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Prerak Prasang

हम हर मंजिल पा सकते हैं पर…..


स्वामी रामतीर्थ एक प्राचीन कथा सुनाया करते थे। यूनान में एक बहुत सुंदर लड़की रहती थी ‘अटलांटा’। उसका प्रण था कि ‘मैं उसी युवक से शादी करूँगी जो दौड़ में मुझे हरा देगा।’ अटलांटा दौड़ने में बहुत तेज थी अतः अनेक इच्छुक युवक दौड़ में उसे हरा नहीं पाये। एक राजकुमार ने किसी देवता की आराधना की और उन्होंने उसे अटलांटा को हराने का उपाय बताया।

राजकुमार ने रात में दौड़ के रास्ते में सोने की ईंटें डलवा दीं। सवेरे जब दौड़ शुरु हुई तो अटलांटा पहले ही प्रयास में राजकुमार से बहुत आगे निकल गयी। दौड़ते समय रास्ते में अटलांटा को सोने की ईंट दिखाई दी। वह लोभ में फँस गयी, झट से झुकी और ईंट उठा ली तथा फिर दौड़ने लगी। इससे उसकी गति कुछ धीमी पड़ गयी। राजकुमार लगातार दौड़ता रहा। रास्ते में अनेक ईंटें मिलीं, अटलांटा किसी भी ईंट को छोड़ने को तैयार नहीं थी, वह ईंट उठा के पल्लू में बाँध लेती। वह इसी में अपना समय लगाती रही और राजकुमार उससे आगे निकल गया।

हम लोग भी उसी अटलांटा के पड़ोसी हैं जो लोभ, लालच और मोह की इसी प्रकार की ईंटों के चक्कर में फँस जाते हैं और अवसर निकल जाता है। जीतने की हर योग्यता रखने वाले हम जीवन की दौड़ में प्रायः हार जाते हैं। अगर हमें जीतना है तो इन प्रलोभनों से दूर रहना होगा। किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के लोभ, मोह और लालच में न फँसें तो हम हर मंजिल पा सकते हैं। अपने मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य आत्मा-परमात्मा को पाकर संसाररूपी भवबंधन से, जन्म-मरण के चक्र से पार हो सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 23 अंक 303

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भगवान व संतों का अवतरण भारत में ही बारंबार क्यों ?


  • पूज्य बापू जी

यह प्रकृति का विधान है कि जिसे जिस समय जिस वस्तु की अत्यंत आवश्यकता होती है उसे पूरी करने वाला उसके पास पहुँच जाता है अथवा तो मनुष्य स्वयं ही वहाँ पहुँच जाता है जहाँ उसकी आवश्यकता पूरी होने वाली है।

मुझसे ‘विश्व धर्म संसद, शिकागो’ में पत्रकारों ने पूछाः “भारत में ही भगवान के अवतार क्यों होते हैं ? हिन्दुस्तान में ही भगवान जन्म क्यों लेते हैं ? जब सारी सृष्टि भगवान की है तो आपके भगवान ने यूरोप या अमेरिका में अवतार क्यों नहीं लिया ? आद्य शंकराचार्य जी, गुरु नानक जी, संत कबीर जी, स्वामी रामतीर्थ जी जैसे महापुरुषों की श्रृंखला इन देशों में क्यों नहीं है ?”

मैंने उनसे पूछाः “जहाँ हरियाली होती है वहाँ वर्षा क्यों होती है और जहाँ वर्षा होती है वहाँ हरियाली क्यों होती है ?”

उन्होंने जवाब दियाः “बापू जी ! यह तो प्राकृतिक विधान है।”

तब मैंने कहाः “हमारे देश में अनादि काल से ही ब्रह्मविद्या और भक्ति का प्रचार हुआ है। इससे वहाँ भक्त पैदा होते रहे। जहाँ भक्त हुए वहाँ भगवान की माँग हुई तो भगवान व संत आये और जहाँ भगवान व संत आये वहाँ भक्तों की भक्ति और भी पुष्ट हुई। अतः जैसे जहाँ हरियाली वहाँ वर्षा और जहाँ वर्षा वहाँ हरियाली होती है वैसे ही हमारे देश में भक्तिरूपी हरियाली है इसलिए भगवान और संत भी बरसने के लिए बार-बार आते हैं।”

