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Prerak Prasang

वह घटना जिसने धर्मदास जी का जीवन ही बदल दिया….


संत कबीर जी मथुरा की यात्रा के लिये निकले बांके बिहारी के पास कबीर जी को एक आदमी दिखा। कबीर जी ने उसको गौर से देखा तो उस आदमी ने भी कबीर जी को गौर से देखा। कबीर जी की आंखो मे इतनी गहराई। कबीर जी की आत्मा मे भगवान का इतना अनुभव कि वह आदमी उनको देखकर मानो ठगा सा रह गया।

कबीर जी ने पूछा क्या नाम है तुम्हारा कहां से आये हो? उसने कहा मेरा नाम धर्मदास है। मैं माधवगढ़ जिला रीवा मध्य प्रदेश का रहने वाला हूँ। तुम इधर कैसे आये? मै यहाँ भगवान के दर्शन करने आया हूँ। कितनी बार आये हो यहां? हर साल आता हूँ। क्या तुम्हे सचमुच भगवान के दर्शन हो गये? तुमको भगवान नही मिले केवल मुर्ति मिली है।

मेरा नाम कबीर है कभी मौका मिले तो काशी आना। ऐसा कहकर कबीर जी तो चले गए। कबीर जी की अनुभव युक्त वाणी ने विलक्षण असर किया। धर्मदास गया तो था बांके बिहारी के दर्शन करने मंदिर मे जाने का अब मन नही कर रहा था। घर वापस लौट आये। लग गये कबीर जी के वचन अब घर मे ठाकुर जी की पूजा करता तो देखता कि अन्तर्यामी ठाकुर जी के बिना ये बाहर के ठाकुर जी की पूजा भी तो नही होगाी और बाहर के ठाकुर जी की पूजा करके शांत होना है अन्तररूपी आत्मरूपी ठाकुर मे। अब मुझे निर्दुख नारायण के दर्शन करने है और वह सदगुरु की कृपा के बिना नही होते। वे दिन कब आएंगे कि मैं सद्गुरु कबीर जी के पास पहुचूंगा।

एक दिन धर्मदास सब छोड़ छाड़ कर कबीर जी के पास पहुंच गये काशी। कबीर जी के पास जाते ही –

धर्मदास हर्षित मन कीन्हा।

बहुर पुरूष मौहे दर्शन दीन्हा।।

धर्मदास का मन हर्षित हो गया जिनको मथुरा मे देखा था काशी मे फिर उन्ही पुरूष के दर्शन हुए।

मन अपने तब कीन विचारा।

इनकर ज्ञान महा टकसारा।।

कबीर का ज्ञान महा टकसाल है। यहाँ तो सत्य की अशरफियाँ बनती हैं अनंत की गिन्नीया बनती है। मै कहाँ अब तक कीमती तिजोरी मे कंकर पत्थर इक्कठे कर रहा था आपका जीवन और आपका दर्शन सच्चा सुखदायी है ये संत अपने सत्संग से दर्शन से सुख शांति और आनंद की गिन्नीया हृदय तिजोरीयो मे भर देते है।

इतना कह मन कीन विचारा।

तब कबीर उन ओर निहारा।।

तब कबीर जी ने धर्मदास की ओर गहराई से देखा ऐसा लगा मानो बिछड़ा हुआ सत् शिष्य गुरुजी को आकर मिला। हर्षित मन से कबीर जी ने कहा आओ धर्मदास पग धारो। आओ धर्मदास अब काशी मे ही पैर जमाओ। मेरे सामने बैठो। चैहुक चैहुक तुम काहे निहारो। टकुर टकुर क्यो मेरे ओर देख रहे हो? धर्मदास हमने तुमको पहचान लिया तुम सत् पात्र हो , सत् शिष्य हो इसलिए मैंने तुमको यह बात कह दी थी। फिर भी तुमने बहुत दिन के बाद मुझे दर्शन दिये। छः महीने हो गये।

