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बापू जी के प्रेरक जीवन प्रसंग


पूज्य बापू जी की पेड़ पौधों से तादात्म्यता
बापू जी प्राणिमात्र के हित में रत महापुरुष हैं। मूक पेड़-पौधों की भी पीड़ा बापू जी को द्रवीभूत कर देती है और उनकी पीड़ा दूर करने के प्रयास में वे लग जाते हैं।
हरिद्वार आश्रम के पास से गंगा जी की धाराएँ बहती हैं। धाराओं के बीच के एक टापू पर एक तपस्वी महात्मा बेल के पेड़ के नीचे धूनी लगाते थे। धूनी की ज्वालाओं व धुएँ से पेड़ की पत्तियाँ झुलसकर मुरझा गयी थीं।
बापू जी का नित्य प्रातः व सायं घूमने का नियम है इसलिए हरिद्वार में भी घूमने जाते थे। बापू जी ने वह पेड़ देखा तो उस मूक पेड़ की पीड़ा बापू जी को भी पीड़ा हुई। बापू जी ने स्वयं तथा सेवक के द्वारा आसपास से गोबर इकट्ठा किया। फिर उस पेड़ के चारों तरफ खुदाई करवाकर गोबर तथा गंगाजल डलवाया।
कुछ दिनों बाद पूज्य श्री ब्रह्मपुरी (ऋषिकेश) पधारे तो उस साधु के परिचित साधक से बोलेः “उस साधु से कहना कि बेल के पेड़ के नीचे धूनी लगाते हो तो उस पेड़ को पीड़ा होती है। उस पेड़ के पत्ते उन्हें दिखाकर बताना कि पत्ते मुरझा गये हैं, बेचारे मूक पेड़ को तकलीफ सहनी पड़ रही है।” और कुछ समय बाद ऐसा हुआ कि वे साधु उस स्थान से दूसरी जगह चले गये।
पूज्यश्री की ‘सर्वभूतहिते रतः’ दृष्टि
एक बार पूज्य बापू जी सेवक से बोलेः “आज उबटन से नहायेंगे, बहुत दिन हो गये उबटन से नहाये हुए।” कुटिया में जो उबटन था उसमें घुन पड़ गये थे। बापू जी को सेवक ने बताया कि “उबटन में घुन पड़ गये हैं।”
“लाओ, दिखाओ कितने घुन हैं ?”
देखा तो ढेर सारे थे। बापू जी बोलेः “इसको फेंकना नहीं, इसको ऐसा का ऐसा रख दो। इनको खाने-पीने दो, जीने दो।” फिर बापू जी ने ऐसे ही स्नान किया।
आमतौर पर किसी चीज़ में कीड़े पड़ जाते हैं तो लोग उसे फेंक देते हैं परंतु उससे कितने ही जीव-जंतुओं का जीवन पोषित हो सकता है ऐसी हितदृष्टि तो सर्वभूतहिते रतः बापू जी जैसे महापुरुष की ही होती है।
हर फूल अपने ढंग से खिलता है
वर्ष 2003 की बात है। एक दिन बापू जी टहलते हुए आये और एक साधक से बोलेः “बोल क्या चाहता है ? माँग ले।”
उसने कहाः “जी, कुछ नहीं।”
उस साधक के सामने की बार ऐसे प्रसंग आये कि बापू जी उससे बोलते कि “माँग ले क्या चाहिए तुझे ?”
वह कभी बोलता कि “गुरुचरणों में प्रीति बढ़ती रहे।” कभी बोलता कि “कुछ नहीं चाहिए।”
एक दिन पुनः बापू जी बड़ी प्रसन्न मुद्रा में बोलेः “बोल क्या चाहता है ?”
साधक ने कहाः “जी, मैं स्वामी रामतीर्थ जी जैसा बनना चाहता हूँ।”
बापू जी तेज आवाज में बोलेः “कभी नहीं बन सकता ! 10 जन्म में भी नहीं बन पायेगा !”
बापू जी की आवाज सुनकर सभी सन्न रह गये। अभी तो बापू जी बहुत प्रसन्न थे और अचानक यह क्या हुआ ! फिर कुछ ही क्षणों बाद पूज्य श्री बहुत ही प्रेम से बोलेः “बेटा ! हर फूल अपने ढंग से खिलता है। एक रामतीर्थ बन गये तो अब कितने भी लोग उनके जीवन-चरित्र पढ़ते जायें, बोलते जायें, दूसरा रामतीर्थ बनेगा। बनेगा तो नकल करेगा। किसी की नकल क्यों करना ! उनसे उनके गुण ले लो।”
साधक का चित्त अब निज-आत्मबोध की ओर मुड़ गया।
बापू जी की सरलता
