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Self Realization

ईश्वरप्राप्ति के लिए जरूरी है महापुरुषसंश्रय


‘महापुरुषसंश्रय’ का अर्थ है अभिमान छोड़कर सत्पुरुष की शरणागति। अपने बल, शरीर का सौंदर्य, धन, जाति, विद्या, बुद्धि, पद के सारे अभिमान छोड़कर आचार्य की शरण लेनी पड़ती है।

आचार्याद्धैव विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापतीति…

(छांदोग्य उपनिषदः 4.9.3)

आचार्य से जानी हुई विद्या ही प्रतिष्ठित होती है। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है।

तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्…

(मुंडकोपनिषद् 1.2.12)

तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की शरण में ही जाय, घर में लाकर वेदांत का टयूशन नहीं लिया जाता, उसमें तो गुरु जी पैसे पर खरीदे जायेंगे। गुरु जी छोटे हो जायेंगे और शिष्य जी बड़े दिखेंगे। ऐसा भी नहीं कि श्लोक में से वेदांत निकल आयेगा। यह गुरु के प्रति अभिगमन ही ‘महापुरुषसंश्रय’ है।

एक महात्मा से किसी ने पूछाः “महाराज ! ज्ञान कैसे होता है ?”

वे बोलेः “एक दीया जल रहा है, उसे अनजले दीये से सटा दो, दूसरा भी जल जायेगा। लौ से लौ जलती है। एक महापुरुष होगा तो उसके सम्पर्क से तुम्हारे बंधन के जो प्रतिबंध हैं, वे दूर हो जायेंगे। महापुरुष के शरीर में से एक ऐसी हवा निकलती है, ऐसी चाँदनी छिटकती है, ऐसी सुगंध, ऐसा स्पर्श होता है कि हममें आनन्द की, सत्य की योग्यता अपने-आप आ जाती है।”

अल्प से भूमा की ओर, छोटे से बड़े की ओर जब चलने लगते हैं, तब समझना चाहिए कि सबसे बड़ा जो भगवान है वह हमें  अपनी ओर खींच रहा है। यही भगवान की कृपा की पहचान है।

‘हमारे मन की सब बातें होती रहें’ ऐसा सोचना भगवान की कृपा नहीं है। भगवान से जोड़ने-मिलाने वाली जो बातें हैं उनसे जब हमारा संबंध जुड़े, तब उसे भगवान की कृपा समझना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य होना भगवान से जुड़ने की पहली कड़ी है, मनुष्य होकर मुमुक्षा होना दूसरी और महापुरुषसंश्रय तीसरी कड़ी है।

भगवान और महापुरुष के साथ कोई भी संबंध हो, सभी कल्याणकारी होते हैं। आद्य शंकराचार्य जी भगवान के एक ऐसे शिष्य थे जिन्हें कुछ न आता था। वे पढ़े लिखे न थे। शंकराचार्य जी भगवान के कपड़े धोते, बर्तन माँजते, झाडू-बुहारी करते, उनके साथ-साथ चलते और हाथ जोड़कर खड़े रहते। एक दिन शंकराचार्य जी भगवान भजन में बैठे थे। दूसरे शिष्यों ने उन शिष्य की हँसी उड़ायी। इससे उनके मन में दुःख हुआ। उन्होंने दुःखी भाव से जाकर भगवान शंकराचार्य जी को प्रणाम किया।

शंकराचार्य जी ने पूछाः “तुम कौन हो ?”

वह बोलाः “मैं क्या जानूँ कि मैं कौन हूँ !”

जब उसे कुछ नहीं सूझा तो शंकराचार्य जी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया। हाथ का रखना था कि उसे तुरंत तत्त्वज्ञान का स्फुरण हो गया। वह बोल उठाः

नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।

न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूप।।। हस्तामलक स्तोत्रः 2

‘न मैं मनुष्य हूँ और न देव या यक्ष हूँ। मैं न ब्राह्मण हूँ और न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र हूँ। मैं न ब्रह्मचारी हूँ और न गृहस्थ या वानप्रस्थ हूँ। मैं संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो केवल बोधस्वरूप, नित्य शुद्ध-बुद्ध-ब्रह्म हूँ।’

लोगों को देखकर आश्चर्य हो गया। महापुरुष के संश्रय की ऐसी प्रसिद्धि है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2016, पृष्ठ संख्या 14, अंक 279

