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Self Realization

शाश्वत स्थान की प्राप्ति


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और शाश्वत स्थान प्राप्त करेगा।ʹ (भगवद् गीताः 18.62)

देह शाश्वत नहीं है अर्थात् सदा रहने वाली नहीं है, देह से मिलने वाली खुशियाँ शाश्वत नहीं हैं, देह को मिलने वाले पद शाश्वत नहीं हैं लेकिन देह का जो आधार है, देह में रहने वाला जो विदेही चैतन्य आत्मा है, वह शाश्वत है और वही परम शान्ति का धाम है।

आज तक जिस किसी को ज्ञान मिला है, प्रेम मिला है, आनंद मिला है, निर्दोष सुख मिला है वह उस शाश्वत चैतन्य के भण्डार से ही मिला है। वही आत्मपद है, सबका असली स्वरूप है। उस सोઽहम् स्वभाव की पवित्रता, शांति, समता, करूणा, प्रेम, आनंद आदि अनादि काल से निखरते आये हैं, निखर रहे हैं और निखरते ही रहेंगे। बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्ताधीशों की सत्ता संभालने की कला, धनवानों की धन संभालने की और बढ़ाने की अक्ल, शूरवीरों का शौर्य, तेजस्वियों का तेज, सुन्दरियों का सौन्दर्य एवं सज्जनों की सज्जनता इसी शाश्वत पिटारी से आती है, फिर भी जरा-सी भी कम नहीं होती है। वह शाश्वत चैतन्य परमात्मा अपना आत्मारूप बनकर सदा हमारे साथ है। भगवान कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

ʹइस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।ʹ

हम जितने-जितने उस पूर्ण परमेश्वर में, अपनी आत्मा में तल्लीन होते जाएँगे, उतने-उतने पावन होते जाएँगे, निश्चिंत होते जाएँगे, आनंदित होते जाएँगे…

हम नाश होने वाली देह को ʹमैंʹ मानकर सदा रहने वाले चैतन्य आत्मा की अवहेलना करते हैं, इसलिए परेशानियों के पोटले सिर पर उठाने पड़ते हैं। जबकि उस परमेश्वर की शरण में जाने से आत्मस्वभाव में तल्लीन होने से परेशानियाँ दूर हो जाती हैं और परम शांति मिलती है, इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। ʹउस परमात्मा की शरण में जा।ʹ

जो कुछ हो जाये उसमें उस परमात्मा की मर्जी मानो। ʹमान देने वाले में भी तू। मित्र में भी तू और शत्रु में भी तू। अनुकूल परिस्थिति देने वाला भी तू और प्रतिकूलता पैदा करने वाला भी तू। तन्दुरुस्ती में भी तू और रोग में भी तू….ʹ इस प्रकार हर वक्त, हर जगह उस प्रियतम प्रभु को देखोगे तो कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर पायेगा। भेद बुद्धि से दिखाई देनेवाले अलग-अलग नाम रूपों को सच्चा मानने से दुःख, चिंता, अशांति, खिंचाव-तनाव व खूनखराबा होता है जबकि अभेद बुद्धि से ʹसबमें एक ही परमेश्वर की सत्ता, स्फूर्ति, चेतना चमक रही हैʹ ऐसा भाव रखकर व्यवहार करने से ओज-तेज, पवित्रता, आनंद और शांति बढ़ती है।

जो उस परमेश्वर को पाने के लिए अर्थात् अपने आत्मस्वरूप को जानने के लिए प्रयत्न करते हैं, जो अपनी उन्नति चाहते हैं। ऐसे साधकों की, भक्तों की तीन अवस्थाएँ होती हैं-

तस्यैवाहम्। मैं उसका हूँ।

तवैवाहम्। मैं तेरा हूँ।

त्वमेवाहम्। मैं तू ही हूँ।

जैसे किसी लड़की की मँगनी होती है तब वह लड़की मानती हैः ʹमैं उसकी हूँʹ। जब नयी-नयी शादी होती है तब बोलती हैः ʹमैं तेरी हूँ।ʹ फिर पति के घर में रहने लगती है और पुरानी हो जाती है तब कोई आकर उसे पूछेः

“गोविन्दभाई हैं ?”

“वे तो नहीं हैं लेकिन बात क्या है ?”

