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भक्तों के तारणहार केवल सद्गुरुनाथ-संत ज्ञानेश्वरजी


गुरु संतकुल के राजा हैं । गुरु मेरे प्राणों के विश्राम-स्थान हैं । इस त्रिलोकी में दृष्टि डालने पर सद्गुरु के सिवाय दूसरा कोई ईश्वर देखने में नहीं आता । गुरु सुख के सागर हैं, प्रेम के भण्डार हैं । गुरु धैर्य के पहाड़ हैं, जो किसी भी अवस्था में डगमगाता नहीं है । गुरु वैराग्य के मूल कारण हैं एवं साक्षात अद्वैत परब्रह्म हैं । सूक्ष्म शरीर में रहने वाली आत्मा-अनात्मा की ग्रंथि को सद्गुरु तत्काल खोल देते हैं । गुरु साधक के लिए सहायक हो जाते हैं । सद्गुरु भक्तों की माता हैं, भक्तों की इच्छा पूर्ण करने वाली कामधेनु गाय हैं जो भक्तों के घर ज्ञान-आनंद-शांतिरूपी दूध देती है । गुरु अपने भक्त के बुद्धिरूपी नेत्र में ज्ञानांजन लगाकर उसे आत्मघन का अनमोल खजाना दर्शाते हैं । गुरु मुमुक्षु को साधना-सेवा का सौभाग्य प्रदान कर ब्रह्मवेत्ता साधुओं के पास जो आत्मबोध (आत्मानुभव) होता है, उसकी प्राप्ति करा देते हैं । गुरु मुक्ति की शोभा हैं । गुरु दुष्टों को दंड (शिक्षा) देते हैं एवं शिष्य के पापों को नाना प्रकार से नष्ट करते हैं । श्री सद्गुरु शिष्य को ‘तुम्हारी देह भी प्रत्यक्ष काशी ही है ।’ ऐसा उपदेश देकर तारक मंत्र देते हैं । इससे रुक्मिणी देवी के पति एवं जगतपिता श्री भगवान के ध्यान में हमारा मन सहज में ही लगा हुआ है ।

गुरु का कार्य क्या है ?

गुरु का मुख्य कार्य शिष्य का हाथ पकड़ना एवं आँसू पोंछना नहीं होता वरन् शिष्य के अहंकार को तथा शिष्य एवं मुक्ति के मध्य जो कुछ अव्यवस्थित है उसे हटाना है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 330

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मोक्षसुख बरसाने वाले सद्गुरु के छः रूप


आचार्यो मृत्युर्वरूणः सोम ओषधयः पयः ।

जीमूता आसन्तसत्वानस्तैरिदं स्वऽराभृतम् ।।

‘सद्गुरु मृत्युरूप, वरूणरूप, सोमरूप, औषधिरूप, पयरूप और मेघरूप हुए हैं । उनके द्वारा यह मोक्षसुख लाया गया है अर्थात् उन्होंने ही साधक में वह नया आत्मबोध भर दिया है ।’ (अथर्ववेदः कांडः 11, सूक्त 7, मंत्र 14)

इस मंत्र में वेद भगवान ने सद्गुरु के छः रूपों का वर्णन किया हैः

1 मृत्युरूपः इच्छापूर्ति एवं शरीर की सुख-सुविधाओं का संग्रह ही जनसाधारण के जीवन का लक्ष्य होता है इसलिए प्रारम्भ में शिष्य शरीर और मन के स्तर पर जी रहा होता है । सद्गुरु शिष्य के शरीर और मन स्तर के जीवन को धीरे-धीरे मिटा के शिष्य को धर्म और ईश्वर का नूतन जीवन प्रदान करते हैं ।

2 वरूणरूपः जब शिष्य शरीर और मन स्तर के जीवन से ऊपर उठने में अपनी सहमति देता है तब वह सद्गुरु के दूसरे रूप का दर्शन कर पाता है । वैदिक ऋषि जिसे ‘वरूणपाश’ कहते थे उसी को स्मृतिविकारों ने ‘जनेऊ’ कहा है । जनेऊ के 3 सूत्र 3 वरूणपाशों के प्रतीक हैं । वरूणरूप सद्गुरु शिष्य की सर्वांगीण उन्नति के लिए उसके मस्तिष्क (बुद्धि), हृदय और पेट को इन तीन पाशों से नियंत्रित करते हैं । कैसे ?

