौतिक है, मन, बुद्धि, अहं आधिदैविक हैं और अध्यात्म-तत्त्व इन दोनों से परे है, उनको जाननेवाला है। भगवान श्रीकृष्ण कृपा करके अपना अनुभव बताते हैं-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः
(गीताः4.9)
अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है ऐसा जो जानता है उसके भी जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं और वह मुझे मिलता है, ऐसे मिलता है जैसे दो सरोवर के बीच का पाल टूट जाय तो कौन-से सरोवर का कौन सा पानी यह पृथक करना सम्भव नहीं रहता। ऐसे ही जीव का जीवत्व छुट जाय और ईश्वर का अपना ईश्वरत्व बाधित हो जाय तो वास्तव में दोनों में एक परब्रह्म परमात्मा लहरा रहा था, लहरा रहा, लहराता रहेगा।
जीव जो अव्यक्त है, अप्रकट है वह प्रकट होता है तो उसका जन्म होता है और प्रकटी हुई चीज फिर विसर्जित होती है, होने को जाती है तो वह मृत्यु होता है। जैसे शरीर मर गया तो इसको श्मशान में जलाने को ले जायेंगे तो जलीय अंश जल में चला जायेगा, वायु का अंश वायु में, अग्नि का अंश अग्नि में, पृथ्वी तत्त्व का अंश कुछ राख, हड्डियाँ बच जायेंगी तो वह अव्यक्त हो गया। मृत्यु हो गयी और कहीं फिर जन्म हुआ, व्यक्त हुआ तो जन्म। तो अव्यक्त होना विसर्जित होना इसको मृत्यु कहा और विसर्जित में सुसर्जित होना इसको जन्म कहा। ये जन्म और मृत्यु की परम्परा है। तो
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोઽर्जुन।।
ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक है – इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः 4.9)
तो भगवान का जन्म होता है करूणा-परवश होकर, दयालुता से। भगवान करूणा करके आते हैं तो यह भगवान का जन्म दिव्य हो गया, अवतरण हो गया। हमारे कष्ट मिटाने के लिए भगवान का जो भी प्रेमावतार, ज्ञानावतार अथवा मर्यादावतार आदि होता है, तब वे हमारे नाईँ जीते हैं, हँसते-रोते हैं, खाते-खिलाते हैं, सब करते हुए भी सम रहते हैं तो हमको उन्नत करने के लिए। उन्नत करने के लिए जो होता है वह अवतार होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 231
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भगवत्प्राप्त महापुरुषों की मनोहर पुष्पमालिका के दिव्य पुष्पः प्रातःस्मरणीय पूज्य संत श्री आसारामजी बापू


(अवतरण दिवसः 23 अप्रैल 2011)

मानवमात्र आत्मिक शांति हेतु प्रयत्नशील है। जो मनुष्य-जीवन के परम-लक्ष्य परमात्मप्राप्ति तक पहुँच जाते हैं, वे परमात्मा में रमण करते हैं। जिनका अब कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया है, जिनको अपने लिए कुछ करने को बचा ही नहीं है, जिनका अस्तित्वमात्र लोक-कल्याणकारी बना हुआ है, वे संत-महापुरुष कहलाते हैं, क्योंकि उनमें परमात्म-तत्त्व जगा है। महान इसलिए क्योंकि वे सदैव महान तत्त्व ‘आत्मा’ में अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में स्थित होते हैं।

यही महान तत्त्व, आत्मतत्त्व जिस मानव-शरीर में खिल उठता है वह फिर सामान्य शरीर नहीं कहलाता। फिर उन्हें कोई भगवान व्यास, आद्य शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, संत कबीर तो कोई भगवत्पाद पूज्य लीलाशाहजी महाराज कहता है। फिर उनका शरीर तो क्या, उनके सम्पर्क में रहने वाली जड़ वस्तुएँ वस्त्र, पादुकाएँ आदि भी पूज्य बन जाती हैं !

इस अवनितल पर विशेषकर इस भारतभूमि का तो सौभाग्य ही रहा है कि यहाँ अति प्राचीनकाल से लेकर आज तक ऐसी दिव्य विभूतियों का अवतरण होता ही रहा है। आधुनिक काल में भी संत-अवतरण की यह दिव्य परम्परा अवरुद्ध नहीं हुई है। आज भी ऐसे महान संतों से यह तपोभूमि भारत वंचित नहीं है, यह हमारे और मानव-जाति के लिए परम सौभाग्य की बात है।