“मुझे एक चीज चाहिए थी।”

“हाँ, हाँ, ले जाओ। मैं और वे एक ही तो हैं। इसमें क्या पूछना ?”

भक्त की स्थिति भी ऐसी है। ʹमैं उसका हूँʹ माने मँगनी हो गयी। ʹमैं तेरा हूँʹ माने शादी हो गयी। ʹमैं और तू एक ही हैंʹ माना संबंध दृढ़ हो गया, पक्का काम हो गया। जीवात्मा-परमात्मा की शादी के ये लक्षण हैं।

मँगनी के पहले तो लड़की पिता के घर को अपना मानती है। पति के घर का, ससुरालवालों के घर के संबंध का पता ही नहीं होता है। जब मँगनी होती है तब कहती हैः ʹउनका घर है, ससुरालवालों का घर है। फिर नयी-नयी शादी होती है तब ʹमेरे पति का घर हैʹ ऐसा मानती है। जब घर में रहते हुए पुरानी हो जाती है तब ʹहमारा घर हैʹ ऐसा कहने लगती है।

भावो हि विद्यते देवो। जैसा भाव होता है वैसा दिखता है। भाव बदलते हैं तो वही की वही परिस्थिति बदली हुई मालूम पड़ती है। अपना अहंभाव बदल जाय, ʹमैंʹ पना बदल जाय तो ममभाव ʹमेराʹ पना बदल जाता है। अहंता बदलने से ही ममता बदल जाती है। अपनी अहंता को ईश्वर में लगा दो तो ʹमैं भगवान का हूँʹ यह भाव जगेगा और भगवान में प्रीति हो जायेगी तब लगेगा ʹभगवान मेरे हैं।ʹ दृढ़तापूर्वक भगवान से अपनापन मान लोगे तो हृदय में भक्ति की रसधारा बहने लगेगी।

भक्ति की प्रारंभिक दशा में भक्त भगवान को अपने से कहीं दूर मानता है, वह परमेश्वर की चर्चा अन्य पुरुष में करता हैः ʹमैं उसका हूँ।ʹ तस्यैवाहम्।

इस भाव का भी पूर्णरूप से अनुभव कर लिया जाय तो हृदय मधुरता से छलक जायेगा। ʹमैं उसका हूँ तो मेरा जो कुछ है वह भी मेरे प्रभु का है….।ʹ ऐसा भक्त सुबह उठता है तबसे लेकर रात को सोने तक जो कुछ काम करता है उसको अपने प्रिय प्रभु का आदेश समझकर ही करता है। वह अपने घर, सगे-संबंधी, मित्र आदि को भी ईश्वर का समझता है या तो ईश्वर की कृपा से सब मिला है ऐसा मानता है। उससे उसे परम आनंद मिलता है।

जब प्रारंभिक दशा से कुछ उन्नत होता है और ईश्वर से निकटता का अनुभव करता है, तब वह कहता है ʹमैं तेरा हूँ।ʹ इस भाव से ईश्वर को अपने समीप मानता है। पहली दशा मधुर और प्यारी है किंतु यह दशा उससे भी प्यारी और रूचिकर है।

जब भक्ति की पराकाष्ठा आती है, उन्नति की अंतिम अवस्था आती है तब वह ईश्वर को अपना स्वरूप जान लेता है। उस अवस्था में वह कहता है त्वमेवाहम्। ʹमैं तू ही हूँ।ʹ फिर वह भक्त और ईश्वर दो अलग नहीं रहते हैं। दोनों एक हो जाते हैं। ईश्वर का सच्चा प्रेमी ईश्वर में मिल जाता है तो जान लेता हैः ʹमैं वह हूँ। मैं तू हूँ तू मैं है। तू और मैं एक हैं।ʹ यानी जीव ब्रह्म की एकता का अनुभव हो जाता है। यही ज्ञान की उच्चतम अवस्था है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जो बाहर भीतर सच्चे हैं, वे शुद्ध बुद्धि से इस निश्चय पर पहुँच जाने के बाद निदिध्यासन द्वारा इस निश्चय का अनुभव कर लेते हैं, दिव्य आनंद को पा लेते हैं, वे स्वयं ब्रह्मरूप हो जाते हैं, वे इसी जीवन में मुक्त हो जाते हैं अतः जीवन्मुक्त कहलाते हैं।

