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Avataran Divas

ईश्वर प्राप्ति की योजना बनाने का अवसर है वर्षगाँठ


(पूज्य बापू जी का 79वाँ अवतरण दिवसः 28 अप्रैल 2016)

पिछला वर्ष बीत गया, नया आने को है, उसके बीच खड़े रहने का नाम है वर्षगाँठ। इस दिन हिसाब कर लेना चाहिए कि ‘गत वर्ष में हमने कितना जप किया ? उससे ज्यादा कर सकते थे कि नहीं ? हमसे क्या-क्या गलतियाँ हो गयीं ? हमने कर्ताभाव में आकर क्या-क्या किया और अकर्ताभाव में आकर क्या होने दिया ?’ वर्षभर में जिन गलतियों से हम अपने ईश्वरीय स्वभाव से,  आत्मस्वभाव से अथवा साधक स्वभाव से नीचे आये, जिन गलतियों के कारण हम ईश्वर की या अपनी नजर में गिर गये वे गलतियाँ जिन कारणों से हुईं उनका विचार करके अब न करने का संकल्प करना – यह वर्षगाँठ है।

दूसरी बात, आने वाले वर्ष के लिए योजना बना लेना। योजना बनानी है कि ‘हम सम रहेंगे। सम रहने के लिए, आत्मनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा, भक्तिनिष्ठा, प्रेमनिष्ठा, सेवानिष्ठा को जीवन में महत्व देंगे।’ जिस वस्तु में महत्त्वबुद्धि होती है, उसमें पहुँचने का मन होता है। ईश्वर में, आत्मज्ञान में, गुरु में महत्त्वबुद्धि होने से हम उधर पहुँचते हैं। धन में महत्त्वबुद्धि होने से लोग छल-कपट करके भी धन कमाने लग जाते हैं। पद में महत्त्वबुद्धि होने से न जाने कितने-कितने दाँव-पेच करके भी पद पर पहुँच जाते हैं। अगर आत्मज्ञान में महत्त्वबुद्धि आ जाय तो बेड़ा पार हो जाये। तो वर्षगाँठ के दिन नये वर्ष की योजना बनानी चाहिए कि ‘हमें जितना प्रयत्न करना चाहिए उतना करेंगे, जितना होगा उतना नहीं। रेलगाड़ी या गाड़ी में बैठते हैं तो जितना किराया हम दे सकते हैं उतना देने से टिकट नहीं  मिलता बल्कि जितना किराया देना चाहिए उतना ही देना पड़ता है, ऐसे ही जितना यत्न करना चाहिए उतना यत्न करके आने वाले वर्ष में हम परमात्मनिष्ठा, परमात्मज्ञान, परमात्ममस्ती, परमात्मप्रेम, परमात्मरस में, परमात्म-स्थिति में रहेंगे।’

अंदर का रस प्रकट करो

शरीर के जन्मदिन को भी वर्षगाँठ बोलते हैं और गुरुदीक्षा जिस दिन मिली उस दिन से भी उम्र गिनी जाती है अथवा भगवान के जन्म दिन या गुरु के जन्म दिन से भी सेवाकार्य करने का संकल्प लेकर साधक लोग वर्षगाँठ मनाते हैं। गुरु व भगवान को मेवा-मिठाई, फूल-फलादि भेंट करते है लेकिन गुरु और भगवान तो इन चीजों की अपेक्षा जिन कार्यों से तुम्हारी उन्नति होती है उनसे ज्यादा प्रसन्न होते हैं।

तो वर्षगाँठ के दिन हम लोग यह संकल्प कर लें कि बापू जी की वर्षगाँठ से लेकर गुरुपूनम तक हम इतने दिन मौन रखेंगे, 15 दिन में एक दिन उपवास रखेंगे।’ 15 दिन में एकाध उपवास से शरीर की शुद्धि होती है और ध्यान भजन में उन्नति होती है। ध्यान के द्वारा अदभुत शक्ति प्राप्त होती है। एकाग्रता से जो सत्संग सुनते हैं, उनमें मननशक्ति का प्राकट्य होता है, उनको निदिध्यासन शक्ति का लाभ मिलता है। उनकी भावनाएँ एवं ज्ञान विकसित होते हैं। उनके संकल्प में दृढ़ता, सत्यता व चित्त में प्रसन्नता आती है और उनकी बुद्धि में सत्संग के वचनों का अर्थ प्रकट होने लगता है। अपनी शक्तियाँ विकसित करने के लिए एकाग्रचित्त होकर सत्संग सुनना, मनन करना भी साधना है। हरिनाम लेकर नृत्य करना भी साधना है। हो सके तो रोज 5-15 मिनट कमरा बंद करके नाचो। जैसा भी नाचना आये नाचो। ‘हरि हरि बोल’ करके नाचो,  ‘राम राम करके नाचो, तबीयत ठीक होगी, अंदर का रस प्रकट होगा।

