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उत्तरायण हमें प्रेरित करता है जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर


पूज्य बापू जी

उत्तरायण कहता है कि सूर्य जब इतना महान है, पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है, ऐसा  सूर्य भी दक्षिण से उत्तर की ओर आ जाता है तो तुम भी भैया ! नारायण जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर आ जाओ तो तुम्हारे बाप का क्या बिगड़ेगा ? तुम्हारे तो 21 कुल तर जायेंगे।

उत्तरायण पर्व की महत्ता

उत्तरायण माने सूर्य का रथ उत्तर की ओर चले। उत्तरायण के दिन किया हुआ सत्कर्म अनंत गुना हो जाता है। इस दिन भगवान शिवजी ने भी दान किया था। जिनके पास जो हो उसका इस दिन अगर सदुपयोग करें तो वे बहुत-बहुत अधिक लाभ पाते हैं। शिवजी के पास क्या है ? शिवजी के पास है धारणा, ध्यान, समाधि, आत्मज्ञान, आत्मध्यान। तो शिवजी ने इसी दिन प्रकट होकर दक्षिण भारत के ऋषियों पर आत्मोपदेश का अनुग्रह किया था।

गंगासागर में इस दिन मेला लगता है। प्रयागराज में गंगा यमुना का जहाँ संगम है वहाँ भी इस दिन लगभग छोटा कुम्भ हो जाता है। लोग स्नान, दान, जप, सुमिरन करते हैं। तो हम लोग भी इस दिन एकत्र होकर ध्यान भजन, सत्संग आदि करते हैं, प्रसाद लेते देते हैं। इस दिन चित्त में कुछ विशेष ताजगी, कोई नवीनता हम सबको महसूस होती है।

सामाजिक महत्त्व

इस पर्व को सामाजिक ढंग से देखें तो बड़े काम का पर्व है। किसान के घर नया गुड़, नये तिल आते हैं। उत्तरायण सर्दियों के दिनों में आता है तो शरीर को पौष्टिकता चाहिए। तिल के लड्डू खाने से मधुरता और स्निग्धता प्राप्त होती है तथा शरीर पुष्ट होता है। इसलिए इस दिन तिल-गुड़ के लड्डू (चीनी के बदले गुड़ गुणकारी है) खाये खिलाये बाँटे जाते हैं। जिसके पास क्षमता नहीं है वह भी खा सके पर्व के निमित्त इसलिए बाँटने का रिवाज है। और बाँटने से परस्पर सामाजिक सौहार्द बढ़ता है।

तिळ गुड़ घ्या गोड गोड बोला।

अर्थात् तिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो। सिंधी जगत में इस दिन मूली और गेहूँ की रोटी का चूरमा व तिल खाया खिलाया जाता है अर्थात् जीवन में कहीं शुष्कता आयी हो तो स्निग्धता आये, जीवन में कहीं कटुता आ गयी हो तो उसको दूर करने के लिए मिठास आये इसलिए उत्तरायण को स्नेह सौहार्द वर्धक पर्व के रूप में भी देखा जाये तो उचित है।

आरोग्यता की दृष्टि से भी देखा जाये तो जिस-जिस ऋतु में जो-जो रोग आने की सम्भावना होती है, प्रकृति ने उस-उस ऋतु में उन रोगों के प्रतिकारक फल, अन्न, तिलहन आदि पैदा किये हैं। सर्दियाँ आती हैं तो शरीर में जो शुष्कता अथवा थोड़ा ठिठुरापन है या कमजोरी है तो उसे दूर करने हेतु तिल का पाक, मूँगफली, तिल आदि स्निग्ध पदार्थ इसी ऋतु में खाने का विधान है।