पूज्य संत श्री आसारामजी बापू भी संतों की ऐसी मनोहर पुष्पमालिका के एक पूर्ण विकसित, सुरभित, प्रफुल्लित पुष्प हैं। पूज्य श्री अमाप आत्मिक प्रेम के स्रोत हैं। उनके चहुँओर ओर एक ऐसा प्रेममय आत्मीयतापूर्ण वातावरण हर समय रहता है कि आने वाले भक्त-श्रद्धालुजन निःसंकोच अपने अंतर से वर्षों से दबे हुए दुःख, शोक तथा चिंताओं की गठरी खोल देते हैं और हलके हो जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं- “बापू जी ! आपके पास न मालूम ऐसा कौन सा जादू है कि हम फिर-फिर से आये बिना नहीं रह पाते।”

पूज्यश्री कहते हैं- “भाई ! मेरे पास ऐसा कुछ भी जादू या गुप्त मंत्र नहीं है। जो संत तुलसीदास जी, संत कबीरजी के पास था वही मेरे पास भी है। वशीकरण मंत्र प्रेम को…..

बस इतना ही मंत्र है। सबको प्रेम चाहिए। वह प्रेम मैं लुटाता हूँ। सब कुछ तो पहले ही लुटा चुका हूँ इसलिए मुझे ऐसा अखूट प्रेम का धन ‘आत्मधन’ मिला है कि उसे कितना भी लुटाओ, खुटता नहीं, समाप्त नहीं होता। लोग अपने-अपने स्वार्थ को नाप-तौलकर प्रेम करते हैं किंतु इधर तो कोई स्वार्थ है नहीं। हमने सारे स्वार्थ उस परम प्यारे प्रभु के स्वार्थ के साथ एक कर दिये हैं। जिसके हाथ में सबके प्रेम और आनन्द की चाबी है उस प्रभु को हमने अपना बना लिया है, इसलिए मुक्तहस्त प्रेम बाँटता हूँ। आप भी सबको निःस्वार्थ भाव से, आत्मभाव से देखने और प्रेम करने की यह कला सीख लो।”

ऐसे महापुरुष जिस ईश्वरीय आनंद में सदा मग्न रहते हैं, वही आनंद वे अपने आसपास भी लुटाते रहते हैं। जो ठीक ढंग से उन्हें थोड़ा भी समझ पाते हैं, वे उनसे लाभ लेकर साधना में आगे बढ़ते रहते हैं।

जिनका अहं गल गया है, जो भीतर से मिटे हैं, जिनका देहाध्यास विसर्जित हो चुका है ऐसे महापुरुषों के द्वारा ही विश्व में महान कार्यों का सृजन होता रहता है। ऐसे संतों के कारण ही इस पृथ्वी में रस है और दुनिया में जो थोड़ी-बहुत खुशी और रौनक देखने को मिलती है वह भी ऐसे महापुरुषों के प्रकट या गुप्त अस्तित्त्व के कारण ही है। ‘जिस क्षण विश्व से ऐसे महापुरुषों का लोप होगा, उसी क्षण दुनिया घिनौना नरक बन जायेगी और शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी।’ – ऐसा स्वामी विवेकानन्द ने कहा था।

विनोद-विनोद में ऐसे महापुरुष मनुष्यों को आत्मज्ञान का जो अमृत परोसते जाते हैं, उसका संसार में कोई मुकाबला नहीं है।

पूज्य बापू जी का जीवन इस धरती पर मनुष्य जाति के लिए दिव्य प्रेरणा स्रोत है, आनंद का अखूट झरना है। उनका सान्निध्य संसार के लोगों के हृदयों में ज्ञान की वर्षा करता है, उन्हें शांतिरस से सींचता है, प्रेम को पल्लवित करता है, सूझबूझ को सात्त्विक रस से खींचता है, समत्व की सुरभि, विवेक का प्रकाश तथा श्रद्धा और सजगता का सत्त्व भरता है। उनके सत्संग-सान्निध्य और आत्मिक दृष्टिपातमात्रक से लोगों के हृदय में स्फूर्ति तथा नवजीवन का संचार होता है। उनकी हर अँगड़ाई तथा क्रिया में मानव का हित छिपा रहता है। उनके दर्शनमात्र से जीवन से निराश और मुरझाये हुए लाखों-लाखों हृदय नवीन चेतना लेकर खिल उठते हैं। जैसे विशाल समुद्र में कोई जहाज भटक जाय, उसी प्रकार संसार की भूलभुलैया में भटके हुए लोगों के लिए पूज्य श्री का जीवन एक दिव्य प्रकाश-स्तम्भ है। उनके सान्निध्य में आने वाला हर व्यक्ति उनकी महस के महक उठता है।

