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विराट गुरु-तत्त्व की स्मृति जगाओ-पूज्य बापू जी


गुरुपूर्णिमा यह खबर देने वाला पर्व है कि आप कितने भी लघु शरीर, लघु अवस्था में हो फिर भी आपके अंदर विराट छुपा है । जैसे लहर समुद्र से अलग होकर अपने को मानेगी तो मौत की तरफ जायेगी, समुद्र से जुड़कर अपने को देखेगी तो विशाल है, ऐसे ही जीवात्मा अपने परमात्म-चैतन्य की ओर देखेगा तो उसे गुरुत्व का एहसास होगा ।

आप लघु शरीर, लघु व्यापार, लघु कर्म में होते हुए भी विराट परमात्मा के सनातन अंश हैं, इस बात का संदेश देने वाली तथा शम, दम, तितिक्षा, समाधान, ईश्वरप्रणिधान – ये सदगुण सुविकसित करके आपको स्वस्थ, सुखी और सम्मानित जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाली पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा है । इसे ‘ज्ञानपूर्णिमा’ भी कहते हैं । आषाढ़ महीने में आती है इसलिए ‘आषाढ़ी पूर्णिमा’ भी कहते हैं । वेदराशि के चार सुव्यवस्थित विभाग करने वाले एवं विश्व का सर्वप्रथम आर्ष ग्रंथ रचने वाले वेदव्यास जी के सम्मान में यह पूर्णिमा ‘व्यासपूर्णिमा’ के नाम से भी जानी जाती है । इस पर्व पर व्यासरूप सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की पूजा करके जीव अपने लघुत्व को विराट में मिलाकर स्वयं में विराटता का अनुभव करता है । इस पवित्र पर्व पर जिसने गुरुदेव की पूजा कर ली, उसकी सारी पूजाएँ हो गयीं । गुरुदेव की पूजा के बाद दूसरी कोई पूजा शेष नहीं बचती । देवी-देवताओं की पूजा के बाद रह जाय लेकिन ब्रह्मवेत्ताओं का ब्रह्मज्ञान जिसके जीवन में प्रतिष्ठित हो गया, फिर उसके जीवन में किसकी पूजा बाकी रहेगी ! जिसने सद्गुरु के ज्ञान को पचा लिया, सद्गुरु की पूजा कर ली उसके लिए किसी की पूजा करना शेष नहीं रहता ।

व्यासपूर्णिमा हमें सिखाती है कि जो गुरु का आदर करता है वह आदरणीय हो जाता है । मैंने गुरु का आदर किया, मेरा कितने लोग आदर करते हैं मैं गिन नहीं सकता हूँ । मैंने अगर पैसों का आदर किया होता, ऐश-आराम का आदर किया होता तो मेरी जवानी दीवानगी की खाई में गिर जाती लेकिन मैंने गुरु का आदर किया, अपने जीवन का आदर किया तो मेरी जवानी प्रभु के रंग से रँग गयी और करोड़ों लोग उस प्रसाद से पावन हो रहे हैं – यह प्रत्यक्ष है ।

जैसे शालग्राम की पूजा कोई पत्थर की पूजा नहीं नारायण की पूजा है, शिवलिंग की पूजा कोई पत्थर की पूजा नहीं शिव की पूजा है, ऐसे ही गुरु का आदर, गुरु की पूजा यह ज्ञान की पूजा है, चैतन्य आत्मा का आदर करते हुए अपने चेतना जगाने की पूजा है । जब तक मनुष्य को ज्ञान की प्यास रहेगी, सच्चे जीवन की प्यास रहेगी तब तक यह व्यासपूर्णिमा, गुरुपूर्णिमा का पर्व मनाया जाता रहेगा ।

इस  पूर्णिमा का यह संदेश है कि आप अपनी लघु ग्रंथियों को खोल दो और अपने में छुपे हुए विराट गुरु-तत्त्व की स्मृति जगाओ । भगवान श्रीकृष्ण का संदेश है – स्मृति और संयम । व्यास जी का संदेश है – स्मृति, संयम और अपने गुरुत्व का साक्षात्कार ।

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है ।

कर लो सभी से स्नेह जगत में, कोई नहीं पराया है ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 9 अंक 198

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साधकों के लिए विशेष


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जिन्होंने भी दीक्षा ली है, प्राणायाम जानते हैं वे इस गुरुपूनम के बाद 10-10 त्रिबंध प्राणायाम करेंगे। जो नहीं जानते, वे जानकार साधकों से सीख लेंगे। त्रिबंध प्राणायाम से बहुत सारे लाभ होते हैं।

