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Prerak Prasang

….और यह जीव मुक्त हो जाता है – पूज्य बापू जी


तुम्हारे जो प्राण चल रहे हैं उनको अगर तुमने साध लिया, प्राण-अपान की गति को सम करने की कला सीख ली तो तुम्हारे लिए स्वर्गीय सुख पाना, आत्मिक आनंद पाना, संसार में निर्दुःख जीना आसान हो जायेगा । वाहवाही होने पर भी निरहंकारी रहना आसान हो जायेगा । निंदा होने पर भी निर्दुःख रहना, स्तुति होने पर भी चित्त में आकर्षणरहित दशा रहना, चित्त की समता और आत्मिक साम्राज्य का अनुभव करना तुम्हारे लिए सरल बन जायेगा ।

एक दृष्टांत है । एक सम्राट को अपने वजीर पर गुस्सा आया और उसने वजीर को कैद की सज़ा सुना दी ।  उसे ऊपर मीनार पर छोड़ दिया और नीचे से सीढ़ी हटा दी ।

वजीर की स्त्री साध्वी थी । वह पतिव्रता स्त्री चुपचाप रात्रि को वहाँ आयी और पूछाः “मैं आपकी क्या मदद करूँ ?”

वजीरः “देख प्रिये ! तू अगर मुझे इस मीनार से जिंदा बचाना चाहती है तो कल रात्रि को रेशम का एक पतला सा धागा, थोड़ा मजबूत सूती धागा, नारियल की रस्सी, एक मोटा रस्सा, थोड़ा सा शहद और एक कीड़ा ले आना ।”

पत्नी को समझ में तो नहीं आया लेकिन पति-आज्ञा मानकर दूसरे दिन वह सामान ले आयी ।

पतिः “यह जो जन्तु है, इसकी मूँछों पर जरा सा शहद लगा दे और पीछे पतला धागा बाँध दे और ऊपर की ओर दिशा करके दीवार पर छोड़ दे ।”

पत्नी ने वैसा ही किया तो शहद की खुशबू-खुशबू में वह कीड़ा ऊपर की ओर चल पड़ा और मीनार के ऊपर पहँच गया ।

पतला धागा वजीर तक पहुँच गया । उसके सहारे सूती धागा खींच लिया । उसके सहारे नारियल की रस्सी खींच ली, फिर उससे रस्सा खींच लिया और रस्से से उतर के वजीर मुक्त हो गया । ऐसे ही हम अगर भवबंधन से पार होना चाहते हैं तो एक सुंदर उपाय हैः

दायें नथुने से श्वास लिया और बिना रोके बाये से छोड़ा फिर बायें से लेकर दायें से छोड़ा अर्थात् अनुलोम-विलोम प्राणायाम किये । ऐसा करने से नाड़ी शुद्धि होती है, जिससे शरीर तंदुरुस्त रहता है । लेकिन शरीर तंदुरुस्त रखना ही हमारा लक्ष्य नहीं है । अगर तंदुरुस्ती ही मानव जीवन का लक्ष्य होता तो पशु मानव से ज्यादा तंदुरुस्त मिलेंगे । वटवृक्ष 5-5 हजार वर्ष के दीर्घजीवी मिलेंगे । तन की तंदुरुस्ती के साथ मन की एकाग्रता भी अनिवार्य है और मन की एकाग्रता के साथ ‘एक तत्त्व’ का ज्ञान होना भी जरूरी है ।

त्रिकाल संध्या में 8-10 अनुलोम-विलोम प्राणायाम किये तो एकाध महीने में नाड़ियों का शोधन हो जाता है । वात-पित्त-कफ के दोषों से ही रोग होते हैं । आलस्य, उदासी आदि भी इन्हीं के कारण आते हैं । अगर नाड़ी शोधन प्राणायाम किये तो नाड़ी शुद्धि होगी और दोष मिटेंगे । यह समझो रेशम का धागा ले आना है । जीभ तालू में लगाओ तो आपके मस्तिष्क के दोनों भाग संतुलित होने लगते हैं और दृढ़ निष्ठा, सर्जनात्मक प्रवृत्ति व ठोस कार्य करने की क्षमताए आती हैं । यह मानो नारियल की रस्सी का हाथ लगना है । इससे मजबूत क्या ? कि दृढ़ विचार । यह मजबूत रस्सा है । फिर सद्गुरु  के वेदांत ज्ञान के दिव्य विचार से दिव्य तत्त्व में स्थिति हो जाती है और यह जीव मुक्त हो जाता है ।