ऐसी जीवन्मुक्ति पाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। देह को ʹमैंʹ मानते रहोगे और देह के संबंधों को मेरा मानते रहोगे तो काम नहीं चलेगा। ʹमैं गोविंदभाई….. मैं मोहनभाई…. ये मेरे बेटे-बेटियाँ…. यह मेरी पत्नी… यह मेरी दुकान… यह मेरा मकान….ʹ ऐसी बातों में उलझकर जीवन पूरा कर देने वाले तो कई लोग इस संसार में आ-आकर चले गये।

आप भी अगर ज्ञान का विचार नहीं करोगे तो अपने सच्चे स्वरूप को नहीं पहचान पाओगे। जो अपनी अहंता को शरीर ओर शरीर के संबंधों से हटाकर भगवान में लगा देता है, वही देर-सबेर भगवत्स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।

भाव बदलने से ही आधा काम बन जाता है। बाकी का काम ज्ञानसयुक्त जीवन जीने से पूरा हो जाता है। भाव किसी साधन से नहीं बदलता है वरन् ज्ञान से बदलता है।

जैसे, किसी बकरे के गले में फँदा पड़ा हो और आप उसे स्नानादि कराके उसके आगे धूप-दीप करो, पूजा करो, आरती उतारो, मेवा-मिठाई का प्रसाद रखो, फिर भी उससे बंधन नहीं कटेगा लेकिन फँदा कैसा है ? यह देखकर उसे काटने का उपाय सोचो और फँदा काट दो तब काम बनेगा।

ऐसे ही जीवरूपी बकरे के गले में अज्ञान का जो फँदा पड़ा है उसे जरा समझ लो और सत्संग से सेवा से, विवेक-वैराग्य से, विचाररूपी कैंची से काट दो तो मुक्त हो जाओगे। फिर चाहे प्रवृत्ति करो चाहे निवृत्ति लेकिन रहोगे निजानंद में। तब आपको किसी का भय नहीं रहेगा। फिर चाहे मौत भी आ जाय तो मौत के भी आप दृष्टा बन जाओगे। यह मुक्तिपद है ही ऐसा कि जिसे पाकर फिर इस जन्म-मरण के चक्कर में वापस नहीं आना पड़ता।

श्रीकृष्ण कहते हैं-

न तद् भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः।

यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

ʹजिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते, उस स्वयं प्रकाश परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही, वही मेरा परमधाम है।ʹ (भगवद् गीताः 15.6)

परमात्मा के उस परमधाम को पाने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं- तमेव शरणं गच्छ। तू सर्वभाव से उस परमात्मा की शरण में जा, जो अंतर्यामी आत्मा के रूप में सदा तेरे साथ है। जो अनन्य भाव से उसकी शरण में जाता है वह भी उसी रूप हो जाता है। उसे सबमें अपना-आपा नजर आता है।

दुर्बल में भी ʹमैंʹ और बलवान की गहराई में भी ʹमैंʹ…. शत्रु में भी ʹमैंʹ और मित्र में भी ʹमैंʹ ही नजर आया तो फिर अहंकार, राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय आदि के लिए स्थान ही कहाँ बचेगा ?

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।

ʹजो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, अर्थात् राग-द्वेष आदि विकारों के वश नहीं होता है इससे वह परम गति को प्राप्त होता है। (भगवद् गीताः 13.28)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 3,4,5 अंक 49

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परमात्मा प्राप्ति कैसे हो ? – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


सर्व भूत-प्राणी एक ही परमात्मा में बसे हुए हैं और एक ही परमात्मा सब भूत-प्राणियों में है। जैसे, सारे घट आकाश में हैं और सब घटों में आकाश है, वैसे ही सब जीवों में आत्मा है और हर एक जीव आत्मा परमात्मा से ही अस्तित्त्व में है। दोनों में भिन्न कुछ भी नहीं, यह ज्ञान होना चाहिए।

हममें जीवनशक्ति जीवनदाता की ओर से ही आती है। बुद्धिमानों की बुद्धि, यशस्वियों का यश, तेजस्वियों का तेज, सौन्दर्यवानों का सौन्दर्य, वक्ताओं की वाणी और श्रोताओं की सुनने की जिज्ञासा-ये सब एकमात्र अंतर्यामी परमात्मा से ही प्रकट होता है।

