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Prerak Prasang

रूप-लावण्य को त्यागा, भक्ति को पाया-पूज्य बापू जी


दक्षिण भारत में एक कन्या हो गयी । बाल्यकाल में ही उसके माँ-बाप मर गये थे । एक कवि ने उसे पाला-पोसा । जब वह 16  वर्ष की हुई तो उसके धर्म के माता-पिता उसके विवाह की बात चलाने लगे । जितनी वह रूपवान थी,  उतनी समझदार और चरित्रवान भी थी । उसने भगवान को प्रार्थना कीः ‘मेरे रूप-लावण्य के कारण इनके यहाँ मेरी माँग आ रही है । मैं इनको विवाह न कराने की प्रार्थना करती हूँ फिर भी ये कहते हैं कि “कन्या का तो आखिर ससुराल जाना जरूरी है इसलिए तुम्हारा विवाह कराना हमारा कर्तव्य है ।”

हे परमेश्वर ! क्या यह मेरा रूप-लावण्य मुझे संसार की दलदल में घसीट ही लेगा ? हे भगवान ! तू मेरी रक्षा कर । मेरा रूप ऐसा तो कुरुप कर दे कि अगर कोई लड़का मुझे देखा तो मुँह मोड़ ले । कोई संसारी मुझे भोग-विकार की एक सामग्री मानकर अपनी भोग्या, खिलौना न बनाये । मेरा जीवन संसार में न घसीटा जाय । तुम मेरा ऐसा रूप नहीं बना सकते प्रभु ! ‘कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।’ है – तू करने में, न करने में और अन्यथा करने में भी समर्थ है । तेरे संकल्प से तो सृष्टि में उथल-पुथल हो सकती है तो क्या तू मेरे इस सौंदर्य को उथल-पुथल करके कुरूप नहीं कर सकता है ?’

एक रात में क्या से क्या हो गया !

एक रात को कातरभाव से प्रार्थना करते-करते वह कन्या सो गयी । वह 16 वर्ष की सुन्दरी सुबह को एकाएक काली-कलूट अधेड़ उम्र की एक महिला के रूप में नींद से उठी । आईना देखा तो बड़ी खुश हुई कि ‘हे जगतपिता ! तुमने मेरी प्रार्थना सुन ली । अब मैं काम के खड्डे में नहीं गिरूँगी बल्कि राम के रस में सराबोर हो जाऊँगी । यह तुम्हारी कृपा है ।’

धर्म के माता-पिता ने देखा तो आश्चर्यचकित हो गयेः “बेटी ! क्या हो गया तुझे ?”

उसने कहाः “क्या हो गया…. ईश्वर का कोप नहीं हुआ है, यह उसकी कृपा मैंने उससे माँगी है । वह शरीर किस काम का जो किसी युवक को मुझे अपनी भोग्या मानने का अवसर दे । नहीं, नहीं…. मैं किसी की भोग्या नहीं, मैंने तो भगवान की योगिनी बनने के लिए भगवान से इस रूप की माँग की ।”

जब पड़ोसियों ने यह बात जानी तो उसका बड़ा आदर किया कि ‘तू धन्य है ! रूप-लावण्य को त्यागकर असली सौंदर्य और भक्तियोग की भगवान से भिक्षा माँग ली ।’

वह कन्या भगवद्भजन में लग गयी । वह बाहर से तो कुरूप थी लेकिन अंदर का उसका आत्मिक रूप गजब का था । उसने कुछ दिन एकांत में मौन रहकर ध्यान, जप किया । उसके रक्त के कण, नस, नाड़ियाँ पवित्र हुईं, बुद्धिशक्ति में विलक्षण लक्षण प्रकट होने लगे ।

वह कन्या संत अव्वैयार के नाम से प्रसिद्ध हुई । लोग उसके दर्शन करने आते और उसके चरणों में प्रसाद धरते, मनौतियाँ मानते और लोगों की मनौतियाँ पूरी होने लगीं । उस संत बाई ने जो प्रवचन किया, लोगों को जो उपदेश दिया उसके ग्रंथ बने हैं । वह कहती थी कि ‘शरीर यानी पानी का बुलबुला और धन-सम्पदा यानी समुद्र की तरंगे ।’ यह शास्त्रवचन मानो उसके सत्संग का एक मूल बिंदु हो जाता थाः