तो हजार उपदेश हम सुना दें, युक्तियाँ और शास्त्रों आदि के उद्धरण देकर किसी सिद्धान्त को हम पुष्ट कर दें और आप स्वीकार कर लो लेकिन पूर्ण तत्त्व का, जीवनमुक्ति का साक्षात्कार तब तक नहीं होगा जब तक आपने अपने-आप पर कृपा नहीं की । और अपने आप कृपा करना यह है कि हृदय की उदारता, विशालता, प्राणीमात्र में अपने परमात्मा को निहारने की क्षमता विकसित करें और अखिल ब्रह्माण्ड में एक जो हरि है उस हरि तत्त्व में अपने देहाध्यास को, अपने तुच्छ ‘अहं-मम्’ को डुबा दें । और बिना साधन-भजन के, बिना विवेक विचार के यह सम्भव नहीं है । तो विवेक विचार करने की ज्ञानतंतुओं की क्षमता बढ़ाने के लिए भी प्रतिदिन आश्रम आकर अथवा जहाँ अनुकूल पड़े, जहाँ साधन ठीक से हो ऐसी जगह पर साधन-भजन, सत्संग-श्रवण आदि में समय बिताना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 316

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यह भी अपने-आप में बड़ी सिद्धि है


कार्य की सफलता उद्यम से होती है । जो प्रयत्नशील एवं उद्यमशील रहता है उसी के कार्य सिद्ध होते हैं, आलसी के नहीं । जंगल का राजा होने के बाद भी सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते, उसे भी उद्यम करना पड़ता है ।

जर्मनी में जोजफ बर्नडार्ड नामक एक युवक था, जो बचपन में इतना भोंदू था कि उसे पढ़ाने के लिए माता-पिता ने उसको कई स्कूलों में भर्ती कराया, कई योग्य शिक्षक नियुक्त किये पर वह बुद्धु ही रहा ।

एक दिन दुःखी माता-पिता ने क्रोध में आकर उससे कहाः “अरे मूर्ख ! तेरे जैसे निकम्मे के स्थान पर हम लोग कोई पिल्ला पाल लेते तो अच्छा था ।”

ये शब्द बर्नडार्ड को चुभ गये । उसने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं निकम्मेपन के इस दाग को धोकर ही रहूँगा !’

उसने अपनी सारी शक्ति अध्ययन में केन्द्रित कर दी । उसकी लगन, जोश व निश्चय-बल का परिणाम यह हुआ कि वह मूर्ख बालक नौ-नौ भाषाओं का ज्ञाता बन गया ।

उसने ऐसी विलक्षण क्षमता अपने भीतर पैदा कर ली कि जब वह पार्लियामेंट में आया तो 9-9 भाषाओं में बोलता और लिखता था । उसकी क्षमता 9 व्यक्तियों के बराबर हो गयी, जिसे देखकर लोग दंग रह जाते थे ।

यह तो कुछ भी नहीं, हमारे देश में ऐसे अगणित उदाहरण इतिहास प्रसिद्ध हैं । महामूर्ख किशोर को सत्संग मिला और लग गया उसके अनुसार पुरुषार्थ करने तो वही आगे चलकर महान संत श्रीधर स्वामी के नाम से सुविख्यात हो गये । जिस डाली पर बैठा है उसे ही काट रहा है – ऐसा युवक पुरुषार्थ में लग गया और वही समय पाकर महान विद्वान एवं महाकवि कालिदास जी के नाम से प्रसिद्ध हो गये । जगतपति को प्रकट करने व अटल पद पाने के पीछे ध्रुव का पुरुषार्थ ही तो था !

मनुष्य जब तक स्वयं उठने की चेष्टा नहीं करता तब तक वह निकम्मा ही रहता है । यदि उसका सोया हुआ आत्मबल जाग जाय तो ऐसी कौन-सी मंजिल है जो वह नहीं पा सकता !

