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गुरु की आवश्यकता क्यों ?


हर मनुष्य के भीतर ज्ञान का भण्डार छुपा है अर्थात् उसमें गुरुत्व विद्यमान है परंतु उसके उद्घाटन के लिए गुरु की आवश्यकता है । किसी भी दिशा में ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस विषय के गुरु की जरूरत होती है । मनुष्य को डॉक्टर बनना हो तो डॉक्टर की, वकील बनना हो तो वकील की, विद्वान बनना हो तो विद्वान की और चोर बनना हो तो चोर की शरण जाकर उस विषय का ज्ञान लेना पड़ता है । तो फिर सच्चे सुख का जो अमिट खजाना है, उस सच्चिदानंद परमात्मा का ज्ञान क्या ऐसे ही मिल जायेगा !

सहजो कारज संसार को गुरु बिन होत नाहीं ।

हरि तो गुरु बिन क्या मिले समझ ले मन माहीं ।।

परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए किसी देहधारी पूर्ण गुरु की आवश्यकता क्यों होती है, इसे समझने के लिए पहले इस बात को भलीभाँति मन में बैठा लेना जरूरी है कि पूर्ण संत या सच्चे सद्गुरु परमात्मा के ही व्यक्त रूप होते हैं । सच्चे गुरु और परमात्मा के बीच कोई अंतर नहीं होता । अहंकार ही मनुष्य और परमात्मा के बीच एकमात्र आवरण है । सच्चे संत इस आवरण को पूर्णतः दूर कर परमात्मा से उसी प्रकार एकाकार हो जाते हैं, जैसे नदी समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है ।

मनुष्य भौतिक सीमाओं के कारण प्रभु के अभौतिक रूप का दर्शन करने में सर्वथा असमर्थ है । परमात्मा तक उसकी पहुँच तभी हो सकती है जब स्वयं परमात्मा मनुष्य का रूप धारण कर मनुष्य से उसके भौतिक स्तर पर आकर मिलें । दयालु परमात्मा मनुष्य के उद्धार के लिए ठीक यही रास्ता अपनाते है । वे मानवीय रूप धारण कर संसार में आते है और परमात्मा के इसी मानवीय रूप को ‘गुरु’ नाम दिया गया है अर्थात् गुरु मनुष्य रूप में परमात्मा ही हैं । अपने मानवीय रूप के माध्यम से वे जीवों को जगाते हैं और उन्हें सही मार्ग दिखलाकर दीक्षा व कृपा के सहारे अपने से मिलाते हैं । दीक्षा ही परमात्मप्राप्ति का साधन है ।

योजयति परे तत्त्वे स दीक्षयाऽऽचार्यमूर्तिस्थः ।

‘सर्वानुग्राहक परमेश्वर ही आचार्य-शरीर में स्थित होकर दीक्षा द्वारा जीव को परम शिव-तत्त्व की प्राप्ति कराते हैं ।’

हमें ज्ञान-वैराग्यसम्पन्न सद्गुरु मिलने चाहिए । यदि सगुण और निर्गुण भक्ति की परिभाषा करें तो हम कह सकते हैं कि ज्ञान, वैराग्य, क्षमा, शील, विचार, संतोष आदि सद्गुणसम्पन्न ब्रह्मनिष्ठ संत ही सगुण भगवान हैं । उनके प्रति आत्मसमर्पण एवं श्रद्धासमर्पण सगुण भक्ति है और सत्त्व, रजस् तमस् इन तीन गुणों से रहित जो सबका अपना चेतन स्वरूप है, यही निर्गुण भगवान है । अतएव दृश्य विषयो से लौटकर स्वस्वरूप चेतन में स्थित हो जाना निर्गुण भक्ति है । भारतीय संस्कृति, दर्शन, अध्यात्म, धर्म और साधना-परम्परा में गुरु का अनन्य स्थान है । हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख आदि सभी धर्म सम्प्रदायों में गुरु-तत्त्व हमेशा शीर्षस्थ रहा है ।

कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य की पूजा गलत है । परंतु मनुष्य की पूजा न की जाय तो किसकी की जाय, पत्थर की या शून्य की ? किसी पत्थर की मूर्ति की पूजा की जाती है तो वह भी एक मनुष्य की आकृति है और शून्य-निराकार आदि तो एक धारणा है । यह ठीक है कि मनुष्य में राक्षस और पशु भी है परंतु मनुष्य ही में संत सद्गुरु, देव और भगवान भी हैं ।