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।।

नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः । (गरुड़ पुराणः धर्म काण्ड – प्रेत कल्पः 47.24-25)

यह शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है और मौत रोज शरीर के निकट आ रही है, आयुष्य क्षीण हो रहा है । कर्तव्य है कि धर्म का संग्रह कर लें, भक्तियोग, जपयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग का संग्रह कर लें और श्रेष्ठ गुरुओं के अनुभवों को अपना अनुभव बनाने वाली मति का विकास करके उनके अनुभव का संग्रह कर लें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 21, 25 अंक 314

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असम्भव-से कार्य भी हो जाते हैं सम्भव, कैसे ?


सन् 1809 में फ्रांस में एक बालक का जन्म हुआ, नाम रखा गया लुई । एक दिन खेल-खेल में उसकी आँख में चोट लग गयी और एक आँख की रोशनी चली गयी । कुछ दिनों के बाद उसकी दूसरी आँख भी खराब हो गयी । उसका दाखिला दृष्टिहीनों के विद्यालय में करा दिया गया । वहाँ उसे कागज पर उभरे हुए कुछ अक्षरों की सहायता से पढ़ना सिखाया गया । लुई ब्रेल को इसमें अधिक समय लगा और काफी असुविधा हुई । अतः उसने निर्णय लिया कि वह एक ऐसी नयी लिपि का आविष्कार करेगा जिसके द्वारा कम परिश्रम और कम समय में हर दृष्टिहीन व्यक्ति अच्छी प्रकार से साक्षर हो सके ।

समय बीतता गया । वह कभी-कभी प्रयास करता लेकिन विफल हो जाता । वह सोचता कि ‘जीवन बहुत लम्बा है । आज नहीं तो कल मैं सफल हो जाऊँगा ।’ एक रात उसे स्वप्न दिखाई दिया कि उसकी मृत्यु हो गयी है और लोग उसे दफनाने के लिए ले जा रहे हैं । अचानक उसकी आँख खुल गयी । उसका चिंतन तुरंत सक्रिय हो गया । उसे इस बात का बहुत दुःख हुआ कि इतना समय व्यर्थ में ही चला गया । यदि इस अवधि में वह पूरी लगन से, गम्भीतापूर्वक प्रयास करता तो अब तक कोई नयी लिपि विकसित करने में सफल हो सकता था ।

उसने संकल्प किया कि ‘अब तक मैंने समय की नालियों में बहने वाले पानी की तरह व्यर्थ जाने दिया है लेकिन अब मैं एक-एक क्षण का सदुपयोग करूँगा ।’ और इसे मन ही मन दोहराकर उसने एक महीने की अवधि निश्चित की और तत्परतापूर्वक अपने कार्य में जुट गया ।

जो समय का सम्मान करता है, समय उसी को सम्मानित बना देता है । एक माह की अवधि में उसने ऐसी लिपि का विकास कर दिया जिसके द्वारा आज असंख्य नेत्रहीन लोग शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं । बाद में ब्रेल ने उस लिपि को और भी उन्नत किया । आज वह लिपि ‘ब्रेल लिपि’ के नाम से विश्वप्रसिद्ध है ।

एकाग्रता, लगन, समय का सदुपयोग और देहाध्यास भूलकर व्यापक जनहित के लिए सत्प्रयास – ये ऐसे सदगुण हैं जो ईश्वरीय सहायता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और जहाँ ईश्वरीय सहायता उपलब्ध हो जाती है वहाँ देश-काल-परिस्थिति की सुविधा असुविधा तथा शरीर, मन, बुद्धि की योग्यताओं की सीमाएँ लाँघकर असम्भव लगने वाले कार्य भी सम्भव हुए दिख पड़ते हैं । लुई ब्रेल को निष्काम सेवाभाव के साथ यदि किन्हीं वेदांतनिष्ठ सद्गुरु के द्वारा उस अनंत शक्ति-भण्डार परमात्मा के स्वरूप का कुछ पता भी मिल जाता तो शायद यह अंध लोगों के क्षेत्र में मात्र एक सामाजिक कार्यकर्ता न रहता अपितु संत  सूरदास जी की तरह अपना ज्ञान नेत्र खोलकर दूसरों के लिए भी आध्यामिक प्रकाशस्तम्भ बन सकता था ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 18 अंक 314

