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बच्चों को क्या दें ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

हमारे भारत के बच्चे-बच्चियों के साथ बड़ा अन्याय हो रहा है। अश्लील चलचित्रों, उपन्यास द्वारा उनके साथ बड़ा अन्याय किया जा रहा है। फिर भी हमारे बच्चे-बच्चियाँ अन्य देशों के युवक-युवतियों की अपेक्षा बहुत अच्छे हैं, परिश्रमी हैं, कष्ट सहते हैं, देश विदेश में जाकर बेचारे रोजी-रोटी कमा लेते हैं, दूसरे देशों के युवक-युवतियों की तरह विलासी नहीं हैं। यह सब उनके माँ-बाप की तपस्या है। माँ-बाप जिनका सान्निध्य सेवन करते हैं उन संतों की तपस्या और हमारी भारतीय संस्कृति के प्रसाद की महिमा है। यह ऐसा प्रसाद है कि सब दुःखों को सदा के लिए मिटाने की ताकत रखता है। यह कहीं जा के, किसी को हटा के, किसी को पा के दुःख नहीं मिटाता। कुछ मिल जाये तब दुःख मिटे, कुछ हट जाय तब दुःख मिटे…..नहीं। भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्रसाद तो इतना निराला है कि आप चाहे जैसी परिस्थिति में हैं, वह आपको सुखी बना देता है। मगर दुर्भाग्य है कि हमारे देशवासी पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आकर अपने साथ, अपने बच्चों के साथ अन्याय कर बैठते हैं।

दिल्ली मे मेरे सत्संग में एक पुलिस अफसर आया था। उसके दोनों बच्चों को देखकर मुझे तरस आया। मैंने कहा कि “इनका विकास नहीं होगा, इनके पेट में तकलीफ है।”

बोलाः “चॉकलेट खाते हैं।”

मैंने कहाः “इतनी चॉकलेट क्यों खिलाते हो ? चॉकलेट से, फास्टफूड से कितनी-कितनी हानि होती है, पेट की खराबी होती है।”

बस, पैसे मिल गये, अधिकार मिल गया तो खिलाओ, बच्चे हैं….। बच्चों से पूछते हैं- “क्या चाहिए बेटे ?” बच्चे टी.वी. में देखते रहते हैं तो बोल देते हैं- यह चाहिए, वह चाहिए…..। इससे बच्चों का स्वास्थ्य और हमारे भारत की गरिमा बिगड़ रही है। बच्चों का माँ-बाप के प्रति सदभाव नहीं रहा। यह कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाई का परिणाम है। अगर माँ-बाप के जीवन में सत्संग नहीं है तो जो सूझबूझ चाहिए उससे माँ-बाप भी वंचित हो जाते हैं। अज्ञानता बढ़ाने में, विषय विकार बढ़ाने में अथवा अधिकारलोलुप होकर संघर्ष करने में सुख का, ज्ञान का निवास नहीं है। एकत्व के ज्ञान से ही सारी समस्याओं का समाधान है। यह ज्ञान गुरुकुलों में मिलता है।

कॉन्वेंट स्कूलों में बच्चों को हिन्दू साधुओं के प्रति नफरत करना सिखाया जाता है। हिन्दू देवी देवताओं को नीचा दिखाते हैं, हनुमानजी को बंदर साबित कर देते हैं। पूँछवाले किसी जानवर का चित्र बनाते हैं और बच्चों से पूछते हैं कि ‘यह क्या है?’ बच्चे कहते हैं- ‘जानवर’।

‘कैसे?’

‘क्योंकि इसको पूँछ है।’

फिर हनुमान जी का चित्र बनाते हैं। बोलते हैं- ‘देखो, यह भी जानवर है।’ बच्चों में ऐसी जहरी संस्कार डाल देते हैं। वे ही बच्चे जब बड़े अधिकारी बनते हैं तो हिन्दू होते हुए भी हिन्दू साधुओं के लिए, हिन्दू धर्म के लिए और हिन्दू शास्त्रों के लिए उनके मन में नफरत पैदा हो जाती है, इसलिए बेचारे शराबी हो जाते हैं। शराब पीने से बुद्धि मारी जाती है, फिर न पत्नी का मन सँभाल सकते हैं, न माँ-बाप का मन सँभाल सकते है। ऐसे कई युवकों को मैं जानता हूँ। एक व्यक्ति मेरे पास आया और रोते हुए बोला कि ‘मेरी लड़की ने ग्रेजुएशन किया, तीस हजार की सर्विस थी और जिससे शादी की उस लड़के की भी पैंतीस हजार की सर्विस थी। बयालीस लाख रूपये शादी में खर्च किये लेकिन बाबा ! बेटी को चार महीने का गर्भ है और उसको लाकर घर पर छोड़ दिया।’

