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महाशिवरात्रि


लुप्त पुण्य भी होते हैं जागृत – पूज्य बापू जी

शिवरात्रि का जागरण अपने-आप में बड़ा महत्त्वपूर्ण है। जैसे एकादशी का व्रत नहीं करने से पाप लगता है, ऐसे ही शिवरात्रि का व्रत नहीं करने से पाप लगता है और करने से बड़ा भारी पुण्य होता है, ऐसा शास्त्र कहते हैं। भगवान राम, भगवान, कृष्ण, भगवान वामन, भगवान नरसिंह – इनकी जयंतियाँ और एकादशी व शिवरात्रि – ये सभी व्रत विशेष करने योग्य हैं। इनको करने से आदमी पूर्णता की तरफ बढ़ता है और इन व्रतों को ठुकराने वाला आदमी ठुकराया जाता है, चौरासी लाख योनियों में भटकाया जाता है।

इस पुण्यदायी शिवरात्रि का पूरा फायदा उठायें। शिवरात्रि का व्रत न करने से पाप लगता है लेकिन करने से ऐसी बुद्धि होती है जैसी सतयुग, त्रेता और द्वापर के लोगों की बुद्धि होती थी और वही पुण्यलाभ प्राप्त होता है जो उस काल में मिलता था क्योंकि काल के प्रभाव से जो पुण्य लुप्त हो गये हैं, वे शिवरात्रि के दिन पूर्णतः विद्यमान होते हैं। ब्रह्माजी और वसिष्ठजी ने शिवरात्रि के व्रत की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सौ यज्ञों से भी अधिक पुण्य पंचाक्षर मंत्र से पूजन करने से होता है। और उससे भी अधिक पुण्यलाभ अंतरात्मा शिव का एकांत में चिंतन करने व ध्यानमग्न होने से होता है। यह जीव को ऐसी ऊँची दशा देता है कि जो कभी न मरे उस अकाल आत्मा में उसकी स्थिति हो जाती है।

शिवरात्रि व्रत-जागरण का अनुभव

शिवरात्रि के उपवास, मौन, शिवजी के मानसिक पूजन व ध्यान से तो मुझे बहुत फायदा हुआ, बहुत फायदा ! मैं हजार वर्ष अलग से तपस्या करूँ तो शायद इतना फायदा नहीं होता, जितना शिवरात्रि के एकांत, मौन प्रीतिपूर्वक ध्यान-धारणा से मुझे लाभ हुआ। उसके बाद ही मैंने साधुताई के रास्ते छलाँग मारी। नहीं तो ʹघर छोड़ के जायेंगे… क्या होगा, क्या होगा ?ʹ सोचते-सोचते थोड़ा चलते, फिर पीछे आता मन, फिर कभी चले जाते, फिर घरवाले पकड़ के ले आते। पर शिवरात्रि के एक जागरण से ऐसा शिवजी का प्रसाद मिला कि ऐ ! अलख बम-बम….!

शिवरात्रि का स्वास्थ्य लाभ

ʹबंʹ शिवजी का बीजमंत्र है। जिनको भी गठिया या वायुसंबंधी तकलीफ हो, वे शिवरात्रि पर ʹૐ बं बं….ʹ का सवा लाख जप करें। वायु संबंधी 80 प्रकार की तकलीफों से छुट्टी मिल जायेगी। इसका जप करने वाले ऐसे कई लोगों को मैंने चलते-फिरते अपनी इन्हीं आँखों से देखा, जिनको बिस्तर से उठना, बैठना, चलना मुश्किल था। जिनको वायु संबंधी तकलीफ हो, वे एक लीटर पानी में एक काली मिर्च और तीन बेल-पत्ते मसल के डालकर उसे पौना लीटर होने तक उबालें। वह पानी पीने लायक ठंडा हो जाये तो दिन में वही पियें। इससे भी वायु संबंधी तकलीफें कम हो जायेंगी।