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आज्ञापालन एवं एकनिष्ठा का प्रभाव


ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का आज्ञापालन, उनके प्रति एकनिष्ठा महान बना देती है और परम पद की प्राप्ति करा देती है । इस तथ्य का प्रतिपादन करने वाली एक कथा पद्म पुराण के भूमि खंड में आती है ।

द्वारका नगरी में योगवेत्ता, वेदवेत्ता शिवशर्मा ब्राह्मण रहते थे । उनके पाँच शास्त्रज्ञ, गुरुभक्त, पितृभक्त पुत्र थे, जिनकी भक्ति एवं आज्ञापालन की निष्ठा महात्मा शिवशर्मा ने परीक्षा की । उन्होंने अपने योग-सामर्थ्य से एक लीला रची । पुत्रों ने देखा कि माता की मृत्यु हो गयी है । तब पिता ने ज्येष्ठ पुत्र यज्ञशर्मा को माता के शरीर के खंड-खंड कर विसर्जित करने को कहा । उसने पिता की आज्ञानुसार ही कार्य किया ।

शिवशर्मा ने अपने संकल्प सामर्थ्य से एक स्त्री को उत्पन्न किया और दूसरे पुत्र वेदशर्मा से कहाः “बेटा ! मैं दूसरा विवाह करना चाहता हूँ । इन भद्र नारी से बात करो ।”

वेदशर्मा ने उन भद्र नारी के पास पहुँचकर प्रस्ताव रखा । उनकी माँग के अनुसार वेदशर्मा ने अपनी तपस्या के बल से उन्हें इन्द्र सहित सभी देवताओं के दर्शन कराये । तत्पश्चात उन नारी ने परीक्षा लेते हुए कहाः “यदि अपने पिता के लिए मुझे ले जाना चाहते हो तो अपना सिर काट के मुझे दे दो ।”

वेदशर्मा ने हँसते-हँसते अपना सिर काट दिया । उसे लेकर वह भद्र नारी शिवशर्मा के पास पहुँची और कहाः “विप्रवर ! आपका पुत्र परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया है । यह आपके पुत्र का सिर है, लीजिये ।”

शिवशर्मा ने तृतीय पुत्र को अपने मृत पुत्र को जीवित करने को कहा । धर्मशर्मा ने धर्मराज का आवाहन किया और उनसे कहाः “धर्मराज ! यदि मैंने गुरु की सेवा की हो, यदि मुझमें ब्रह्मवेत्ता पिता के प्रति निष्ठा और अविचल तपस्या हो तो इस सत्य के प्रभाव से मेरे भाई जीवित हो जायें ।” वेदशर्मा जीवित हो गया ।

पिता ने  चौथे पुत्र विष्णुशर्मा की परीक्षा हेतु उसे इन्द्रलोक से अमृत लाने को कहा । इन्द्र ने उसे पथभ्रष्ट करने हेतु मेनका को भेजा तथा कई विघ्न उपस्थित किये पर संयम, तप व गुरुस्वरूप अपने ब्रह्मनिष्ठ पिता की भक्ति के प्रभाव से विष्णुशर्मा ने इन्द्र के सब प्रयासों को विफल कर दिया । अंततः इन्द्र ने क्षमायाचना की और विष्णुशर्मा को अमृत का घड़ा दिया, जिसे लाकर उसने पिता को अर्पण किया ।

शिवशर्मा ने उन पुत्रों की भक्ति से संतुष्ट होकर उन्हें वरदान माँगने को कहा । पुत्रों ने कहाः “सुव्रत ! आपकी कृपा से हमारी माता जीवित हो जायें ।”

