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ऋषि ऋण से मुक्त एवं ब्रह्मपरायण होने का अवसरः ऋषि पंचमी – पूज्य बापू जी


भारत ऋषि मुनियों का देश है। इस देश में ऋषियों की जीवन-प्रणाली का और ऋषियों के ज्ञान का अभी भी इतना प्रभाव है कि उनके ज्ञान के अऩुसार जीवन जीने वाले लोग शुद्ध, सात्त्विक, पवित्र व्यवहार में भी सफल हो जाते हैं और परमार्थ में भी पूर्ण हो जाते हैं।

ऋषि तो ऐसे कई हो गये जिन्होंने अपना जीवन केवल ‘बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय’ बिताया। हम उन ऋषियों का आदर-पूजन करते हैं। उनमें से भी वसिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, अत्रि, गौतम और कश्यप – इन सप्तऋषियों का स्मरण पातक का नाश करने वाला, पुण्य अर्जन कराने वाला, हिम्मत देने वाला है।

कश्यपोsत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोsथ गौतमः।

जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः।।

ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिन महापुरुषों ने एकांत अरण्य में निवास करके अपने प्रियतम परमात्मा में विश्रान्ति पायी, ऐसे ऋषियों, आर्षद्रष्टाओं को हमारे प्रणाम हैं।

ऋषि पंचमी के दिन ऋषियों का पूजन किया जाता है। इस दिन महिलाएँ विशेष रूप से व्रत रखती हैं। जिसने भी अपने-आपको (आत्मस्वरूप को) नहीं जाना है, यह पर्व उन सबके लिए। जिस अज्ञान के कारण यह जीव कितनी ही माताओं के गर्भ में लटकता आया है, कितनी ही यातनाएँ सहता आया है उस अज्ञान को निवृत्त करने के लिए उन ऋषि मुनियों को हम हृदयपूर्वक प्रणाम करते हैं, उनका पूजन करते हैं। ऋषि मुनियों का वास्तविक पूजन है उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना। वे तो चाहते हैं-

देवो भूत्वा देवं यजेत्।

देवता होकर देवती की पूजा करो। ऋषि असंग, द्रष्टा, साक्षी स्वभाव में स्थित होते हैं। वे जगत के सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, शुभ-अशुभ में अपने द्रष्टाभाव से विचलित नहीं होते। वेदांत को सुन-समझकर असली ‘मैं’ में, जाग्रत-विभू-व्यापक परमात्मस्वरूप में जाग जाना ही उऩके आदर-पूजन का परम फल है।

मम दरसन फल परम अनूपा।

जीव पाव निज सहज सरूपा।।

(श्रीरामचरित. अर.कांडः 35.5)

जीव अपने सहज सच्चिदानंदस्वरूप को पा ले। फिर न सुख सच्चा न दुःख सच्चा, न जन्म सच्चा न मृत्यु – सब सपना, चैतन्य, साक्षी, सच्चिदानंद अपना। ऋषियों ने हमारे सामाजिक व्यवहार में, त्यौहारों में, रीति रिवाजों में कुछ न कुछ ऐसे संस्कार डाल दिये कि अनंत काल से चली आ रही मान्यताओं के पर्दे हटें और सृष्टि को ज्यों का त्यों देखते हुए सृष्टिकर्ता परमात्मा को पाया जा सके। ऋषियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनका पूजन करना चाहिए, ऋषिगण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। योगवासिष्ठ, गीता, भागवत, ब्रह्मज्ञानी गुरुओं का सत्संग – सब ऋषि वाणी हैं। ब्रह्मज्ञानी संतों का सत्संग पाना एवं दूसरों तक पहुँचाना ऋषिऋण से मुक्त होने का सुंदर व सर्वहितकारी साधन है। धनभागी हैं, ‘ऋषि प्रसाद’ पढ़ने व ‘ऋषि दर्शन’ देखने वाले ! धनभागी हैं, इस दैवी कार्य में सहभागी होने की प्रेरणा देने वाले एवं समाज तक सत्संग-संदेश पहुँचाने वाले !

