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Avataran Divas

ऐसा जन्मदिवस मनाना परम कल्याणकारी है !


(पूज्य बापू जी का 83वाँ अवतरण दिवसः 25 अप्रैल 2019)

जन्मदिवस बधाई हो ! पृथ्वी सुखदायी हो, जल सुखदायी हो, तेज सुखदायी हो, वायु सुखदायी हो, आकाश सुखदायी हो… जन्मदिवस बधाई हो… इस प्रकार जन्मदिवस जो लोग मानते मनवाते हैं, बहुत अच्छा है, ठीक है लेकिन उससे थोड़ा और भी आगे जाने की नितांत आवश्यकता है ।

जन्मोत्सव मनायें लेकिन विवेकपूर्ण मनाने से बहुत फायदा होता है । विवेक में अगर वैराग्य मिला दिया जाय तो और विशेष फायदा होता है । विवेक-वैराग्य के साथ यदि भगवान के जन्म-कर्म को जानने वाली गति-मति हो जाय तो परम कल्याण समझो ।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।। (गीताः 13.21)

ऊँच और नीच योनियों में जीवात्मा के जन्म लेने का कारण है गुणों का संग । हम जीवन में कई बार जन्मते रहते हैं । शिशु जन्मा, शिशु की मौत हुई तो बालकपन आया । बालक मरा तो किशोर का जन्म हुआ । किशोर मरा तो युवक का जन्म हुआ ।… ‘मैं सुखी हूँ’… ऐसा माना तो आपका सुखमय जन्म हुआ, ‘मैं दुःखी हूँ’ माना तो उस समय आपका दुःखमय जन्म हुआ । तो इन गुणों के साथ संग करने से ऊँच-नीच योनियों में जीव भटकता है । स्थूल शरीर को पता नहीं कि ‘मेरा जन्म होता है’ और आत्मा का जन्म होता नहीं । बीच में है सूक्ष्म शरीर और वह जिस भाव में होता है उसी भाव का जन्म माना जाता है ।

भगवान श्रीकृष्ण इन सारे जन्मों से हटाकर हमें दिव्य जन्म की ओर ले जाना चाहते हैं । वे कहते हैं-

जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।। (गीताः 4.9)

भगवान में अगर जन्म और कर्म मानें तो भगवान का भगवत्पना सिद्ध नहीं होता । भगवान को भी जन्म लेना पड़े और कर्म करना पड़े तो भगवान किस बात के ? अगर भगवान में जन्म और कर्म नहीं मानते हैं तो भगवान में आना-जाना, उपदेश देना, युद्ध करना, संधिदूत बनना अथवा ‘हाय सीते ! हाय लक्ष्मण !!….’ करना – ये क्रिया व दर्शन जो हो रहे हैं वे सम्भव नहीं हैं ।

वेदांत-सिद्धांत के अनुसार इसको बोलते हैं विलक्षण लक्षण । इसमें भगवान में जो लक्षण जीव के लक्षणों से मेल न खायें और ईश्वर (ब्रह्म) के लक्षणों से मेल न खायें फिर भी दोनों दिखें उनको बोलते हैं विलक्षण लक्षण, अनिर्वचनीय । भगवान का जन्म और कर्म दिव्य कैसे ? बोले अनिर्वचनीय है इसलिए दिव्य है । ईश्वर में न जन्म कर्म है, न जीवत्व के बंधन और वासना है इसलिए भगवान के जन्म और कर्म दिव्य मानने-जानने से आपको भी लगेगा कि कर्म पंचभौतिक शरीर से होते हैं, मन की मान्यता से होते हैं, उनको जानने वाला ज्ञान जन्म और कर्म से विलक्षण है, मैं वह ज्ञानस्वरूप हूँ ।

तो कर्म बंधन से छूट जाओगे

शरीर को मैं मानना और शरीर की अवस्था को ‘मेरी’ मानना यह जन्म है । हाथ-पैर आदि इन्द्रियों से क्रिया होती है और उसमें कर्तृत्व मानना कर्म है लेकिन ‘कर रहे हैं हाथ पैर और मैं इनको सत्ता देने वाला शाश्वत चैतन्य हूँ’ – इस प्रकार जानने से अपना कर्म जन्म दिव्य हो जाता है ।