उद्यमी को देखकर भाग्यहीनता डर के भाग जाती है । उद्यमी चट्टान में भी राह बना लेता है । उद्यम करने पर भी कभी ध्येय सिद्ध न हो तो भी उदा नहीं होना चाहिए क्योंकि पुरुषार्थ अथवा प्रयत्न स्वयं ही एक बड़ी सिद्धि है । अतः जीवन में पुरुषार्थ होना चाहिए । और हमारा पुरुषार्थ सुफलित हो इसके लिए जरूरी है कि वह संत व शास्त्र सम्मत हो ।

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “जो उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम का अवलम्बन लेता है उसको अंतर्यामी परमेश्वर पद-पद पर सहायता करते हैं । उद्यमी और श्रमशील लोगों को ही श्री और सुख प्राप्त होते हैं । देवता भी आलस्यरहित, उत्साही, श्रमशील लोगों की ही सहायता करते हैं । जो चलचित्र देखता है है, अपने समय शक्ति खोता है या आलसी होकर बैठा रहता है उसका भाग्य भी बैठा रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका भाग्य भी उठ खड़ा होता है । जो सोया पड़ा रहता है उसका भाग्य भी सोया पड़ा रहता है । जो आगे बढ़ता है उसका भाग्य भी आगे बढ़ता है । अतः सुयोग्य संग, सुयोग्य पुरुषार्थ और ऊँचा उद्देश्य (परमात्मप्राप्ति), ऊँचा संग-सत्संग सर्वांगीण विकास की कुंजी है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 8 अंक 315

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माँ ! यह गाय तुम्हारा बालक होती तो ?


सावली गाँव (जि. वडोदरा, गुजरात) के एक गरीब घर का बालक था चूनीलाल । उसके घर एक गाय थी । चूनीलाल की माँ घर का सब काम करती, फिर दूसरों के घरों में भी काम करने रोज जाती । इससे गाय की देखभाल के लिए समय नहीं मिलता था ।

एक दिन माँ ने घर में कहाः “अपना गुजारा मुश्किल से होता है तो फिर गाय को कहाँ से खिलायें ? गाय माता भूखी रहेगी तो हमें ही पाप लगेगा । मुझे यह बात हृदय में खटकती है । इससे तो अच्छा हम इसे किसी सेवाभावी व्यक्ति को बेच देते हैं ।”

यह सुन चूनीलाल ने कहाः “माँ ! यह गाय तुम्हारा बालक होती तो ?”

माँ- “अरे चूनिया ! हमारे पास गाय को बाँधने के लिए अलग  जगह नहीं है । उसके लिए खरीदकर घास भी नहीं ला सकते हैं । गोबर मूत्र से रास्ता बिगाड़ता है । इसी कारण रोज गाँववालों की खरी-खोटी बातें सुननी पड़ती हैं । बिना विचारे बात मत किया करो ।”

चूनीलाल ने विनम्र भाव से कहाः “माँ ! गाय की देखरेख मैं करूँगा, उसके लिए घास भी ले आऊँगा । फिर अपनी पढ़ाई भी ठीक से करूँगा । उसमें जरा भी कमी नहीं आने दूँगा । बोल माँ ! अब तो गाय को नहीं बेचोगी न ? गाय तो हमारी माता कहलाती है । उसकी तो पूजा करनी चाहिए ।”

“बोलना आसान है किंतु पालन करना कठिन ! देखती हूँ तू गाय की कैसे देखभाल करता है । तू बोला हुआ करके बता तो सही ।”

दूसरे दिन चूनीलाल ने गोबर मूत्र से खराब हुआ रास्ता साफ करके वहाँ सूखी मिट्टी डाल दी निकट के कालोल गाँव में सब्जी आदि लेकर आस-पास के गाँवों से बैलगाड़ियाँ आती थीं । उनके बैलों के खाने से बची हुई अच्छी-अच्छी घास इकट्ठी करके चूनीलाल गाय के लिए रोज ले जाता । कभी दोस्तों से अनुमति लेकर उनके खेत के किनारे उगी घास काट के गाय को ताजी, हरी घास से प्रेम से खिलाता । वह पढ़ाई में भी आगे रहता था ।

यह सब देख माँ मन-ही-मन बहुत प्रसन्न होती, सोचतीः “आखिर चूनिया ने वचन का पालन कर ही लिया ।”

जीवों के प्रति दयाभाव, वचन पालन में दृढ़ता, पुरुषार्थ, विनम्रता, ईश्वरभक्ति आदि सदगुणों ने बालक चूनीलाल को सदगुरु के पास पहुँचा दिया और सदगुरु-निर्दिष्ट मार्ग पर चल के उन्होंने महानता की ऊँचाइयों को पाया तथा ‘पूज्य मोटा’ के नाम से विख्यात हुए, जिनके नड़ियाद और सूरत में मौन-मंदिर, आश्रम चल रहे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 25 अंक 315

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