तुलसीदासजी का श्रीरामचरितमानस, वेदव्यासजी का श्रीमदभागवत, शंकराचार्य जी का अद्वैतवाद और रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त भी उसी सच्चिदानंद परमात्मा से ही प्रकट हुआ है। योगियों का योग, तपस्वियों का तप और भोगियों का भोग भी ईश्वर से ही सिद्ध होता है।

साहब तेरी साहबी घट घट रही समाय।

जैसे मेंहदी बीच में लाली रही छुपाय।।

लाली मेरे लाल की जित देखूँ उत लाल।

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।।

ऐसे चैतन्य परमात्मा की लाली देखने के लिए शरीर का अहंकार छोड़कर परमात्मा को ही समर्पित हो जाएँ। स्वामी रामतीर्थ कहते थेः

तुझको इतना मिटा कि,

तुझमें तू न रहे… द्वैत की बू न रहे।

मीराबाई भजन गाते-गाते गिरिधर गोपाल में इतनी खो जाती थी कि उन्होंने अपने देहाध्यास को ही मिटा दिया और अन्ततः सशरीर प्रभु में लीन हो गयीं। शबरी ने अपने गुरु वचनों में श्रद्धा की तो भगवान श्रीरामचन्द्र शबरी भीलनी के आँगन में आये और उसके जूठे बेर भी बड़े प्रेम से खाये।

कभी एकांत में बैठकर अपने श्वासोश्वास की गति को देखें और उस प्यारे को धन्यवाद देते जायें किः “तू ही इस शरीर में रहकर हृदय की धड़कनें चलाता है।ʹ कभी आसमान की ओर एकटक निहारें, चंद्रमा को एकटक निहारें और प्रभु को याद करें किः ʹमेरा प्यारा ही चंद्रमा में चमक कर औषधियाँ पुष्ट कर रहा है। उस सर्वसत्ताधीश की सत्ता से ही सब हो रहा है। जड़ और चेतन सबमें वही समाया है….ʹ ऐसा अनुभव करते जायें।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेर्जुन तिष्ठति। ईश्वर तो सबके हृदय में एक समान है। हाँ, एक व्यक्ति के पास जो बल, बुद्धि या सौन्दर्य है वह शायद दूसरे व्यक्ति के पास नहीं भी हो सकता है परंतु जो परमात्मा महर्षि वशिष्ठ, संत ज्ञानेश्वर, मतंग ऋषि, बुद्ध, महावीर और मुहम्मद के हृदय में था, जो परमात्मा शबरी, मीरा, मदालसा और गार्गी के हृदय में था, वही-का-वही परमात्मा हमारे हृदय में भी है। जो अनुभव राजा जनक, कबीर जी अथवा नानक जी को हुआ है, वही अनुभव हमें भी हो सकता है। ऐहिक सुख-सुविधाओं का अनुभव भिन्न-भिन्न समय, परिस्थितिय और व्यक्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है परंतु परमात्मप्राप्ति का अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं होता।

संसार की चीजें अपूर्ण हैं इसलिए अपूर्ण प्रकृति के व्यक्ति और उऩका बल, बुद्धि, सत्ता, सौन्दर्य एक समान नहीं होते। परंतु ईश्वर तो सबके हृदय में पूर्ण है और वह सबको मिल सकता है लेकिन उसके लिए आवश्यकता है साधना, पुरुषार्थ और सत्संग की।