सुबह उठो तो मन-ही-मन भगवान या गुरु से या तो दोनों से हाथ मिलाओ। भावना करो कि ‘हम ठाकुर जी से हाथ मिला रहे हैं’ और हाथ ऐसा जोरों का दबाया है कि ‘आहाहा !….’ थोड़ी देर ‘हा हा…..’ करके उछलो-कूदो। तुम्हारे छुपे हुए ज्ञान को, प्रेम को, रस को प्रकटाओ।

आपकी दृष्टि कैसी है ?

साधक दृष्टिः यह है कि ‘जो बीत गया उसमें जो गलतियाँ हो गयीं, ऐसी गलतियाँ आने वाले वर्ष में न करेंगे’ और जो हो गयीं उनके लिए थोड़ा पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त करके उनको भूल जायें और जो अच्छा हो गया उसको याद न करें।

भक्त दृष्टि है कि ‘जो अच्छा हो गया, भगवान की कृपा से हुआ और जो बुरा हुआ, मेरी गलती है। हे भगवान ! अब मैं गलतियों से बचूँ ऐसी कृपा करना।’

सिद्ध की दृष्टि है कि ‘जो कुछ हो गया वह प्रकृति में, माया में हो गया, मुझ नित्य शुद्ध-बुद्ध-निरंजन नारायणस्वरूप में कभी कुछ होता नहीं।’ असङ्गोह्यं पुरुषः…. नित्योऽहम्… शुद्धोऽहम्…. बुद्धोऽहम्…. करके अपने स्वभाव में रहते हैं सिद्ध पुरुष। कर्ता, भोक्ता भाव से बिल्कुल ऊपर उठे रहते हैं।

अगर आप सिद्ध पुरुष हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं तो आप ऐसा सोचिये जैसा श्रीकृष्ण सोचते थे, जैसा जीवन्मुक्त सोचते हैं। अगर साधक हैं तो साधक के ढंग का सोचिये। कर्मी हैं तो कर्मी के ढंग का सोचिये कि ‘सालभर में इतने-इतने अच्छे कर्म किये। इनसे ज्यादा अच्छे कर्म कर सकता था कि नहीं ?’ जो बुरे कर्म हुए उनके लिए पश्चात्ताप कर लो और जो अच्छे हुए वे भगवान के चरणों में सौंप दो। इससे तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध, सुखद होने लगेगा।

अवतरण दिवस का संदेश

वर्षगाँठ के दिन वर्षभर में जो आपने भले कार्य किये वे भूल जाओ, उनका ब्याज या बदला न चाहो, उन पर पोता फेर दो। जो बुरे कार्य किये, उनके लिए क्षमा माँग लो, आप ताजे-तवाने हो जाओगे। किसी ने बुराई की है तो उस पर पोता फेर दो। तुमने किसी से बुरा किया है तो वर्षगाँठ के दिन उस बुराई के आघात को प्रभावहीन करने के लिए जिससे बुरा किया है उसको जरा आश्वासन, स्नेह दे के, यथायोग्य करके उससे माफी करवा लो, छूटछाट करवा लो तो अंतःकरण निर्मल हो जायेगा, ज्ञान प्रकट होने लगेगा, प्रेम छलकने लगेगा, भाव रस निखरने लगेगा और भक्ति का संगीत तुम्हारी जिह्वा के द्वारा छिड़ जायेगा।

कोई भी कार्य करो तो उत्साह से करो, श्रद्धापूर्वक करो, अडिग धैर्य व तत्परता से करो, सफलता मिलेगी, मिलेगी और मिलेगी ! और आप अपने को अकेला, दुःखी, परिस्थितियों का गुलाम मत मानो। विघ्नबाधाएँ तुम्हारी छुपी हुई शक्तियाँ जगाने के लिए आती हैं। विरोध तुम्हारा विश्वास जगाने के लिए आता है।