कबीर जी ने थोड़ी धर्मदास जी के उपर अपनी कृपा दृष्टि डाली। सत्संग सुना था धर्मदास गदगद हो गये। धन्य धन्य हो गये। सोचा कि मैने आज तक जो रूपयो पैसो के नाम पर नश्वर चीजे इक्कठी की है मै उन्हे खर्च करने के लिए जाऊंगा तो मेरे को समय देना पड़ेगा व्यवस्थापको को संदेशा भेजा गया जो भी मेरी माल सम्पति खेत मकान है गरीबों मे बांट दो भंडारा कर दो शुभ कार्यो मे लगा दो। मै फकीरी ले रहा हूँ।

संत कबीर जी की टकसाल मे मेरा प्रवेश हो गया है ब्रह्मज्ञानी संत मिल गया है। हृदय मेरे आत्मतीर्थ का साक्षात्कार करूंगा । इस सम्पति को सम्भालने या बांटने का मेरे पास समय नही है। मुनिमो ने तो रीवा जिले मे तो डंका बजा दिया कि जिनको भी जो आवश्यकता है ऐसे गुरबे और सात्विक लोग जो सामान की सेवा करते है आश्रम मंदिर वाले वे आकर धन ले जाये। जुटाने के लिए जीवन भर लगा दिया। लेकिन छोङने के लिए मृत्यु का एक झटका काफी है। अथवा छोड़ना ही है तो भर ले जाओ बस इतना ही बोलना है।


कबीर दास जी के चरणो मे धर्मदास लग गये तो लग गये। और अपने आत्मा और परमात्मा के पास अपने आत्मा और परमात्मा के परम सुख को पा गये। धर्मदास सन् 1423 मे जन्मे थे और कबीर जी 120 वर्ष तक धरती पर रहे। कबीर जी का कृपा प्रसाद पाकर लोगो को महसूस कराना है यह राख बन जाने वाले शरीर के लिए है बाहर का है। असली धन तो सद्गुरु का सत्संग है सत्गुरू ने जो भगवान का नाम दिया है और भगवान की शांति और प्रीति है। असली धन तो परमात्म प्रसाद है।

अदभुत थी श्री नारायण देवाचार्य जी की निर्भयता… पढि़ये सुंदर प्रसंग…


जीवन के परम तत्वरूपी वास्तविकता के संपर्क का रहस्य गुरुभक्ति है। गुरु का दास बनना माने ईश्वर का सेवक बनना। जिन्होंने प्रभु को निहारा है और जो योग्य शिष्य को प्रभु के दर्शन करवाते हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं, सद्गुरू हैं। आलसी शिष्य को गुरुकृपा नहीं मिल सकती। राजसी स्वभाव के शिष्य को लोकसंग्रह करनेवाले गुरु के कार्य समझ में नहीं आते।

गुरु की कृपा तो सदा रहती हैं। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा रखनी चाहिए और उनके आदेशों का पालन करना चाहिए। जिस शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा, विश्वास और सदभावना होती है, उसका कल्याण अतिशीघ्र होता है। महापुरुषों के अनुभव का यह वचन जिनके जीवन का अंग बनता है, वे ही गुरुभक्ति के रहस्य को समझकर गुरुतत्व अर्थात ब्रह्म का साक्षात्कार करने का अधिकारी बनते हैं। हमारे शास्त्र इस बात के साक्षी है।

ऐसे ही एक सतशिष्य हो गये श्री नारायण देवाचार्य! उनके अपने गुरु श्री हरिवंश देवाचार्य के प्रति अदभुत निष्ठा थी। गुरुआज्ञा का पालन करने में वे प्राणों तक की बाजी लगाने में संकोच नहीं करते थे। उनके गुरुदेव की आज्ञा थी कि सब प्राणियों में सर्वेश्वर प्रभु का अधिष्ठान जानो, सबसे प्रेम करना, भय किसीसे न करना।