शिवरात्रि का मधुमय संदेश

शिवरात्रि की एक रात पहले संकल्प करना कि ʹकल मैं ૐ नमः शिवायʹ का जप करूँगा, शांत होऊँगा।ʹ तीन बिल्वपत्र अगर मिल सकें तो शिवजी को चढ़ा दिये, उसी से शिवजी संतुष्ट हो जाते हैं। शिव की मूर्तिपूजा के लिए ʹૐ नमः शिवाय ʹ व शिवजी के लिंग या आत्मलिंग की पूजा के लिए ʹૐʹ मंत्र का प्रयोग किया जाता है।

बाह्य वासना मिटते-मिटते अंदर की शांति, माधुर्य, सुख, जो सारों का सार है उसमें विश्रांति पाने का पक्का इरादा करना। ૐ….ૐ….ૐ…. शिवरात्रि का फायदा लेना उपवास करके। एकांत में ૐकार का गुंजन करोगे तो अल्लाह कहो, गॉड कहो, शिव कहो, उसका बहुत कुछ आपको ऐसा मिलेगा कि फिर वहाँ शब्द नहीं हैं। दुनिया का लाभ वास्तव में लाभ है ही नहीं, दो कौड़ी का भी नहीं है। कर-करके छोड़ के मरो, फिर जन्मो-मरो…. हानि है, समय बर्बाद करता है। सच्चा लाभ तो आत्मशिव की प्राप्ति हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2013, पृष्ठ संख्या 2,6 अंक 242

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आपके जीवन में शिव ही शिव हो


(पूज्य बापू जी कल्याणमयी मधुमय वाणी)

चार महारात्रियाँ हैं – जन्माष्टमी, होली, दिवाली और शिवरात्रि। शिवरात्रि को अहोरात्रि भी बोलते हैं। इस दिन ग्रह नक्षत्रों आदि का ऐसा मेल होता है कि हमारा मन नीचे के केन्द्रों से ऊपर आये। देखना, सुनना, चखना, सूँघना व स्पर्श करना – इस विकारी जीवन में तो जीव-जंतु भी होशियार हैं। बकरा जितना काम विकार में होशियार है उतना मनुष्य नहीं हो सकता। बकरा एक दिन में चालीस बकरियों के साथ काला मुँह कर सकता है, मनुष्य करे तो मर जाये। यह विकार भोगने के लिए तो बकरा, सुअर, खरगोश और कई नीच योनियाँ हैं। विकार भोगने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।

विकारी शरीरों की परम्परा में आते हुए भी निर्विकार नारायण का आनंद-माधुर्य पाकर अपने शिवस्वरूप को जगाने के लिए शिवरात्रि आ जाती है कि लो भाई ! तुम उठाओ इस मौके का फायदा….।

शिवजी कहते हैं कि ‘मैं बड़े-बड़े तपों से, बड़े-बड़े यज्ञों से, बड़े-बड़े दानों से, बड़े-बड़े व्रतों से इतना संतुष्ट नहीं होता हूँ जितना शिवरात्रि के दिन उपवास करने से होता हूँ।’ अब शिवजी का संतोष क्या है ? तुम भूखे मरो और शिवजी खुश हों, क्या शिव ऐसे हैं ? नहीं, भूखे नहीं मरोगे, भूखे रहोगे तो शरीर में जो रोगों के कण पड़े हैं, वे स्वाहा हो जायेंगे और जो आलस्य, तन्द्रा बढ़ाने वाले विपरीत आहार के कण हैं वे भी स्वाहा हो जायेंगे और तुम्हारा जो छुपा हुआ सत् स्वभाव, चित् स्वभाव, आनंद स्वभाव है, वह प्रकट होगा। शिवरात्रि का उपवास करके, जागरण करके देख लो। मैंने तो किया है। मैंने एक शिवरात्रि का उपवास घर पर किया था, ऐसा फायदा हुआ कि मैं क्या-क्या वर्णन करूँ ! क्या-क्या अंतर्प्रेरणा हुई, क्या-क्या फायदा हुआ उसका वर्णन करना मेरे बस का नहीं है। नहीं तो जाने घिस-पिट के क्या हालत होती सत्तर की उम्र में ! ‘अरे बबलू ! ऐंह…. अरे जरा उठा दें… जरा बैठा दे।’ – यह हालत होती।