इंडियन एयरलाइंस के डिप्टी जनरल मैनेजर (वर्तमान में सेवानिवृत्त) हर्षद भाई देसाई सन 1981-82 में अपने मामा के आग्रह पर जब पहली बार अपनी पत्नी सहित पूज्य बापू जी के दर्शन करने हेतु अहमदाबाद आश्रम पहुँचे तो उनके साथ एक अविस्मरणीय घटना घटी। उस घटना का वर्णन करते हुए वे बताते हैं- “पहले दिन जब हम आश्रम पहुँचे तो हमने देखा क एक काली दाढ़ी वाले तेजस्वी व्यक्ति कच्छा पहन के बगीचे में काम कर रहे हैं। हमने उनसे कहाः “हमें बापू जी के दर्शन करने हैं।” तो उन्होंने लम्बी सफेद दाढ़ी वाले एक बुजुर्ग काका की ओर इशारा करके कहा कि “वे बापू जी हैं।”
हम उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके जैसे ही ‘बापू जी’ सम्बोधित करके कुछ कहने लगे तो वे तुरंत बोले कि “मैं बापू जी नहीं हूँ। मैं तो आश्रम में सेवा करने वाला साधक शिवलाल हूँ। जिनसे पहले आपने बात की, वे ही पूज्य बापू जी थे !”
हम तो हैरान रह गये कि ऐसे प्रसिद्ध ब्रह्मज्ञानी संत और उनकी कैसी सरलता, विनोदमात्र व्यवहार !
विनोदमात्र व्यवहार जेनो ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण।
असंख्य लोगों के हृदय में पूजनीय स्थान प्राप्त होने पर भी वह उपाधि, प्रसिद्धि उनकी सरलता, सहजता, प्रसन्नता एवं मुस्कराहट को छीन नहीं पाती, दबा नहीं पाती ! संत श्री को खुद बगीचे में काम करते हुए देखकर मेरा हृदय तो भाव से भर गया। मैं बापू जी की तरफ घूमा, तब तक तो बापू जी अपनी कुटिया (मोक्ष कुटीर) में चले गये थे।
बाद में जब पूज्य बापू जी आये और हमें उनके दर्शन सत्संग का लाभ मिला तो हम कृतार्थ हो गये। हमने उनसे मंत्रदीक्षा भी ले ली। बापू जी ने हमें संयम, सदाचार, सेवा व भगवद्भक्ति का मार्ग दिखाया। उस पर चलने से हमारी जो लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति हुई वह लाबयान है। ऐसे महापुरुष की तुलना किससे की जा सकती है ! आज हमें बापू जी से जुड़े हुए करीब 34 साल हो गये हैं। सेवानिवृत्त होने के बाद दूसरी नौकरी करने की जगह मैं गृहस्थ में रहते हुए साधना व सेवा में अपना जीवन लगाकर धन्यता का अनुभव कर रहा हूँ।”
जब चोर बैग छोड़ के भागा
बापू जी के श्वेत वस्त्र हमें अपने जीवन में श्वेतिमा बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। श्वेतिमा माने हृदय की शुद्धि। आज से 35 साल पहले की बात है। एक आदमी अहमदाबाद आश्रम में रहने के लिए आया था। वह पैंट शर्ट पहनता था। पूज्य गुरुदेव ने कहाः “तुम आश्रम में रहते हो और पैंट शर्ट पहनते हो ! धोती पहना करो।”
वह बोलाः “बापू जी ! मेरे पास धोती नहीं है।”
बापू जी उसे अपने कंधे पर ओढ़ी धोती देते हुए बोलेः “ले और पहनने का अभ्यास चालू कर दे।”
एक रात को आश्रम में चोर आये। एक साधक जाग गया, उसने शोर मचाया तो चोर भाग गये। बाप जी शोर सुनकर कुटीर से बाहर आये, बोलेः
“क्या बात है ?”
“गुरुदेव ! चोर आये थे।”
“देखो, जाँच करो कुछ ले तो नहीं गये ?”
वह व्यक्ति बोलाः “बापू जी ! मेरा बैग ले गये।”
“बैग में क्या-क्या था ?”
“मेरे 3-4 जोड़ी कपड़े थे, थोड़े पैसे थे और बापू जी ! आपकी दी हुई धोती भी उसी बैग में थी।”
“मेरी दी हुई धोती थी तो चोर के बच्चे की ताकत नहीं कि ले जा सके। देख, वह बैग इधर-उधर ही कहीं छोड़ के भाग गये होंगे।”
आश्रम के पीछे नदी के रास्ते से थोड़ी दूर पर गये तो उन्होंने देखा कि वहाँ जमीन पर बैग पड़ा था। चोर उस बैग छोड़कर भाग गये थे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 22-24, अंक 276
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गुरुकृपा है रक्षक और जीवन-परिवर्तक