क्योंकि पढ़ाई ऐसी थी कि खाओ-पियो-मौज करो। और भी कइयों को देखा है। एक व्यक्ति, वह खुद दो किसी कम्पनी में मैनेजर है, पत्नी भी मैनेजर है, बारह-पन्द्रह लाख वह भी कमाती है। फिर भी दुःखी हैं क्योंकि उन्हें शिक्षा ही उलटी मिली है, संस्कार ही भोगें के मिले हैं। दूसरों का कुछ भी हो, खुद को मजा आना चाहिए। बाहर का मजा लेने के जो संस्कार हैं, वे अंदर के मजे से वंचित कर देते हैं और पाशवी वृत्तियाँ जगाते हैं। जिन बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार मिले हैं, ऐसे बच्चों के लिए बाहरी सुख-सुविधा के साधन उतना मायना नहीं रखते। वे जैसी भी परिस्थिति में रहते हैं, स्वयं तो संतुष्ट रहते हैं, प्रसन्न रहते हैं उनके संपर्क में आने वालों को भी उनसे कुछ-न-कुछ सीखने को मिल जाता है। हम अपने बच्चों को धन न दे सकें तो कोई बात नहीं, बड़े-बड़े बँगले, कोठियाँ, गाड़ियाँ, बैंक बैलेंस न दे सकें तो कोई बात नहीं परंतु अच्छे संस्कार जरूर दें। अगर आपने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार जरूर दें। अगर आपने अपने बच्चों को अच्छे संस्कारों से सम्पन्न बना दिया तो समझो, आपने उन्हें बहुत बड़ी सम्पत्ति दे दी, बहुत बड़ी पूँजी का मालिक बना दिया। यह अच्छे संस्कारों की पूँजी आपके लाडलों को जीवन के हर क्षेत्र में सफल बनायेगी, यहाँ तक कि लक्ष्मीपति भगवान से भी मिलने के योग्य बना देगी। बच्चों के मन में अच्छे संस्कार डालना यह हम सबका कर्तव्य है, इसमें हमें प्रमाद नहीं करना चाहिए, लापरवाही नहीं करनी चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 209

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विद्या क्या है ? – पूज्य बापू जी


 

विद्या ददाति विनयम्। विद्या से विनय प्राप्त होता है। यदि विद्या पाकर भी अहंकार बना रहा तो ऐसी विद्या किस काम की ! ऐसी विद्या न तो स्वयं का कल्याण करती है न औरों के ही काम आती है।

एक समय जयपुर में राजा माधवसिंह का राज्य था। राज्य-सिंहासन पर बैठने से पूर्व माधवसिंह एक सामान्य जागीरदार का पुत्र था। बाल्यकाल से ही वह बड़ा ऊद्यमी और शैतान था। पढ़ने लिखने में उसकी रूचि न थी।

उसके बाल्यकाल के गुरू थे संसारचन्द्र। यदि माधवसिंह को कोई पाठ नहीं आता तो वे उसे कठोर सजा देते। सच्चे गुरू शिष्य का अज्ञान कैसे सहन कर लेते ! बड़ा होने पर बचपन का वही ऊधमी माधवसिंह जयपुर का राजा बना।

एक दिन माधवसिंह बड़ा दरबार लगाकर बैठा था, तब किसी ने राजदरबार में आकर संसारचन्द्र की शिकायत की, जबकि वे बिल्कुल निर्दोष थे।

माधवसिंह ने संसारचन्द्र को राजदरबार को उपस्थित करने का आदेश दिया। संसारचन्द्र निर्भयतापूर्वक राजदरबार में आये।

माधवसिंह बोलाः “गुरूजी ! आपको याद होगा कि किसी जमाने में आप मेरे गुरु थे और मैं आपका शिष्य।”

संसारचन्द्र याद करने लगे तो माधवसिंह ने पुनः कहाः “जब मुझे कोई पाठ नहीं आता था तब आप मुझे डंडे से मारते थे।”

संसारचन्द्र के प्राण कंठ तक आ गये। उन्होंने सोचा कि ‘अब माधवसिंह जरूर मुझे फाँसी पर लटकायेगा। इसकी क्रूरता तो प्रख्यात है।’ किन्तु तभी स्वस्थ होकर संसारचन्द्र ने कहाः “महाराज ! सत्ता का नशा मनुष्य को खत्म कर देता है। यदि मुझे पहले से ही इस बात का पता होता कि आप जयपुर नरेश बनने वाले हैं तो मैंने आपको उससे भी ज्यादा कठोर सजाएँ दी होतीं। आपको राजा की योग्यता दिलाने के लिए मैंने ज्यादा दंड दिया होता। यदि मैं ऐसा कर पाता तो जो आज आप विद्या को लज्जित कर रहे है, उसकी जगह उसे प्रकाशित करते।”