इस दिन जो उपवास करे, उसे निभाये। जो बूढ़े हैं, कमजोर हैं, उपवास नहीं रख सकते, वे लोग थोड़ा अंगूर खा सकते हैं अथवा एक छोटे-मोटे नारियल का पानी पी सकते हैं, ज्यादा पीना ठीक नहीं।

शरीर में जो जन्म से लेकर विजातीय द्रव्य हैं, पाप-संस्कार हैं, वासनाएँ हैं उन्हें मिटाने में शिवरात्रि की रात बहुत काम करती है।

शिवरात्रि का जागरण करो और ‘बं’ बीजमंत्र का सवा लाख जप करो। संधिवात (गठिया) की तकलीफ दूर हो जायेगी। बिल्कुल पक्की बात है ! एक दिन में ही फायदा ! ऐसा बीजमंत्र है शिवजी का। वायु मुद्रा करके बैठो और ‘बं बं बं बं बं’ जप करो। जैसे जनरेटर घूमता है तो बिजली बनती है, फिर गीजर भी चलेगा और फ्रिज भी चलेगा। दोनों विपरीत हैं लेकिन बिजली से दोनों चलते हैं। ऐसे ही ‘बं बं’ से विपरीत धर्म भी काम में आ जाते हैं। बुढ़ापे में तो वायु संबंधी रोग ज्यादा होते हैं। जोड़ों में दर्द हो गया, यह पकड़ गया-वह पकड़ गया…. ‘बं बं’ जपो, उपवास करो, देखो अगला दिन कैसा स्फूर्तिवाला होता है।

शिवरात्रि की रात का आप खूब फायदा उठाना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग करना। भीड़ भाड़ में, मंदिर में नहीं गये तो ऐसे ही ‘ॐ नमः शिवाय‘ जप करना। मानसिक मंदिर में जा सको तो जाना। मन से ही की हुई पूजा षोडषोपचार की पूजा से दस गुना ज्यादा हितकारी होती है और अंतर्मुखता ले आती है।

शिवजी का पत्रम-पुष्पम् से पूजन करके मन से मन का संतोष करें, फिर ॐ नमः शिवाय…. ॐ नमः शिवाय…. शांति से जप करते गये। इस जप का बड़ा भारी महत्त्व है। अमुक मंत्र की अमुक प्रकार की रात्रि को शांत अवस्था में, जब वायुवेग न हो आप सौ माला जप करते हैं तो आपको कुछ-न-कुछ दिव्य अनुभव होंगे। अगर वायु-संबंधी बीमारी हैं तो ‘बं बं बं बं बं’ सवा लाख जप करते हो तो अस्सी प्रकार की वायु-संबंधी बीमारियाँ गायब ! अगर तुम प्रणव की 120 मालाएँ करते हो रोज और ऐसे पाँच लाख मंत्रों का जप करते हो तो आपकी मंत्रसिद्धि की शक्तियाँ जागृत होने लगती है। ॐ नमः शिवाय मंत्र तो सब बोलते हैं लेकिन इसका छंद कौन सा है, इसके ऋषि कौन हैं, इसके देवता कौन हैं, इसका बीज क्या है, इसकी शक्ति क्या है, इसका कीलक क्या है – यह मैं बता देता हूँ। अथ ॐ नमः शिवाय मंत्र। वामदेव ऋषिः। पंक्तिः छंदः। शिवो देवता। ॐ बीजम्। नमः शक्तिः। शिवाय कीलकम्। अर्थात् ॐ नमः शिवाय का कीलक है ‘शिवाय’, ‘नमः’ है शक्ति, ॐ है बीज… हम इस उद्देश्य से (मन ही मन अपना उद्देश्य बोलें) शिवजी का मंत्र जप रहे हैं – ऐसा संकल्प करके जप किया जाय तो उसी संकल्प की पूर्ति में मंत्र की शक्ति काम देगी।