गुरु हमें गुरु-परम्परा से प्राप्त कई अनुभवों से सार-सार बातें बता रहे हैं। चाहे कैसी भी गंदी पुरानी आदत होगी, त्रिबंध प्राणायाम से उसे आप उखाड़ फेंकने में सफल हो जाओगे। हर आदमी में कोई-न-कोई कमजोरी होती है और दूसरे लोग उसे चाहे जानें या न जानें लेकिन हम अपने-आपकी कमजोरी बिल्कुल जानते हैं। त्रिबंध प्राणायाम से उस कमजोरी को निकालने मं आप अवश्य सफल हो जाओगे।

त्रिबंध प्राणायाम करो। फिर जो कमजोरी है मन से उसको सामने लाओ एवं मन ही मन कहो किः ʹअब मैं इस कमजोरी के आगे घुटने नहीं टेकूँगा। भगवदकृपा, भगवन्नाम, मंत्र मेरे साथ है। हरि ૐ….ૐ….ૐ…. हरि ૐ…. हरि ૐ… बल ही जीवन है… दुर्बलता मौत है….ʹ

मान लो, किसी को दोपहर को भोजन करके सोने की आदत है। दोपहर को सोने से शरीर मोटा हो जाता है और त्रिदोष पैदा हो जाते हैं। बस, यह ठान लो किः ʹमैं दिन में सोने की गलती निकालूँगा।ʹ मान लो, किसी को अधिक खाने की आदत है। नहीं जरूरत है फिर भी खाते रहते हैं। शरीर मोटा हो गया है। ….. तो नियम ले लोः ʹअब तुलसी के पत्ते रोज खाऊँगा… भोजन में अदरक का प्रयोग करूँगा।ʹ वायु की तकलीफ है तो निर्णय करोः ʹआज से आलू मेरे बंद।ʹ इस  प्रकार जिस कारण से रोग होता है ऐसी चीजों को लेना बंद कर दो। जिस कारण से चटोरापन होता है वे चीजें दूसरों को दे दो और निर्णय करो किः ʹआज से इतने दिनों तक इस दोष में नहीं गिरूँगा।ʹ यदि इतने दिनों तक इस दोष में नहीं गिरुँगा।ʹ यदि काम और लोभ का दोष है तो निर्णय करो किः ʹआज से इतने दिनों तक काम में नहीं गिरुँगा…. लोभ में नहीं गिरूँगा…ʹ इस प्रकार जो भी बुरी आदत है या विकार है, कुछ दिनों तक ऐसा कुछ नियम ले लो जो उसके विपरीत भावों का हो। मान लो, आपका चिड़चिड़ा स्वभाव है, क्रोधी स्वभाव है तो ʹराम… राम… राम…..ʹ रटन करके हास्य करो और निर्णय करो किः ʹआज से इतने दिनों तक मैं प्रसन्न रहूँगाʹ चिंता में डूबने की आदत है तो दृढ़ भावना करोकिः ʹमैं निश्चिन्त नारायण का हूँ…. ૐ शांति… शांति…ʹ दस मिनट तक यह भावना दुहराओ। इस प्रकार की कोई भी कमजोरी हो, सिगरेट-शराब की या दूसरी कोई हो…. इस प्रकार के अलग-अलग दोषों को निवृत्त करने के लिए त्रिबंध प्राणायाम आदि अलग-अलग प्रयोग ʹध्यान योग शिविरʹ में कराये जाते हैं। इससे आप अपनी पुरानी बुरी आदत और कमजोरी को निकालने में सफल हो सकते हो। आपका शरीर फुर्तीला रहेगा, मन पवित्र होने लगेगा और ध्यान भजन में बरकत आयेगी।

त्रिबंध प्राणायाम शुद्ध हवामान में करना चाहिए, सात्त्विक वातावरण में करना चाहिए। दोपहर को भी करो तो और अच्छा है। कभी न कभी शिविर तो भरोगे ही… शिविर में कई प्रयोग सिखाये जाते हैं।