मैं दुनिया के अनेक देशों में घूमा, कई जगह प्रवचन भी किये परंतु भारत जितनी तादाद में तथा शांति से किसी दूसरे देश के लोग सत्संग सुन पाये हों ऐसा आज तक मैंने किसी भी देश में नहीं देखा। फिर चाहे ‘विश्व धर्म संसद’ ही क्यों न हो। जिसमें विश्वभर के वक्ता आयें वहाँ बोलने वाला 600 और सुनने वाले 1500 ! भारत में हर रोज़ सत्संग के महाकुम्भ लगते रहते हैं। भारत में आज भी लाखों की संख्या में हरिकथा के रसिक हैं। घरों में गीता एवं रामायण का पाठ होता है। भगवत्प्रेमी संतों के सत्संग में जा के उनसे ज्ञान-ध्यान प्राप्त कर श्रद्धालु अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। अतः जहाँ-जहाँ भक्त और भगवत्कथा-प्रेमी होते हैं वहाँ-वहाँ भगवान और संतों का प्राकट्य भी होता ही रहता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 303

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अपने से नाराज हुए बिना दूसरे से नाराजगी सम्भव नहीं


एक परिवार में तीन बहुएँ थीं। बड़ी बहू की कोई कितनी ही सेवा करे पर वह  हमेशा मुँह फुलाये रहती थी। मँझली बहू किसी आत्मवेत्ता गुरु की शिष्या थी और सत्संग प्रेमी, विवेकी, सेवा भक्तिवाली, उदार एवं शांतिप्रिय थी। छोटी बहू साधारण श्रेणी की थी। राज़ी करके उससे चाहे जितना काम करा लो परंतु बकवास, निंदा-चुगली करने वालों के काम में हाथ नहीं लगाती थी, अतः अपनी बड़ी जेठानी की सेवा तो वह कर ही कैसे सकती थी ! लेकिन छोटी जेठानी की खूब सेवा करती थी। और मँझली बहू का तो कहना ही क्या ! वह सबसे  प्रेमभरा, आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करते हुए सबकी सेवा करती थी।

आखिर एक दिन छोटी बहू ने मँझली से पूछ ही लियाः “दीदी ! बड़ी दीदी आप पर सदा नाराज रहती हैं। कभी अपशब्द भी बोल देती हैं, फिर भी आप उनकी सेवा करती हैं। उनके प्रति मैंने कभी आपसे कोई शिकायत नहीं सुनी, बात क्या है ?”

मँझली बहू ने कहाः “बहन ! बड़ी दीदी की गाली मुझ तक पहुँचती ही नहीं। वाणी की पहुँच कानों तक ही तो है। मुझ तक तो मेरी बुद्धि की भी पहुँच नहीं है, जो इस सृष्टि का सबसे बड़ा औजार है। और वे सदा नाराज रहती हैं तो अपने से रहती हैं। क्या कोई अपने से नाराज हुए बिना दूसरे से नाराज हो सकता है? स्वयं बुरा बनकर ही कोई दूसरों का बुरा कर सकता है। उनकी नाराजगी मुझ तक पहुँचती ही नहीं है क्योंकि जहाँ नित्य, अविनाशी आनंद-ही-आनंद है, वहाँ उत्पत्ति-विनाशशील नाराजगी कैसे पहुँच सकती है, क्या कर सकती है ? मेरे गुरुदेव ने बताया है कि ‘दूसरों के अधिकार की रक्षा  और अपने अधिकार का त्याग करने वाला कभी दुःखी नहीं हो सकता।’ इस प्रकार नाराजगी को हर पहलू से समझने पर नाराजगी का महत्त्व ही नहीं रहता। संसार अपना, चिद्घन चैतन्यस्वरूप आत्मा अपना…. जहाँ राज़ी-नाराजगी हो-होकर मिट जाती है उस अपने आत्मदेव में जगना ही सार है, बाकी सब बेकार है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 21 अंक 303

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