जो बेचारे कमजोर हैं, हार गये हैं, थक गये हैं  बीमारी से या इससे कि ‘कोई नहीं हमारा….’, वे लोग वर्षगाँठ के दिन सुबह उठ के जोर से बोलें कि ‘मैं अकेला नहीं हूँ, मैं कमजोर या बीमार नहीं हूँ। हरि ॐ ॐ ॐ …..’ इससे भी शक्ति बढ़ेगी।

आप जैसा सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। अपने भाग्य के आप विधाता हैं। तो अपने जन्मदिन पर यह संकल्प करना चाहिए कि मुझे मनुष्य जन्म मिला है, मैं हर परिस्थिति में सम रहूँगा, मैं सुख-दुःख को खिलवाड़ समझकर अपने जीवनदाता की तरफ यात्रा करता जाऊँगा-यह पक्की बात है ! हमारे अंदर आत्मा-परमात्मा का असीम बल व योग्यता छिपी है।’

ऐसा करके आगे बढ़ो। सफल हो जाओ तो अभिमान के ऊपर पोता फेर दो और विफल हो जाओ तो विषाद के ऊपर पोता फेर दो। तुम अपना हृदयपटल कोरा रखो और उस पर भगवान के, गुरु के धन्यवाद के हस्ताक्षर हो जाने दो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 12, 13, 15 अंक 280

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प्राणिमात्र के कल्याण का हेतु होता है संत अवतरण – पूज्य बापू जी