तिल के लड्डू देने-लेने, खाने से अपने को तो ठीक रहता है लेकिन एक देह के प्रति वृत्ति न जम जाय इसलिए कहीं दया करके अपना चित्त द्रवित करो तो कहीं से दया, आध्यात्मिक दया और आध्यात्मिक ओज पाने के लिए भी इन नश्वर वस्तुओं का आदान-प्रदान करके शाश्वत के द्वार तक पहुँचो ऐसी महापुरुषों की सुंदर व्यवस्था हो। सर्दी में सूर्य का ताप मधुर लगता है। शरीर को विटामिन डी की भी जरूरत होती है, रोगप्रतिकारक शक्ति भी बढ़नी चाहिए। इन सबकी पूर्ति सूर्य से हो जाती है। अतः सूर्यनारायण की कोमल किरणों का फायदा उठायें।

सूत्रधार की याद करना न भूलें

पतंग उड़ाने का भी पर्व उत्तरायण के साथ जोड़ दिया गया है। कोई लाल पतंग है तो कोई हरी है तो कोई काली है….। कोई एक आँख वाली है तो कोई दो आँखों वाली है, कोई पूँछ वाली है तो कोई बिना पूँछ की है। ये पतंगे तब तक आकाश में सुहावनी लगती हैं, जब तक सूत्रधार के हाथ में, उड़ानेवाले के हाथ में धागा है। अगर उसके हाथ से धागा कट गया, टूट गया तो वे ही आकाश से बातें करने वाली, उड़ाने भरने  वाली, अपना रंग और रौनक दिखाने वाली, होड़ पर उतरने वाली पतंगे बुरी तरह गिरी हुई दिखती हैं। कोई पेड़ पर फटी सी लटकती है तो कोई शौचालय पर तो कोई बेचारी बिजली के खम्भों पर बुरी तरह फड़कती रहती है। यह उत्सव बताता है कि जैसे पतंगे उड़ रही हैं, ऐसे ही कोई धन की, कोई सत्ता की, कोई रूप की तो कोई सौंदर्य की उड़ानें ले रहा है। ये उड़ानें तब तक सुन्दर-सुहावनी दिखती हैं, ये सब सेठ-साहूकार, पदाधीश तब तक सुहावने लगते हैं, जब तक तुम्हारे शरीररूपी पतंग का संबंध उस चैतन्य परमात्मा के साथ है। अगर परमात्मारूपी सूत्रधार से संबंध कट जाये तो कब्रिस्तान या श्मशान में ये पतंगे बुरी हालत में पड़ी रह जाती हैं इसलिए सूत्रधार को याद करना न भूलो, सूत्रधार से अपना शाश्वत संबंध समझने में लापरवाही न करो।

उत्तरायण ज्ञान का पूजन व आदर करने का दिन है और ज्ञान बढ़ाने का संकल्प करने का दिन है।

उत्तरायण का मधुर संदेश

उत्तरायण मधुर संदेश देता है कि ‘तुम्हारे जीवन में स्निग्धता और मधुरता खुले। आकाश में पतंग चढ़ाना माने जीवन में कुछ खुले आकाश में आओ। रूँधा-रूँधा (उलझा-उलझा) के अपने को सताओ मत। इन्द्रियों के उन गोलकों में अपने को सताओ नहीं, चिदाकाशस्वरूप में आ जाओ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 288

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उत्तरायण यानी आत्मसूर्य की ओर – पूज्य बापू जी


(मकर सक्रान्तिः 14 जनवरी 2013)

जिस दिन भगवान सूर्यनारायण उत्तर दिशा की तरफ प्रयाण करते हैं, उस दिन उत्तरायण (मकर सक्रान्ति) पर्व मनाया जाता है। इस दिन से अंधकारमयी रात्रि कम होती जाती है और प्रकाशमय दिवस बढ़ता जाता है। प्रकृति का यह परिवर्तन हमें प्रेरणा देता है कि हम भी अपना जीवन आत्म-उन्नति व परमात्मप्राप्ति की ओर अग्रसर करें। अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर आत्मज्ञानरूपी प्रकाश प्राप्त करने का यत्न करें।

उत्तरायण का ऐतिहासिक महत्त्व

उत्तरायण का पर्व प्राकृतिक नियमों से जुड़ा पर्व है। सूर्य की बारह राशियाँ मानी गयी हैं। हर महीने सूर्य के राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है। इसमें मुख्य दो राशियाँ बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं – एक मकर और दूसरी कर्क। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश को ʹमकर सक्रान्तिʹ बोलते हैं। देवताओं का प्रभात उत्तरायण के दिन से माना जाता है।

दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी उत्तरायण से मानी जाती है और ʹथई पोंगलʹ इस उत्सव का नाम है। पंजाब मे ʹलोहड़ी उत्सवʹ तथा सिंधी जगत में ʹतिर-मूरीʹ के नाम से इस प्राकृतिक उत्सव को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इस पर्व पर एक दूसरे को तिल-गुड़ देते हुए बोलते हैं ʹतिळ-गुळ घ्या, गोड-गोड बोलाʹ अर्थात् ʹतिल गुड़ लो और मीठा-मीठा बोलो।ʹ आपके स्वभाव में मिठास भर दो, चिंतन में मिठास भर दो।

सम्यक् क्रान्ति का सन्देश

क्रान्ति तो बहुत लोग करते हैं लेकिन क्रान्ति से तो तोड़फोड़ होती है। सम्यक्र सक्रान्ति….एक दूसरे को समझें। एक दूसरे का सिर फोड़ने से समाज नहीं सुधरेगा लेकिन एक दूसरे के अंदर सम्यक्र क्रान्ति, सम्यक् विचार का उदय हो कि परस्परदेवो भव। सबकी भलाई में अपनी, सबके मंगल में अपना मंगल, सबकी उन्नति में अपनी उन्नति। सम्यक्र क्रान्ति कहती है कि आपको ठीक से सबकी भलाई वाली उन्नति करनी चाहिए।

उत्तरायण पर्व कैसे मनायें ?

इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है। तिल का उबटन लगाना, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल सेवन तथा तिल दान – ये सभी पापशामक और पुण्यदायी प्रवृत्तियाँ हैं। कुछ ऐसे दिन होते हैं, कुछ ऐसी घड़ियाँ होती हैं, कुछ ऐसे पर्व होते हैं जिन पर शुभ कर्मों की विशेषता मानी जाती है। कुछ समय होता है जिस समय विशिष्ट चीज का ज्यादा महत्त्व होता है। जैसे सूर्योदय से पहले पानी पीते हैं तो स्वास्थ्य के लिए लाभदायी है और खूब भूख लगती है तब पानी पीते हैं तो वह विष हो जाता है। ऐसे ही पर्वों का अपने-आपमें महत्त्व है।

उत्तरायण के दिन से शुभ कर्म विशेष रूप से शुरु किये जाते हैं। आज के दिन दिया हुआ अर्घ्य, किया हुआ होम-हवन, जप-ध्यान और दान-पुण्य विशेष फलदायी माना जाता है। उत्तरायण पर्व पर दान का विशेष महत्त्व है। इस दिन कोई रूपया-पैसा दान करता है, कोई तिल-गुड़ दान करता है। आज के दिन लोगों को सत्साहित्य के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है। परंतु मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने को ही भगवान के चरणों में दान कर डालो।

सूर्य स्नान का महत्त्व

सूर्य की मीठी किरणों में स्नान करो और सिर को ढँक के ज्यादा गर्म न लगें ऐसी किरणों में लेट जाओ। लेटे-लेटे सूर्य-स्नान विशेष फायदा करता है, अगर और अधिक फायदा चाहिए तो पतला-सा काला कम्बल ओढ़कर भी सूर्य की किरणें ले  सकते हैं। सारे शरीर को सूर्य की किरणें मिलें जिससे आपके अंगों में अगर रंगों की कमी हो, वात-पित्त की अव्यवस्था हो तो ठीक हो जाय। सूर्य-स्नान करने से प्रकट और छुपे रोग भी मिटते हैं। अतः सूर्य स्नान करना चाहिए। सूर्य स्नान करने के लिए पहले एक गिलास गुनगुना पानी पी लो और सूर्य स्नान करने के बाद ठंडे पानी से नहा लो तो ज्यादा फायदा होगा। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए बाहर से सूर्य-स्नान ठीक है लेकिन मन और मति को ठीक करने के लिए भगवान के नाम का जप जरूरी है।