एकबार वे कुछ लोगों के साथ परशुरामपुरी से पुष्करराज जा रहे थे। मार्ग में सिंह के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी। साथी भाग खड़े हुए, परन्तु नारायण देवाचार्य गुरुवाक्य में निष्ठा रखते थे। उन्हें गुरु का आदेश याद था कि सब प्राणियों में सर्वेश्वर प्रभु का अधिष्ठान जानो, सबसे प्रेम करना, भय किसीसे न करना। इसलिए सिंह में भी सच्चिदानंद स्वरूप अपने परमेश्वर, सर्वेश्वर के ही भाव में थे।

वे आगे चलते गये। सिंह के निकट पहुंचे तो देखा कि उसके पैर में तीर चुभा हुआ है। जिसके कारण वह चल नहीं पा रहा है। उन्होंने अपने हाथों से उसका तीर निकाल दिया। सिंह मंत्रमुग्ध सा देखता रहा। नारायण देवाचार्य ने उसके सिर पर हाथ फेरके पुचकारा। पात्र से जल लेकर उसके ऊपर छिड़का और श्री सर्वेश्वर -2 कहते आगे चल दिये।

मार्ग में कुछ शिकारी मिले। बोले महाराज! इधर तो एक सिंह अभी गया है। जिसे हमने तीर मारकर घायल कर दिया है। आप उससे कैसे बच निकले?

आचार्य ने कहा, वह सिंह अब साधु हो गया है। उसका तीर निकालकर मैंने पास के वृक्ष में घोप दिया है। शिकारियों को इसपर विश्वास नहीं हुआ।परन्तु आगे जाकर जब उन्होंने तीर को वृक्ष में लगा देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे लौटकर आये और आचार्य जी के चरणों में गिरकर क्षमा-प्रार्थना की तथा हिंसा वृत्ति त्याग देने का वचन भी दिया।

नारायण देवाचार्य की गुरुवचनों में अटूट निष्ठा और श्रद्धा-विश्वास ने उन्हें गुरुप्रसाद का अधिकारी बना दिया। उन्होंने गुरु की कृपा से आत्मप्रसाद तो पाया ही, साथ ही गुरु का बाह्य उत्तराधिकार भी पाया और आगे चलकर निम्बार्काचार्य पीठाधीश हुये।

आखिर क्यों किया भक्त नंदी ने हलाहल का पान। सुनिए सुना रहे हैं शिव जी…


जो कोई मनुष्य दुखों से पार होकर सुख एवं आनंद प्राप्त करना चाहता हो, उसे सच्चा अंतःकरण से गुरु भक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए। गुरु के पवित्र चरणों के प्रति भक्ति भाव सर्वोत्तम गुण है, इस गुण को तत्परता एवं परिश्रम पूर्वक विकसित किया जाए तो, इस संसार के दुःख और अज्ञान के कीचड़ से मुक्त होकर, शिष्य अखुट आनंद और परमसुख के स्वर्ग को प्राप्त करता है।