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Rishi Prasad 270 Jun 2015

गुरुदेव की अंतर्वाणी


हे साधक ! ‘अपने उस आत्मस्वरूप को, मधुरस्वरूप को, मुक्तस्वरूप को हम पाकर रहेंगे’ – ऐसा दृढ़ निश्चय कर। विघ्न बाधाओं के सिर पर पैर रखता जा। यह मन की माया कई जन्मों से भटका रही है। अब इस मन की माया से पार होने का संकल्प कर। कभी काम, क्रोध, लोभ में तो कभी मद, मात्सर्य में यह मन की माया जीव को भटकाती है। लेकिन जो भगवान की शरण हैं, गुरु की शरण हैं, जो सच्चिदानंद की प्रीति पा लेते हैं वे इस माया को तर जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। ( गीताः 7.14)
माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। भगवान के जो प्यारे हैं, गुरु के जो दुलारे हैं, माया उनके अनुकूल हो जाती है।
जैसे शत्रु के कार्य पर निगरानी रखते हैं, वैसे ही तू मन के संकल्पों पर निगरानी रख कि कहीं यह तुझको माया में तो नहीं फँसाता। संसार के भोगों में उलझना है तो बहुतों की खुशामद करनी पड़ेगी, बहुतों से करुणा-कृपा की याचना करनी पड़ेगी, उस पर भी कंगालियत बनी रहेगी और सच्चा सुख पाना है तो बस, भगवत्स्वरूप गुरु की रहमत काफी है।
बेटा ! शरीर से भले तू दूर है लेकिन मेरी दृष्टि से तू दूर नहीं है, मेरे आत्मस्वभाव से तू दूर नहीं है। मैं तुझे अंतर में प्रेरित करता हूँ। तू अच्छा करता है तो मैं धन्यवाद देता हूँ, बल बढ़ाता हूँ। कहीं गड़बड़ करता है तो मैं तुझे रोकता-टोकता हूँ। तू देखना मेरे चित्र की ओर। जब तू अच्छा करेगा तो मैं मुस्कराता हुआ मिलूँगा और जब तू गड़बड़ करेगा तो उसी चित्र में मेरी आँखें तेरे को नाराजगी से देखती हुई मिलेंगी। तू समझ लेना कि हमने अच्छा किया है तो गुरु जी प्रसन्न हैं और गड़बड़ की तो गुरु जी का वही चित्र तुझे कुछ और खबरें देगा। गुरुमंत्र के द्वारा गुरु तेरा अंतरात्मा होकर मार्गदर्शन करेंगे। तू घबराना मत !
सदाचारी के बल को अंतर्यामी पोषता है और वही देव दुष्ट आचरण करने वाले की शक्ति हर लेता है, उसकी मति हर लेता है। रब रीझे तो मति विकसित होती है और जिसकी मति विकसित होती है वह जानता है कि आखिर कब तक ? ये संबंध कब तक ? ये सुख-दुःख कब तक ? ये भोग और विकारों का आकर्षण कब तक ? आपका विवेक जगता है तो समझ लो रब राज़ी है और विवेक सोता है, विकार जगते हैं तो समझ लो रब से आपने पीठ कर रखी है, मुँह मोड़ रखा है। रब रूसे त मत खसे। ना-ना…. दुनिया के लिए रब से मुँह मत मोड़ना। रब के लिए भले विकारों से, दुनिया से मुँह मोड़ दो तो कोई घाटा नहीं पड़ेगा क्योंकि ईश्वर के लिए जब चलोगे तो माया तुम्हारे अनुकूल हो जायेगी।
जो ईश्वर के लिए संसार की वासनाओं का त्याग करते हैं, उन्हें ईश्वर भी मिलता है और संसार भी उनके पीछे-पीछे चलता है लेकिन जो संसार के लिए ईश्वर को छोड़कर संसार के पीछे पड़ते हैं, संसार उनके हाथों में रहता नहीं, परेशान होकर सिर पटक-पटक के मर जाते हैं और जो चीज कुछ पायी हुई देखते हैं, वह भी छोड़कर बेचारे अनाथ हो जाते हैं। इसीलिए हे वत्स ! तू अपने परमात्म-पद को सँभालना। उस प्रेमास्पद की प्रेममयी यात्रा करना।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2015, पृष्ठ संख्या 24, अंक 270
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Rishi Prasad 267 Mar 2015

ईश्वरप्राप्ति में बाधक और तारक ग्यारह बातें – पूज्य बापू जी


ईश्वरप्राप्ति में बाधक क्या है ? मान की चाह, अति भाषण, यश की लोलुपता, अधिक निद्रा, अधिक खान-पान, धन की लोलुपता – धन की माँग या दान की माँग। सातवी है कि अत्यन्त छोटी-छोटी बातों में, छोटे-छोटे लोगों में या छोटी-मोटी, हलकी पुस्तकों में उलझना और आठवीं बात है क्रोध और द्वेष। गुस्से-गुस्से में निर्णय लेना, ‘यह ऐसा है, वह ऐसा है….’ अपने अंदर गंदगी नहीं होगी तो दूसरे की गंदगी का महत्तव नहीं लगेगा। नौवीं है कामासक्ति। कामासक्ति भी आदमी को बेईमान और ईश्वर से दूर कर देती है। दसवीं है आलस्य और ग्यारहवीं है शौकीनी। ये ग्यारह बातें नाश का साधन हैं। इनसे बचें और हितकारी ग्यारह बातें अपने जीवन में लायें। गंदी आदत और गंदे स्वभाव का त्याग करें।
हितकारी ग्यारह बातें हैं – सत्संग में रुचि, दया, सबसे मैत्री, नम्रताभरा और शास्त्रोचित व्यवहार, व्रत-नियम, तपस्या, पवित्रता और सहनशीलता। सहनशीलता की कमीवाला भगेड़ू होता है। दसवीं बात है मितभाषण और ग्यारहवीं है स्वाध्यायशीलता।
एक दिन भी मेरे गुरुदेव स्वाध्याय के बिना नहीं रहे 93 साल की उम्र तक ! जब महाप्रयाण कर रहे थे उस समय भी सत्संग की बात सुनायी कि “शरीर में पीड़ा हो रही है, इसका प्रारब्ध है। मैं इस पीड़ा का साक्षी चैतन्य आत्मा हूँ।”
स्वाध्यायान्मा प्रमदः। तैत्तिरीयोपनषिद् 1.11
सत्संग व सत्शास्त्र का विचार करने में आलस्य नहीं करो, लापरवाही न करो।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 19 अंक 267
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