निराकार निज रूप है प्रेम प्रीति सों सेव ।

जो चाहे आकार को साधु परतछ (प्रत्यक्ष) देव ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 24 अंक 198

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संसार से तरने का उपाय


परम तत्त्व के रहस्य को जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी ने देवताओं के सहस्र वर्षों (देवताओं का एक वर्ष = 365 मानुषी वर्ष) तक तपस्या की । उनकी उग्र तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महाविष्णु प्रकट हुए । ब्रह्मा जी ने उनसे कहाः ! भगवन् ! मुझे परम तत्त्व का रहस्य बतलाइये ।

परमतत्त्वज्ञ भगवान महाविष्णु ‘साधो-साधो’ कहकर प्रशंसा करते हुए अत्यंत प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी से बोलेः अथर्ववेद की देवदर्शी नामक शाखा में ‘परमतत्त्वरहस्य’ नाम अथर्ववेदीय महानारायणोपनिषद् में प्राचीन काल से गुरु-शिष्य संवाद अत्यंत सुप्रसिद्ध होने से सर्वज्ञात है । जिसको सुनने से सभी बंधन समूल नष्ट हो जाते हैं, जिसके ज्ञान से सभी रहस्य ज्ञात हो जाते हैं ।

एक सत्शिष्य ने अपने ब्रह्मनिष्ठ गुरु की प्रदक्षिणा की, उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और विनयपूर्वक पूछाः “भगवन ! गुरुदेव ! संसार से पार होने का उपाय क्या है ?”

गुरु बोलेः “अनेक जन्मों के किये हुए अत्यंत श्रेष्ठ पुण्यों के फलोदय से सम्पूर्ण वेद-शास्त्र के सिद्धान्तों का रहस्यरूप सत्पुरुषों का संग प्राप्त होता है । उस सत्संग से विधि तथा निषेध का ज्ञान होता है । तब सदाचार में प्रवृत्ति होती है । सदाचार से सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है । पापनाश से अंतःकरण अत्यंत निर्मल हो जाता है ।

तब अंतःकरण सद्गुरु का कटाक्ष चाहता है । सद्गुरु के कृपा-कटाक्ष के लेश से ही सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है, सब बंधन पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं और श्रेय के सभी विघ्न विनष्ट हो जाते हैं । सभी श्रेय (कल्याणकारी गुण) स्वतः आ जाते हैं । जैसे जन्मांद्य को रूप का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार गुरु के उपदेश बिना करोड़ों कल्पों में भी तत्त्व ज्ञान नहीं होता । सद्गुरु के कृपा-कटाक्ष के लेश से अविलम्ब ही तत्त्वज्ञान हो जाता है ।

जब सद्गुरु का कृपा-कटाक्ष होता है तब भगवान की कथा सुनने एवं ध्यानादि करने में श्रद्धा उत्पन्न होती है । उससे हृदय में स्थित दुर्वासना की अनादि ग्रंथि का विनाश हो जाता है । तब हृदय में स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ विनष्ट हो जाती हैं । हृदयकमल की कर्णिका में परमात्मा आविर्भूत होते हैं । इससे भगवान विष्णु में अत्यंत दृढ़ भक्ति उत्पन्न होती है । तब विषयों के प्रति वैराग्य उदय होता है । वैराग्य से बुद्धि में विज्ञान (तत्त्वज्ञान) का प्राकट्य होता है । अभ्यास के द्वारा वह ज्ञान क्रमशः परिपक्व होता है ।

परिपक्व विज्ञान से पुरुष जीवन्मुक्त हो जाता है । सभी शुभ एवं अशुभ कर्म वासनाओं के साथ नष्ट हो जाते हैं । तब अत्यंत दृढ़, शुद्ध, सात्त्विक वासना द्वारा अतिशय भक्ति होती है । अतिशय भक्ति से सर्वमय नारायण सभी अवस्थाओं में प्रकाशित होते हैं । समस्त संसार नारायणमय प्रतीत होता है । नारायण से भिन्न कुछ नहीं है, इस बुद्धि से उपासक सर्वत्र विहार करता है ।

इस प्रकार निरंतर (सहज) समाधि की परम्परा से सब कहीं, सभी अवस्थाओं में जगदीश्वर का रूप ही प्रतीत होता है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2009, पृष्ठ संख्या 21 अंक 198

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सिर दीजै सदगुरु मिले तो भी सस्ता जान