हफ्ते में एकाध दिन मौन रहो। हो सके तो संध्या को सूर्यास्त के बाद या रात्रि के भोजन के बाद मौन रहने का संकल्प कर लो किः ʹसूर्योदय से पहले अथवा नियम होने तक किसी से बात नहीं करेंगे।ʹ इससे आपकी काफी शक्ति बच जायेगी एवं आप जिस क्षेत्र में हैं  वहाँ भी वह शक्ति काम करेगी। इस मौन को यदि आप परमात्मप्राप्ति में लगाना चाहो तो साथ में अजपाजाप का भी प्रयोग करो। सुबह नींद से उठने के बाद थोड़ी देर शांत होकर बैठो एवं विचार करो किः ʹहो-होकर क्या होगा ? बड़े शर्म की बात है कि मनुष्य जन्म पाकर भी जरा-जरा सी बात में दुःखी, भयभीत एवं चिंतित होता हूँ। दुःख, चिन्ता एवं भय में तो वे रहें जिनके माई-बाप मर गये हों और निगुरे हों। हमारे माई-बाप तो हमारा आत्मा-परमात्मा है और गुरु का ज्ञान मेरे साथ है। हरि ૐ…. हरि ૐ…. राम…. राम…. अब हम प्रयत्न करेंगे लेकिन चिंता नहीं करेंगे….ʹ आदि-आदि। सुबह ऐसा संकल्प करो फिर देखो कि आप कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हो।

जप तीन प्रकार से कर सकते हैं- ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत। ʹहरि ૐ-हरि ૐ-हरि ૐ-हरिૐ-हरि ૐ…ʹ यह है ह्रस्व जप। ʹ हरि….ૐ…. हरि…..ૐ….. हरि….. ૐ….. हरि….. ૐ….. यह है दीर्घ जप।

ʹह…रि…ૐ… ह….रि….ૐ…. ह….रि….ૐ….ह….रि….ૐ… ह……रि…. ૐ…..ʹ यह है प्लुत जप।

रात्रि को सोते समय इऩ तीनों प्रकार से दस मिनट तक ʹहरि ૐ….ʹ मंत्र का जप करके सो जाओ। इस प्रकार के जप से आपको तन, मन एवं बुद्धि में कुछ विशेष परिवर्तन का अनुभव होगा। यदि प्रतिदिन इसका नियम बना लो तो आपकी तो बंदगी बन जायेगी और साथ ही आपके अचेतन मन में भी भारी लाभ होने लगेगा।

इस प्रकार नियमित रूप से किये गये त्रिबंध प्राणायाम, मौन, जप एवं ध्यान की साधना आपके जीवन में चार चाँद लगा देंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 91

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सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

असंभव को संभव करने की बेवकूफी छोड़ देना चाहिए और जो संभव है उसको करने में लग जाना चाहिए। शरीर एवं संसार की वस्तुओं को सदा सँभाले रखना असंभव है अतः उसमें से प्रीति हटा लो। मित्रों को, कुटुम्बियों को, गहने-गाँठों को साथ ले जाना असंभव है अतः उसमें से आसक्ति हटा लो। संसार को अपने कहने में चलाना असंभव है लेकिन मन को अपने कहने में चलाना संभव है। दुनिया को बदलना असंभव है लेकिन अपने विचारों को बदलना संभव है। कभी दुःख न आये ऐसा बनना असंभव है लेकिन सुख चले जाने पर भी दुःख की चोट न लगे, ऐसा चित्त बनाना संभव है। अतः जो संभव है उसे कर लेना चाहिए और जो असंभव है उससे टक्कर लेने की जरूरत क्या है ?

एक बालक  परीक्षा में लिखकर आ गया कि ʹमध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर है।ʹ घर आकर उसे ध्यान आया कि, ʹहाय रे हाय ! मैं तो गलत लिखकर आ गया। मध्य प्रदेश की राजधानी तो भोपाल है।ʹ

वह नारियल, तेल व सिंदूर लेकर हनुमानजी के पास गया एवं कहने लगाः “हे हनुमानजी ! एक दिन के लिए ही सही, मध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर बना दो।”

अब उसके सिंदूर, तेल व एक नारियल से मध्य प्रदेश की राजधानी इन्दौर हो जायेगी क्या ? एक नारियल तो क्या, पूरी एक ट्रक भरकर नारियल रख दे लेकिन यह असंभव बात है कि एक दिन के लिए राजधानी इन्दौर हो जाये। अतः जो असंभव है उसका आग्रह छोड़ दो एवं जो संभव है उस कार्य को प्रेम से करो।

बाहर के मित्र को सदा साथ रखना संभव नहीं है लेकिन अंदर के मित्र (परमात्मा) का सदा स्मरण करना एवं उसे पहचानना संभव है। बाहर के पति-पत्नी, परिवार, शरीर को साथ ले जाना संभव नहीं है लेकिन मृत्यु के बाद भी जिस साथी का साथ नहीं छूटता उस साथी के साथ का ज्ञान हो जाना, उस साथी से प्रीति हो जाना – यह संभव है।