कैलाश पर्वत की बर्फीली चोटी, एक पवित्र शिखर पर बाघ अंबर बिछा था, उस पर महादेव शंकर ध्यानस्थ थे।धीरे-धीरे यह ध्यान गहन समाधि में विलीन हो गया। इतने में मलंगी में झूमता हुआ महादेव का परम गण नंदी आया। नंदी ने विचार उठा, किसी उच्च लक्ष्य साधने हेतु मेरे प्रभु समाधि में स्थित है। मुझे भी सहयोग देना चाहिए। दिव्य तरंगों को सघन करना चाहिए। यही विचार कर नंदी ने महादेव शंकर के समक्ष धरा पर एक आसन बिछाया, फिर पद्मासन धारण कर तन को तान कर साधना में बैठ गया। साधना के प्रताप से उसके हृदय का सूक्ष्म तार महादेव की ब्रह्मा चेतना से जुड़ गया । एक तार निर्बाध और अटूट जुड़ाव था। कुछ समय बाद एक अनहोनी घटी। दुष्ट जालंधर जो महादेव से घोर शत्रुता रखता था, वह कैलाश में घुसपैठ कर कर गया। छल-बल से महादेव के भार्या देवी पार्वती का अपहरण करके ले गया। शिवलोक में हाहाकार मच गया। देवगण और शिवगण घोर चिंता से व्याकुल हो उठे। उन्होंने सामूहिक निर्णय लिया कि इस हरण वाली दुर्घटना की सूचना महादेव को दी जाए। परंतु कैसे महादेव तो घन समाधि में लीन थे। गणेश जी ने उन्हें उठाने के भरसक प्रयत्न किए, परंतु विफल ही रहे। भगवान की समाधि तो अतल गहराइयों को छू चुकी थी। ऐसे में क्या करें?

विवेक के देवता गणेश जी को युक्ति सूझी उन्होंने महादेव के परम गण नंदी को साधन बनाया। ध्यान में लीन नंदी के कान में सारी दुर्घटना कह दी। इधर नंदी के कान में सूचना गई, उधर भगवान के नेत्र तुरंत उन्मीलित हो खुल गए। महादेव समाधि से उठ गए। कैसा अद्भुत सूक्ष्म जुड़ाव था भक्त और भगवान का। बस तभी से यह ऐतिहासिक घटना एक आराधना पद्धति या प्रथा के रूप में ले गई। आज अनेक शिव मंदिर इस प्रकार निर्मित है, जिनमें महादेव की मूर्ति के ठीक सामने नंदी की प्रतिमा होती है। भक्तजन अपने मनोकामना नंदी के कान में कहते हैं। मान्यता है कि, यह कामना सीधा भगवान शिव तक संप्रेषित हो जाती है।

अब मन में जिज्ञासा उठती है, भला ऐसा कौन सा गुण है इस शिवगण नंदी में, जो भगवान ने स्वयं को समाधि से उठाने का श्रेय उसे दे दिया।

एक दिन यही जिज्ञासा माता पार्वती के हृदय में दस्तक देने लगी। पार्वती जी ने महादेव जी से पूछा कि, आपको नंदी इतना प्रिय क्यों है?

महादेव जी ने कहा क्योंकि, नंदी में सेवा और भक्ति का दोनों का समन्वय है। उसकी सेवा कर्मों में शौर्यता है, धार है, एक सतत वेग है। उसकी भक्ति आराधना में तप है, समर्पण है, निरंतर सुमिरन है इसलिए नंदी मुझे प्राणवत प्रिय है। प्रभु भक्ति भाव और समर्पण तो आपके सभी भक्तों और गणों में है फिर नंदी के भक्ति में ऐसा क्या विशेष है। जो आपके हृदय को गदगद कर दिया है।

देवी अनेक वर्षों पूर्व की बात है। अपने पिता ऋषि शीलाद के द्वारा, नंदी को यह पता चला कि वह अल्पायु है। समस्या है तो समाधान भी होगा। यही विचार कर नंदी भुवन नदी के किनारे साधना करने लगा। अटूट लगन और एकचित्तता थी उसकी सिमरन में। जब एक कोटी सुमिरन पूर्ण हुए तो मैं प्रकट होकर दर्शन देने को विवश हो गया। हे देवी! जानती हो, यह साधना सुमिरन में इतना निमग्न था कि मुझसे वर मांगना उसे ध्यान ही नहीं था। उसे साधना रत छोड़कर मैं फिर विलीन हो गया। ऐसे ही दो बार और हुआ। तृतीय बार जब मैं प्रकट हुआ तब मैंने ही अपना वरदहस्त उठा कर उसे वर प्राप्ति के लिए प्रेरित किया।

