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Prerak Prasang

गुरु की परम प्रसन्नता कौन पाता है ?


शंकर नाम का एक बालक गुरु-आश्रम में रहकर अध्ययन करता था । उसकी कुशाग्र बुद्धि, ओजस्वी प्रतिभा एवं नियम-पालन में निष्ठा से उसके गुरु और अन्य साथी उस पर अत्यंत प्रसन्न थे । आश्रम का नियम था कि एक शिष्य दिन में एक ही घर से भिक्षा प्राप्त करेगा । एक दिन शंकर भिक्षा माँगने निकला । एक घर के सामने जाकर कहाः “भिक्षां देहि ।” वह किसी निर्धन बुढ़िया का घर था । उसके पास मात्र मुट्ठी भर चावल थे । उसने वे भिक्षा में दे दिये । शंकर को उसकी दरिद्रता ध्यान में आयी । वह पड़ोस में एक सेठ के घर गया । सेठानी  विभिन्न व्यञ्जनों से सज्जित एक बड़ा सा थाल लायी । शंकर ने कहाः “मैया ! यह भिक्षा पड़ोस में रहने वाली गरीब वृद्धा को दे आइये ।”

सेठानी ने वैसा ही किया ।

शंकरः “करूणाशाली माँ ! ईश्वर ने आपको खूब धन सम्पदा दी है । ईश्वर करे वह चिरकाल तक बनी रहे व सुखदायी भी हो । पुरुषार्थ और पुण्यों की वृद्धि से लक्ष्मी आती है, दान, पुण्य और कौशल से बढ़ती है तथा संयम और सदाचार से स्थिर होती है । मुझे आपसे एक और भिक्षा चाहिए । वे वयोवृद्ध माता जी जब तक जीवित रहें तब तक यथासम्भव आप उनका भरण-पोषण करेंगी तो मैं समझूँगा आपने रोज मुझे भिक्षा दी । क्या आप यह भिक्षा मुझे देगी ?”

सेठानी ने सहर्ष स्वीकृति दी । शंकल चावल लेकर आश्रम पहुँचा और अपने गुरु से कहाः “गुरुदेव ! आज मैंने नियम-भंग किया है । मैं भिक्षा के लिए एक नहीं, दो घरों में गया । मुझसे अपराध हुआ है, कृप्या मुझे दंड दें ।”

गुरुदेव बोलेः “शंकर ! मुझे सब ज्ञात हो गया है । उस असहाय वृद्धा को मददरूप बनकर तुमने गलत नहीं बल्कि पुण्यकार्य किया है । वत्स ! इसे नियम भंग नहीं माना जायेगा । तुमने आश्रम का गौरव ही बढ़ाया है । तुम धन्य हो ! मेरा आशीष है कि तुम ऊँचे-से-ऊँचे पद – आत्मपद को उपलब्ध होकर विश्वव्यापी सुयश प्राप्त करोगे ।”

इसी बालक शंकर ने आगे चलकर अपने गुरुदेव का पूर्ण संतोष पा के आत्मपद की प्राप्ति की एवं श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी के नाम से विश्वविख्यात हुए ।

कनिष्ठ शिष्य गुरु की आज्ञाओं का स्थूल अर्थ में पालन करके लाभान्वित होता है । मध्यम शिष्य आज्ञाओं का स्थूल अर्थ में पालन करता ही है, साथ ही गुरु के संकेतों को भी समझने के लिए तत्पर रहता है । उत्तम शिष्य आज्ञा-पालन करने व संकेत समझने के साथ अपनी मति को सूक्ष्मतम बना के गुरु के सिद्धान्त को आत्मसात् कर उसके अनुरूप सेवा खोज लेता है । सिद्धान्त का पालन करते-करते एक ऐसी स्थिति आती है जब वह और  सिद्धान्त दो नहीं रह जाते, वह साक्षात् सिद्धान्तमूर्ति हो जाता है । फिर ऐसे सौभाग्यशाली शिष्य को ‘मैंने सिद्धान्त का पालन किया’ – ऐसा भान या अभिमान भी नहीं होता, वह विनम्रता की प्रतिमूर्ति हो जाता है । ऐसा शिष्य गुरु की परम प्रसन्नता प्राप्त कर पूर्ण गुरुकृपा का अधिकारी हो जाता है । धन्य है ऐसे सत्शिष्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 313

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माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला-संत विनोबा भावे जी


