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Prerak Prasang

सब कुछ दिया, वह न दिया तो क्या दिया ?


रतनचंद नाम के एक सेठ महात्मा बुद्ध के पास दर्शन करने आये । वे साथ में बहुत सारी सामग्री उपहारस्वरूप लाये । वहाँ उपस्थित जनसमूह एक बार तो ‘वाह-वाह !’ कर उठा । सेठ का सीना तो गर्व से तना जा रहा था । बुद्ध के साथ वार्तालाप प्रारम्भ हुआ तो सेठ जी ने बतायाः “इस नगर के अधिसंख्य चिकित्सालयों, विद्यालयों और अनाथालयों का निर्माण मैंने ही करवाया है । आप जिस चबूतरे पर बैठे हैं वह भी मैंने ही बनवाया है ।” आदि-आदि । कई दान सेठ जी ने गिनवा दिये । जब उन्होंने जाने की आज्ञा माँगी तो बुद्ध बोलेः “जो कुछ साथ लाये थे, सब यहाँ छोडकर जाओ ।”

सेठ चकित होकर बोलेः “भंते ! मैंने तो सब कुछ आपके समक्ष अर्पित कर दिया है ।”

“नहीं, तुम जिस अहंकार के साथ आये थे, उसी के साथ वापस जा रहे हो । ये सांसारिक वस्तुएँ मेरे किसी काम की नहीं । अपना अहं यहाँ त्यागकर जाओ, वही मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार होगा ।”

सेठ जी को एहसास हुआ कि ‘वास्तव में, संत के चरणों में आकर भी मैंने सौदा ही किया है । कुछ नाशवान उपहार की सामग्री अर्पण करने के बदले में अपने अहंकार का खूब सारा पोषण किया है । संत के दर पर आकर सिर का भार हलका किया जाता है, में तो भार बढ़ा के बोझिल हो के जा रहा हूँ ।’ वे महात्मा के चरणों में नतमस्तक हो गये । भीतर भरा हुआ सारा अहंकार का भार आँसू बनकर बह गया । सेठ को अनुभव हुआ कि अहं का समर्पण ही मुख्य समर्पण है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 25 अंक 313

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दो घंटे की भूख ने बदला जीवन


18वीं शताब्दी की बात है । दक्षिण भारत में मदुरै शहर के एक ब्राह्मण परिवार में सोमनाथ योगी के घर में एक बालक का जन्म हुआ । नाम रखा गया शिवरामकृष्ण । उसे बाल्यकाल से ही भक्ति का रंग लग गया । माता-पिता ने उसे वेदांत-अध्ययन हेतु तिरुविसनल्लूरू के गुरुकुल में भेजा । 15 साल की उम्र में ही वह तर्क, व्याकरण, श्रुति, स्मृति, संगीत, साहित्य – समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया ।

एक दिन शिवरामकृष्ण अध्ययन पूरा करके अपने घर आया । उसन दिन माँ कुछ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था में लगी थीं इसलिए शिवरामकृष्ण को दो घंटे तक भोजन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी ।

उन्होंने मन ही मन सोचा कि ‘गृहस्थ जीवन अत्यंत झंझटों से भरा है । अभी मेरे वैवाहिक जीवन का प्रारम्भ भी नहीं हुआ है और मुझे दो घंटे तक भूखा रहना पड़ा । यह तो गृहस्थ जीवन के दुःखों का श्रीगणेशमात्र है । इतने से ही मुझे वैवाहिक जीवन के भावी दुःखों का आभास मिल गया है ।’

यदि  व्यक्ति का जीवन संयमी  व विवेक-प्रधान तथा हृदय शुद्ध होता है तो छोटी सी बात या कोई साधाराण घटना भी उसके हृदय को लग जाती है और वह उन्नत जीवन की ओर तीव्रता से बढ़ जाता है ।

शिवरामकृष्ण के हृदय में वैराग्य जाग उठा ।  संसार से बड़ी उपरामता हुई । माँ की ममता, कुटुम्बी-संबधियों के झूठे दिलासे – सबको ठुकराकर जन्म-मरण के दुःखों से पार पहुँचाने वाले सदगुरु की खोज में वह निकल पड़ा ।

