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Sharir Swasthya

वात-दर्द मिटाने का उपाय-पूज्य बापू जी


किसी भी प्रकार के वातरोग के लिए यह उपाय आजमाया जा सकता हैः पहली उँगली (तर्जनी) हाथ के अँगूठे के ऊपरी सिरे पर रखो और तीन उँगलियाँ सीधी रखो। ऐसे ज्ञान मुद्रा करो। अब दायें नथुने से श्वास लिया और बायें से छोड़ा, फिर बायें से लिया और दायें से छोड़ा।

तत्पश्चात बायँ नथुना बंद करके दायें नथुने से खूब श्वास भरो। उसके बाद घुटने, कमर आदि जहाँ कहीं भी वातरोग का असर हो उस अंग को हिलाओ-डुलाओ। भरे हुए श्वास को सवा से पौने दो मिनट रोके रखो (नये अभ्यासक 30-40 सैकेण्ड से शुरु करके अभ्यास बढ़ाते जायें) फिर बायें नथुने से निकाल दो। ऐसे 10 बार प्राणायाम करो तो दर्द में फायदा होगा।

एलोपैथी की दवाई रोग को दबाती है जबकि आसन, प्राणायाम, उपवास, तुलसी या आयुर्वेदिक औषधि आदि रोग की जड़ निकालकर फेंक देते हैं। इन उपायों से जो फायदा होता है वह एलोपैथी के कैप्सूल्स, इंजेक्शन्स आदि से नहीं होता। इतना ही नहीं, लम्बे समय तक एलोपैथी दवाइयों का सेवन करने वाले को अनेक प्रकार की हानियों का शिकार होना पड़ता है।

(आश्रम की पुस्तक ‘जीवनोपयोगी कुंजियाँ’ से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 31 अंक 300

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पेट को आराम भी दें


उपवास के निमित्त आहार का त्याग करने से आमाशय खाली हो जाता है तथा जठराग्नि के रूप में जो प्राण-ऊर्जा आहार को पचाने का कार्य करती है, उसका उपयोग पाचनतंत्र की सफाई में होने लगता है, जिससे रक्त शुद्ध होने लगता है तथा शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ने लगती है। अतः नियमित रूप से कम से कम सप्ताह या पन्द्रह दिन में एक दिन उपवास करने वालों की रोगप्रतिकारक शक्ति की कमी से उत्पन्न होने वाले एवं पाचनसंबंधी रोगों से रक्षा होती है। आहार शरीर को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है जबकि उपवास शरीर को आरोग्य व शुद्धि प्रदान करने के साथ हमें मानसिक प्रसन्नता और आध्यात्मिक लाभ भी प्रदान करता है। दुर्बल लोगों को अपनी क्षमता से अधिक उपवास नहीं करना चाहिए।

भोजन हेतु कैसे पात्रों का उपयोग हो ?

भोजन बनाने व खाने हेतु एल्यूमीनियम और प्लास्टिक के बर्तनों के प्रयोग से भोजन में हानिकारक रासायनिक पदार्थ मिश्रित हो जाते हैं। एल्यूमीनियम के बर्तनों में पकाया गया विटामिन्सयुक्त पौष्टिक खाद्य पदार्थ भी अपने गुण खो बैठता है। विशेषज्ञों का मानना है कि एल्यूमीनियम की विषाक्तता के कारण आँतों में जलन होने लगती है तथा आँतों का कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। एल्यूमीनियम के बर्तनों में भोजन बनाना हानिकारक है।

अतः भोजन बनाने व जाने हेतु उपरोक्त बर्तनों की अपेक्षा देशी मिट्टी (चीनी मिट्टी आदि नहीं), काँच, स्टील या कलई किये हुए पीतल के बर्तनों का प्रयोग हितकारी है।

केला, पलाश अथवा बड़ के पत्ते रूचि उत्पन्न करने वाले तथा विषदोष नाशक और जठराग्निवर्धक होते हैं अतः भोजन करने के लिए इनकी पत्तलों का उपयोग भी हितावह है।

खाद्य पदार्थों को फ्रिज अथवा कोल्ड स्टोरेज में रखने से उनका प्राकृतिक स्वरूप बदल जाता है और पौष्टिक तत्त्वों में कमी आ जाती है।

भोजन में संयम व सावधानी रखने से तथा उपरोक्त नियमों का पालन करने से हम अपने शरीर को स्वस्थ एवं निरोगी रख सकते हैं तथा मन की प्रसन्नता पा सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2017, पृष्ठ संख्या 32 अंक 298

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स्वास्थ्यवर्धक, हितकारी भोजन कैसा हो ?


