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Prerak Prasang

संतन के कारज सगल सवारे


भक्तमाल में बीठलदास जी की कथा आती है । बीठलदास का संत-सेवा में बड़ा अनुराग था । उन्हें भगवत्कृपा पर पूरा भरोसा था । उसी के बल पर वे अच्छे-अच्छे धनिकों की भी खुशामद नहीं करते थे  और ईश्वर की कृपा से उनकी संत-सेवा भी चलती रहती थी ।

एक बार धन के मद में चूर एक सेठ को बीठलदास जी ने डाँट दिया और वह नाराज होकर चला गया । कुछ समय बाद बीठलदास जी के यहाँ होने वाले वार्षिक महोत्सव का समय आया । उसमें वह सेठ पहले पूरी-पूरी सहायता देता था किंतु इस बार झाँका तक नहीं । ‘महोत्सव में आने वाले संतों को बिना भोजन-प्रसाद के ही वापस जाना पड़ेगा और बीठलदास जी की बड़ी बदनामी होगी….’ इस प्रकार की चिंता बीठलदास जी के नजदीकी लोगों को सुखाय जा रही थी लेकिन बीठलदास जी निश्चिंत थे । वे कहते- ‘प्रभु जो करेंगे, अच्छा ही करेंगे ।’

नश्वर सहारों को जो तुच्छ समझते हैं और परमात्मा को अपना सर्वस्व मानते हैं ऐसे भक्तों का कार्य प्रभु स्वयं सँभाल लेते हैं ।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब में आता हैः

अंगीकारु कीओ प्रभु अपुने भवनिधि पारि उतारे ।।

संतन के कारज सगल सवारे ।

दीन दइआल क्रिपाल क्रिपा निधि पूरन खसम हमारे ।।

‘प्रभु सेवकों का पक्ष लेते हैं और उन्हें संसार-सागर से पार उतारते हैं । हे भाई ! हमारा स्वामी दीनदयालु है, कृपालु है, कृपा का भंडार है, पूर्ण है और संतजनों के समस्त कार्य सँवार देता है ।’

बीठलदास जी की ऐसी निष्ठा देख भगवान रह न सके । वे वैश्य-वेश में आये और 300 सोने की अशर्फियाँ बीठलदास जी को देते हुए बोलेः “महाराज ! मैं एक परदेशी बनिया हूँ । भगवान ने मुझे स्वप्न देकर बतलाया है कि आपके इस महोत्सव में सहायता देने वाले अभिमानी सेठ ने अब आना-जाना भी बंद कर दिया है । अतः मैं यह धन आपकी सेवा में अर्पण करना चाहता हूँ ।”

बीठलदास जी ने अशर्फियाँ ले लीं ।

वैश्य-वेशधारी भगवान बोलेः “भक्तवर ! मुझे प्यास लगी है, थोड़ा सा जल तो पिलाइये ।” बीठलदास जी जल लेकर लौटे तब तक भगवान अंतर्धान हो चुके थे । उन्होंने इधर-उधर देखा पर कहीं कुछ पता न चला । अब उन्हें समझ में आया कि भक्तवत्सल भगवान ही इस रूप में आये थे ।

धूमधाम से महोत्सव हुआ । संतों को बड़े आदर-सत्कार के साथ भोजन कराया गया ।

सेठ को विश्वास था कि इस बार महोत्सव तो होगा ही नहीं किंतु जब उसने इतनी चहल-पहल देखी और अशर्फियों वाली घटना सुनी तो दंग रह गया ! वह बीठलदास जी के चरणों में आकर पड़ गया और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी ।

‘मैं सेवा नहीं करूँगा तो यह कार्य रुक जायेगा ।’ सेठ की ऐसी मान्यता छूटी और उसकी मति में प्रकाश हुआ कि ‘भक्तों-संतों के दैवी कार्य तो परमात्मा स्वयं सँभालते हैं । उनमें सहभागी बनकर अपना जीवन धन्य करने का अवसर मिलना यह तो अपने लिए ही परम सौभाग्य की बात है ।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 9 अंक 321

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माया ऐसी मोहिनी, जैसी मीठी खाँड़


एक नगर में धंदतु नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे । एक बार वहाँ नट ने आकर खेल दिखाया । सेठ का इकलौता पुत्र इलायती कुमार उस नट की लड़की के रूप पर आसक्त हो गया और उससे विवाह करवाने के लिए उसने सेठ से निवेदन किया । सेठ ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना । बेटे की हठ देख सेठ ने भगवान से प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! अब तू ही ऐसी कुछ कृपा करना कि मेरे बेटे का भला हो ।’

ईश्वर पर विश्वास रख से सेठ निश्चिंत हो गये और विवाह-प्रस्ताव लेकर नट के पास पहुँचे । नट को सारी बात बतायी तो वह बोलाः “सेठ जी ! आपका बेटा 12 वर्ष नटविद्या सीखकर जब तक किसी राजा से पुरस्कृत न हो जाय तब तक मैं अपनी बेटी का विवाह उससे नहीं कर सकता ।”

कामासक्त युवक लोक-लज्जा छोड़ के उस नट के साथ रह के नटविद्या सीखने लगा । 12 वर्ष में वह नटविद्या में निपुण हो गया ।

एक दिन वह काशी के राजा के दरबार में अपनी कला दिखा रहा था । उसकी कला राजा को इतनी तो भायी कि खेल पूरा होने के पहले ही राजा ने पुरस्कार की घोषणा कर दी । युवक एक बहुत बड़े स्तम्भ पर चढ़ के कला दिखा रहा था । उसी समय दरबार में एक चित्ताकर्षक आवाज सुनाई दीः “भिक्षां देहि ।”

