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चार प्रकार के बल


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जीवन में सर्वांगीण उन्नति के लिए चार प्रकार के बल जरूरी हैं- शारीरिक बल, मानसिक बल, बौद्धिक बल, संगठन बल।

पहला बल है शारीरिक बल। शरीर तंदरुस्त होना चाहिए। मोटा होना शारीरिक बल नहीं है, वरन् शरीर स्वस्थ होना शारीरिक बल है।

दूसरा बल है मानसिक बल। जरा-जरा बात में गुस्सा हो जाना, जरा-जरा बात में डर जाना, चिढ़ जाना-यह कमजोर मन की निशानी है। जरा-जरा बात में घबराना नहीं चाहिए, चिंतित-परेशान नहीं होना चाहिए, वरन् अपने मन को मजबूत बनाना चाहिए।

तीसरा बल है बुद्धिबल। शास्त्र का ज्ञान पाकर अपना, कुल का समाज का, अपने राष्ट्र का एवं पूरी मानव जाति का कल्याण करने की जो बुद्धि है, वही बुद्धिबल है।

शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक बल तो हो किन्तु संगठनबल न हो तो व्यक्ति व्यापक कार्य नहीं कर सकता। अतः जीवन में संगठन बल का होना भी आवश्यक है।

ये चारों प्रकार के बल कहाँ से आते हैं ? इन सब बलों का मूल केन्द्र है आत्मा। अपना आत्मा-परमात्मा विश्व के सारे बलों का महाखजाना है। बलवानों का बल, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज, योगियों का योग-सामर्थ्य सब वहीं से आते हैं।

ये चारों बल जिस परमात्मा से प्राप्त होते हैं उस परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिए।

ʹहे भगवान ! तुझमें सब शक्तियाँ हैं। हम तेरे हैं, तू हमारा है। तू पाँच साल के ध्रुव के दिल में प्रगट हो सकता है, तू प्रह्लाद के आगे प्रगट हो सकता है….. हे परमेश्वर ! हे पाण्डुरंग ! तू हमारे दिल में प्रगट होना….ʹ

इस प्रकार हृदयपूर्वक, प्रीतिपूर्वक व शांत भाव से प्रार्थना करते-करते प्रेम और शांति में सराबोर होते जाओ। प्रभुप्रीति और प्रभुशांति सामर्थ्य की जननी है। संयम और धर्मपूर्वक इन्द्रियों को नियंत्रित रखकर परमात्मशांति में अपनी स्थिति बढ़ाने वाले को इस आत्म-ईश्वर की संपदा मिलती जाती है। इस प्रकार प्रार्थना करने से तुम्हारे भीतर परमात्मशांति प्रगट होती जायेगी और परमात्मशांति से आत्मिक शक्तियाँ प्रगट होती है जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं संगठन बल को बड़ी आसानी से विकसित कर सकती हैं।

हे विद्यार्थियों ! तुम भी आसन-प्राणायाम आदि के द्वारा अपने तन को तंदरुस्त रखने की कला सीख लो। जप-ध्यान आदि के द्वारा मन को मजबूत बनाने की युक्ति जान लो। संत महापुरुषों के श्रीचरणों में आदरसहित बैठकर उनकी अमृतवाणी का पान करके एवं शास्त्रों का अध्ययन कर अपने बौद्धिक बल को बढ़ाने की कुंजी जान लो एवं आपस में संगठित होकर रहो। यदि तुम्हारे जीवन में ये चारों बल आ जायें तो तुम्हारे लिए फिर कुछ भी असंभव न होगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 26, अंक 82

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स्वावलंबी बनो


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

हमारी दिव्य संस्कृति भूलकर हम विदेशी कल्चर के चक्कर में फँस गए हैं। लॉर्ड मैकाले की कूटनीति ने भारत की शक्ति को क्षीण कर दिया है।

लॉर्ड मैकाले जब भारत देश में घूमा तब उसने देखा कि भारत के संतों के पास ऐसी यौगिक विद्याएँ हैं, ऐसा मंत्रविज्ञान है, ऐसी योग शक्तियाँ हैं कि यदि भारत का एक नौजवान भी संतों से प्रेरणा पाकर उनके बताये हुए पदचिन्हों पर चल पड़ा तो ब्रिटिश शासन को उखाड़ कर फेंक देने में सक्षम हो जायेगा।

इसलिए लॉर्ड मैकाले ने सर्वप्रथम संस्कृत विद्यालयों और गुरुकुलों को बंद करवाया और अंग्रेजी स्कूलें शुरु करवायीं। हमारे गृहउद्योग बंद करवाये और शुरू करवायी फैक्टरियाँ।

पहले लोग स्वावलंबी थे, स्वाधीन होकर जीते थे, उन्हें पराधीन बना दिया गया, नौकर बना दिया गया। धीरे-धीरे करके विदेशी आधुनिक माल भारत में बेचना शुरु कर दिया जिससे लोग अपने काम का आधार यंत्रों पर रखने लगे और प्रजा आलसी, भौतिकवादी बनती गई। इसका फायदा उठाकर ब्रिटिश हम पर शासन करने में सफल हो गये।

एक दिन एक राजकुमार घोड़े पर सवार होकर घूमने निकला था। उसे बचपन से ही भारतीय संस्कृति के पूर्ण संस्कार मिले थे। नगर से गुजरते वक्त अचानक राजकुमार के हाथों से चाबुक गिर पड़ा। राजकुमार स्वयं घोड़े से नीचे उतरा और चाबुक लेकर पुनः घोड़े पर सवार हो गया। यह देखकर राह पर गुजरते लोगों ने कहाः “मालिक ! आप तो राजकुमार हो। एक चाबुक के लिए आप स्वयं घोड़े पर से नीचे उतरे ! हमें हुक्म दे देते…”

राजकुमारः “जरा-जरा काम में यदि दूसरों का मुँह ताकने की आदत पड़ जायेगी तो हम आलसी, पराधीन बन जाएँगे और आलसी पराधीन मनुष्य जीवन में क्या प्रगति कर सकता है ? अभी तो मैं जवान हूँ। मेरे में काम करने की शक्ति है। मुझे स्वावलंबी बनकर दूसरे लोगों की सेवा करनी चाहिए न कि सेवा लेनी चाहिए। यदि आपसे चाबुक उठवाता तो सेवा लेने का बोझा मेरे सिर पर चढ़ता।”

हे भारत के नौजवानों ! दृढ़ संकल्प करो किः “हम स्वावलंबी बनेंगे।ʹʹ नौकरों तथा यंत्रों पर कब तक आधार रखोगे ? हे भारत की नारी ! अपनी गरिमा को भूलकर यांत्रिक युग से प्रभावित न हो। श्रीरामचन्द्रजी की माता कौशल्यादेवी इतने सारे दास-दासियों के होते हुए भी स्वयं अपने हाथों से अपने पुत्रों के लिए पवित्र भोजन बनाती थीं। तुम भी अपने कर्त्तव्यों से च्युत मत हो। किसी ने सच ही कहा हैः

स्वावलंबन की एक झलक पर।

न्यौछावर कुबेर का कोष।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 24, अंक 50

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