ईश्वरीय शक्ति प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में सात केन्द्र हैं। वे जितने अंश में विकसित होते हैं, उतना ही मनुष्य ऊँचा उठता है। कई लोग सोचते हैं कि ʹजो भाग्य में होगा, वही होगाʹ। मानो, हमारा भाग्य कोई आकाश-पाताल में से लिखकर भेजता हो। अगर किसी देव ने ही भाग्य बना दिया होता तो पुरुषार्थ का कोई प्रश्न ही नहीं रहता, सत्संग सुनने का यह सदग्रंथ पढ़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता। ʹभाग्य में जो होगा, वह मिलेगा। भाग्य में होगा तो सुखी होंगे और भाग्य में मकान होगा तो मिलेगा। हमें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है…ʹ यदि ऐसा ही हो तो घर बैठे-बैठे मकान लेकर देखो ? नहीं, मकान लेने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है। अरे ! खाना खाने के लिए भी प्रयत्न करना पड़ता है। सब्जी बाजार से लानी पड़ती है। फिर पकानी पड़ती है तब जाकर भोजन प्राप्त होता है। ऐसा नहीं कि ʹप्रारब्ध में आज भोजन होगा तो अपने-आप मिल जायेगा।ʹ यदि भोजन पाने के लिए भी पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है तो फिर अखिल ब्रह्माण्डनायक को पाने के लिए भी पुरुषार्थ परम आवश्यक है। इसलिए पुरुषार्थ करो और संतों का संग करो।

यह बात सच है कि पूर्व में की हुई प्रवृत्ति, विचार और कृति का फल हमारा आज का प्रारब्ध हो जाता है। किन्तु यह बात भी उतनी ही सच है कि पूर्व में किये हुए अशुभ कर्म को, अपने प्रारब्ध को आज के शुभ पुरुषार्थ के बल पर बदला जा सकता है। जैसे, कल का अजीर्ण आज के उपवास से मिटता है, कल का वैर आज की क्षमायाचना से मिटता है, कल का लिया हुआ कर्ज आज चुका देने से मिट जाता है, ठीक वैसे ही आज की हुई शुभ प्रवृत्ति से, आज के पुरुषार्थ से आनेवाले कल का प्रारब्ध बदला जा सकता है। इसलिए तुलसीदास जी ने लिखा है किः

करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।

रावण ने तप और अच्छे कर्म करके लंकाधीश का पद पाया लेकिन फिर दुष्कृत्य करके, माता सीता का हरण करके अपने सारे कुल का विनाश भी करवा दिया। उसके पूर्व के शुभ फल से उसे राज्य-वैभवरूपी शुभ फल मिला लेकिन अपने ही दुष्कर्म से पूर्व का पुण्य क्षीण होता गया और आखिर में उसे अपने दुष्कृत्य का दुष्फल भी भुगतना ही पड़ा। इसलिए मनुष्य को सदैव विवेकयुक्त पुरुषार्थ करना चाहिए और विवेकयुक्त पुरुषार्थ तभी हो सकता है जब हम शास्त्रीय वचनों के अनुसार चलें।

हमारे चित्त में हजारों जन्मों के संस्कार भरे हुए हैं। उन्हें बदलने की और मिटाने की योग्यता केवल मनुष्य जन्म में ही है। इस प्रकार मनुष्य जन्म अनंत जन्मों का आरंभ भी है और अंत भी। यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं जिया तो अशुभ कर्मों के कारण अनंत जन्मों तक मनुष्य भवबंधन में भटकता रहता है। अतः सत्शास्त्रानुसार पुरुषार्थ करके एवं प्रबल उत्साह रखकर हमें सत्कर्मों में लग जाना चाहिए, जिससे विघ्न डालने वाले पूर्वजन्म के अशुभ संस्कार हार जाएँ।

कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि ʹजब सब प्राणियों को सत्ता देने वाला परमात्मा ही है तो अशुभ कर्म भी तो उसी की सत्ता से होते हैं।ʹ नहीं, हरगिज नहीं। यदि पाप और पुण्य करने की प्रेरणा ईश्वर ही देते तो पाप और पुण्य का फल भी ईश्वर को ही मिलना चाहिए, हमें नहीं।  परंतु ऐसा नहीं है। जैसे हमारे कर्म होते हैं उसी प्रकार के फल हमें भुगतने पड़ते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं किः

 नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।

सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है किन्तु अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं। (गीताः 5.15)

भगवान कहते हैं कि में किसी को पुण्य या पाप की ओर नहीं ले जाता। अज्ञान से आवृत ज्ञान से मोहित होकर जीव जैसे-तैसे कर्म करके भवजाल में भटकता रहता है। वासनाओं का जैसा वेग होता है, कर्त्ताभाव से वैसे ही कर्म होते हैं और वैसा ही फल मिलता है।