सारी सभा मन-ही-मन संसारचन्द्र की निर्भयता की प्रशंसा करने लगी। माधवसिंह को भी अपनी क्रूरता के लिए पश्चाताप होने लगा। उसने गुरु संसारचन्द्र से क्षमा माँगी और उन्हें सम्मानपूर्वक विदा किया।

जो विद्या अहं को जगाकर विकृति पैदा करे, वह विद्या ही नहीं है। विद्या तो मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारने का काम करती है और ऐसी विद्या प्राप्त होती है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के चरणों में।

धन्य हैं स्पष्टवक्ता संसारचन्द्र और धन्य हैं गुरु को हितैषी मानकार राजमद छोड़ने व अपनी चतुराई चूल्हे में डालने वाला माधवसिंह ! राजसत्ता का मद छोड़कर सदगुरू का आदर करने वाले छत्रपति शिवाजी की नाईं इस विवेकी ने भी अपनी उत्तम सूझबूझ का परिचय दिया।

क्या आप लोग भी अपने हितैषियों की कठोरता का सदुपयोग करेंगे ? या बचाव की बकवास करके अवहेलना करेंगे ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 9, अंक 209

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दीर्घायु का रहस्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

चीन के पेकिंग (बीजिंग) शहर के एक 250 वर्षीय वृद्ध से पूछा गयाः “आपकी इतनी दीर्घायु का रहस्य क्या है ?”

उस चीनी वृद्ध ने जो उत्तर दिया, वह सभी के लिए लाभदायक व उपयोगी है। उसने कहाः

“मेरे जीवन में तीन बातें हैं जिनकी वजह से मैं इतनी लम्बी आयु पा सका हूँ।

एक तो यह है कि मैं कभी उत्तेजना के विचार नहीं करता। दिमाग में उत्तेजनात्मक विचार नहीं भरता हूँ। मेरे दिल-दिमाग शांत रहें, ऐसे ही विचारों को पोषण देता हूँ।

दूसरी बात यह है कि मैं उत्तेजित करने वाला, आलस्य को बढ़ाने वाला भोज्य पदार्थ नहीं लेता और न ही अनावश्यक भोजन लेता हूँ। मैं स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए भोजन करता हूँ।

तीसरी बात यह है कि मैं गहरा श्वास लेता हूँ। नाभि तक श्वास भर जाये इतना श्वास लेता हूँ और फिर छोड़ता हूँ। अधूरा श्वास नहीं लेता।”

लाखों-करोड़ों लोग इस रहस्य को नहीं जानते हैं। वे पूरा श्वास नहीं लेते हैं। पूरा श्वास लेने से फेफड़ों का एवं दूसरे अवयवों का अच्छी तरह से उपयोग होता है एवं श्वास की गति कम होती है। जो लोग आधे श्वास लेते हैं वे एक मिनट में 14-15 श्वास गँवा देते हैं। जो लोग लम्बे श्वास लेते हैं वे एक मिनट में 10-12 श्वास ही लेते हैं, इसस आयुष्य की बचत होती है।

कार्य करते समय एक मिनट में 12-13 श्वास खर्च होते हैं। दौड़ते समय या चलते-चलते बात करते समय एक मिनट में 18-20 श्वास खर्च होते हैं। क्रोध करते समय एक मिनट में 24 से 28 श्वास खर्च हो जाते हैं और काम भोग के समय एक मिनट में 32 से 36 श्वास खर्च हो जाते हैं। जो अधिक विकारी है उनके श्वास ज्यादा खत्म होते हैं, उनकी नस-नाड़ियाँ जल्दी कमजोर हो जाती हैं। हर मनुष्य का जीवनकाल उसके श्वासों के मुताबिक कम-अधिक होता है। कम श्वास (प्रारब्ध) लेकर आया है तो भी निर्विकारी जीवन जी लेगा। भले कोई अधिक श्वास लेकर आया हो लेकिन अधिक विकारी जीवन जीने से वह उतना नहीं जी सकता जितना जी सकता था।

जब आदमी शांत होता है तो उसके शरीर से जो आभा निकलती वह बहुत शांति से निकलती हैं और जब आदमी उत्तेजनात्मक भावों में, विचारों में आता है या क्रोध के समय काँपता है उस वक्त उसके रोमकूप से अधिक आभा निकलती है। यही कारण है कि क्रोधी आदमी जल्दी थक जाता है जबकि शांत आदमी जल्दी नहीं थकता।