….तो महापुरुषों का जन्मोत्सव मनाना । उससे महापुरुषों को तो कोई फायदा-नुकसान का सवाल नहीं है लेकिन मनाने वाले भक्तों-जिज्ञासुओं को फायदा होता है कि उस निमित्त उन्हें अपने जन्म-कर्म बंधन से छूटना सरल हो जाता है ।

अष्टावक्र मुनि ने कहाः

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा ।…. (अष्टावक्र गीताः 18.51)

जब जिज्ञासु अपने आपको (अपने स्व स्वरूप को) अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है उसी समय वह कर्म बंधन से छूट जाता है । शुभ कर्म करे लेकिन उसका कर्ता अपने को न माने, प्रकृति ने किया और परमात्मा की सत्ता से हुआ । अशुभ कर्म से बचे और कभी गलती से हो गया हो तो उसके कर्तापन मं न उलझे और फिर-फिर से न करे । हृदयपूर्वक उसका त्याग कर दे तो प्रायश्चित्त हो गया । शुभ-अशुभ में, सुख-दुःख में, पुण्य-पाप में अपने को न उलझाये, अपने ज्ञानस्वरूप में जग जाय तो उस जिज्ञासु को अपने जन्म-कर्म कि दिव्यता का रहस्य समझ में आ जाता है ।

इससे जगती परम शांति की प्यास

सत्पुरुषों की जयंती मनाने से भावनाएँ शुद्ध होती हैं, विचार शुद्ध होते हैं, उमंगे सात्त्विक होती हैं और अगर आप हलकी वृत्ति से, हलके विचारों से और हलके आचरणों से समझौता नहीं करते हैं तो आपका भी जागरण हो जाता है अपने चैतन्यस्वरूप में, चित्त में अपने शुद्ध स्वरूप का प्राकट्य हो जाता है ।

जब व्यक्ति बेईमानी, भोग-संग्रह और दुर्वासनाओं को सहयोग करता है तो उसका अवतरण नहीं होता, वह साधारण जीव-कोटि में भटकता है । आत्मबल बढ़ाने में वे ही लोग सफल होते हैं जो हलकी आशाओं, इच्छाओं व हलके संग से समझौता नहीं करते हैं । ऐसे पुरुषों का आत्मबल विकसित होता है और वह आत्मबल सदाचार के रास्ते चलते-चलते चित्त में परम शांति की प्यास जगाता है ।

वैदिक संस्कृति में प्रार्थना हैः

दुर्जनः सज्जनो भूयात्…. दुर्वासनाओं के कारण व्यक्ति दुर्जन हो जाता है । दुर्वासनाओं व दुर्व्यवहार के साथ समझौता नहीं करे तो सज्जनता आ जायेगी । सज्जनः शान्तिमाप्नुयात् । सज्जन को शांति प्राप्त होती है, सज्जन शांति प्राप्त करे । शान्तो मुच्येत बन्धेभ्यो…  शांत बंधनों से मुक्त होते हैं । मुक्तश्चान्यान् विमोचयेत् ।। मुक्त पुरुष औरों को मुक्ति के मार्ग पर ले जायें ।

शांति पाने से दुर्वासनाएँ निवृत्त होती हैं, सद्वासनाओं को बल मिलता है, ‘सत्’ स्वरूप को पाने की तीव्रता जगती है । फिर पहुँच जायेंगे आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष की शरण में… जिनके अंतःकरण में सत्य का अवतरण हुआ है । उन्हें अवतारी पुरुष कहो, ब्रह्मवेत्ता कहो – ऐसे महापुरुष के सत्संग-सान्निध्य में आने से हमारा चित्त, हमारी दृष्टि, हमारे विचार पावन होने लगते हैं… उनकी कृपा से हमारी परम शांति की प्यास शांत होने लगती है और आगे चलकर मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है ।

बड़ी मुश्किल से यह मनुष्य देह मिली है तो अपनी मंजिल तय कर लो । अगर तय कर ली तो आप सत्पुरुष हैं और तय करने के रास्ते हैं तो आप साधक हैं और यदि आप तय नहीं कर रहे हैं तो आप देहधारी द्विपाद पशु की पंक्ति में गिने जाते हैं । जन्मोत्सव प्रेरणा देता है कि तुम पशु की पंक्ति से पार होकर सत्पुरुष की पंक्ति में चलो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 13, 22 अंक 316

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अवतरण दिवस पर क्या भेंट दें ?