ईश्वर पापकर्म का फल दुःख देकर, संसार से वैराग्य कराकर हमें शुद्ध करना चाहता है और पुण्यकर्म का फल सुख देकर सत्कृत्यों की ओर उत्साहित करना चाहता है। दोनों में ईश्वरीय कृपा सदैव हमारे साथ ही है।

मनुष्य जन्म देकर ईश्वर ने हमें कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। अन्य चौरासी लाख योनियों में केवल कर्मफल भुगतने होते हैं जबकि मनुष्य जन्म  में कर्म भुगतने के अलावा नये कर्मों का सर्जन भी होता है। अतः ऐसे कर्म करें कि जिससे दुबारा जन्म न लेना पड़े।

निष्काम कर्म करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, अंतःकरण की शुद्धि से परमात्मप्राप्ति में सुगमता होती है, साथ ही,  ʹआत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? आत्म-साक्षात्कार कैसे हो ? मुक्ति कैसे पाएँ ?ʹ ऐसे प्रश्न अंतःकरण में उठते हैं। जिज्ञासा होने से मनुष्य संतों के द्वार तक पहुँच सकता है और संतों के सत्संग से परमात्मज्ञान प्राप्त करके मुक्त भी हो सकता है।

जहाँ चाह वहाँ राह।

जीवन में कुछ चाहने योग्य, जानने योग्य हो तो वह है ब्रह्म-परमात्मा। जीव यदि ब्रह्म-परमात्मा को जान ले तो वह खुद ब्रह्ममय हो जाय और उसका बार बार माता के गर्भ में उल्टा लटकना सदा के लिए मिट जाए।

जन्मदुःखं जरादुःखं जायदुःखं पुनः पुनः।

अंतकाले महादुःखं तस्मात् जाग्रहि जाग्रहि।।

बाल्यावस्था में जीव को पराधीनता होती है। कोई खिलाये तब खाये, पिलाये तब पिये, कभी पेट में दर्द होता है तो बोल भी नहीं पाता ऐसा पराधीन जीवन होता है। जवानी में काम, क्रोध, लोभ जैसे दोष सताते हैं और बुढ़ापे में शरीर जर्जर हो जाता है, अशक्त हो जाता है, कान बहरे हो जाते हैं, आँखों की रोशनी कम हो जाती है। फिर भी जीव अपनी इच्छा, आकांक्षा, वासनाओं का त्याग नहीं करता और बार-बार कभी दो पैरवाली तो कभी चार पैरवाली माता के गर्भ में उल्टा लटककर असह्य दर्द सहता है। दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलने पर भी जीव अज्ञानवश अपने को सुखी करने में ही जीवन गँवा देता है। आखिर में वृद्धावस्था आती है तब जीव सोचता है कि मृत्यु आये तब शांति, परंतु मरने में भी सच्ची शांति नहीं है। सच्ची शांति तो उस परमात्मपद में है जहाँ संतजन विश्रांति पाते हैं।

मरो मरो सब कोई कहे, मरना न जाने कोई।

एक बार ऐसा मरो कि फिर मरना न होई।।

एक बार संतों के चरणों में देहाध्यास छोड़कर ऐसे मरो कि फिर कभी मरना न पड़े। इस शरीर को ʹमैंʹ मानकर, ʹमैंने यह कियाʹ इस  भावना का जितना त्याग करते जाओगे उतने ही उन्नत होते जाओगे, दुःखों से मुक्त होते जाओगे। इसलिए यत्न करके, इस दुष्ट अहंकार का नाश करो। परमात्मा की सत्ता का अनुभव करते जाओ। फिर जैसे सूर्योदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है वैसे ही दृढ़ पुरुषार्थ से जिसके हृदय का अहंकार नष्ट हो गया है वह संसारसमुद्र से पार हो जाता है। इसलिए आज ही, इसी क्षण दृढ़ निश्चय करोः

न मैं हूँ न ही है और कुछ।

मुझसे जो है वह सब तू ही है।

सब कुछ ही है तुझसे।।

ʹमैंʹ, ʹमेरेपनेʹ का अहंकार निर्मूल होने से फिर केवल ʹवहʹ ही बचेगा और वही है परमात्मा-साक्षात्कार।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 1996, पृष्ठ संख्या 3,4,5,6 अंक 47

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