पूज्य बापू जी एक ऐसे विशाल वटवृक्ष की भाँति इस धरती पर फैले हुए खड़े हैं, जिसके नीचे हजारों-हजारों यात्राओं तथा दुःखों के ताप से, संसार से तप्त हुए लोग विश्राम ले-लेकर अपने वास्तविक गंतव्य स्थान की ओर गति कर रहे हैं। देवर्षि नारद जी कहते हैं-

संसारतापे तप्तानां योगः परमौषधः।

संसार के त्रिविध तापों से तपे हुए लोगों के लिए पूज्य बापू जी का सत्संग-योग परम अमृत का काम करता है। रंक से लेकर राजा तक और बाल से लेकर वृद्ध तक सभी पूज्य श्री की कृपा के पात्र बनकर अपने जीवन को ईश्वरीय सुख की ओर ले जा रहे हैं। अमीर-गरीब, सभी जाति, सभी सम्प्रदाय, सभी धर्मों के लोग उनके ज्ञान का, आत्मानंद का, आत्मानुभव और योग-सामर्थ्य का प्रसाद लेते हैं। वह स्थान धन्य है जिनकी कोख से वे प्रकट हुए हैं। वह मनुष्य बड़भागी हैं जो उनके सम्पर्क में आता है। वह वाणी धन्य है जो उनका स्तवन करती है। वे आँखें धन्य हैं जो उनका दर्शन करती है और वे कान धन्य हैं जिनको उनके उपदेशामृत-पान करने का अवसर मिलता है।

वे सदैव परमात्मा में स्थित रहते हुए जगत के अनंत दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए ज्ञान, भक्ति, योग, कीर्तन, ध्यान, आनंद-उल्लास की धारा बहाते रहते हैं, समस्त दुःखों के मूल अज्ञान का नाश करते हैं। उनकी वाणी से निरंतर ज्ञानामृत झरता है। वे जो उपदेश देते हैं वह पावन शास्त्र हो जाता है। उनके नेत्रों से प्रेममयी, शीतल, सुखद ज्योति निकलती है। उनके हृदय से प्रेम तथा आत्मानंद के स्रोत(झरने) फूटते हैं। उनके मस्तिष्क से विश्व-कल्याण के विचार प्रसूत होते हैं। जिस पर उनकी दृष्टि पड़ती है, उसके मन, बुद्धि, अंतःकरण पावन होने लगते हैं। जो उनके सम्पर्क में आ जाता है, वह पाप-ताप से मुक्त होकर पवित्रात्मा होने लगता है। उपनिषद कहती हैः

यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।

स्थावराणापिमुच्यंते किं पुनः प्राकृता जनाः।।

‘ब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से स्वयं के हाथों द्वारा जिनको स्पर्श करते हैं, आँखों द्वारा जिनको देखते हैं वे जड़ पदार्थ भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर सवेर होने वाले मोक्ष के बारे में शंका ही कैसी !’

उन महापुरुषों के भीतर इतना आनंद भरा होता है कि उन्हें आनंद हेतु संसार की ओर आँख खोलने की भी इच्छा नहीं होती। जिस सुख के लिए संसार के लोग अविरत भागदौड़ करते हैं, रात दिन एक कर देते हैं, एड़ी से चोटी तक का पसीना बहाते हैं फिर भी वास्तविक सुख नहीं ले पाते केवल सुखाभास ही उन्हें मिलता है, वह सच्चा सुख, वह आनन्द उन महापुरुषों में अथाह रूप से हिलोरें लेता है और उनका सत्संग-दर्शन करने वालों पर भी बरसता रहता है।

धन्य है ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने सब स्वार्थों की, मोह-ममता की, अहं की होली जला दी और परमात्म-ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँचकर दुस्तर माया से पार हो गये तथा मनुष्य-जीवन के अंतिम लक्ष्य उस परम निर्भय आत्मपद में आरूढ़ हो गये। लाख-लाख बंदन हैं ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुषों को जो संसार के त्रिताप से तपे लोगों को उस परम निर्भय पद की ओर ले चलते हैं। कोटि-कोटि प्रणाम हैं ऐसे महापुरुषों को जो अपने एकांत को न्योछावर करके, अपनी ब्रह्मानंद की मस्ती को छोड़कर भी दूसरों की भटकती नाव को किनारे ले जा रहे हैं। हम स्वयं आत्मशांति में तृप्त हों, आत्मा की गहराई में उतरें, सुख-दुःख के थपेड़ों को सपना समझकर उनके साक्षी सोऽहं स्वभाव का अनुभव करके अपने मुक्तात्मा जितात्मा, तृप्तात्मा स्वभाव का अनुभव कर पायें, उसे जान पायें – ऐसी उन महापुरुष के श्रीचरणों में प्रार्थना है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 4,5,6 अंक 220

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