अगर आप शिव की पूजा स्तुति करते हैं और आपके अंदर में परम शिव को पाने का संकल्प हो जाता है तो इससे बढ़कर कोई उपहार नहीं और इससे बढ़कर कोई पद नहीं है। भगवान शिव से प्रार्थना करें- ‘इस संसार के क्लेशों से बचने के लिए, जन्म-मृत्यु के शूलों से बचने के लिए हे भगवान शिव ! हे साम्बसदाशिव ! हे शंकर ! मैं आपकी शरण हूँ, मैं नित्य आने वाली संसार की यातनाओं से हारा हुआ हूँ, इसलिए आपके मंत्र का आश्रय ले रहा हूँ। आज के शिवरात्रि के इस व्रत से और मंत्रजप से तुम मुझ पर प्रसन्न रहो क्योंकि तुम् अंतर्यामी साक्षी चैतन्य हो। हे प्रभु ! तुम संतुष्ट होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्राप्त कराओ। सुख और दुःख में मैं सम रहूँ। लाभ और हानि को सपना समझूँ। इस संसार के प्रभाव से पार होकर इस शिवरात्रि के वेदोत्सव में मैं पूर्णतया अपने पाप-ताप को मिटाकर आपके पुण्यस्वभाव को प्राप्त करूँ।

शिवधर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैः एक तो तप (सात्त्विक आहार, उपवास, ब्रह्मचर्य) शरीर से, मन से, पति-पत्नी, स्त्री पुरुष की तरफ के आकर्षण का अभाव। आकर्षण मिटाने में सफल होना हो तो ॐ अर्यमायै नमः…. ॐ अर्यमायै नमः….. यह जप शिवरात्रि के दिन कर लेना, क्योंकि शिवरात्रि का जप कई गुना अधिक फलदायी कहा गया है। दूसरा है भगवान की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म, पूजन अर्चन आदि (मानसिक अथवा शारीरिक), तीसरा शिवमंत्र का जप, चौथा शिवस्वरूप का ध्यान और पाँचवाँ शिवस्वरूप का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव का ज्ञान। शिवस्वरूप का ज्ञान – यह आत्मशिव ही उपासना है। चिता में भी शिवतत्त्व की सत्ता है, मुर्दे में भी शिवतत्त्व की सत्ता है तभी तो मुर्दा फूलता है। हर जीवाणु में शिवतत्त्व है। तो इस प्रकार अशिव में भी शिव देखने के नजरिये वाला ज्ञान, दुःख में भी सुख को ढूँढ निकालने वाला ज्ञान, मरूभूमि में भी वसंत और गंगा लहराने वाला श्रद्धामय नजरिया, दृष्टि यह आपके जीवन में शिव ही शिव लायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 14, 15 अंक 218

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शिवजी का अनोखा वेशः देता है दिव्य संदेश


महाशिवरात्रि दिनांक 4 मार्च 2000

संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

यस्यांकि य विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके।

भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।

सोयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा।

शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातु माम्।।

ʹजिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ सर्वेश्वर, संहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक), सर्वव्यापक, कल्याणस्वरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।ʹ

ʹशिवʹ अर्थात् कल्याण-स्वरूप। भगवान शिव तो हैं ही प्राणिमात्र के परम हितैषी, परम कल्याणकारक लेकिन उनका बाह्य रूप भी मानवमात्र को एक मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है।

शिवजी का निवास-स्थान है कैलास शिखर। ज्ञान हमेशा धवल शिखर पर रहता है अर्थात् ऊँचे केन्द्रों में रहता है जबकि अज्ञान नीचे के केन्द्रों में रहता है। काम, क्रोध, भय आदि के समय मन-प्राण नीचे के केन्द्र में, मूलाधार केन्द्र में रहते हैं। मन और प्राण अगर ऊपर के केन्द्रों में हो तो वहाँ काम टिक नहीं सकता।

शिवजी को काम ने बाण मारा लेकिन शिवजी की निगाहमात्र से ही काम जलकर भस्म हो गया। आपके चित्त में भी यदि कभी काम आ जाये तो आप भी ऊँचे केन्द्रों में आ जाओ ताकि वहाँ काम की दाल न गल सके।

कैलास शिखर धवल है, हिमशिखर धवल है और वहाँ शिवजी निवास करते हैं। ऐसे ही जहाँ सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, वहीं आत्मशिव रहता है।