पूज्य बापू जी का 75वाँ अवतरण दिवसः 10 अप्रैल
संतों को नित्य अवतार माना गया है। कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं संत होंगे और उनके हृदय में भगवान अवतरित होकर समाज में सही ज्ञान व सही आनंद का प्रकाश फैलाते हैं। उनके नाम पर, धर्म के नाम पर कहीं कितना भी, कुछ भी चलता रहता है फिर भी संत-अवतरण के कारण समाज में भगवत्सत्ता, भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान, भगवद्-अर्पण बुद्धि के कर्मों का सिलसिला भगवान चलवाते रहते हैं।
तो आपके कर्म भी दिव्य हो जायेंगेः
साधारण आदमी अपने स्वार्थ से काम करता है, भगवान और महात्मा परहित के लिए काम करते हैं। महात्माओं का जन्मदिवस मनाने वाले साधक भी परहित के लिए काम कर रहे हैं तो साधकों के भी कर्म दिव्य हो गये।
इस दिवस पर जो भी सेवाकार्य करते हैं, वे करने का राग मिटाते हैं, भोगने का लालच मिटाते हैं और भगवान व गुरु के नाते परहित करते हैं। उन साधकों को जो आनंद आता होगा, जो कीर्तन में मस्ती आती होगी या गरीबों को भोजन कराने में जो संतोष का अनुभव होता होगा, विद्यार्थियों को नोटबुक बाँटने में तथा भिन्न-भिन्न सेवाकार्यों में जो आनंद आता होगा, वह सब दिव्य होगा। इस दिन के निमित्त प्रतिवर्ष गरीबों में लाखों टोपियाँ बँटती हैं, लाखों बच्चों को भोजन मिलता है और लाखों-लाखों कापियाँ बँटती हैं। औषधालयों में, अस्पतालों में, और जगहों पर – जिसको जहाँ भी सेवा मिलती है, वे सेवा ढूँढ लेते हैं। अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते हैं तो उससे कर्मबंधन हो जाता है और परहित के लिए कर्म करते हैं तो कर्म दिव्य हो जाता है।
आपको जगाने के लिए क्या-क्या कर्म करते हैं
आप जिसका जन्मदिवस मना रहे हैं, वास्तव में वह मैं हूँ नहीं, था नहीं। फिर भी आप जन्म दिवस मना रहे हैं तो मैं इन्कार भी नहीं करता हूँ। आपने मुकुट पहना दिया तो पहन लिया, फूलों की चादर ओढ़ा दी तो ओढ़ ली। इस बहाने भी आपका जन्म-कर्म दिव्य हो जाये। वे महापुरुष हमें जगाने की न जाने क्या-क्या कलाएँ, क्या-क्या लीलाएँ करते रहते हैं ! नहीं तो ये टॉफी बाँटना, रंग छिड़कना, प्रसाद लेना-बाँटना – ये हमारी दुनिया के आगे बहुत-बहुत छोटी बात है। लेकिन करें तो करें क्या ? आध्यात्मिकता में जिनकी बचकानी समझ है, एक दो की नहीं लगभग सभी की है, उन्हें उठाना-जगाना है। यह अपने-आप में बहुत भारी तपस्या है। एकाग्रता के तप से भी ऊँचा तप है। वे महापुरुष नित्य नवीन रस अद्वैत ब्रह्म में हैं लेकिन नित्य द्वैत के व्यवहार में उतरते हुए हमको ऊपर उठाते हैं।
यह जो कुछ आँखों से दिखता है, जीभ से चखने में आता है, नाक से सूँघने में आता है, मन और बुद्धि से सोचने में आता है – ये सब वास्तव में हैं ही नहीं। जैसे स्वप्न में सब चीजें सच्ची लगती हैं, आँख खोली तो वास्तविकता में नहीं हैं, ऐसे ही ये सब सचमुच में, वास्तविकता में नहीं है।
आप भी इसका मजा लो
वास्तव में प्रकृति और चैतन्य परमात्मा है, बाकी कुछ भी ठोस नहीं है। सिर्फ लगता है यह ठोस है। 10 मिनट हररोज भावना करो कि ‘यह सब स्वप्न है, परिवर्तनशील है। इन सबके पीछे एक सूत्रधार चैतन्य है और अष्टधा प्रकृति है।’ यह याद रखो और स्वप्न का मजा लो तो उसकी गंदगी अथवा विशेषता से आप बंधायमान नहीं होंगे।
भगवान व गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं
भगवान और गुरु के साथ एकतानता हो जाय तो भगवान और गुरु का अनुभव एक ही होता है। ब्रह्म-परमात्मा तटस्थ हैं, गुरु और भगवान पक्षपाती हैं। ब्रह्म-परमात्मा प्रकाश देते हैं, चेतना देते हैं, कोई कुछ भी करे …. लेकिन भगवान और गुरु भक्त का पक्ष लेते हैं। भक्त अच्छा करेगा तो प्रोत्साहित करेंगे, बुरा करेगा तो डाँटेंगे, बुराई से बचने में मदद करेंगे, भक्त की रक्षा करेंगे। ‘चतुर्भुजी नारायण भगवान नन्हें हो जाओ’ तो माता की प्रार्थना पर ‘उवाँ…..उवाँ……’ करते हुए रामजी बन गये, श्रीकृष्ण बन गये। भक्त के पश्र में वराह अवतार, मत्स्य अवतार, अंतर्यामी अवतार, प्रेरक अवतार ले लेते हैं।
जन्मदिवस मनाने का उद्देश्य क्या ?
यह जन्म दिवस मनाने के पीछे भी एक ऊँचा उद्देश्य है। ‘मैं कौन हूँ ?….. ‘ – ‘मैं फलाना हूँ….’ पर यह तो शरीर है, इसको जानने वाला मन है, निर्णय करने वाली बुद्धि है। ये सब तो बदलते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है, वह मैं कौन हूँ ?’ – ऐसा खोजते-खोजते गुरु के संकेत से सदाचारी जीवन जिये तो ‘मैं कौन हूँ ?’ इसको जान लेना और जन्म दिव्य हो जायेगा। जन्म दिव्य होते ही कर्म दिव्य हो जायेंगे क्योंकि सुख पाने की लालसा नहीं है, दुःख से बचने का भय नहीं है और ‘जो है, बना रहे’ ऐसी उसकी नासमझी नहीं है।
मरने वाले शरीर का जन्मदिवस तो मनाओ पर उसी निमित्त मनाओ, जिससे सत्कर्म हो जायें, सदबुद्धि का विकास हो जाये। इस उत्सव में नाच कूद के बाहर की आपाधापी मिटाकर सदभाव जगा के फिर शांत हो जायें। श्रीमद् आद्यशंकराचार्यजी ने कहा हैः
मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं….
‘मैं शरीर भी नहीं हूँ, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी नहीं हूँ। तो फिर क्या हूँ?’ बस, डूब, जाओ, तड़पो….. प्रकट हो जायेगा।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 267
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अपना जन्म-कर्म दिव्य बनाओ – पूज्य बापू जी