जानती हो देवी तब भी नंदी ने दीर्घायु का वर नहीं मांगा। अपने अखंड साधना का ही फल चाहा। उसकी चाहत ही केवल मेरा सान्निध्य है। महादेव मुझे अपने अलौकिक संगति का वर दो।अपना प्रेम में सानिध्य और स्वामित्व दो, मैं तो दास भाव से आपके संग सदा रहना चाहता हूं | मेरा हृदय अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखता। सरल हृदय से नंदी ने यह भोले भाले वचन कहें।मेरा हृदय द्रवित हो उठा, मैंने प्रसन्न होकर उसे अपना अविनाशी वाहन और परम गण घोषित कर दिया।

मां पार्वती कहती है कि, किंतु वाहन ही क्यों कोई अन्य भूमिका क्यों नहीं? देवी वाहन का समर्पण अद्वितीय होता है। नंदी का मन इतना समर्पित है कि मैं सदा उस पर आरूढ़ रहता हूं। अर्थात उसके मन पर आरूढ़ रहता हूं, उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई मति, कोई आकांक्षा नहीं। नंदी मेरी इच्छा, मेरी आज्ञा, मेरी आदर्शों का वाहक बन गया है इसलिए वह मेरा वाहन है।

ऊपरी लिखित संवाद बड़ा ही गहरा सूत्र हमें दे रहा है। बहुत से साधक को प्रश्न होता है, मन में समर्पण कैसे आता है? स्वयं भगवान शिव जी समझा रहे हैं, साधना और समर्पण का अटूट नाता है, जितनी साधना और सुमिरन होगा उतना ही मन अपनी ठोसता छोड़ता चला जाएगा। लचीला अर्थात समर्पित होता जाएगा। शिष्य के ऐसे ही समर्पित मन पर सतगुरु की आज्ञा आरूढ़ होती है। ऐसा ही शिष्य अपने सद्गुरु का वाहन बन पाता है। अर्थात उनकी आज्ञा का वाहन, उनकी छांव का वाहन, उनकी सिद्धांतों का वाहन बन जाता है।

माता पार्वती कहती है कि सत्य है प्रभु नंदी की भक्ति, साधना और समर्पण तो अनुपम है। अब उसकी शौर्य और कर्म की भी तो विशेषता बताइए। मैं जानने को उत्सुक हूं।

महादेव जी कहते हैं, तुम्हें स्मरण है देवी! समुद्र मंथन कि वह असाधारण बेला,समुद्र को मथते-मथते निकला हलाहल विष संसार के प्राण के लिए हमें उसका पान करना पड़ा परंतु विषपान करते हुए विष की कुछ बूंदे धरा पर गिर गई। इन बूंदों के कुप्रभाव से पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी। तभी मेरे नंदी ने अपने जिह्वा से उन विष बिंदुओं को चाट लिया। यह ना सोचा कि मेरा क्या होगा?

देवों ने व्यग्र होकर कारण पूछा। नंदी तुमने ऐसा क्यों किया?

नंदी ने कहा मेरे स्वामी ने प्याला भर विषपान किया। क्या मैं सेवक होकर कुछ बूंदे सेवा में ग्रहण नहीं कर सकता क्या? जगत के त्राण और कल्याण में क्या इतना भी सहयोग नहीं दे सकता। सो ऐसा है नंदी का कर्म, शौर्य, नंदी की अतुलनीय सेवा निष्ठा, सच्चे सेवक, शिष्य के यही लक्षण होते हैं कि गुरु के देवी कार्य में वह संघर्षों का विष पीता है। गुरु के मान के लिए विरोधी परिस्थितियों के हलाहल को पीने से भी नहीं चूकता।अपने स्वामी अपने गुरुदेव के लक्ष्य को पूर्ण करने में पूरा पूरा सहयोग देता है। हम भी नंदी जैसे परम शिष्य बने, कर्म और भक्ति की, सेवा और साधना की मिसाल बने।