परमात्मस्वरूप सदगुरु की महिमा अवर्णनीय है। उनकी महिमा का गुणगान, उनकी स्मृति तथा चिंतन साधकों को अपूर्व सुख, शांति, आनंद और शक्ति प्रदान करता है। वे कर्म में निष्कामता सिखाते हैं, योग की शिक्षा देते हैं, भक्ति का दान देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं और जीते जी मुक्ति का अनुभव कराते हैं।

आध्यात्मिक विकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए, आत्मपद पाने के लिए हमें मार्गदर्शक अर्थात् पूर्ण सत्य के ज्ञाता समर्थ सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे, प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, वैसे ही ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु के बिना ज्ञान का प्रकाश नहीं, सुषुप्त शक्तियों का विकास नहीं और अज्ञानांधकार का नाश संभव नहीं।

सदगुरु चिंता और पाप को हरने वाले, संशय व अविद्या को मिटाने वाले तथा शिष्य के हृदय में परमात्म-प्रेम की स्थापना करने  वाले होते हैं। वे समस्त मानव-जाति के हितचिंतक, प्राणिमात्र के परम सुहृद तथा भगवदीय गुणों के भण्डार होते हैं। वे शिष्य के दुर्गुण-दोषों को हटाते हैं, क्लेशों को मिटाते हैं और उसे सुख-दुःख के प्रभाव से रहित समतामय नवजीवन प्रदान करते हैं।

सदा परब्रह्म परमात्मा के साथ एकत्व को प्राप्त ऐसे महापुरुषों में एक ऐसी अनोखी दृष्टि होती है, जिससे वे मानव को पूर्णरूप से बदल देते हैं। वे परमात्म-तत्त्व में पूर्ण प्रतिष्ठित रहते हैं, परमार्थ में पूर्ण कुशल और व्यवहार में अत्यंत निपुण होते हैं। उनसे सच्चाई से जुड़े रहने वाले शिष्य महान संकट को भी सहज में पार कर लेते हैं। उनके सान्निध्य में साधक घोर विपरीत परिस्थिति में भी निर्भय व निर्लेप होकर रहते हैं। उन सदगुरु की महिमा अनोखी है। वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं।

वे पूर्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान जैसी स्थिति में हो सकते हैं। साधारणतया उन्हें समझना, उन्हें पहचान पाना कठिन होता है। वे पंडितों को पढ़ा सकते हैं और मूढ़ों से सीखते हैं। वे शेरों से लड़ सकते हैं और गीदड़ को देखकर भाग सकते हैं। कुछ नहीं मिले तो माँगते हैं और मिले तो त्याग सकते हैं। ऐसे शहंशाह महापुरुषों से हर कोई कुछ-न-कुछ माँगता है। उनके पास बाह्य कुछ न दिखते हुए भी माँगने वाले को सब कुछ दे देते हैं। जगत की महा मूल्यवान चीजें भी उनके लिए मूल्यहीन हैं। ऐसे आत्मसिद्ध महापुरुषों के पास सिद्धियाँ सहज ही निवास करती हैं। उनके पास सिद्धियाँ स्वयं चलकर आती हैं, ऋद्धियाँ वहीं अपना निवास स्थान बना लेती हैं फिर भी उन आत्मानंद में तृप्त महापुरुषों को उनकी  परवाह नहीं होती। उनके द्वारा सिद्धियों का उपयोग न करने पर भी सिद्धियाँ अपने-आप क्रियाशील हो जाती हैं। ऐसे नित्य नवीन रस से सम्पन्न आत्मसिद्ध पुरुषों को पाकर पृथ्वी अपने को सनाथ समझती है।

ऐसे सदगुरु अपने शिष्य को सत्यस्वरूप बताकर, भेद में अभेद को दर्शाकर और शिष्य के जीवत्व को मिटा कर उसे शिवत्व में स्थित कर देते हैं। उन सदगुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है, उनको साधारण जड़बुद्धिवाले नहीं समझ पाते।

सदगुरु साक्षात परब्रह्मस्वरूप हैं। वे शिष्य की अंतरात्मा और प्रिय प्राण हैं। वे प्रिय प्राण ही नहीं साधकजनों की साधन संपत्ति हैं। इतना ही नहीं साधना का लक्ष्य भी वे ही हैं।

गुरुपादोदकं पानं गुरोरूच्छिष्टभोजनम्।

गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः।।

‘गुरुदेव के चरणामृत का पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए।’