ऋषि पंचमी के दिन माताएँ आमतौर पर व्रत रखती हैं। जिस किसी  महिला ने   मासिक धर्म के दिनों में शास्त्र-नियमों का पालन नहीं किया हो या अनजाने में ऋषि का दर्शन कर लिया हो या इन दिनों  में उनके आगे चली गयी हो तो उस गलती के कारण जो दोष लगता है, उस दोष का निवारण करने हेतु वह व्रत रखा जाता है।

ऋषि मुनियों को आर्षद्रष्टा कहते हैं। उन्होंने कितना अध्ययन करने के बाद सब बातें बतायी हैं ! ऐसे ही नहीं कह दिया है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मासिक स्राव के दिनों में स्त्री के जो परमाणु (वायब्रेशन) होते हैं, वे अशुद्ध होते हैं। उसके मन-प्राण विशेषकर नीचे के केन्द्रों में होते हैं। इसलिए उन दिनों के लिए शास्त्रों में जो व्यवहार्य नियम बताये गये हैं, उनका पालन करने से हमारी उन्नति होती है।

मेरे गुरुदेव (साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) स्त्री के उत्थान में तो विश्वास रखते थे लेकिन आजकल के जैसे उत्थान में नहीं। स्त्री का वास्तविक उत्थान क्या है, यह तो ऋषियों की दृष्टि से जो देखें वे ही समझ सकते हैं। मदालसा रानी, जीजाबाई, चुड़ाला रानी, दीर्घतपा ऋषि की पत्नी जैसी आदर्श चरित्रवाली स्त्रियाँ हो गयीं। गार्गी और सुलभा जैसी स्त्रियाँ भरी सभा में शास्त्रार्थ करती थीं। कई स्त्रियों ने भी ऋषिपद पाया है, उपनिषदों में उऩका वर्णन आता है।

जिन घरों में शास्त्रोक्त नियमों का पालन होता है, लोग कुछ संयम से जीते हैं, उन घरों में तेजस्वी संतानें पैदा होती हैं।

व्रत-विधि

यह दिन त्यौहार का नहीं, व्रत का है। हो सके तो इस दिन अपामार्ग (लटजीरा) की दातुन करें। शरीर पर देशी गाय के गोबर का लेप करके नदी में 108 गोते  मारने का विधान भी है। ऐसा न कर सको तो घर में ही 108 बार  हरि का नाम लेकर स्नान कर लो। फिर मिट्टी या ताँबे के कलश की स्थापना करके उसके पास अष्टदल कमल बनाकर उन दलों में सप्तऋषियों व वसिष्ठप्तनी अरूंधती का आवाहन कर विधिपूर्वक उनका पूजन-अर्चन करें। फिर कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि व वसिष्ठ इन सप्तऋषियों को प्रणाम करके प्रार्थना करें कि ‘हे सप्तऋषियो ! हमने कायिक, वाचिक व मानसिक जो भी भूलें हो गयी हैं, उन्हें क्षमा करना। आज के बाद हमारा जीवन ईश्वर के मार्ग पर शीघ्रता से आगे बढ़े, ऐसी कृपा करना।’ फिर अपने गुरु का पूजन करें। तुम्हारी अहंता, ममता ऋषि चरणों में अर्पित हो जाय, यही इस व्रत का ध्येय है।

इस दिन हल से जुते हुए खेत का अन्न नहीं खाना चाहिए, खैर अब तो ट्रैक्टर हैं, मिर्च-मसाले, नमक घी, तेल, गुड़ वगैरह का सेवन भी त्याज्य है। दिन में केवल एक बार भोजन करें। इस दिन लाल वस्त्र दान करने का विधान है।

ब्रह्मज्ञानरूपी फल की प्राप्ति

हमारी क्रियाओं में जब ब्रह्मसत्ता आती है, हमारे रजोगुणी कार्य में ब्रह्मचिंतन आता है, तब हमारा व्यवहार भी तेजस्वी, देदीप्यमान हो उठता है। खान-पान-स्नानादि तो हररोज करते हैं पर व्रत के निमित्त उन ब्रह्मर्षियों को याद करके सब क्रिया करें तो हमारी लौकिक चेष्टाओं में भी उन ब्रह्मर्षियों का ज्ञान छलकने लगेगा। उनके अनुभव को अपना अनुभव बनाने की ओर कदम आगे रखें तो ब्रह्मज्ञानरूपी अति अदभुत फल की प्राप्ति में सहायता होती है।

