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भगवान किनसे पाते हैं अपने घर की समस्या का हल ?


एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारदजी से कहाः “देवर्षे ! मनुष्य किसी व्यक्ति में बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है । मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करता हूँ । मैं अपनी प्रभुता दिखा के कुटुम्बीजनों को अपना दास बनाना नहीं चाहता । मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिए छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातें सुन के भी क्षमा कर देता हूँ ।

बड़े भाई बलराम में असीम बल है, वे उसी में मस्त रहते हैं । छोटे भाई गद में अत्यंत सुकुमारता है (अतः वह परिश्रम से दूर भागता है), रह गया बेटा प्रद्युम्न, वह अपने रूप-सौंदर्य के अभिमान से मतवाला बना रहता है । वृष्णिवंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान बलवान, दुस्सह पराक्रमी हैं, वे सब सदा उद्योगशील रहते हैं । ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में चले जायें वह विजयी हो जाय । परंतु परनाना आहुक और काका अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रख के मुझे इस तरह अवरूद्ध कर दिया है कि मैं इनमें से किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता । आपस में लड़ने वाले दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिए इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या होगी ?

मैं इन दोनों सुहृदों में से एक की विजयकामना करता हूँ तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहता । इस प्रकार मैं सदा दोनों पक्षों का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ । ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इनका भी जिस प्रकार भला हो वह उपाय बताने की कृपा करें ।”

देवर्षि नारद जी ने कहाः “श्री कृष्ण ! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोहे का बना हुआ ना होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है, परिमार्जन1 और अनुमार्जन2 करके उन्हें मूक बना दें (जिससे फिर कलह न हो) ।

1 क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 2 यथायोग्य सेवा-सत्कार से हृदय में प्रीति उत्पन्न करना ।

श्रीकृष्ण ने पूछाः “उस शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन, अनुमार्जन कर सकूँ ?”

“अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य आदर-सत्कार करना – यही बिना लोहे का बना हुआ शस्त्र है । जब सजातीय बंधु आपको कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, तब आप मधुर वचन बोल के उनके हृदय, वाणी तथा मन को शांत कर दें ।

आप इस यादव संघ के मुखिया हैं । यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जायेगा । अतः आप ऐसा करें जिससे आपको पाकर इसका मूलोच्छेद न हो जाय ।

श्रीकृष्ण ! सदा अपने पक्ष की उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और जिससे कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो । यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा कीजिये ।

माधव ! आप जैसे महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक उन्नति करते हैं ।

जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता । अतः आप ही इस गुरुतर भार को वहन करें ।”

जब भगवान के जीवन में ऐसी समस्याएँ आ सकती हैं तो अन्य किसी के जीवन में आ जायें तो क्या आश्चर्य ! परंतु समस्या आने पर निराश न हो के ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का, सदगुरु का, उनके सत्संग का आश्रय लिया जाय तो कठिन-से-कठिन समस्या को सुलझाने की सुकोमल सूझबूझ निखर आती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 11, 23 अंक 316

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दो घंटे की भूख ने बदला जीवन


18वीं शताब्दी की बात है । दक्षिण भारत में मदुरै शहर के एक ब्राह्मण परिवार में सोमनाथ योगी के घर में एक बालक का जन्म हुआ । नाम रखा गया शिवरामकृष्ण । उसे बाल्यकाल से ही भक्ति का रंग लग गया । माता-पिता ने उसे वेदांत-अध्ययन हेतु तिरुविसनल्लूरू के गुरुकुल में भेजा । 15 साल की उम्र में ही वह तर्क, व्याकरण, श्रुति, स्मृति, संगीत, साहित्य – समस्त विद्याओं में पारंगत हो गया ।

एक दिन शिवरामकृष्ण अध्ययन पूरा करके अपने घर आया । उसन दिन माँ कुछ स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था में लगी थीं इसलिए शिवरामकृष्ण को दो घंटे तक भोजन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ी ।

उन्होंने मन ही मन सोचा कि ‘गृहस्थ जीवन अत्यंत झंझटों से भरा है । अभी मेरे वैवाहिक जीवन का प्रारम्भ भी नहीं हुआ है और मुझे दो घंटे तक भूखा रहना पड़ा । यह तो गृहस्थ जीवन के दुःखों का श्रीगणेशमात्र है । इतने से ही मुझे वैवाहिक जीवन के भावी दुःखों का आभास मिल गया है ।’