पूज्य बापू जी

एक घटना है स्वामी राम के जीवन की। एक तो हो गये स्वामी रामतीर्थ, जो टिहरी में रहते थे, जिन्होंने देश-परदेश में ब्रह्मज्ञान का डंका बजाया था। दूसरे हो गये स्वामी राम जिनका देहरादून में अभी आश्रम है। उनके गुरु बड़े उच्च कोटि के संत थे। स्वामी राम को गुरु ने आज्ञा दी कि “जाओ, दार्जीलिंग के श्मशान में 41 दिन साधना करो। 41वें दिन कुछ-न-कुछ हितकर घटना घटेगी।”

39 दिन पूरे हुए। मन में तर्क-वितर्क आया कि ’39 दिन और 41 में क्या फर्क होता है !’ घूमने में राग था, चल दिये। परंतु शिष्य को जिस दिन से ब्रह्मज्ञानी गुरु से दीक्षा मिल जाती है, उस दिन से गुरुकृपा हर क्षण उसके साथ होती है। गुरु उसकी निगरानी रखते हैं, उत्थान कराते हैं, गिरावट से बचाते हैं, खतरों से चेताते हैं और हर परिस्थिति में उसकी रक्षा करते हैं। संसार की झंझटों से तो क्या, जन्म-मरण से भी मुक्ति दिला देते हैं। शर्त केवल इतनी है कि शिष्य गुरु में दोषदर्शन, गुरु से गद्दारी करना वाला न हो।

स्वामी राम श्मशान से निकलकर आगे पहुँचे तो एक नर्तकी गीत गाये जा रही थी। तबले के बोल बजते थेः ‘धिक्-धिक्’ मानो कह रहे थे कि ‘तुझे धिक्कार है ! यह तुमने क्या किया ?’ वह फिर-फिर से दोहरा रही थीः

जीवनरूपी दीप में तेल बहुत थोड़ा है, जबकि रात्रि बहुत लम्बी है।

नर्तकी को तो पता नहीं था कि मैं साधु के लिए गा रही हूँ लेकिन उसके गीत ने स्वामी राम को प्रेरणा देकर फिर से साधना में लगा दिया।

स्वामी राम 39 दिन पूरे करके आधे में साधना छोड़ के जा रहे थे, वहीं खड़े हो गये। फिर श्मशान में वापस लौटे। 40वाँ दिन पूरा हुआ, 41वें दिन गुरु के कथनानुसार दिव्य स्फुरणाएँ और दिव्य अनुभव हुए।

स्वामी राम अपने को धनभागी मानते हुए 41वाँ दिन पुरा करके उस वेश्या के द्वार पर आ रहे थे तो वेश्या के कमरे से आवाज आयी “वहीं रुक जाओ। यह स्थान तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है।” फिर भी स्वामी राम आगे बढ़े।

फिर से आवाज आयीः “हे साधु महाराज ! यहाँ मत आइये, वापस जाइये।” फिर भी वे चलते गये। उसने अपने नौकर को रोकने के लिए आदेश दिया। बड़ी कद्दावर मूँछों वाला नौकर आया, उसने भी कहाः “युवक स्वामी ! हमारी सेठानी मना कर रही है कि यह स्थान तुम्हारे लिए उपयुक्त नहीं है, फिर आप क्यों आते हो ?”