महात्मा शिवशर्मा ने अपना संकल्प बल हटाया और उन पुत्रों ने अपनी माता को सामने पाया । शिवशर्मा ने और भी कुछ वर माँगने को कहा तो पुत्रों ने भगवान के परम धाम भेजने का वर माँगा । ब्रह्मनिष्ठ पिता के ‘तथास्तु’ कहते ही उनके संकल्प के प्रभाव से भगवान विष्णु प्रकट हुए और चारों भाइयों को अपने साथ परम धाम ले गये ।

अब महात्मा शिवशर्मा ने सबसे छोटे पुत्र सोमशर्मा की परीक्षार्थ उसे अमृत के घड़े की रक्षा का भार सौंपा और पत्नी के साथ तीर्थयात्रा को निकल पड़े । दस वर्षों बाद वे लौटे और संकल्पशक्ति का प्रयोग करके पत्नी सहित कोढ़ी बन गये ।

सोमशर्मा माता-पिता के मल-मूत्र तथा कफ आदि धोते, चरण दबाते – इस प्रकार भक्तिभाव से सेवा करके उन्हें प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे । पिता सोमशर्मा को कठोर व दुःखदायी वचन बोलते, डंडों से पीटते फिर भी वे सदा संतुष्ट रहकर उनकी सेवा-पूजा करते थे ।

एक दिन शिवशर्मा ने संकल्प-सामर्थ्य का प्रयोग कर घड़े से अमृत का अपहरण कर लिया और पुत्र को अमृत लाने को कहा । सोमशर्मा ने खाली घड़ा देख मन-ही-मन कहाः “यदि मुझमें सत्य और गुरु शुश्रूषा है, यदि मैंने इंद्रियसंयम, सत्य और शौच (आंतर-बाह्य पवित्रता) आदि धर्मों का ही सदा पालन किया है तो यह घड़ा निश्चय ही अमृत से भर जाय ।” घड़ा तुरंत अमृत से भर गया । सोमशर्मा ने पिता के चरणों में अमृत का घड़ा अर्पण किया ।

शिवशर्मा बोलेः “पुत्र ! आज मैं तुम्हारी गुरु-शुश्रूषा तथा भक्तिभाव से विशेष संतुष्ट हूँ । लो, अब मैं इस विकृत रूप का त्याग करता हूँ ।”

महात्मा शिवशर्मा ने पुत्र को अपने पहले रूप में दर्शन दिये । तदनंतर महात्मा शिवशर्मा अपनी ज्ञाननिष्ठा के प्रभाव से पतिव्रता पत्नीसहित परम दुर्लभ पद को प्राप्त हो गये ।

उसके बाद महाबुद्धिमान सोमशर्मा सभी विषयों का त्याग करके एकांत में तपस्या करने लगे । वहाँ स्थित दानवों की आवाज सोमशर्मा के कान में सुनाई देती थी, फिर भी वे भगवद्ज्ञान व ध्यान में ही अधिक रत रहते थे । लेकिन अंतिम समय में दानवों का चिंतन होने के कारण सोमशर्मा को दैत्य कुल में हिरण्यकशिपु के पुत्र ‘प्रह्लाद’ के रूप में जन्म लेना पड़ा । फिर भी पूर्वजन्म के भगवद्भक्ति, ज्ञान, ध्यान के संस्कारों को मृत्यु छीन न सकी और प्रह्लाद भी अंत में परम पद को प्राप्त हुए । (पद्म पुराण में भगवान वेदव्यास जी कहते हैं कि ‘कल्पभेद से प्रह्लादजी का जन्म भिन्न-भिन्न प्रकार से कहा गया है ।’ सनक ऋषि भी प्रह्लाद जी के रूप में अवतरित हुए थे ऐसा शिव पुराण में वर्णन आता है ।)

जिनके गुरु या पिता ब्रह्मनिष्ठ हों और यदि शिष्यों, संतानों में दृढ़ भक्तिनिष्ठा, आज्ञापालन में तत्परता हो तो उनकी मुक्ति में संशय ही क्या ! उनको निश्चय ही परम पद की प्राप्ति होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 30, 31 अंक 313

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