(पूज्य बापू जी का 82वाँ अवतरण दिवसः 6 अप्रैल 2018)

भगवान की जयंतियाँ जैसे राम नवमी, जन्माष्टमी मनाते हैं तो हमको ही फायदा होता है, ऐसे ही संतों-महापुरुषों की जयंती, अवतरण दिवस मनाते हैं तो इससे समाज को ही फायदा होता है। ऐसे पर्वों, उत्सवों के निमित्त भगवान के निकट जाने की, दुःखों से छूटने की जो व्यवस्था है वह शास्त्रीय है।

किनका अवतरण दिवस मनायें ?

अपने शरीर का तो जन्मदिन मनाना ही नहीं चाहिए, तुम्हारे माँ-बाप, कुटुम्बी, पड़ोसी भले उसे मनायें। वे मनायें और अगर तुम असावधान रहे तो देहाध्यास पक्का हो जायेगा, यह जोखिम है। उन महापुरुषों का अवतरण दिवस मनाओ जिनके आने से दूसरों का कल्याण हुआ है – श्री कृष्ण, श्री राम, आद्य शंकराचार्य जी, स्वामी रामानंद जी, भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज आदि का मनाओ। अपने शरीर का जन्मदिन मनाना ही चाहो तो जितनी उम्र है उतने बड़दादा (आश्रम के बड़ बादशाह) के फेरे लगा लो और प्रार्थना करो कि ‘इतने वर्ष तो खत्म हो गये, जितने रहे उनकी यात्रा अच्छी हो।’ शरीर का जन्म हुआ, हमारा नहीं हुआ – ऐसा समझना चाहिए।

अपना अहं अर्पित करने की व्यवस्था

माता-पिता को बच्चे के कल्याण में जितना आनंद आता है उससे भी कई गुना ज्यादा आनंद संतों को हम लोगों के उत्थान को देखकर आता है। वे घरबार को, शरीर की सुविधाओं, ऐश आराम को छोड़ के जंगलों, गुफाओं में पहुँचे और हरि से दिल लगाया। जिस परमात्म-सुख के आगे इन्द्र का राज्य भी तुच्छ भासता है ऐसा एकांत समाधि का सुख छोड़कर वे समाज में केवल हमारा उत्थान करने आये हैं।

संतों के पास जाने से लोग संतत्व को उपलब्ध होते हैं। संतों की सेवा करने से लोगों का हृदय शुद्ध होता है। बाकी तो संतों की इन चीजों से कोई बढ़ोतरी नहीं होती है। उनके चरणों में फूल रखने से उनका कुछ बढ़ेगा नहीं और न रखने से कुछ घटेगा नहीं लेकिन फूल रखने के साथ-साथ अपना अहं भी थोड़ा बहुत घटता है, नम्रता का सद्भाव, सदगुण बढ़ता है। आत्मा और परमात्मा के बीच जो हमारा अहं का पर्दा है, इन चीजों को रखने से वह ढीला हो जाता है। ये चीजें हैं तो नश्वर लेकिन शाश्वत के बीच आने वाला जो पर्दा है उसको हटाने में सहायक हैं। गुरुदेव को हम और तो कुछ दे नहीं सकते पर एक माला गुरुमंत्र, आरोग्य मंत्र की जप के गुरुदेव के दीर्घायुष्य, उत्तम आरोग्य के लिए, उनके समाजहितकारी दैवी सेवाकार्य और बढ़ें इसके लिए संकल्प करके अर्पण कर सकते हैं।