शिवजी की जटाओं से गंगा जी निकलती है अर्थात् ज्ञानी के मस्तिष्क में से ज्ञानगंगा बहती है। उनमें तमाम प्रकार की ऐसी योग्यताएँ होती हैं कि जिनसे जटिल-से-जटिल समस्याओं का समाधान भी अत्यंत सरलता से हँसते-हँसते हो जाता है।

शिवजी के मस्तक पर द्वितीया का चाँद सुशोभित होता है अर्थात् जो ज्ञानी हैं वे दूसरों का नन्हा सा प्रकाश, छोटा सा गुण भी शिरोधार्य करते हैं। शिवजी ज्ञान के निधि हैं, भण्डार हैं, इसीलिए तो किसी के भी ज्ञान का अनादर नहीं करते हैं वरन् आदर ही करते हैं।

शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण की है। कुछ विद्वानों का मत है कि ये मुण्ड किसी साधारण व्यक्ति के मुण्ड नहीं, वरन् ज्ञानवानों के मुण्ड हैं।

जिनके मस्तिष्क में जीवनभर ज्ञान के विचार ही रहे हैं, ऐसे ज्ञानवानों की स्मृति ताजी करने के लिए उन्होंने मुण्डमाला धारण की है। कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण करके हमें बताया है कि गरीब हो चाहे धनवान्, पठित हो चाहे अपठित, माई हो या भाई लेकिन अंत समय में सब खोपड़ी छोड़कर जाते हैं। आप अपनी खोपड़ी में चाहे कुछ भी भरो, आखिर वह यहीं रह जाती है।

भगवान शंकर देह पर भभूत रमाये हुए हैं क्योंकि वे शिव हैं, कल्याणस्वरूप हैं। लोगों को याद दिलाते हैं कि चाहे तुमने कितना ही पद-प्रतिष्ठावाला, गर्व भरा जीवन बिताया हो, अंत में तुम्हारी देह का क्या होने वाला है, वह मेरी देह पर लगायी हुई भभूत बताती है। अतः इस चिताभस्म को याद करके आप भी मोह-ममता और गर्व को छोड़कर अंतर्मुख हो जाया करो।

शिवजी के अन्य आभूषण हैं बड़े विकराल सर्प। अकेला सर्प होता है तो मारा जाता है लेकिन यदि वह सर्प शिवजी के गले में, उनके हाथ पर होता है तो पूजा जाता है। ऐसे ही आप संसार का व्यवहार केवल अकेले करोगे तो मारे जाओगे लेकिन शिवतत्त्व में डुबकी मारकर संसार का व्यवहार करोगे तो आपका व्यवहार भी आदर्श व्यवहार बन जायेगा।

शिवजी के हाथों में त्रिशूल एवं डमरू सुशोभित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे सत्त्व, रज एवं तम – इन तीन गुणों के आधीन नहीं होते, वरन् उन्हें अपने आधीन रखते हैं और जब प्रसन्न होते हैं तब डमरू लेकर नाचते हैं।

कई लोग कहते हैं कि शिवजी को भाँग का व्यसन है। वास्तव में तो उऩ्हें भुवन भंग करने का यानी सृष्टि का संहार करने का व्यसन है, भाँग पीने का नहीं। किन्तु भंगेड़ियों ने ʹभुवन भंगʹ में से अकेले ʹभंगʹ शब्द का अर्थ ʹभाँगʹ लगा लिया और भाँग पीने की छूट ले ली।

उत्तम माली वही है जो आवश्यकता के अनुसार बगीचे के काँट-छाँट करता रहता है, तभी बगीचा सजा-धजा रहता है। अगर वह बगीचे में काट-छाँट न करे तो बगीचा जंगल में बदल जाये। ऐसे ही भगवान शिव इस संसार के उत्तम माली हैं, जिन्हें भुवनों को भंग करने का व्यसन है।

शिवजी के यहाँ बैल-सिंह, मोर-साँप-चूहा आदि परस्पर विपरीत स्वभाव के प्राणी भी मजे एक साथ निर्विघ्न रह लेते हैं। क्यों ? शिवजी की समता के प्रभाव से। ऐसे ही जिसके जीवन में समता है वह विरोधी वातावरण में, विरोधी विचारों मे भी बड़े मजे से जी लेता है।