सद्गुरु शिष्य की बुद्धि में वेदांत-ज्ञानामृत की वर्षा करके उसमें स्थित संसार की सत्यता और शरीर में अहंबुद्धि के कुसंस्कारों को धो डालते हैं । सद्गुरु अपने अखंड व अनंत अद्वैत प्रेम की बाढ़ के प्रचंड प्रवाह में शिष्य के हृदय के द्वैत, राग-द्वेष, भय, भ्रम के भावों को जड़-मूल से उखाड़कर बहा ले जाते हैं । शिष्य ऐसे जिन संकीर्ण भावों के चंगुल से अपने को बचा नहीं पा रहा था, उनसे सद्गुरु हँसते-खेलते, प्रभु-प्रेमरस, अंतरात्म-रस पिलाते पार ले जाते हैं । शिष्य को आहार-विहार का युक्ति युक्त मध्यम मार्ग सिखाकर उसकी उदर-संबंधी अनियंत्रितताओं को बाँध लेते हैं और उसे स्वास्थ्य के मार्ग पर आगे बढ़ाते हैं । इस प्रकार सद्गुरु के इन तीन पाशों से शिष्य का जीवन आत्मोन्नति के लिए आत्मवश्यक संयम के मार्ग पर गतिशील होता है ।

शिष्य जनेऊ के तीन सूत्रों को धारण करने के साथ जीवन में ये तीन संकल्प लेते हैं कि वे अपनी बुद्धि को वेदांत-ज्ञान से तथा हृदय को अद्वैत प्रेम से और पेट को हितकारी, अल्प एवं ऋतु-अनुकूल भोजन-प्रसाद से पोषित करेंगे ।

3 सोमरूपः सद्गुरु का तृतीय रूप है सोमरूप । जब शिष्य गुरु के वरूणरूप के तीनों पाशों से बँधने की स्वीकृति देता है तब सद्गुरु उसकी बुद्धि में सोमरूप में अवतरित होकर अमृत की वर्षा करते हैं । ऋग्वेद (मंडल 9, सूक्त 66, मंत्र 24) में कहा गया हैः

पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत् ।

कृष्णा तमांसि जङ्घनत् ।।

‘सोम (अर्थात् सबको पवित्र करने वाला परमात्मा) बड़े बलरूप, सत्यरूप प्रकाश को पैदा करता है और काले (घोर) अंधकार को नष्ट करता है ।’

सद्गुरु शिष्य की बुद्धि में सोम के रूप में यानी ब्रह्मज्ञान के प्रकाश के रूप में प्रकट होते हैं ।

वेद के इसी अमृत-संदेश का गान गीता अपनी भाषा में करती हैः

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।।

‘श्रद्धावान्, आत्मज्ञानप्राप्ति के साधनों में लगा हुआ और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है तथा ज्ञान को प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है ।’ (गीताः 4.39)

4 औषधिरूपः जैसे औषधि लेने से रोग मिटने लगता है वैसे ही सद्गुरु की शरण लेने वाले शिष्य को उनके द्वारा सिखायी गयी जीवन जीने की युक्ति से शरीर, मन और बुद्धि के रोगों से सहज में छुटकारा मिलने लगता है । गुरुकृपा से यह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सूक्ष्म व्याधियों पर, जिन्हें बहुत वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद भी जीतना मुश्किल होता है, विजय पाने में सक्षम होने लगता है । जब शिष्य सद्गुरु के पूर्ण शरणागत होता है तब वह जन्म-मरण के महारोग पर भी विजय प्राप्त करके स्वस्थ अर्थात् आत्मस्थ हो जाता है । फिर शरीर में कोई व्याधि भी जाय तो भी वह उस तक नहीं पहुँच सकती ।