तो गुरुदक्षिणा के बदले सेवा करिये

हमें तो आपका रुपया-पैसा नहीं चाहिए पर मुफ्त में सुनोगे तो ज्ञान पचेगा नहीं इसलिए गुरु जी को कुछ तो दक्षिणा रखना चाहिए। तो गुरुदक्षिणा के बदले सेवा करिये, जैसे कि आप कीर्तन करिये, सत्संग सुनिये, दूसरों को प्रोत्साहित करिये, आप तरिये और दूसरों को तारने में मददरूप बनिये…. ऋषि प्रसाद और सत्साहित्य उन तक पहुँचाइये, बचपन में बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें इसलिए उन्हें बाल संस्कार केन्द्र में भेजिये, बाल संस्कार केन्द्र आदि कोई सेवा चालू करिये।

देना ही चाहते हो तो ऐसा दो

कुछ वर्ष पहले की बात है। अवतरण दिवस पर कोई साधक मुझे कुछ भेंट करना चाहते थे। मैंने इन्कार किया लेकिन साधकों का मन दिये बिना मानता नहीं तो मैंने कहा कि “दक्षिणा का लिफ़ाफ़ा मुझे दोगे उससे मैं इतना राज़ी नहीं होऊँगा जितना साधना के संकल्प का लिफ़ाफ़ा देने से होऊँगा। यदि मेरे पास संकल्प लिख के रख दिया जाय कि ‘आज से लेकर आने वाले जन्म दिन तक मैं प्रतिदिन इतने घंटे या इतने दिन मौन रखूँगा अथवा इतने दिन एकांत में रहूँगा…. इतना योगवासिष्ठ का पारायण करूँगा…..’ और भी ऐसा कोई नियम ले लो। वह संकल्प का कागज अर्पण कर दोगे तो मेरे लिए वह तुम्हारी बड़ी भेंटे हो जायेगी।”

अवतरण दिवस पर कुछ देना है तो ऐसी चीज दो कि तुम्हारे अहं को ठोकर लगे और फिर भी तुम्हें दुःख न हो, तुम्हारे अहं को पुचकार मिले फिर भी तुमको आसक्ति न हो तो यह बड़ी उपलब्धि है। एक संकल्प का कागज बना लें कि ‘मैं इस साल कम से कम 10 बार अपमान के प्रसंग में समता रखूँगा।’ तुमने सत्संग तो सुन रखे हैं तो जिस साधन से तुम्हारी आध्यात्मिकता में ऊँचाई आ जाती हो ऐसे साधन का कोई संकल्प कर लो, जैसे कि ‘मैं हिले-डुले बिना इतनी देर एक आसन पर बैठूँगा। हर रोज आधा घंटा नियम से पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख हो आसन में बैठकर ध्यान करूँगा।’ आसन में बैठ गये, ज्ञान मुद्रा कर ली (अँगूठे के पास वाली पहली उँगली और अँगूठा – दोनों के अग्रभागों को आपस में मिला लिया), गहरा श्वास लिया और ‘ॐऽऽऽऽऽ…..’ का गुंजन किया। ऐसा 40 दिन तक रोज नियम से कम से कम आधा घंटा करो, ज्यादा करो तो और अच्छा है, आधा घंटा एक साथ करो या तो 2-3 बार में करो।

जिन कार्यों से हमारा जीवन, हमारी बुद्धि पवित्र होती है, जिन नियमों से हम परमात्मा के करीब जाते हैं उस प्रकार का कोई नियम हम अपने जीवन में रखें। मानो पिछले साल आप सप्ताह में 6 घंटा मौन रखते थे तो इस साल 8 घंटा रखिये, 10 घंटा रखिये । योगवासिष्ठ को एक या दो बार पढ़ चुके हैं लेकिन फिर से जब पढ़ेंगे तो उससे और गहरा रंग चढ़ेगा। इस प्रकार की किसी साधना को जीवन में लाइये।

जब तुम कोई नियम करोगे तो मन इधर-उधर छलाँग मारने को करेगा पर एक बार जो मन के ऊपर आपकी लगाम लग जायेगी तो दोबारा भी लग जायेगी, तिबारा भी लग जायेगी फिर मन आपके अधीन हो जायेगा, मन के आप स्वामी हो जायेंगे।