सूर्योपासना का शुभ दिन

उत्तरायण के दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने अथवा तिल-चावलमिश्रित जल से अर्घ्य देने का भी विधान है। आदित्य देव की उपासना करते समय सूर्यगायत्री मंत्र का जप करके अगर ताँबे के लोटे से जल चढ़ाते हैं और चढ़ा हुआ जल धरती पर गिरा, वहाँ की मिट्टी लेकर तिलक लगाते हैं तथा लोटे में बचाकर रखा हुआ जल महामृत्युंजय मंत्र का जप करते हुए पीते हैं तो आरोग्य की खूब रक्षा होती है।

उत्तरायण के दिन सूर्यनारायण का मानसिक रूप से ध्यान करके मन-ही-मन उनसे आयु-आरोग्य के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। इस दिन की प्रार्थना विशेष फलदायी होती है। सूर्य का ध्यान करने से बुद्धिशक्ति और ʹस्वʹ भावशक्ति का विकास होता है। मैं आपको यह सलाह देता हूँ कि सुबह-सुबह सूर्य का दर्शन कर लीजिये और आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें तो लाभ होगा।

उत्तरायण का परम संदेश

सात्त्विक भोजन, सात्त्विक संग और सात्त्विक विचार करके अपने जीवन को भीष्म पितामह की नाईं उस परब्रह्म परमात्मा के साथ तदाकार करने के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, इस बात को कभी न भूलें। उत्तरायण को भी पचा लें, जीवन को भी पचा लें और मौत को पचाकर अमर हो लें इसीलिए तुम्हारी जिंदगी है।

सूर्य आज करवट लेकर अंधकार का पक्ष छोड़कर प्रकाश की तरफ चलता है, दक्षिणायन छोड़कर उत्तरायण की ओर चलता है। ऐसे ʹतू-तेरा, मैं-मेराʹ की दक्षिणायन वृत्ति छोड़कर ʹतूʹ और ʹमैंʹ में जो छुपा है उस परमेश्वर के रास्ते चलने का आज फिर विशेष दृढ़ संकल्प करो, यह मेरा लालच है और प्रार्थना भी है। दक्षिणायन की तरफ सूर्य था तब था, फिर 6 महीने के बाद जायेगा। यह बाहर का सूर्य तो दक्षिण और उत्तर हो रहा है लेकिन तुम्हारा आत्मसूर्य तो महाराज ! इस सूर्य को भी सत्ता देता है। ऐसे सूर्यों के भी सूर्य – ज्योतिषामपि तज्जयोतिस्तमसः परमुच्यते का आप अनुसंधान करें यही उत्तरायण के दिन का संदेशा है। इस संदेश को मान लें, जान लें तो कितना अच्छा होगा ! उत्तरायण पर्व की आप सबको खूब-खूब बधाइयाँ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2013, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 241

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तुम्हारा जीवन-रथ उत्तर की ओर प्रयाण करे – पूज्य बापू जी


मकर सक्रान्ति, उत्तरायणः 14 व 15 जनवरी

छः महीने सूर्य का रथ दक्षिणायण को और छः महीने बीतते हैं तब देवताओं की एक रात होती है एवं मनुष्यों के छः महीने बीतते हैं तो देवताओं का एक दिन होता है। उत्तरायण के दिन देवता लोग भी जागते हैं। हम पर उन देवताओं की कृपा बरसे, इस भाव से भी यह पर्व मनाया जाता है। कहते हैं कि इस दिन यज्ञ में दिये गये द्रव्य को ग्रहण करने के लिए वसुंधरा पर देवता अवतरित होते हैं। इसी प्रकाशमय मार्ग से पुण्यात्मा पुरुष शरीर छोड़कर स्वर्गादिक लोकों में प्रवेश करते हैं। इसलिए यह आलोक का अवसर माना गया है। इस उत्तरायण पर्व का इंतजार करने वाले भीष्म पितामह ने उत्तरायण शुरू होने के बाद ही अपनी देह त्यागना पसंद किया था। विश्व का कोई योद्धा शर-शय्या पर अट्ठावन दिन तो क्या अट्ठावन घंटे भी संकल्प के बल से जी के नहीं दिखा पाया। वह काम भारत के भीष्म पितामह ने करके दिखाया।

धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन दान-पुण्य, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अत्यंत महत्त्व है। इस अवसर पर दिया हुआ दान पुनर्जन्म होने पर सौ गुना प्राप्त होता है।

यह प्राकृतिक उत्सव है, प्रकृति से तालमेल कराने वाला उत्सव है। दक्षिण भारत में तमिल वर्ष की शुरूआत इसी दिन से होती है। वहाँ यह पर्व ‘थई पोंगल’ के नाम से जाना जाता है। सिंधी लोग इस पर्व को ‘तिरमौरी’ कहते हैं, हिन्दी लोग ‘मकर सक्रान्ति’ कहते हैं एवं गुजरात में यह पर्व ‘उत्तरायण’ के नाम से जाना जाता है।

यह दिवस विशेष पुण्य अर्जित करने का दिवस है। इस दिन शिवजी ने अपने साधकों पर, ऋषियों पर विशेष कृपा की थी।

इस दिन भगवान सूर्यनारायण का ध्यान करना चाहिए और उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘हमें क्रोध से, काम-विकार से, चिंताओँ से मुक्त करके आत्मशांति पाने में, गुरू की कृपा पचाने में मदद करें।’ इस दिन सूर्यनारायण के नामों का जप, उन्हें अर्घ्य-अर्पण और विशिष्ट मंत्र के द्वारा उनका स्तवन किया जाय तो सारे अनिष्ट नष्ट हो जायेंगे और वर्ष भर के पुण्यलाभ प्राप्त होंगे।

ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः।  इस मंत्र से सूर्यनारायण की वंदना कर लेना, उनका चिंतन करके प्रणाम कर लेना। इससे सूर्यनारायण प्रसन्न होंगे, निरोगता देंगे और अनिष्ट से भी रक्षा करेंगे।

उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण के इन नामों का जप विशेष हितकारी हैः ॐ मित्राय नमः। ॐ रवये नमः। ॐ सूर्याय नमः। ॐ भानवे नमः। ॐ खगाय नमः। ॐ पूष्णे नमः। ॐ हिरण्येगर्भाय नमः। ॐ मरीचये नमः। ॐ आदित्याय नमः। ॐ सवित्रे नमः। ॐ अर्काय नमः। ॐ भास्कराय नमः। ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः।

ब्रह्मचर्य से बुद्धिबल बहुत बढ़ता है। जिनको ब्रह्मचर्य रखना हो, संयमी जीवन जीना हो, वे उत्तरायण के दिन भगवान सूर्यनारायण का सुमिरन करें, प्रार्थना करें जिससे ब्रह्मचर्य-व्रत में सफल हों और बुद्धि में बल बढ़े।

ॐ सूर्याय नमः…… ॐ शंकराय नमः….. ॐ गणपतये नमः….. ॐ हनुमते नमः….. ॐ भीष्माय नमः….. ॐ अर्यमायै नमः….

इस दिन किये गये सत्कर्म विशेष फल देते हैं। इस दिन भगवान शिव को तिल-चावल अर्पण करने का अथवा तिल-चावल से अर्घ्य देने का भी विधान । इस पर्व पर तिल का विशेष महत्त्व माना गया है। तिल का उबटन, तिलमिश्रित जल से स्नान, तिलमिश्रित जल का पान, तिल-हवन, तिल-मिश्रित भोजन व तिल-दान, ये सभी पापनाशक प्रयोग हैं। इसलिये इस दिन तिल, गुड़क तथा चीनी मिले लड्डू खाने तथा दान देने का अपार महत्त्व है। तिल के लड्डू खाने से मधुरता एवं स्निग्धता प्राप्त होती है एवं शरीर पुष्ट होता है। शीतकाल में इसका सेवन लाभप्रद है।