5 पयरूपः यह सद्गुरु का पंचम रूप है । पय अर्थात् दूध । दूध परम सात्त्विक आहार के रूप में गौरवान्वित किया गया है । जैसे नवजात शिशु के लिए उसकी माँ का दूध तथा बड़ों के लिए देशी गाय का दूध सुपाच्य, बलप्रद और पूर्ण आहार माना जाता है, वैसे ही साधकों के लिए सद्गुरु का वचनामृत सुबोध, आत्मबल-प्रदायक तथा पूर्ण ज्ञानसम्पन्न पय है । यह साधकों का शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक – सर्वांगीण पोषण करता है ।

गाय दिनभर अलग-अलग वनस्पतियाँ चरती है, पचाती है और उनके पोषक व औषधीय गुणों को ग्रहण करके साररूप मधुर दूध का निर्माण कर अपने बछड़ों को पिला देती है । वैसे ही पूज्य बापू जी जैसे ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु कितने ही उच्च कोटि के महापुरुषों के अनुभवों, सत्शास्त्रों एवं अपने अनुभवों का सार निकालकर अपनी दिव्य अमृतवाणी व कृपादृष्टि के द्वारा उसे जनमानस को सहज में ही पिला देते हैं । जैसे दुग्धों में गोदुग्ध सर्वश्रेष्ठ है ऐसे ही ज्ञानों में आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ है । यह आत्मज्ञान, आत्मलाभ, आत्मसुख, आत्मानुभव मानव-जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है । यह सभी ज्ञानों, लाभों, सुखों एवं अनुभवों की चरम सीमा है । इसके बिना मानव-जन्म सफल नहीं माना जाता ।

6 मेघरूपः सद्गुरु जब मेघरूप होकर शिष्य के हृदय में बरसते हैं तब शिष्य परमात्मरस से तृप्त होने लगता है । जैसे गर्मी में तपी हुई भूमि पर मेघ के बरसने से उसमें शीतलता आ जाती है, हरियाली आने लगती है और वह भूमि अन्न, फल, फूल आदि उत्पन्न करके सारे संसार-ताप से तपे हुए शिष्य के अंतःकरण में मेघरूप होकर बरसते हैं और शिष्य अंतरात्मा की शांति प्राप्त करता है । उसका जीवन अद्वैत ज्ञान की मीठी सुगंध एवं अद्वैत प्रेम के माधुर्य रस से भरा होने लगता है । वह परमात्म-ज्ञान से स्वयं तो तृप्त हो ही जाता है, साथ ही संसार के जीवों को भी उससे तृप्ति मिलने लगती है ।

जैसे संसार का खारा पानी जब मेघरूप होकर बरसता है तभी पीने योग्य बनता है, वैसे ही वेदरूपी सागर में स्थित ज्ञानरूपी जल जब सद्गुरुरूपी मेघ द्वारा बरसता है तभी वह मनुष्यों के लिए सुगम, सुपाच्य हो पाता है और उसी से शिष्य, साधक, श्रोता आत्मतृप्ति का अनुभव करते हैं ।

इस प्रकार सद्गुरु अपने छः रूपों से साधकों, भक्तों, सत्संगियों को उन्नत करते हुए उन्हें आत्मसुख से परितृप्त कर देते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2019, पृष्ठ संख्या 2,9,10 अंक 320

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हे मनुष्य ! तू ईश्वरीय वचन को स्वीकार कर


अपक्रामन् पौरूषेयाद् वृणानो दैव्यं वचः ।

प्रणीतीरभ्यावर्तस्व विश्वेभिः सखिभिः सह ।।

‘हे मनुष्य ! पुरुषों की, मनुष्यकृत बातों से हटता हुआ देव-संबंधी, ईश्वरीय वचन को श्रेष्ठ मान के स्वीकार करता हुआ तू इन दैवी उत्तम नीतियों का, सुशिक्षाओं का अपने सब साथी मित्रों सहित सब प्रकार से आचरण कर ।’ (अथर्ववेदः कोड 7 सूक्त 105, मंत्र 1)

सामान्य मनुष्य दिन का काफी समय क्या सुनता है ? दुनियावी खबरें, जगत की वस्तुओं की प्रशंसा या घटनाओं के वर्णन, दूसरों की निंदा-स्तुति की बातें, मिथ्या जगत में सत्यबुद्धि बढ़ाने वाली बातें, मनोरंजन की बातें आदि-आदि ।