साधारण व्यक्ति जो भी कर्म करता है सुख पाने की इच्छा से करता है, दुःख मिटाने और अच्छा कहलाने के लिए करता है, कुछ पाने, कुछ हटाने की इच्छा से करता है। इच्छा से कर्म बंधनरूप हो जाते हैं। कर्म परहित के लिए करें तो कर्म का प्रवाह प्रकृति में चला जाता है और कर्ता अपने ‘स्व’ स्वभाव – आत्मस्वभाव में विश्रांति पाता है।

अवतरण दिवस के पीछे उद्देश्य

जो त्यौहार किसी महापुरुष के अवतरण दिवस या जयंती के रूप में मनाये जाते हैं, उनके द्वारा समाज को सच्चरित्रता, सेवा, नैतिकता, सद्भावना आदि की शिक्षा मिलती है।

सनातन धर्म में त्यौहारों को केवल छुट्टी का दिन अथवा महापुरुषों की जयंती ही न समझ कर उनसे समाज की वास्तविक उन्नति तथा चहुँमुखी विकास का उद्देश्य सिद्ध किया गया है।

-पूज्य बापू जी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 303

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दिव्यता की ओर ले जाने वाला पर्व अवतरण दिवस


पूज्य बापू जी का अवतरण दिवसः 17 अप्रैल 2017

यह वर्षगाँठ नहीं है…..

स्थूल शरीर व सूक्ष्म शरीर के मेल को जन्म बोलते हैं और इनके वियोग को मृत्यु बोलते हैं। तो स्थूल सूक्ष्म शरीरों का संयोग होकर जन्म ले के जीव इस पृथ्वी पर आया तो उसका है जन्मदिन। वह तिथि, तारीख, दिन, घड़ियाँ, मिनट, सेकंड देखकर कुंडली बनायी जाती है और उसके मुताबिक कहा जाता है कि आज 20वीं वर्षगाँठ है, 25वीं वर्षगाँठ है, 50वीं है…. फलाना आदमी 70 वर्ष का हो गया, 70 वर्ष जिया…. लेकिन हकीकत में उनका वह जीना जीना नहीं है, उनकी वह वर्षगाँठ वर्षगाँठ नहीं है जो देह के जन्म को मेरा जन्म मानते हैं। जो देह को मैं मानकर जी रहे हैं वे तो मर रहे हैं ! ऐसे लोगों के लिए संतों ने कहा कि उन्हें हर वर्षगाँठ को, हर जन्मदिन को रोना चाहिए कि ‘अरे, 22 साल मर गये, 23वाँ साल मरने को शुरु हुआ है। हर रोज एक-एक मिनट मर रहे हैं।’

‘मेरा जन्मदिवस है, मिठाई बाँटता हूँ…..’ नहीं, रोओ कि ‘अभी तक प्यारे को नहीं देखा। अभी तक ज्ञान नहीं हुआ कि मेरा कभी जन्म ही नहीं, मैं अजर-अमर आत्मा हूँ। अभी तक दिल में छुपे हुए दिलबर का ज्ञान नहीं हुआ, आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ।’ जिस दिन ज्ञान हो जाय उस दिन तुम्हें पता चलेगा कि

जन्म मृत्यु मेरा धर्म नहीं है,

पाप पुण्य कछु कर्म नहीं है।

मैं अज निर्लेपी रूप, कोई कोई जाने रे।।

तुम्हें जब परमात्मा का साक्षात्कार हो जायेगा तब लोग तुम्हारा नाम लेकर अथवा तुम्हारा जन्मदिन मना के आनंद ले लेंगे, मजा ले लेंगे, पुण्यकर्म करेंगे। तुमको रोना नहीं आयेगा, तुम भी मजा लोगे। उनका जन्म सार्थक हो गया जिन्होंने परमात्मा को जान लिया। उनको देह के जन्मों का फल मिल गया जिन्होंने अपने अजन्मा स्वरूप को जान लिया और जिन्होंने जान लिया, जिनका काम बन गया वे तो खुश रहते ही हैं। ऐसे मनुष्य जन्म का काम बन गया कि परमात्मा में विश्रांति मिल गयी तो फिर रोना बंद हो जाता है।