यह तो हुआ लौकिक रूप से उत्तरायण अथवा संक्रान्ति मनाना किंतु मकर सक्रांति का आध्यात्मिक तात्पर्य है – जीवन में सम्यक क्रांति। अपने चित्त को विषय-विकारों से हटाकर निर्विकारी नारायण में लगाने का, सम्यक क्रान्ति का संकल्प करने का यह दिन है। अपने जीवन को परमात्म-ध्यान, परमात्म-ज्ञान एवं परमात्मप्राप्ति की ओर ले जाने का संकल्प करने का बढ़िया से बढ़िया जो दिन है वह मकर सक्रान्ति का दिन है।

मानव सदा सुख का प्यासा रहा है। उसे सम्यक् सुख नहीं मिलता तो अपने को असम्यक् सुख में खपा-खपाकर चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है। अतः अपने जीवन में सम्यक् सुख, वास्तविक सुख पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए।

आत्मसुखात् न परं विद्यते।

आत्मज्ञानात् न परं विद्यते।

आत्मलाभात् न परं विद्यते।

वास्तविक सुख क्या है ? आत्मसुख। अतः आत्मसुख पाने के लिए कटिबद्ध होने का दिवस ही है मकर सक्रान्ति। यह पर्व सिखाता है कि हमारे जीवन में भी सम्यक् क्रान्ति आये। हमारा जीवन निर्भयता व प्रेम से परिपूर्ण हो। तिल-गुड़ का आदान-प्रदान परस्पर प्रेमवृद्धि का ही द्योतक है।

सक्रान्ति के दिन दान का विशेष महत्त्व। अतः जितना सम्भव हो सके उतना किसी गरीब को अन्नदान करें। तिल के लड्डू भी दान किये जाते हैं। आज के दिन लोगों में सत्साहित्यक के दान का भी सुअवसर प्राप्त किया जा सकता है। तुम यह न कर सको तो भी कोई हर्ज नहीं किंतु हरिनाम का रस तो जरूर पीना-पिलाना। अच्छे में अच्छा तो परमात्मा है, उसका नाम लेते-लेते यदि अपने अहं को सदगुरु के चरणों में, संतों के चरणों में अर्पित कर दो तो फायदा ही फायदा है और अहंदान से बढ़कर तो कोई दान नहीं। लौकिक दान के साथ अगर अपना आपा ही संतों के चरणों में, सदगुरू के चरणों में दान कर दिया जाय तो फिर चौरासी का चक्कर सदा के लिए मिट जाय।

सक्रांति के दिन सूर्य का रथ उत्तर की ओर प्रयाण करता है। वैसे ही तुम भी इस मकर सक्रान्ति के पर्व पर संकल्प कर लो कि अब हम अपने जीवन को उत्तर की ओर अर्थात् उत्थान की ओर ले जायेंगे। अपने विचारों को उत्थान की तरफ मोड़ेंगे। यदि ऐसा कर सको तो यह दिन तुम्हारे लिए परम मांगलिक दिन हो जायेगा। पहले के जमाने में लोग इस दिन अपने तुच्छ जीवन को बदलकर महान बनने का संकल्प करते थे।

हे साधक ! तू भी संकल्प कर कि ‘अपने जीवन में सम्यक् क्रांति – सक्रान्ति लाऊँगा। अपनी तुच्छ, गंदी आदतों को कुचल दूँगा और दिव्य जीवन बिताऊँगा। प्रतिदिन जप-ध्यान करूँगा, स्वाध्याय करूँगा और अपने जीवन को महान बनाकर ही रहूँगा। त्रिबंधसहित ॐकार का गुंजन करते हुए दृढ़ संकल्प और प्रार्थना फलित होती है। प्राणिमात्र के जो परम हितैषी हैं उन परमात्मा की लीला में प्रसन्न रहूँगा। चाहे मान हो चाहे अपमान, चाहे सुख मिले चाहे दुःख किंतु सबके पीछे देने वाले करूणामय हाथों को ही देखूँगा। प्रत्येक परिस्थिति में सम रहकर अपने जीवन को तेजस्वी-ओजस्वी एवं दिव्य बनाने का प्रयास अवश्य करूँगा।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 217

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