जैसे, आपने देखा होगा की गुलाब के फूल को देखकर बुद्धिमान व्यक्ति प्रसन्न होता है किः ʹकाँटों के बीच भी वह कैसे महक रहा है ! जबकि फरियादी व्यक्ति बोलता है किः ʹएक फूल और इतने सारे काँटे ! क्या यही है संसार, कि जिसमें जरा सा सुख और कितने सारे दुःख !ʹ

जो बुद्धिमान है, शिवतत्त्व का जानकार है, जिसके जीवन में समता है, वह सोचता है कि जिस सत्ता से फूल खिला है, उसी सत्ता ने काँटों को भी जन्म दिया है। जिस सत्ता ने सुख दिया है, उसी सत्ता ने दुःख को भी जन्म दिया है। सुख-दुःख को देखकर जो उसके मूल में पहुँचता है, वह मूलों के मूल महादेव को भी पा लेता है।

इस प्रकार शिवतत्त्व में जो जगे हुए हैं उन महापुरुषों की तो बात ही निराली है लेकिन जो शिवजी के बाह्य रूप को ही निहारते हैं वे भी अपने जीवन में उपरोक्त दृष्टि ले आयें तो उनकी भी असली शिवरात्रि, कल्याणमयी रात्रि हो जाये….

महाशिवरात्रि का पूजन

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात् महाशिवरात्रि। पृथ्वी पर शिवलिंग के स्थापन का जो दिवस है, भगवान शिव के विवाह का जो दिवस है और प्राकृतिक नियम के अनुसार जीव शिव के एकत्व में मदद करने वाले ग्रह-नक्षत्रों के योग का जो दिवस है – वही है महाशिवरात्रि का पावन दिवस। यह रात्रि-जागरण करने की रात्रि, आराधना-उपासना करने की रात्रि है।

शिवजी की आराधना निष्काम भाव से कहीं भी की जा सकती है किन्तु सकाम भाव से आराधना विधि-विधानपूर्वक की जाती है। जिन्हें संसार से सुख-वैभव लेने की इच्छा होती है वे भी शिवजी की आराधना करते हैं और जिन्हें सदगति प्राप्त करनी होती है, वे भी शिवजी की आराधना करते हैं।

शिवजी की पूजा का विधान यह है कि पहले जहाँ शिवजी की स्थापना की जाती है वहाँ से फिर उनका स्थानांतर नहीं होता, उनकी जगह नहीं  बदली जाती। शिवजी की पूजा के निर्माल्य (पत्र-पुष्प, पंचामृतादि) का उल्लंघन नहीं किया जाता। इसीलिए शिवजी के मंदिर की पूरी प्रदक्षिणा नहीं होती क्योंकि पूरी  प्रदक्षिणा करने से निर्माल्य उल्लंघित हो जाता है।

शिवलिंग विविध द्रव्यों से बनाये जाते हैं। अलग-अलग द्रव्यों से बने शिवलिंगों के पूजन के फल भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं। जैसे, ताँबे के शिवलिंग के पूजन से आरोग्य-प्राप्ति होती है। पीतल के शिवलिंग के पूजन से यश, आरोग्य-प्राप्ति एवं शत्रुनाश होता है। चाँदी के शिवजी बनाकर पूजा करने से पितरों का कल्याण होता है। सुवर्ण के शिवजी बनाकर पूजा करने से तीन पीढ़ियों तक घर में धन-धान्य बना रहता है। मणि-माणेक का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करने से बुद्धि, आयुष्य, धन, ओज-तेज बढ़ता है लेकिन ब्रह्मचिंतन करने से ये चीजें स्वाभाविक ही प्रगट होने लगती हैं। परमात्मतत्त्व में, शिवतत्त्व में डुबकी मारने से बुद्धि का प्रकाश बढ़ने लगता है, पितरों का उद्धार होने लगता है, चित्त की चंचलता मिटने लगती है, दिल की दरिद्रता दूर होने लगती है एवं मन में शांति आने लगती है। शिवपूजन का महाफल यही है कि मनुष्य शिवतत्त्व को प्राप्त हो जाये।