यदि  व्यक्ति का जीवन संयमी  व विवेक-प्रधान तथा हृदय शुद्ध होता है तो छोटी सी बात या कोई साधाराण घटना भी उसके हृदय को लग जाती है और वह उन्नत जीवन की ओर तीव्रता से बढ़ जाता है ।

शिवरामकृष्ण के हृदय में वैराग्य जाग उठा ।  संसार से बड़ी उपरामता हुई । माँ की ममता, कुटुम्बी-संबधियों के झूठे दिलासे – सबको ठुकराकर जन्म-मरण के दुःखों से पार पहुँचाने वाले सदगुरु की खोज में वह निकल पड़ा ।

घूमते-घामते कांचीपुरम पहुँचा और परमशिवेन्द्र सरस्वतीजी से संन्यास की दीक्षा ली । गुरु ने नाम रखा सदाशिव ब्रह्मेन्द सरस्वती ।

गुरु आज्ञा मानी बने महान

गुरु के मार्गदर्शन में  सदाशिव ब्रह्मेन्द्र साधना करने लगे । गुरुमंत्र-जप के प्रभाव से बुद्धि की सूक्ष्मता बढ़कर वह अत्यंत कुशाग्र हो गयीं । योग के क्षेत्र में भी वे बहुत आगे बढ़ गये । बोलने और पांडित्य में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता था । परमशिवेन्द्रजी के दर्शन हेतु देश-विदेश के विद्वान आते थे । सदाशिव ब्रह्मेन्द्र उनके साथ वाद-विवाद करते और उनको पराजित कर देते थे ।

शिष्य कहीं वाहवाही, मान-प्रतिष्ठा की दलदल में न फँस जाय, भविष्य में उसका पतन न हो इसलिए सदगुरु अऩेक युक्तियों द्वारा शिष्य को सावधान करते हैं ।

सदाशिव ब्रह्मेन्द्र जी द्वारा विद्वानों से वाद विवाद करने की बात का जब उनके गुरु जी को पता चला तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और बड़े प्रेम से कहाः “सदाशिव ! तुम मौन रहने का नियम कब लोगे ?”

“गुरुदेव ! अभी से ।”

उसके बाद उन्होंने मौन-व्रत ले लिया और पूरा जीवन उसका पालन किया । धन्य है ऐसा समर्पण !

गुरु की चाह में शिष्य ने अपनी चाह मिला दी । विद्वता, शास्त्रार्थ की योग्यता को एक तरफ रख के मौन-व्रत ले लिया और आजीवन उसका पालन किया । गरु-आज्ञा-पालन व समर्पण ने उन्हें गुरुकृपा का अधिकारी बना दिया और वे सिद्धयोगी संत सदाशिव ब्रह्मेन्द्र के नाम से सुविख्यात हुए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 10, अंक 313

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कौन मिलते, कौन रह जाते ?


(गुरु गोविन्द सिंह जयंतीः 13 जनवरी 2019)

एक दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक सेवक को आज्ञा दी कि “कुछ बताशे तथा कुछ पत्थर के रोड़े पानी से भरे एक घड़े में डाल दो ।”

सेवक ने वैसा ही किया । कुछ देर बाद गुरु जी ने उसे पुनः आज्ञा दीः “वे बताशे तथा पत्थर पानी में से निकालकर ले आओ ।”

सेवक ने घड़े में हाथ डाला तो हाथ में केवल पत्थर ही आये ।

सेवकः “गुरुदेव ! घड़े में केवल पत्थर के टुकड़े ही हैं, बताशे नहीं हैं ।”

गुरु जी ने सेवकों को समझाते हुए कहाः “जो श्रद्धालु शिष्य सच्चे दिल से, तन-मन से, श्रद्धा-प्रेम के साथ गुरु की सेवा करते हैं, वे पानी में घुल मिल गये इन बताशों की तरह हैं । उनका अहंकार गुरुसेवा में गल जाता है, वे सद्गुरु के अनुभव से एक हो जाते हैं परंतु दिखावे की सेवा करने वाले अश्रद्धावान पुरुष पत्थऱ की तरह वैसे-के-वैसे रहते हैं, वे सद्गुरु के आत्मानुभव के साथ नहीं मिल सकते ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 13, अंक 313

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