ऋषि पंचमी का यह व्रत हमें ऋषिऋण से मुक्त होने के अवसर की याद दिलाता है। लौकिक दृष्टि से तो यह अपराध के लिए क्षमा माँगने का और कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर है पर सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह अपने जीवन को ब्रह्मपरायण बनाने का संदेश देता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2014, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 260

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ऋषि पंचमी


 

(14 सितम्बर 1999)

भारत ऋषि मुनियों का देश है। इस देश में ऋषियों की जीवन-प्रणाली का और ऋषियों के ज्ञान का अभी भी इतना प्रभाव है कि उनके ज्ञान के अऩुसार जीवन जीने वाले लोग शुद्ध, सात्त्विक, पवित्र व्यवहार में भी सफल हो जाते हैं और परमार्थ में भी पूर्ण हो जाते हैं।

ऋषि तो ऐसे कई हो गये, जिन्होंने अपना जीवन केवल ʹबहुजन हिताय-बहुजनसुखायʹ बिता दिया। हम उन ऋषियों का आदर करते हैं, पूजन करते हैं। उनमें से भी वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, अत्रि, गौतम और कश्यप आदि ऋषियों को तो सप्तर्षि के रूप में नक्षत्रों के प्रकाशपुंज में निहारते हैं ताकि उऩकी चिरस्थायी स्मृति बनी रहे।

ऋषियों को ʹमंत्रदृष्टाʹ भी कहते हैं। ऋषि अपने को कर्ता नहीं मानते हैं। जैसे वे अपने साक्षी-दृष्टा पद में स्थित होकर संसार को देखते हैं, वैसे ही मंत्र और मंत्र के अर्थ को साक्षी भाव से देखते हैं। इसलिए उन्हें ʹमंत्रदृष्टाʹ कहा जाता है।

ऋषि पंचमी के दिन इन मंत्रदृष्टा ऋषियों का पूजन किया जाता है। इस दिन माताएँ विशेष रूप से व्रत रखती हैं।

ऋषि की दृष्टि में न तो कोई स्त्री है न पुरुष। सब अपना स्वरूप है। जिसने भी अपने-आपको नहीं जाना है, उन सबके लिए आज का पर्व है। जिस अज्ञान के कारण यह जीव कितनी ही माताओं के गर्भ में लटकता आया है, कितनी ही यातनाएँ सहता आया है उस अज्ञान को निवृत्त करने के लिए उऩ ऋषि-मुनियों को हम हृदयपूर्वक प्रणाम करते हैं उनका पूजन करते हैं।

उन ऋषि मुनियों का वास्तविक पूजन है-उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना। वे तो चाहते हैं-

देवो भूत्वा देवं यजेत्।

देवता होकर देवता की पूजा करो। ऋषि असंग, दृष्टा, साक्षी स्वभाव में स्थित होते हैं। वे जगत के सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, शुभ-अशुभ में अपने दृष्टाभाव से विचलित नहीं होते। ऐसे दृष्टाभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना और अभ्यास करते-करते अपने दृष्टाभाव में स्थित हो जाना ही उनका पूजन करना है। उन्होंने खून पसीना एक करके जगत को आसक्ति से छुड़ाने की कोशिश की है। हमारे सामाजिक व्यवहार में, त्यौहारों में, रीत-रिवाजों में कुछ-न-कुछ ऐसे संस्कार डाल दिये कि अनंत काल से चली आ रही मान्यताओं के परदे हटें और सृष्टि को ज्यों-का-त्यों देखते हुए सृष्टिकर्ता परमात्मा को पाया जा सके। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ऋषियों का पूजन करना चाहिए, ऋषिऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1999, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 81

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