ब्रह्मवेत्ता संत श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी के चित्त में जब यह प्रश्न उठा कि ‘श्राव्यं सदा किम् ? अर्थात् सदा सुनने योग्य क्या है ?’ तब उन्होंने अपने आत्मा की गहराई में गोता लगाया और उन्हें उत्तर मिला ‘गुरुवेदवाक्यम्’ अर्थात् सद्गुरु और वेद के वचन । ये सदा सुनने योग्य क्यों कहे गये हैं ? इसे जानने के लिए हम भी थोड़ा गहराई में जाँचें ।

चार प्रकार के प्रमाण

प्रमाकरणं प्रमाणम् । ‘प्रमा’ पाने सत्य ज्ञान और ‘करण’ याने साधन । सत्य ज्ञान की प्राप्ति के  साधन ‘प्रमाण’ कहलाते हैं । न्यायसूत्र (1.1.3) के अनुसार ये चार प्रकार के हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाण ।

जो इन्द्रियों के सम्मुख है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । जिसके द्वारा अऩुमान करके किसी दूसरी वस्तु का ज्ञान पाया जाता है वह अनुमान प्रमाण है । किसी जानी हुई वस्तु की समरूपता से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वह उपमान प्रमाण है । चौथा है शब्द प्रमाण ।

क्या है ‘शब्द प्रमाण’ ?

शब्द प्रमाण में एक तो आते हैं वेद-वचन और दूसरे हैं आप्तपुरुषों के वचन ।

‘न्याय दर्शन’ के प्रणेता महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र (1.1.7) में  ‘शब्द प्रमाण किसे कहते हैं यह स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘आप्तोपदेशः शब्दः ।’ अर्थात् आप्तपुरुष का वाक्य शास्त्र प्रमाण है । जिन्होंने स्वयं का, वेदनिर्दिष्ट अपने ब्रह्मस्वरूप का अनुभव किया हो ऐसे महापुरुष के वचन परम विश्वसनीय होते हैं और वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ‘आप्तपुरुष’ कहे जाते हैं । आप्तपुरुष ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं । इसलिए उनके उपदेश को ‘शब्द प्रमाण’ कहा गया है । उपदेश में कल्याण का भाव निहित होता है । आप्तपुरुष सबका मंगल, सबका भला हो इस मंगल भाव से भरकर सबको सच्चा ज्ञान देते हैं, कल्याण का मार्ग दिखाते हैं, उस पर चलने की प्रेरणा, शक्ति देते हैं ।

वेदों, उपनिषदों के ज्ञान का अपने आत्मरूप में अनुभव करके लोगों को समझाने की शक्ति, भाषा-शैली व युग के अनुरूप दृष्टांतों आदि के माध्यम से जब वही अपौरूषेय वैदिक ज्ञान वेदांतवेत्ता, ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के श्रीमुख से वचनों के रूप प्रवाहित होता है तब वे वचन भी शब्द प्रमाण माने जाते हैं और उन वचनों से ब्रह्मप्राप्ति होती है । ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । श्री योगवासिष्ठ महारामायण, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भगवदगीता, विचारसागर तथा और भी जो वेदांत के सद्ग्रंथ हैं, पूज्य बापू जी जैसे वेदांतवेत्ता आत्मानुभवी महापुरुष के जो अमृतवचन हैं, जिन्हें ‘ऋषि दर्शन’, ‘ऋषि प्रसाद’, ‘लोक कल्याण सेतु’ एवं सत्साहित्य, डी.वी.डी., एम. पी. थ्री आदि के माध्यम से घर पर बैठे समाज प्राप्त कर रहा है वे भी शब्द प्रमाण है । सत्संग-अमृत के साथ इन आप्तपुरुष के प्रत्यक्ष सान्निध्य-दर्शन का भी लाभ मिले तो व्यक्ति, परिवार और समाज का कितना कल्याण होता है और हो सकता है यह असंख्य लोगों ने देखा है, जानते-मानते हैं ।