(विश्ववंदनीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू का 74वाँ अवतरण दिवसः 1मई)

भगवान व भगवान को पाये हुए संत करूणा से अवतरित होते हैं इसलिए उनका जन्म दिव्य होता है। सामान्य आदमी स्वार्थ से कर्म करता है और भगवान व संत लोगों के मंगल की, हित की भावना से कर्म करते हैं। वे कर्म करने की ऐसी कला सिखाते हैं कि कर्म करने का राम मिट जाय, भगवदरस आ जाय, मुक्ति मिल जाय। अपने कर्म और जन्म को दिव्य बनाने के लिए ही भगवान व महापुरुषों का जन्मदिवस मनाया जाता है।

वासना मिटने से, निर्वासनिक होने से जन्म-मरण से मुक्ति हो जाती है। फिर वासना से प्रेरित होकर नहीं, करूणा से भरकर कर्म होते हैं। वह जन्म-कर्म की दिव्यतावाला हो जाता है, साधक सिद्ध हो जाता है। भगवान कहते हैं-

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोर्जुन।।

ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।ʹ (गीताः 4.9)

तुम अज हो, तुम्हारा जन्म नहीं होता, शरीर का जन्म होता है। अपने को अजरूप, नित्य शाश्वत ऐसा जो जानता है, उसके जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं।

जन्म मरण व कर्मबंधन कैसे होता है ?

पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि – 17 तत्त्वों का यह सूक्ष्म शरीर, उसमें जो चैतन्य आया और उस सूक्ष्म शरीर ने स्थूल शरीर धारण किया तो जन्म हो गया और स्थूल शरीर से विदा हो गया तो मृत्यु हो गयी। स्थूल शरीर धारण करता है तो कर्मबंधन होते हैं वासना से। लेकिन जो भगवान के जन्म व कर्म को दिव्य जानेगा वह भगवान को पा लेगा।

अपने जन्म-कर्म दिव्य कैसे बनायें ?

साधारण मनुष्य अपने को शरीर मानता है और कर्म करके उसके फल से सुखी होना चाहता है लेकिन भगवान अपने को शरीर नहीं मानते, शरीरी मानते हैं। शरीरी अर्थात् शरीरवाला। जैसे गाड़ी और गाड़ी का चालक अलग हैं, ऐसे ही शरीर और शरीरी अलग हैं। तो वास्तव में हम शरीरी हैं। शरीर हमारा बदलता है, हम शरीरी अबदल हैं। हमारा मन बदलता है, सूक्ष्म शरीर बदलता है। जो बदलाहट को जानता है, वह बदलाहट से अलग है। इस प्रकार जो सत्संग, गुरुमंत्र, ईश्वर के ध्यान-चिंतन के द्वारा भगवान के जन्म और कर्म को दिव्य रूप में समझ लेता है, उसकी भ्रांति दूर होकर वह जान जाता है कि ʹजन्म-मृत्यु मेरा धर्म नहीं है।ʹ

स्नानगृह में स्नान करके आप स्वच्छ नहीं होते हैं, शरीर होता है। भगवन्नाम सहित ध्यान, ध्यानसहित भगवत्प्रेम आपको स्वच्छ बना देगा। आपका अंतःकरण वासना-विनिर्मुक्त हो जायेगा। आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे और आपका जन्म दिव्य हो जायेगा।

ૐकार मंत्र् उच्चारण करें और ૐकार या भगवान या गुरु के श्रीचित्र को अथवा आकाश या किसी पेड़-पौधे को एकटक देखते जायें। इससे आपके संकल्प-विकल्पों की भीड़ कम होगी। मन शांत होने से बुद्धि में विश्रांति मिलेगी और ૐकार भगवान का नाम है तो भगवान में प्रीति होने से भगवान बुद्धि में योग दे देंगे।