जो गुरुपादोदक का सेवन करता है, उसके लिए अमृत तो एक साधारण वस्तु है। गुरुपूजा ही सार्वभौम महापूजा है ऐसा ‘गुरुगीता’ कहती है। सर्वतीर्थ, सर्वदेवता और अधिक क्या कहा जाये, विश्वव्यापी, विश्वाकार ब्रह्म श्रीसदगुरुदेव ही हैं।

साधक को अपने मंत्र का सम्मान से, सत्कार से, श्रद्धा से पूर्ण प्रेम से अनुष्ठान करते रहना चाहिए। सदगुरु कृपा कभी व्यर्थ नहीं जाती। चाहे प्रकृति में परिवर्तन हो जाये-सूर्य तपना छोड़ दे, चंद्रमा शीतलतारहित हो जाये, जल बहना त्याग दें, दिन की रात और रात का दिन ही क्यों न हो जाये किंतु एक बार हुई सदगुरु की कृपा व्यर्थ नहीं जाती।

यदि इस जन्म-मृत्यु रूप संसार से मुक्ति नहीं हुई, साधना अधूरी रह गयी तो यह कृपा शिष्य के साथ-साथ जन्म-जन्मांतरों में भी रहती है। किसी देश या किसी लोक में जाने पर भी जैसे, मानव का पातकपुंज फल देने के लिए अवसर ढूँढता रहता है, वैसे ही शिष्य पर हुई कृपा शिष्य के पीछे-पीछे ही फिरती है। इसलिए आप धैर्य से, उत्साह से, प्रेम से साधन के अभ्यास में लगे रहें।

साधक दिन-प्रतिदिन जितनी गुरुभक्ति बढ़ाता है, जितना-जितना सदगुरु के चित्त के साथ एकाकार होता है, जितना-जितना उनमें तन्मय होकर मिलता है, उतनी ही उच्च उज्जवल प्रेरणाएँ, उत्कृष्ट भाव और निर्विकारी जीवन को प्राप्त करता है।

सदगुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य के जीवन में प्रवेश करके उसके समस्त पातकों को भस्म कर देते हैं, आंतरिक मल को धो देते हैं। इसीलिए गुरु-सहवास, गुरु-संबंध, गुरु आश्रमवास, गुरुतीर्थ का पान, गुरुप्रसाद, गुरुसेवा, गुरु-गुणगान, उनके दिव्य स्पंदनों का सेवन, गुरु के प्राण-अपान द्वारा सोऽहम् स्वर के साथ निकलने वाली चैतन्यप्रभा की किरणें और गुरु आज्ञापालन शिष्य को पूर्ण परमात्म-पद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य ?

उन सदगुरु से हम कैसा व्यवहार करें, कैसे प्रेम करें, उनके उपकार को कैसे चुकायें, उनका सम्मान कैसे करें, उनकी पूजा कैसे करें ?

हे प्यारे सदगुरुदेव ! आप हमारे मलिन, अशुचि, विकारी, भौतिक शरीर में भी भेदभाव नहीं देखते, शुद्धाशुद्ध नहीं देखते, रोगारोग नहीं देखते। आप करुणासिंधु हमारे पापों को, तापों को, हमारी अशुचि को धो डालते हैं। नाड़ी-नाड़ी में, रक्त के कण-कण में शक्ति के रूप में प्रविष्ट होकर उन्हें क्रियाशील बनाते हैं। आपका शक्तिपात शरीर के अंग-अंग में, अच्छे बुरे स्थानों में, नाड़ियों के मैल-भरे, रोग-भरे कफ-पित्त-वातरूप दोषों का अंतर यौगिक क्रियाओं द्वारा साफ करता है। अंतःकरण को पवित्र व निर्मल बनाता है।

ऐसे सदगुरु के समान कौन मित्र, कौन प्रेमी, कौन माँ और कौन देवता है ? ऐसे सदगुरु का हम क्या दासत्व कर सकते हैं ? जिन सदगुरु ने हमारे कुल, जाति, कर्माकर्म, गुण-दोष आदि देखे बिना हमको अपना लिया, उन सदगुरु को हम दे ही क्या सकते हैं ? शक्तिपात करके उन्होंने अपनी करूणा-कृपा सिंच दी, उसके बदले में हम क्या दे सकते हैं ? उनका कितना उपकार है, कितना अनुग्रह है, कितनी दया है !

संदर्भः ‘चित्शक्ति विलास’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 119

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