एक होती है वासना, जो हमें असंभव को संभव करने में लगती है। संसार में सदा सुखी रहना असंभव है लेकिन आदमी संसार में सदा सुखी रहने के लिए मेहनत करता रहता है। संसार में सदा संयोग बनाये रखना असंभव है लेकिन आदमी सदा संबंध बनाये रखना चाहता है कि रूपये चले न जायें, मित्र रूठ न जायें, देह मर न जाये…. लेकिन देह मरती है, मित्र रूठते हैं, पैसे जाते हैं या पैसे को छोड़कर पैसे वाला चला जाता है। जो असंभव को संभव करने में लगे वह है वासना का वेग। उस वासना को भगवत्प्रीति में बदल दो।

एक होती है वासना, दूसरी होती है प्रीति एवं तीसरी होती है जिज्ञासा। ये तीनों चीजें जिसमें रहती हैं उसे बोलते हैं जीव। यदि जीव को अच्छा संग  मिल जाये, अच्छी दिशा मिल जाये, नियम और व्रत मिल जायें तो धीरे-धीरे असंभव से वासना मिटती जायेगी। रोग मिटता जाता है तो स्वास्थ्य अपने आप आता है, अँधेरा मिटता है तो प्रकाश अपने-आप आता है। नासमझी मिटती है तो समझ अपने आप आ जाती है। ज्यों-ज्यों जप करेगा त्यों-त्यों मन पवित्र और सात्त्विक होगा, प्राणायाम करेगा तो बुद्धि शुद्ध होगी एवं शरीर स्वस्थ रहेगा और सत्संग सुनेगा तो दिव्य ज्ञान प्राप्त होगा। इस प्रकार जप, प्राणायाम, सत्संग, साधन-भजन आदि करते रहने से धीरे-धीरे वासना क्षीण होने लगेगी एवं वह जीव सुखी होता जायेगा। जितन वासना तेज उतना तेज वह दुःखी, जितनी वासना कम उतना कम दुःखी औऱ वासना अगर बाधित हो गयी तो वह निर्दुःख नारायण का स्वरूप हो जायेगा।

नियम-व्रत के पालन से, धर्मानुकूल चेष्टा करने से वासना नियंत्रित होती है। धारणा-ध्यान से वासना शुद्ध होती है, समाधि से वासना शांत होती है और परमात्मज्ञान से वासना बाधित हो जाती है।

ज्यों-ज्यों वासना कम होती जायेगी और भगवदप्रीति बढ़ती जायेगी त्यों-त्यों जिज्ञासा उभरती जायेगी। जानने की इच्छा जागृत होगी कि ʹवह कौन है जो सुख को भी देखता है और दुःख को भी देखता है ? वह कौन है जिसको मौत नहीं मार सकती ? वह कौन है कि सृष्टि के प्रलय के बाद भी जिसका बाल तक बाँका नहीं होता ? आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का हेतु क्या है ? बन्धनों से मुक्ति कैसे हो ? जीव क्या है ? ब्रह्म को कैसे जानें ? जिससे जीव और ईश्वर की सत्ता है उस ब्रह्म को कैसे जानें ?ʹ इस प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगेंगे। इसी को ʹजिज्ञासाʹ बोलते हैं।

ʹजहाँ चाह वहाँ राह।ʹ मनुष्य का जिस प्रकार का विचार और निर्णय होता है वह उसी प्रकार का कार्य करता है। अतः वासनापूर्ति के लिए जीवन को खपाना उचित नहीं, वासना को निवृत्त करें।

एक बार श्रीरामकृष्ण परमहंस को बोस्की का कुर्ता एवं हीरे की अँगूठी पहनने की इच्छा हुई, साथ ही हुक्का पीने की भी। उन्होंने अपने एक शिष्य से ये तीनों चीजें मँगवायीं। चीजें आ गयीं तो तब गंगा किनारे एक झाड़ी की आड़ में उन्होंने कुर्ता पहना, अँगूठी पहनी एवं हुक्के की कुछ फूँकें लीं और जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े किः ʹले क्या मिला ? अँगूठी पहनने से कितना सुख मिला ? हुक्का पीने से क्या मिला ? भोग भोगने से पहले जो स्थिति होती है, भोग भोगने के बाद वैसी ही या उससे भी बदतर हो जाती है….ʹ

इस प्रकार उन्होंने अपने मन को समझाया। वासना से मन उपराम हुआ। रामकृष्ण परमहंस प्रसन्न हुए। अँगूठी गंगा में फेंक दी, हुक्का लुढ़का दिया और कुर्ता फाड़कर फेंक दिया।

शिष्य छुपकर यह सब देख रहा था। बोलाः

“गुरु जी ! यह क्या ?”