शिवरात्रि को भक्ति भाव से रात्रि-जागरण किया जाता है। जल, पंचामृत, फल-फूल एवं बिल्वपत्र से शिवजी का पूजन करते हैं। बिल्वपत्र में तीन पत्ते होते हैं जो सत्त्व, रज एवं तमोगुण के प्रतीक हैं। हम अपने ये तीनों गुण शिवार्पण करके गुणों से पार हो जायें, यही इसका हेतु है। पंचामृत पूजा क्या है ? पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पंचमहाभूतों का ही सारा भौतिक विलास  है। इन पंचमहाभूतों का विलास जिस चैतन्य की सत्ता से हो रहा है उस चैतन्यस्वरूप शिव में अपने अहं को अर्पित कर देना, यही पंचामृत-पूजा है। धूप और दीप द्वारा पूजा माने क्या ? धूप का तात्पर्य है अपने ʹशिवोઽहमʹ की सुवास, ʹआनन्दोઽहम्ʹ की सुवास और दीप का तात्पर्य है आत्मज्ञान का प्रकाश।

चाहे जंगल या मरुभूमि में क्यों न हो, रेती या मिट्टी के शिवजी बना लिये, पानी के छींटे मार दिये, जंगली फूल तोड़कर धर दिय और मुँह से ही नाद बजा दिया तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं एवं भावना शुद्ध होने लगती है।

आशुतोष जो ठहरे ! जंगली फूल भी शुद्ध भाव से तोड़कर शिवलिंग पर चढ़ाओगे तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं और यही फूल कामदेव ने शिवजी को मारे तो शिवजी नाराज हो गये। क्यों ? क्योंकि फूल फेंकने के पीछे कामदेव का भाव शुद्ध नहीं था, इसीलिए शिवजी ने तीसरा नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया। शिवपूजा में वस्तु का मूल्य नहीं, भाव का मूल्य है।

भावो हि विद्यते देवा….

आराधना का एक तरीका यह है कि पत्र, पुष्प, पंचामृत, बिल्वपत्रादि से चार प्रहर पूजा की जाये। दूसरा तरीका यह है कि मानसिक पूजा की जाये।

कभी-कभी योगी लोग इस रात्रि का सदुपयोग करने का आदेश देते हुए कहते हैः “आज की रात्रि तुम ऐसी जगह पसंद कर लो कि जहाँ तुम अकेले बैठ सको, अकेले टहल सको, अकेले घूम सको, अकेले जी सको। फिर तुम शिवजी की मानसिक पूजा करो और उसके बाद अपनी वृत्तियों को निहारो, अपने चित्त की दशा को निहारो। चित्त मे जो-जो आ रहा है और जो-जो जा रहा है उस आऩे जाने को निहारते-निहारते आने जाने की मध्यावस्था को जान लो।

दूसरा तरीका यह है कि चित्त का एक संकल्प उठा और दूसरा उठने को है, उस शिवस्वरूप व आत्मस्वरूप मध्यावस्था को तुम मैं रूप में स्वीकार कर लो, उसमें टिक जाओ।

तीसरा तरीक यह भी है कि किसी नदी या जलाशय के किनारे बैठकर जल की लहरों को एकटक देखते जाओ अथवा तारों को निहारते-निहारते अपनी दृष्टि को उन पर केन्द्रित कर दो। दृष्टि बाहर की लहरों पर केन्द्रित है औऱ वह दृष्टि केन्द्रित है कि नहीं, उसकी निगरानी मन करता है और मन निगरानी करता है कि नहीं करता है, उसको निहारने वाला मैं कौन हूँ ? गहराई से इसका चिंतन करते-करते आप परम शांति में भी विश्रांति कर सकते हो।

चौथा तरीका यह है कि जीभ न ऊपर हो न नीचे हो बल्कि तालू के मध्य में हो और जिह्वा पर ही आपकी चित्तवृत्ति स्थिर हो। इससे भी मन शांत हो जायेगा और शांत मन में शांत शिवतत्त्व का साक्षात्कार करने की क्षमता प्रगट होने लगेगी।

साधक चाहे तो कोई भी तरीका अपना कर शिवतत्त्व में जगने का यत्न कर सकता है। महाशिवरात्रि का यही उत्तम पूजन है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2000, पृष्ठ संख्या 15-18, अंक 86

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