घूमते-घामते कांचीपुरम पहुँचा और परमशिवेन्द्र सरस्वतीजी से संन्यास की दीक्षा ली । गुरु ने नाम रखा सदाशिव ब्रह्मेन्द सरस्वती ।

गुरु आज्ञा मानी बने महान

गुरु के मार्गदर्शन में  सदाशिव ब्रह्मेन्द्र साधना करने लगे । गुरुमंत्र-जप के प्रभाव से बुद्धि की सूक्ष्मता बढ़कर वह अत्यंत कुशाग्र हो गयीं । योग के क्षेत्र में भी वे बहुत आगे बढ़ गये । बोलने और पांडित्य में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता था । परमशिवेन्द्रजी के दर्शन हेतु देश-विदेश के विद्वान आते थे । सदाशिव ब्रह्मेन्द्र उनके साथ वाद-विवाद करते और उनको पराजित कर देते थे ।

शिष्य कहीं वाहवाही, मान-प्रतिष्ठा की दलदल में न फँस जाय, भविष्य में उसका पतन न हो इसलिए सदगुरु अऩेक युक्तियों द्वारा शिष्य को सावधान करते हैं ।

सदाशिव ब्रह्मेन्द्र जी द्वारा विद्वानों से वाद विवाद करने की बात का जब उनके गुरु जी को पता चला तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और बड़े प्रेम से कहाः “सदाशिव ! तुम मौन रहने का नियम कब लोगे ?”

“गुरुदेव ! अभी से ।”

उसके बाद उन्होंने मौन-व्रत ले लिया और पूरा जीवन उसका पालन किया । धन्य है ऐसा समर्पण !

गुरु की चाह में शिष्य ने अपनी चाह मिला दी । विद्वता, शास्त्रार्थ की योग्यता को एक तरफ रख के मौन-व्रत ले लिया और आजीवन उसका पालन किया । गरु-आज्ञा-पालन व समर्पण ने उन्हें गुरुकृपा का अधिकारी बना दिया और वे सिद्धयोगी संत सदाशिव ब्रह्मेन्द्र के नाम से सुविख्यात हुए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 10, अंक 313

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इसे समुद्र में फिंकवा दीजिये


(सुभाषचन्द्र बोस जयन्तीः 23 जनवरी 2019)

नेता जी सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये थे । वहाँ के निवास-कक्ष हेतु उन्होंने अपने सचिव हसन को टेबल लैम्प लाने को कहा । उसने बाजार से मँगवाकर नेता जी को मेज पर रख दिया ।

नेता जी जब अपने कक्ष में आये तो लैम्प देखकर उनके माथे पर सिलवटें उभर आयीं । नेता जी ने हसन से पूछाः “क्या आपने पूरे लैम्प को अच्छी तरह से देखा है ?”

“जी ।”

“तो आपको इसमें कोई खराबी नहीं दिखाई दी ?”

“जी नहीं ।”

“एक बार फिर से इसको देखिये ।”

सचिव ने बार-बार उसको देखा और सोचने लगा कि ‘इसमें क्या बुराई हो सकती है !’ उसने उसे पुनः जलाकर देखा तो वह जल रहा था । उसने भली प्रकार निरीक्षण किया परंतु उसे कहीं कुछ ऐसा दिखाई नहीं दिया जिसे खराबी कहा जा सकॆ ।

नेता जीः “कुछ दिखा ?”

“मुझे तो इसमें ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया ।”

“उसके स्टैंड के निचले भाग में एक अश्लील चित्र बना हुआ है, उस पर आपकी दृष्टि कयों नहीं गयी ?”

हसन को तुरंत अपनी भूल का एहसास हुआ ।

नेता जीः “मुझे मेरी मेज पर ऐसा स्टैंड नहीं चाहिए । इसे समुद्र में फिंकवा दीजिये ।”

तुरंत ही उस स्टैंड को वहाँ से हटा दिया गया ।

इतने सावधान, सतर्क और संयमी थे नेताजी, तभी तो आजाद हिन्द फौज बना सके और भारत को आजाद कराने में अहम भूमिका निभा सके । आजकल के युवक-युवतियाँ मोबाइल में कैसे-कैसे चित्र देखकर बरबादी की तरफ जा रहे हैं, अपनी हानि कर रहे हैं बेचारे !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 20 अंक 313

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