शातं होने का मतलब यह नहीं कि आलसी होकर बैठे रहें। अगर आलसी होकर बैठे रहेंगे तो शरीर के पुर्जे बेकार हो जायेंगे, शिथिल हो जायेंगे, बीमार हो जायेंगे। उन्हें ठीक करने के लिए फिर श्वास ज्यादा खर्च होंगे।

अति परिश्रम न करें और अति आरामप्रिय न बनें। अति खाये नहीं और अति भुखमरी न करें। अति सोये नहीं और अति जागे नहीं। अति संग्रह न करें और अति अभावग्रस्त न बनें। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैः युक्ताहारविहारस्य….

डॉ. फ्रेडरिक कई संस्थाओं के अग्रणी थे। उन्होंने 84 वर्षीय एक वृद्ध सज्जन को सतत कर्मशील रहते हुए देखकर पूछाः “एक तो 84 वर्ष की उम्र, नौकरी से सेवानिवृत्त, फिर भी इतने सारे कार्य और इतनी भागदौड़ आप कैसे कर लेते हैं ? ग्रह-नक्षत्र की जाँच परख में आप मेरा इतना साथ दे रहे हैं ! क्या आपको थकान या कमजोरी महसूस नहीं होती ? क्या आपको कोई बीमारी नहीं है ?”

जवाब में उस वृद्ध ने कहाः “आप अकेले ही नहीं, और भी अपने परिचित डॉक्टरों को बुलाकर मेरी तन्दुरुस्ती की जाँच करवा लें, मुझे कोई बीमारी नहीं है।”

कई डॉक्टरों ने मिलकर उस वृद्ध की जाँच की और देखा कि उस वृद्ध के शरीर में बुढ़ापे के लक्षण तो प्रकट हो रहे थे लेकिन फिर भी वह वृद्ध प्रसन्नचित्त था। इसका कारण क्या हो सकता है ?

जब डॉक्टरों ने इस बात की खोज की तब पता चला कि वह वृद्ध दृढ़ मनोबल वाला है। शरीर में बीमारी के कितने ही कीटाणु पनप रहे हैं लेकिन दृढ़ मनोबल एवं प्रसन्नचित्त रहने के कारण रोग के कीटाणु उत्पन्न होकर नष्ट भी हो जाते हैं। वे रोग इनके मन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते।”

आलस्य शैतान का घर है। आलस्य से बढ़कर मानव का दूसरा कोई शत्रु नहीं है। जो सतत प्रयत्नशील एवं उद्यमशील रहता है, सफलता उसी का वरण करती है। कहा भी गया हैः

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणी न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

ʹउद्यमशील के ही कार्य सिद्ध होते हैं, आलसी के नहीं। कभी-भी सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते।ʹ

अतः हे विद्यार्थियों ! उद्यमी बनो। साहसी  बनो। अपना वक्त बरबाद मत करो। जो समय को बरबाद करते हैं, समय उन्हें बरबाद कर देता है। समय को ऊँचे एवं श्रेष्ठ कार्यों में लगाने से समय का सदुपयोग होता है एवं तुम्हें भी लाभ होता है। जैसे कोई व्यक्ति चपरासी के पद हो तो आठ घंटे के समय का उपयोग करे! जिलाधीश के पद पर  हो तो भी उतना ही करे तथा राष्ट्रपति के पद पर हो तो भी उतना ही करे, फिर भी समय का उपयोग उतना ही होने पर भी फायदा अलग-अलग होता है। अतः समय का सदुपयोग जितने ऊँचे कार्यों में करोगे, उतना ही लाभ ज्यादा होगा और यदि ऊँचे-में-ऊँचे कार्य परमात्मा की प्राप्ति में समय लगाओगे तो तुम स्वयं परमात्मरूप होने का सर्वोच्च लाभ भी प्राप्त कर सकोगे।

उठो….जागो…. कमर कसो। श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ आहार विहार एवं श्वास की गति के नियंत्रण की युक्ति को जानकर, दृढ़ मनोबल रखकर, सतत कर्मशील रहकर दीर्घायु बनो। अपने समय को श्रेष्ठ कार्यों में लगाओ। फिर तुम्हारे लिए महान बनना उतना ही सहज हो जायेगा, जितना सूर्योदय होने पर सूरजमुखी का खिलना सहज होता है।

ૐ शांति… ૐ हिम्मत…. ૐ साहस…. ૐ बल…. ૐ दृढ़ता…. ૐ…..ૐ….ૐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2000, पृष्ठ संख्या 18-20 अंक 87

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