रामकृष्णः “रात्रि को स्वप्न आया था कि मैंने ऐसा-ऐसा पहना है। अवचेतन मन में छुपी हुई वासना थी। वह वासना कहीं दूसरे जन्म में न ले जाये इसलिए वासना से निवृत्त होने के लिए सावधानी से मैंने यह उपक्रम कर लिया।”

वासना से बचते हैं तो प्रीति उत्पन्न होती है और प्रीति से हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जायेंगे, त्यों-त्यों भगवत्स्वरूप तत्त्व गी जिज्ञासा उभरती जायेगी। भगवान का सच्चा भक्त अज्ञानी कैसे रह सकता है ? भगवान में प्रीति होगी तो भगवद्-चिन्तन, भगवद् ध्यान, भगवद्स्मरण होने लगेगा। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं अतः अंतःकरण में ज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न होगी और उस जिज्ञासा की पूर्ति भी होगी।

इसीलिए गुरुपूनम आदि पर्व मनाये जाते हैं ताकि गुरुओं का सान्निध्य मिले, वासना से बचकर भगवत्प्रीति, भगवद्ज्ञान में आयें एवं भगवद्ज्ञान पाकर सदा के लिए सब दुःखों से छूट जायें।

वासना की चीजें अऩेक हो सकती हैं लेकिन माँग सबकी एक ही होती है और वह माँग है सब दुःखों से सदा के लिए मुक्ति एवं परमानंद की प्राप्ति। कोई रूपये चाहता है तो कोई गहने-गाँठें…. लेकिन सबका उद्देश्य यही होता है कि दुःख मिटे और सुख सदा टिका रहे। सुख के साधन अनेक हो सकते हैं लेकिन सुखी रहने का उद्देश्य सबका एक है। दुःख मिटाने के उपाय अनेक हो सकते हैं लेकिन दुःख मिटाने का उद्देश्य सब का एक है, चाहे चोर या साहूकार। साहूकार दान-पुण्य क्यों करता है कि यश मिले। यश से क्या होगा ? सुख मिलेगा। भक्त दान-पुण्य क्यों करता है कि भगवान रीझें। भगवान के रीझने से क्या होगा ? आत्म संतोष मिलेगा। व्यापारी दान-पुण्य क्यों करता है कि धन की शुद्धि होगी। धन की शुद्धि से मन शुद्ध होगा, सुखी होंगे। दान लेने वाला दान क्यों लेता है कि दान से घर का गुजारा चलेगा, मेरा काम बनेगा अथवा इस दान को सेवाकार्य में लगायेंगे। इस प्रकार मनुष्य जो-जो चेष्टाएँ करता है वह सब दुःखों को मिटाने के लिए एवं सुख को टिकाने के लिए ही करता है।

वासनापूर्ति से सुख टिकता नहीं और दुःख मिटता नहीं। अतः वासना को विवेक से निवृत्त करो। जैसे, पहले के जमाने में लोग तीर्थों में जाते थे तो जिस वस्तु के लिए ज्यादा वासना होती थी वही छोड़कर आते थे। ब्राह्मण पूछते थे किः ʹतुम्हारा प्रिय पदार्थ क्या है ?ʹ कोई कहता किः ʹसेब है।ʹ …..तो ब्राह्मण कहताः “सेव का तीर्थ में त्याग कर दो, भगवान के चरणों में अर्पण कर दो कि अब साल-दो साल तक सेव नहीं खाऊँगा।”

जो अधिक प्रिय होगा उसमें वासना प्रगाढ़ होगी और जीव दुःख के रास्ते जायेगा। अगर उस प्रिय वस्तु का त्याग कर दिया तो वासना कम होती जायेगी एवं भगवदप्रीति बढ़ती जायेगी।

कोई कहे किः ʹमहाराज ! हमको सत्संग में मजा आता है।ʹ सत्संग में तो वासना निवृत्त होती है और प्रीति का सुख मिलता है। मजा अलग बात है और शांति, आनंद अलग बात है। ʹसत्संग से मजा आता हैʹ यह नासमझी है। सत्संग से शांति मिलती है, भगवत्प्रीति का सुख होता है। विषय-विकारों को भोगने से जो मजा आता है वैसा मजा सत्संग में नहीं आता। सत्संग का सुख तो दिव्य प्रीति का सुख होता है। इसीलिए कहा गया हैः

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।

अनंत फल देने वाली भगवत्प्रीति है। अतः जिज्ञासुओं को, साधकों को, भक्तों को वासनाओं से  धीरे-धीरे अपना पिण्ड छुड़ाने का अभ्यास करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 88

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