स्वामी राम बोलेः “सेठानी को कह दो कि इस माता ने अपने संगीत के द्वारा मेरे जीवन की राह रोशन की है। लोगों की नज़र में वह नर्तकी, वेश्या, ऐसी-वैसी दिखे लेकिन मैं तो उसे एक फिसलते हुए साधु को मार्गदर्शन देने वाली माता मानता हूँ। मैं उसको प्रणाम करना चाहता हूँ। माँ के चरणों में जाना किसी बालक के लिए मना नहीं हो सकता। मैं कृतघ्न न बनूँ इसलिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने जा रहा हूँ।

अंदर से नौकर के लिए आवाज आयीः “इनको आने दीजिये, रोकिये मत।”

स्वामी राम ने उस वेश्या को प्रणाम किया, बोलेः “माँ ! मैं साधना अधूरी छोड़ के जा रहा था, गुरु के वचन का मोह-तोड़ के मनमाना जामा पहना रहा था। लेकिन तुम्हारे गीत ने मुझे प्रकाश दिया है। न जाने तुम्हारे गीत कितनों-कितनों को प्रकाश दे सकते हैं ! तुम अपने को हीन-दीन क्यों मानती हो ? तुम एक साधु की ही माँ नहीं, हजारों साधकों और हजारों साधुओं की भी माँ बन सकती हो तुममें ऐसी योग्यता है ! तुम्हारे गीत कितने सुंदर, सारगर्भित हैं !”

वेश्या की आँखों में चमक आ गयीः “वास्तव में मैं तुम्हारे जैसे संत की माँ और हजारों की माँ बनने के योग्य हूँ तो आज से मैं वही करूँगी। मैं अपने राग को भगवान के राग में बदलती हूँ। महाराज ! आपने मेरी आँखें खोल दीं।”

उस वेश्या ने अपनी कोठी और साज-समान लुटा दिये। काशी में जाकर गंगाजी में एक नाव में रहने लगी और साध्वी की दीक्षा ले ली। नाव में वह भगवान के गीत गाती। इतने मधुर गीत गाती कि गंगा किनारे आये हुए लोग उसको चारों तरफ से घेर लेते। उसने अपने नाव पर लिख रखा था कि ‘भूलकर भी मुझे साधु मत मानिये। मैं एक वेश्या थी। एक संत की सच्ची बात ने मुझे काशी की पवित्र रज तक पहुँचा दिया है। कृप्या ईश्वर के सिवाय कोई बात न करिये और मुझे प्रणाम करने की गलती न करिये।’ कीर्तन भजन करती और थोड़ी देर चुप होती। फिर कीर्तन-भजन करती और चुप होती, तो जो राग संसार में था वह भगवान में होता गया, वह शांति पाती गयी। जो द्वेष था वह भी कीर्तन-भजन से शांत हुआ। कुछ ही समय में वह वेश्या अंतरात्मा की ऊँची यात्रा में पहुँच गयी और उसने घोषणा की कि “कल प्रातःकाल मैं यह चोला छोड़कर अपने प्रेमास्पद परमात्मा की गोद में जाऊँगी। मेरे शरीर की कोई समाधि न बनाये और संत की नाई मेरे शरीर की कोई शोभायात्रा आदि न करे। मेरे शरीर को गंगाजी में प्रवाहित कर दें ताकि मछलियाँ आदि इसका उपयोग कर लें।”

दूसरे दिन प्रातःकाल भगवच्चिंतन करते हुए, जैसे योग की पराकाष्ठा पर स्थित योगी योगनिद्रा में समाहित होते हैं, ऐसे ही वह ‘हे भगवान ! हे प्रभु ! आनंद ॐ….’ करते हुए शांत हो गयी और शरीर छोड़ दिया।

उस वेश्या को पता ही नहीं था कि ‘मैं इस साधु के लिए गा रही हूँ’ लेकिन स्वामी राम ने अपना अनुभव सुनाया। वेश्या का हृदय उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम से भर गया। उसने अपनी दिव्यता को पहचाना, साधना में लग गयी, उत्तम साधकों की तरह शरीर त्यागा। यदि उसे ब्रह्मलोक की इच्छा होगी तो वहाँ समय बिताकर परम सुख की प्राप्ति के लिए – शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते। योगभ्रष्ट आत्मा उत्तम, पवित्र कुल में जन्म लेकर आत्मध्यान, सत्संग, सेवा-सान्निध्य पाकर जीवन्मुक्त हो जाता है। उसे लोक-लोकांतर में, जन्म-जन्मांतर में भटकना नहीं पड़ता। उसका तीव्र विवेक-वैराग्य बना रहा तो आत्मसाक्षात्कार भी कर लेगा।