दासी एक बड़े थाल में सामग्री लेकर महात्मा को देने पहुँची तो उन्होंने कहाः “मुझे तो अपनी भूख के अनुसार थोड़ा ही भोजन चाहिए ।”

दासी आग्रह कर रही थी तथा संत मना कर रहे थे । संत के मधुर वचन इलायती कुमार के कानों में पड़े तो वह उनकी ओर देखने लगा । संत ने एक मीठी दृष्टि उस पर डाल दी ।

संतकृपा व सेठ की प्रभु-प्रार्थना के प्रभाव से सेठपुत्र को विचार आया कि ‘ये संत बार-बार आग्रह करने पर भी स्वादिष्ट राजवी मिष्ठान्नों में भी आसक्त नहीं हो रहे हैं और मैं आसक्तिवश यह कामना लिए बैठा हूँ कि इस नटनी के साथ मेरा विवाह हो जाय, धिक्कार है मुझे ।

वह तुरंत ही खम्भे से नीचे उतरा और उन महापुरुष के चरणों में पड़ गया ।

नट ने आकर इलायती कुमार से कहाः “अब मैं तैयार हूँ अपनी बेटी से विवाह करवाने को ।”

संत-दर्शन से सेठपुत्र का मन बदल चुका था । वह बोलाः “तेरी लड़की एक साधारण नटनी है, जिसकी आसक्ति में फँसकर मैं 12 साल से बंदर की तरह नाच रहा हूँ परंतु यह मायारूपी नटनी तो कितने ही जन्मों से नचा रही है और समस्त त्रिलोकी को नचा रही है । अब मैं इसके खेल से पार होने के लिए इन महापुरुष की शरण में ही रहूँगा ।”

मायारूपी नटनी के खेल से पार होने के लिए संत कबीर जी ने कहा हैः

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खाँड़1

सतगुरु की किरपा भई, नातर2 करती भाँड़3 ।।

1 अपरिष्कृत शक्कर 2 नहीं तो 3 मसखरा, जोकर

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 20 अंक 321

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नादानों की नादानी और संत की करुणा


भक्त कोकिल साँईं वृंदावन में निवास करते थे । एक बार वे अयोध्या जा रहे थे तो एक सज्जन ने उन्हें बताया कि “कानपुर में मेरे एक मित्र रहते हैं । आप उनके घर अवश्य जाना । वे कानपुर के आगे आपको जहाँ भी जाना होगा वहाँ की हर व्यवस्था कर देंगे ।” इतना कहकर उन्होंने मित्र के नाम एक पत्र लिख के दिया । कोकिल जी वहाँ गये और उस व्यक्ति को पत्र दिया । उस व्यक्ति का स्वभाव जरा बिगड़ गया था । पत्र पढ़ते ही वह आग बरसाते हुए बोलाः “जान न पहचान, हमारे मित्र बन गये ! जाओ-जाओ ! मैं कोई बंदोबस्त नहीं करता । मेरे पास तुम्हारे बैठने के लिए भी कोई जगह नहीं है ।”

इतना सुनकर भी कोकिल जी बड़े सहज और शांत भाव से उसके घर के सामने जो चबूतरा था, उस पर बैठ गये और अपने साथियों एवं सेवकों से सत्संग-भगवच्चर्चा करने लगे ।

आधे घंटे के बाद उन्होंने एक सेवक से कहाः “जाओ, उनके यहाँ से एक गिलास पानी माँग लाओ ।”

सेवक बोलाः “महाराज ! उस व्यक्ति ने आपका इतना अपमान किया फिर भई आप उसी के घर से जल लाने को भेजते हैं !”

“तुम मेरी आज्ञा मानकर जाओ और पानी ले आओ ।” सेवक पानी ले आया ।

अन्य सेवकों ने पूछाः “महाराज ! आपने ऐसा क्यों किया ?”

उन्होंने कहाः “देखो भाई ! हम उनके यहाँ अतिथिरूप से आये । उन्होंने न हमें बैठाया, न खिलाया, न मीठी वाणी ही बोले । इससे उनके अनिष्ट की आशंका है । इसलिए हमने उनके यहाँ से पानी मँगवाया । पूज्य का अनादर और अपूज्य की पूजा होने से अनिष्ट अवश्यम्भावी है ।”

शास्त्र कहते हैं-

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते ।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम् ।।

‘अपूजनीय व्यक्तियों का जहाँ आदर, सम्मान, पूजा होती है और पूजनीय व्यक्तियों का जहाँ पूजन नहीं किया जाता, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु और भय – ये तीनों संकट अवश्य आते हैं ।’ (शिव पुराण, रूद्र संहिता, सती खंडः 35.9)

अज्ञानी लोगों को भले अपने मनुष्य जीवन की कद्र न हो, अज्ञानवश वे भले उसका ऐसे सर्वनाश करने से हिचकिचाते न हों लेकिन संत तो जानते हैं कि इस जीवन को इस तरह नष्ट नहीं किया जा सकता । प्राणिमात्र के सच्चे हितैषी शास्त्र, संत एवं मनीषीगण ऐसे लोगों को सावधान करते है कि संतों और भक्तों की अवहेलना करने वाले हो नादानो ! हो सके तो संतों-महापुरुषों के दैवी कार्यों में सहभागी होकर अपना भाग्य बना लो और उनके दिखाये मार्ग का अनुसरण करके अपना कल्याण कर लो लेकिन यह न कर सको तो संत-निंदा या संत-अवहेलना करके कम से कम दरिद्रता, मृत्यु और भय के भागी तो मत बनो । याद रखो, संत तो शायद माफ कर दें किंतु प्रकृति देवी संतों-भक्तों की निंदा या अनादर करने वालों को जल्दी माफ नहीं करती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 321

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