हानिकारक रसायनों के सेवन से बचें !

कई खाद्य पदार्थों के निर्माण व उनकी सुरक्षा हेतु हानिकारक रसायनों का उपयोग किया जाता है। अतः सफेद चीनी, सफेद गुड़, वनस्पति घी, रिफाईंड तेल आदि से निर्मित भोजन तथा बाजार में मिलने वाले अधिकांशतः तैयार खाद्य पदार्थ जैसे – अचार, चटनियाँ, मुरब्बे, सॉस आदि का उपयोग स्वास्थ्यवर्धक नहीं है।

अपवित्र आहार से बचें

खूब नमक-मिर्चवाला, तला हुआ, भुना हुआ या अशुद्ध आहार जैसे – बाजारू, बासी व जूठा भोजन, चाय, कॉफी, ब्रेड, फास्टफूड आदि तामसी आहार से भी बचना चाहिए।

भोजन कब  व कितना करें ?

पहले का खाया हुआ भोजन जब पच जाय तभी उचित मात्रा में दूसरी बार भोजन करना चाहिए अन्यथा सभी रोगों की जड अजीर्ण रोग हो जाता है। दिन में बारम्बार खाते रहने वालों के पेट को आराम न मिल पाने से उन्हें पेट की गड़बड़ियाँ एवं उनसे उत्पन्न होने वाले अन्य अनेकानेक रोगों का शिकार होना पड़ता है। अनुचित समय में किया हुआ भोजन भी ठीक से न पचने के कारण अनेक रोगों को उत्पन्न करता है।

सुबह की अपेक्षा शाम का भोजन हलका व कम मात्रा में लेना चाहिए। रात को अन्न के सूक्ष्म पचन की क्रिया मंद हो जाती है अतः सोने से ढाई तीन घंटे पहले भोजन कर लेना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अधिक भोजन की आवश्यकता नहीं होती अपितु जो भोजन खाया जाता है उसका पूर्ण पाचन अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

सुबह का भोजन 9 से 11 बजे के बीच और शाम का भोजन 5 से 7 बजे के बीच कर लेना चाहिए। शाम को प्राणायाम आदि संध्या के कुछ नियम करके भोजन करें तो ज्यादा ठीक रहेगा। भोजन के बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा गुनगुना पानी पीना चाहिए। भोजन के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए अपितु पौने दो घंटे के बाद प्यास के अनुरूप पानी पीना हितावह है।

भोजन के समय ध्यान देने योग्य कुछ बातें

स्वच्छ, पवित्र स्थान पर शांत व प्रसन्नचित्त हो के भोजन करें।

भोजन भगवान का प्रसाद समझकर बिना किसी प्रतिक्रिया के समभाव एवं आदरपूर्वक करना चाहिए।

खड़े-खड़े खाने से आमाशय को भोजन पचाने में अधिक श्रम करना पड़ता है। अतः यथासम्भव सुखासन में बैठकर भोजन करना चाहिए

भोजन भूख से कुछ कम करें।

भोजन में विपरीत प्रकृति के पदार्थ न हों, जैसे दूध और नमकयुक्त पदार्थ, अधिक ठंडे और अधिक गर्म पदार्थ एक साथ नहीं खाने चाहिए।

भोजन करते समय सूर्य (दायाँ) स्वर चलना चाहिए ताकि भोजन का पाचन ठीक से हो। (स्वर बदलने की विधि हेतु पढ़ें ‘ऋषि प्रसाद’ जनवरी 2017, पृष्ठ 32)

भोजन में अधिक व्यञ्जनों का उपयोग न हो। भोजन ताजा, सुपाच्य व सादा हो। जिन व्यञ्जनों को बनाने में अधिक मेहनत लगती है, उनको पचाने के लिए जठराग्नि को भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 30, अंक 297

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