बुद्धियोग किसको बोलते हैं ? कि जिससे सुख-दुःख में बहने से बच जाओगे। संसारी सुख में जो बहते हैं, वे वासनाओं में गिरते जाते हैं। उनका जन्म-कर्म तुच्छ हो जाता है। दुःख में जो बहते हैं, वे दुःखों में गिरते जाते हैं। आप न सुख में बहोगे, न दुःख में बहोगे। सुख-दुःख आपके आगे से बह-बह के चले जायेंगे। सुख बह रहे हों तो उनको बहुतों के हित में लगा दो और दुःख बह रहे हों तो उनको बहुतों के हित में लगा दो और दुःख बह रहे हों तो उनको विवेक-वैराग्य को पुष्ट करने में लगा दो। दुःख को दुःखहारी हरि की तरफ मोड़ दिया जाय तो वह सदा के लिए भाग जाता है और सुख को ʹबहुजनहितायʹ की दिशा दे दी जाती है तो वह परमानंद के रूप में बदल जाता है। इस प्रकार आप सुख-दुःख के साथ नहीं बहोगे तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जायेगा।

जब व्यक्ति अपनी देह में सीमित होता है तो बहुत क्षुद्र होता है। जब परिवार में सीमित होता है तब उसकी क्षुद्रता कुछ कम होकर व्यापकता थोड़ी बढ़ती है लेकिन जो विश्वव्यापी मानवता का, प्राणिमात्र का मंगल चाहता है, उसका जन्म और कर्म दिव्य हो जाता है। गांधी जी के पास क्या था ? नन्हीं सी लकड़ी व छोटी सी धोती लेकिन बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय लग गये तो महात्मा गाँधी हो गये। संत कबीर जी, समर्थ रामदास और भगवत्पाद साँईं लीलाशाहजी के पास क्या था ? ʹबहुजनहिताय-बहुजनसुखायʹ लग गये तो लाखों-करोड़ों के पूजनीय हो गये। सिकंदर और रावण के पास कितना सारा था लेकिन जन्म-कर्म तुच्छ हो गये।

दिव्य जीवन उसी का होता है जो अपने को आत्मा मानता है, ʹशरीर की बीमारी नहीं है। मन का दुःख मेरा दुःख नहीं है। चित्त की चिंता मेरी चिंता नहीं है। मैं उनको जानने वाला हूँ, मैं चैतन्य ૐस्वरूप हूँ।ʹ

भगवान बोलते हैं- जन्म कर्म च मे दिव्यं…. ʹमेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं।ʹ वासना से जो जन्म लेते हैं, उनका जन्म तुच्छ है। वासना से जो कर्म करते हैं, उनके कर्म तुच्छ हैं। लेकिन निर्वासनिक नारायणस्वरूप को जो ʹमैंʹ मानते हैं और लोक-मांगल्य के लिए जो लोगों को भगवान के रास्ते लगाते हैं, उनका जन्म और कर्म दिव्य हो जाता है।

सदगुरु की कृपा नहीं है, ʹगीताʹ का ज्ञान नहीं है तो सोने की लंका मिलने पर भी रावण का जन्म-कर्म तुच्छ रह जाता है। हर बारह महीने बाद दे दियासिलाई लेकिन शबरी भीलन को मतंग ऋषि मिलते हैं तो उसका जन्म-कर्म ऐसा दिव्य हो जाता है कि रामजी उसके जूठे बेर खाते हैं।

मंगल संदेश

मैं चाहूँगा कि आप सभी का जन्म और कर्म दिव्य हो जाय। जब मेरा हो सकता है तो आपका क्यों नहीं हो सकता ? अपने कर्मों को देह व परिवार की सीमा में फँसाओ मत बल्कि ईश्वरप्रीति के लिए बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय लगाकर कर्म को कर्मयोग बनाओ। शरीर को ʹमैंʹ, मन को ʹमेराʹ तथा परिस्थितियों को सच्ची मानकर अपने को परेशानियों में झोंको मत। ʹशरीर बदलता है, मन बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, उनको मैं जान रहा हूँ। मैं हूँ अपना-आप, सब परिस्थितियों का बाप ! परिस्थितियाँ आती हैं – जाती हैं, मैं नित्य हूँ। दुःख-सुख आते जाते हैं, मैं नित्य हूँ। जो नित्य तत्त्व है, वह शाश्वत है और जो अनित्य है, वह प्रकृति का है।ʹ

तो देशवासियों को, विश्ववासियों को यह मंगल संदेश है कि तुम अपने जन्म-कर्म को दिव्य बनाओ। अपने को आत्मा मानो और जानो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2013, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 244

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