अपना जन्म दिव्यता की ओर ले चलो

जो जन्म दिवस मनाते हैं उन्हें यह श्लोक सुना दोः

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। (गीताः 4.9)

हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं, इस प्रकार मेरे जन्म और कर्म को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर का त्याग करने के बाद पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, भगवद तत्त्व को प्राप्त हो जाता है।

आप जिसका जन्मदिवस मनाने को जाते हैं अथवा जो अपना जन्मदिवस मनाते हैं, उन्हें इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वास्तव में उस दिन उनका जन्म नहीं हुआ, उनके साधन का जन्म हुआ है। उस साधन को 50 साल गुजर गये, उसका सदुपयोग कर  लो। बाकी के जो कुछ दिन बचे हैं उनमें ‘सत्’ के लिए उस साधन का उपयोग कर लो। करने की शक्ति का आप सदुपयोग कर लो, ‘सत्’ को रब, अकाल पुरुष को जानने के उद्देश्य से सत्कर्म करने में इसका उपयोग कर लो। आपमें मानने की शक्ति है तो आप अपनी अमरता को मान लो। जानने की शक्ति है तो आप अपने ज्योतिस्वरूप को जान लो। सूर्य और चन्द्र एक ज्योति है लेकिन उनको देखने के लिए नेत्रज्योति चाहिए। नेत्रज्योति ठीक देखती है कि नहीं इसको देखने के लिए मनःज्योति चाहिए। मन हमारा ठीक है कि नहीं इसे देखने के लिए मतिरूपी ज्योति चाहिए और हमारी मति गड़बड़ है कि ठीक है इसको देखने के लिए जीवरूपी ज्योति चाहिए। हमारे जीव को चैन है कि बेचैनी है, मेरी जी घबरा रहा है कि संतुष्ट है, इसको देखने के लिए आत्मज्योति, अकाल पुरुष की ज्योति चाहिए।

मन तू ज्योतिस्वरूप, अपना मूल पिछान।

साध जना मिल हर जस गाइये।

उन संतों के साथ मिलकर हरि का यश गाइये और अपने जन्म दिवस को जरा समझ पाइये तो आपका जन्म दिव्य हो जायेगा, आपका कर्म दिव्य हो जायेगा। जब शरीर को ‘मैं’ मानते हैं तो आपका जन्म और कर्म तुच्छ हो जाते हैं। जब आप अपने आत्मा को अमर व अपने इस ज्योतिस्वरूप को ‘मैं’ मानते हैं और ‘शरीर अपना साधन है और वस्तु तथा शरीर संसार का है। संसार की वस्तु और शरीर संसार के स्वामी की प्रसन्नता के लिए उपयोग करने भर को ही मिले हैं।’ ऐसा मानते हैं तो आपका कर्म दिव्य हो जाता है, आपका जन्म दिव्यता की तरफ यात्रा करने लगता है।

….तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है !

श्रीकृष्ण का कैसा दिव्य जन्म है ! कैसे दिव्य कर्म हैं ! ऐसे ही राम जी का जन्म-कर्म, भगवत्पाद लीलाशाह जी बापू का, संत एकनाथ जी, संत तुकाराम महाराज, संत कबीर जी आदि और भी नामी-अनामी संतों के जन्म कर्म दिव्य हो गये श्रीकृष्ण की नाईं। तो जब वे महापुरुष जैसे आप पैदा हुए ऐसे ही पैदा हुए तो जो उन्होंने पाया वह आप क्यों नहीं पा सकते ? उधर नज़र नहीं जाती। नश्वर की तरफ इतना आकर्षण है कि शाश्वत में विश्रांति में जो खजाना है वह पता ही नहीं चलता। स्वार्थ में माहौल इतना अंधा हो गया कि निःस्वार्थ कर्म करने से बदले में भगवान मिलते हैं इस बात को मानने की भी योग्यता चली गयी। सचमुच, निष्काम कर्म करो तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है। ईश्वर के लिए तड़प हो तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है। ईश्वरप्राप्त महापुरुष को प्रसन्न कर लिया तो ईश्वरप्राप्ति पक्की बात है। जिनको परमात्मा मिले हैं उनको प्रसन्न कर लिया…. देखो बस ! मस्का मार के प्रसन्न करने से वह प्रसन्नता नहीं रहती। वे जिस ज्ञान से, जिस भाव से प्रसन्न रहें आचरण करो बस !