मानवी मति माया-अंतर्गत होने से सीमित है अतः उससे जो बातें उपजती हैं वे भी सीमित, काल्पनिक और सांसारिक व्यक्ति वस्तु-परिस्थितियों से संबंधित होती हैं । किंतु ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के वचन मति से नहीं बल्कि ऋतम्भरा प्रज्ञा से प्रस्फुटित होते हैं । मति जब यह अनुभव कर लेती है कि उसका ‘मति’ रूप काल्पनिक है, वास्तव में अखंड, अद्वैत, एकरस परमात्मा ही है, अन्य कुछ नहीं है तब वह ‘ऋत’ माने सत्य से ओतप्रोत प्रज्ञा (मति) ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ कहलाती है । अतः उससे स्फुरित विचार या शब्द जब महापुरुषों के श्रीमुख से प्रवाहित होते हैं तब वे ‘शब्दब्रह्म’ कहलाते हैं एवं अपौरूषेय वेद-वाणी, ईश्वरीय वचन के रूप में विश्वपूजित होते हैं तथा उनका आदरपूर्वक श्रवण-मनन करके आत्मकल्याण किया जाता है ।

संत तुकाराम जी कहते हैं- “तुका तरी सहज बोले वाणी । त्याचें घरीं वेदांत वाहे पाणी ।।

अर्थात् तुकाराम वाणी से सहज वचन बोलते हैं, वेदांत उनके घर पानी भरता है ।” तात्पर्य ,ब्रह्मवेत्ता महापुरुष द्वारा सहज में निकली हुई वाणी भी वेदांत के रहस्यों का उद्घाटन करती है ।

ब्रह्मवेत्ता संत निलोबाजी कहते हैं- “संतों के श्रीमुख से निकलने वाले सहज वचन भी वेद वचन ही होते हैं क्योंकि वे अखंडरूप से वेदों का ही चिंतन करते हैं, जिससे उनके मुख से वेद ही बहते हैं ।”

सद्गुरु की आवश्यकता क्यों ?

अपौरूषेय वेद-ज्ञान गूढ़ और समझने में कठिन है । ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के मार्गदर्शन बिना अपने ही मन से कोई वेदों, उपनिषदों का अध्ययन करके उनका अर्थ समझने की कोशिश करे तो उसे अपनी कल्पना, अपनी मति के अनुरूप थोड़ी-बहुत समझ मिल सकती है, थोड़ा-बहुत सुख-शांति का आभास हो सकता है प उन सद्ग्रंथों के वचनों का जो लक्ष्यार्थ है, जहाँ वे वचन दिशा-निर्देश करके अपने-आपको भी हटा लेते हैं अर्थात् उस आत्मा-परमात्मा को वाणी या शब्दों से परे ‘वर्णनातीत’ बता देते हैं, वह जो लक्षित आत्मस्वरूप है उसे तो उस निःशब्द स्वरूप के अनुभवी महापुरुषों के बिना जाना ही कैसे जा सकता है ?

स्वामी शिवानंद जी द्वारा विरचित ‘गुरुभक्तियोग’ सत्शास्त्र में स्पष्ट शब्दों में कहा गया हैः ‘साधक कितना भी बुद्धिमान हो फिर भी सद्गुरु अथवा आध्यात्मिक आचार्य की सहाय के बिना वेदों की गहनता प्राप्त करना या उनका अभ्यास करना उसके लिए सम्भव नहीं है ।’

इसलिए वेदों को सागर की तरह बताया गया है और ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को मेघ की तरह । सागर का पानी सीधे न तो पीने के काम आता है और न ही उससे भोजन बनाया जा सकता है लेकिन जैसे सागर के पानी को सूर्य की किरणें उठाती हैं एवं वही पानी जब मेघ के रूप में बरसता है तो अमृत के समान मधुर हो जाता है । ऐसे ही वेदरूपी सागर से उपनिषदों का मधुर, सुपाच्य, सारभूत ज्ञानामृत ब्रह्मवेत्ता संत उठाते हैं और फिर जब सबका मंगल, सबका भला हो इस कारूण्यभाव से भरकर बरसाते हैं तो हमारे लिए वह सत्संग-अमृत बन जाता है ।