गुरु शिष्य के कल्याण के लिए सब कुछ करते हैं। उनके अंदर निरंतर अदम्य स्नेह की धारा बहती रहती है। सत्शिष्य वही है जो गुरु के आदेश के मुताबिक चले। अतः गुरु के वचनों में कभी भी शंका नहीं करनी चाहिए। उनके वचनों में कोई भी अंतर्विरोध नहीं है। गुरुकृपा से सत्शिष्य एक दिन अपने अमरत्व का अनुभव कर लेता है और स्वामी राम की तरह वह स्वयं गुरु-पद पर आरूढ़ हो जाता है। और उस सत्शिष्य के सान्निध्य में आने वालों का भी कल्याण हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 271

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ऐसे सद्गुरु की शरण में जायें


समर्थ रामदासजी

कोई औषधियों का प्रयोग, कीमियागरी (कीमिया – लोहे-ताँबे से सोना-चाँदी बनाने की विद्या), नजरबंदी और केवल दृष्टि से इच्छित वस्तु को तत्काल प्राप्त कर लेने का मार्ग बतलाते हैं। कोई साहित्य, संगीत, राग-ज्ञान, गीत, नृत्य, तान-मान और अनेक वाद्य सिखलाते हैं। ये सभी एक प्रकार के गुरु हैं। कोई पंचाक्षरी विद्या सिखाते हैं अथवा नाना प्रकार की झाड़-फूँक या जिन विद्याओं से पेट भरता है, वे सिखाते हैं। जिस जाति का जो व्यापार है वह पेट भरने के लिए सिखाते हैं, वे भी गुरु हैं परंतु वे वास्तव में सदगुरु नहीं हैं। अपने माता-पिता भी यथार्थ में गुरु ही हैं परंतु जो भवसागर से पार करते हैं, वे सदगुरु दूसरे ही हैं।

जो ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें, अज्ञानांधकार का निवारण करें, जीव और शिव का ऐक्य करें, जीवपन और शिवपन के कारण ईश्वर और भक्त में जो भिन्नता आ गयी है, उसे जो मिटायें अर्थात् परमेश्वर और भक्त को एक करें, वे सदगुरु हैं।

भव-भयरूपी व्याघ्र पंचविषयीरूपी छलाँगे मारकर जीवरूपी बछड़े को ईश्वररूपी गौ से छीन लेता है। उस समय जो अपने ज्ञानरूपी खड्ग (तलवार) से उस व्याघ्र को मारकर बछड़े को बचाते हैं और गौ से फिर उसे मिला देते हैं अर्थात् जीव और ब्रह्म का ऐक्य कर देते हैं, वे ही सदगुरु हैं। जो प्राणी मायाजाल में पड़कर संसार-दुःख से दुःखित हों उनको जो मुक्त करते हैं, वासनारूपी नदी की बाढ़ में डूबता हुआ प्राणी घबरा रहा है – वहाँ जाकर उसे जो पार लगाते हैं, जो ज्ञान देकर गर्भवास के भारी संकट और इच्छा-बंधन की बेड़िया काट देते हैं, जो अपने उपदेश के अप्रतिम प्रभाव से आत्मदर्शन (आत्मानुभव) करा देते हैं, शाश्वत से मिला देते हैं वे ही सद्गुरु हैं, सच्चे रक्षक हैं। जीव बेचारा जो एकदेशीय है, उसे जो साक्षात ब्रह्म ही बना देते हैं और उपदेशमात्र से संसार के सारे संकट दूर करते हैं तथा वेदों का गूढ़ तत्त्व प्रकट करके जो शिष्य के हृदय में अंकित कर देते हैं, वे सदगुरु हैं।

जो गुरु शुद्ध ब्रह्मज्ञानी होते हुए भी कर्मयोगी अर्थात् ‘सत्’ का अनुभव  उपदेश करने वाले होते हैं, वे ही सदगुरु हैं और वे ही शिष्य को परमात्म-दर्शन करा सकते हैं।

शास्त्र-अनुभव, गुरु अनुभव और आत्म-अनुभव – तीनों का मनोहर संगमरूपी लक्षण जिस पुरुष में दिखे, वे ही उत्तम लक्षणों से सम्पन्न सद्गुरु हैं। जो सचमुच में मोक्ष पाना चाहता है ऐसे जिज्ञासु को पूरे मन से और अत्यंत आदर के साथ ऐसे सदगुरु की शरण में जाना चाहिए, उनसे विनम्र व निष्कपट होकर आत्मविद्या का लाभ लेना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 14, अंक 271

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