डूब जाओ, तड़पो तो प्रकट हो जायेगा !

एक होता है जाया, दूसरा होता है जनक। एक होता है पैदा हुआ और दूसरा होता है पैदा करने वाला। तो पैदा होने वाला पैदा करने वाले को जान नहीं सकता। मान सकते हैं कि ‘यह मेरी माँ है, यह मेरे पिता हैं।’

तो सृष्टि की चीजों से या मन-बुद्धि से हम ईश्वर को जान नहीं सकते, मान लेते हैं। और मानेंगे तो महाराज ! ईश्वर व ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु की बात भी मानेंगे और उनकी बात मानेंगे तो वे प्रसन्न होकर स्वयं अपना अनुभव करा देंगे।

सोइ जानइ जेही देहु जनाई।

जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।। (श्री रामचरित. अयो.कां. 126.2)

बापू का 81वाँ जन्मदिवस है तो शरीर के जन्म के पहले हम (पूज्य श्री) नहीं थे क्या ?

तो मानना पड़ेगा कि ‘शरीर का जन्मदिवस है, मेरा नहीं है।’ ऐसा मान के फिर आप लोग अपना जन्मदिवस मनाते हो तो मेरी मना नहीं है लेकिन ‘शरीर का जन्म मेरा जन्म है।’ ऐसा मानने की गलती मत करना। ‘शरीर की बीमारी मेरी बीमारी है, शरीर का बुढ़ापा मेरा बुढ़ापा है, शरीर का गोरापन-कालापन मेरा गोरा-कालापन है…..’ यह मानने की गलती मत करना।

मनोबुद्धयहंकारीचित्तानी नाहं….

शरीर भी मैं नहीं हूँ और मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त भी मैं नहीं हूँ। तो फिर क्या हूँ ? बस डूब जाओ, तड़पो तो प्रकट हो जायेगा ! असली जन्मदिवस तो तब है जब –

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

तभी तो जन्मदिवस का फल है। मरने वाले शरीर का जन्मदिवस…. जन्मदिवस तो मनाओ पर उसी निमित्त मनाओ जिससे सत्कर्म हो जायें, सद्बुद्धि का विकास हो जाय, अपने सतस्वभाव को जानने की ललक जग जाय….

ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः। अपने आत्मदेव को जानने वाले शोक, भय, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि – सब बंधनों से मुक्त होता है।

मुझ चिदाकाश को ये सब छू नहीं सकते, प्रतीतिमात्र है, वास्तव में हैं नहीं। जैसे स्वप्न व उसकी वस्तुएँ, दुःख, शोक प्रतीतिमात्र हैं। प्रभु जी = साधक जी ! आप भी वही हैं। ये सब गड़बड़ें मरने मिटने वाले तन-मन में प्रतीत होती हैं। आप न मरते हैं न जन्मते हैं, न सुखी-दुःखी होते हैं। आप इन सबको जानने वाले हैं, नित्य शुद्ध बुद्ध, विभु-व्यापक चिदानंद चैतन्य हैं।

चांदणा कुल जहान का तू

तेरे आसरे होय व्यवहार सारा।

तू सब दी आँख में चमकदा है,

हाय चांदणा तुझे सूझता अँधियारा।।

जागना सोना नित ख्वाब तीनों,

होवे तेरे आगे कई बारह।

बुल्लाशाह प्रकाशस्वरूप है,

इक तेरा घट वध न होवे यारा।।

तुम ज्योतियों की ज्योति हो, प्रकाशकों के प्रकाशक हो। द्रष्टा हो मन-बुद्धि के और ब्रह्माँडों के अधिष्ठान हो। ॐ आनंद… ॐ अद्वैतं ब्रह्मास्मि। द्वितयाद्वै भयं भवति। द्वैत की प्रतीति है, लीला है। अद्वैत ब्रह्म सत्य….।

ऋषि प्रसाद, मार्च 2017, पृष्ठ संख्या 5-7, अंक 291

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