साहित्य देवता के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है । बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता । जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिए बड़ौदा रहते थे । दीवाली के दिनो में वे अकसर घर पर आया करते थे । एक बार माँ ने कहाः “आज तेरे पिता जी आने वाले हैं, तेरे लिए मेवा-मिठाई लायेंगे ।” पिता जी आये । फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया । मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे ।

लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा सा था । मुझे लगा कि ‘कोई खास तरह की मिठाई होगी ।’ खोलकर देखा तो दो किताबें थीं । उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया ।

माँ बोलीः “बेटा ! तेरे पिता जी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।” वे किताबें रामायण और भागवत के कथा प्रसंगों की थीं, यह मुझे याद है । आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं । माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि ‘इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।’ इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुंदर विचार की पुस्तक मीठी मालूम होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 17, अंक 313

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कैसी बढ़िया समझ ! – पूज्य बापू जी


किसी सेठ ने एक महात्मा से कई बार  प्रार्थना की कि “आप हमारे घर में अपने श्रीचरण घुमायें !” आखिर एक दिन महात्मा जी ने कह दियाः “चलो, तुम्हारी बात रख लेते हैं । फलानी तारीख को आयेंगे ।”

सेठ जी बड़े प्रसन्न हो गये । बाबा जी आने वाले हैं इसलिए बड़ी तैयारियाँ की गयीं । बाबा जी के आने में एक दिन ही बाकी था । सेठ ने बड़े बेटे को फोन कियाः “बेटा ! अब तुम आ जाओ ।”

बड़े बेटे ने कहाः “पिता जी ! मार्केट टाइट है, मनी टाइट है, बैक में बैलेंस सेट करना है । पिता जी ! मैं अभी नहीं आ पाऊँगा ।”

मँझले बेटे ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया । सेठ ने छोटे बेटे को फोन किया तब उसने कहाः “पिता जी ! काम तो बहुत हैं लेकिन सारे काम संसार के हैं । गुरु जी आ रहे हैं तो मैं अभी आया ।”

छोटा बेटा पहुँचा संत-सेवा के लिए । उसने अन्न, वस्त्र, दक्षिणा आदि से गुरुदेव का सत्कार किया व बड़े प्रेम से उनकी सेवा की । बाबा जी ने सेठ से पूछाः “सेठ ! तुम्हारे कितने बेटे हैं ?”

सेठः “एक बेटा है ।”

“मैंने तो सुना है कि आपके तीन बेटे हैं !”

“वे मेरे बेटे नहीं हैं । वे तो सुख के बेटे हैं, सुख के क्या वे तो मन के बेटे हैं । जो धर्म के काम में न आयें, संत-सेवा में बुलाने पर भी न आयें वे मेरे बेटे कैसे ? मेरा बेटा तो एक ही है जो सत्कर्म में उत्साह से लगता है ।”

“अच्छा, सेठ ! तुम्हारी उम्र कितनी है ?”

“छः साल, दो माह और सात दिन ।”

“इतने बड़े हो, तीन बेटों के बाप हो और उम्र केवल इतनी !”

“बाबा जी ! जब से हमने दीक्षा ली है, ध्यान जप करने लगे हैं, आपके बने हैं, तभी से सच्ची जिंदगी शुरु हुई है । नहीं तो उम्र ऐसे ही भोगों में नष्ट हो रही थी । जीवन तो तभी से शुरु हुआ जब से संत-शरण मिली, सच्चे संत मिले । नहीं तो मर ही रहे थे, मरने वाले शरीर को ही ‘मैं’ मान रहे थे ।”

“अच्छा, सेठ ! तुम्हारे पास कितनी सम्पत्ति है ?”

“मेरे पास सम्पत्ति कोई खास नहीं है । बस, इतने हजार हैं ।”

“लग तो तुम करोड़पति रहे हो !”

“गुरुदेव ! यह सम्पत्ति तो इधर ही पड़ी रहेगी । जितनी सम्पत्ति आपकी सेवा में, आपके दैवी कार्य में लगायी उतनी ही मेरी है ।”

कैसी बढ़िया समझ है सेठ की ! जिसके जीवन में सत्संग है, वही यह बात समझ सकता है । बाकी के लोग तो शरीर को ‘मैं’ मानकर, बेटों को ‘मेरे’ मान के तथा नश्वर धन को ‘मेरी सम्पत्ति’ मान के यूँ ही आयुष्य पूरा कर देते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 25 अंक 312

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