श्री गुरुग्रंथ साहिब में आता हैः

वाणी गुरु गुरु है वाणी, विचि1 वाणी अंम्रितु2 सारे ।

1 भीतर 2 अमृत

पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “वेद पढ़ने से किसी को आत्मसाक्षात्कार हो जाय, इसका कोई भरोसा नहीं है किंतु ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के वचनों से आत्मसाक्षात्कार कइयों के जीवन में हुआ है ।”

संत कबीर जी ने कहा हैः

गुरु बिन ज्ञान न उपजे, गुरु बिन मिटे न भेद ।

गुरु बिन संशय ना मिटे, जय जय जय गुरुदेव ।।

श्रेष्ठ सुनीति, सुशिक्षा हैं ये वचन

श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ता महापुरुष या सद्गुरु के आत्मानुभव-सम्पन्न वचन श्रेष्ठ सुनीति, सुशिक्षा हैं और वे वचन हमें दुःख, बाधा, अशांति, कष्ट, उद्वेग आदि से परे ले जाकर अपने अखंडस्वरूप परमात्मदेव का प्रसाद हमारे हृदय में प्रकटाने की क्षमता रखते हैं । अतः अपने मित्रों, साथियों सहित स्वयं उन्हीं वचनों को सर्व प्रकार से स्वीकार कर आचरण में लाने की शिक्षा वेद भगवान दे रहे हैं । मनुष्यकृत वचन जगत की सत्यता बढ़ाते हैं जबकि सद्गुरु के मुख से प्रवाहित वैदिक ज्ञान-गंगा जगत की सत्यता को मिटा के आत्मा-परमात्मा की सत्यता हमारे हृदय में दृढ़ करती है । ईश्वर की सत्यता माने अपने अमिट आनंदस्वरूप की सत्यता, अपने वास्तविक मैं की सत्यता । सद्गुरुवचन के श्रवण, मनन और निदिध्यासन मात्र से अपने-आप में ही आनंद और सुख-शांति की प्राप्ति होती है यह अनेक साधकों और वेदांत के जिज्ञासुओं का अनुभव है । अतः वेद भगवान के ये वचन बड़ा ज्ञानांजन प्रदान करने वाले हैं ।

अपौरूषेय वेद-ज्ञान को हर व्यक्ति को नहीं समझ सकता लेकिन गुरुसेवा, गुरु-शरणागति और गुरु की एकनिष्ठ भक्ति की ऐसी भारी महिमा है कि इनके द्वारा सत्यकाम जाबाल, तोटकाचार्य, पूरणपोड़ा, शबरी भीलन, बहिणाबाई जैसे अशिक्षित शिष्य, भक्त भी भगवद्-तत्त्व का साक्षात्कार कर पार हुए हैं । इसलिए भगवान शिवजी ने कहा हैः

ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः ।

गुरोः समानतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम् ।।

‘गुरुदेव के प्रति (अनन्य) भक्ति से ज्ञान के बिना भी मोक्षपद मिलता है । गुरु के मार्ग पर चलने वालों के लिए गुरुदेव के समान अन्य कोई साधन नहीं है ।’ इसलिए गुरुभक्तियोग को ‘सलामत योग’ भी कहा गया है ।

आज प्रचार-प्रसार के आधुनिक साधन तो बहुत हो गये किंतु इनसे जगत की सत्यता बढ़ाने वाली बातों का ही प्रचार अधिक बढ़ा है । साधन बुरे नहीं हैं लेकिन उनका दुरुपयोग होना बुरा है । अतः बड़ा उपकार है पूज्य बापू जी जैसे वेदांतवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का, जिन्होंने इन्हीं आधुनिक साधनों का सदुपयोग करके विश्वभर में वेदांत-ज्ञान, ब्रह्मज्ञान का प्रचार कराया है और धनभागी हैं वे शिष्य, भक्त एवं सज्जन, जो इस दिव्य ज्ञान को व्यापक समाज तक पहुँचाने के दैवी कार्य में सहभागी बनते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 2, 28,29 अंक 317

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