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लोक कल्याण की मूर्तिः देवर्षि नारद जी


देवर्षि नारद जयंती 11 मई 2017

पूज्य बापू जी

कोई झगड़ालू होता है तो कुछ लोग नासमझी से कह देते हैं कि ‘यह तो नारद है।’ अरे, नारद ऋषि को तुम ऐसी नीची नज़र से क्यों देखते हो ? इससे नारदजी का अपमान करने का पाप लगता है।

नारदजी भक्ति के आचार्य हैं। वेद, उपनिषद के मर्मज्ञ, मेधावी, सत्यभाषी, त्रिकालदर्शी और नीतिज्ञ हैं। इतिहास तथा पुराणों में विशेष गति-प्रीतिवाले हैं। कठोर तपस्वी, मंत्रवेत्ता हैं। ‘नारदभक्तिसूत्र’ के रचयिता तथा प्रभावशाली वक्ता हैं। व्याकरण, आयुर्वेद और ज्योतिष के प्रकांड विद्वान, कवि हैं। देवता तो पूज्य हैं, प्रभावशाली हैं पर नारदजी देवताओं के भी पूजनीय हैं। इन्द्र भी उनका आदर करते हैं। गुरु बृहस्पति का भी शंका-समाधान करने वाले तथा योगबल से लोक-लोकांतर का समाचार जानने में सक्षम हैं। पाँचों विकारों और छठे मन को दोषों पर विजय पाने की प्रेरणा देने वाले हैं।

नारदजी सभी जातियों का भला करने से पीछे नहीं हटते, वे देवताओं और दैत्यों का भी मंगल करते हैं। वे अपने स्वार्थ का कभी सोचते भी नहीं। वे हमेशा सर्वजनसुखाय, सर्वजनहिताय और सारगर्भित बोलते हैं।

नारदजी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के यथार्थ ज्ञाता हैं। समस्त शास्त्रों में प्रवीण, सर्विद्याओं में निपुण, सर्वहितकारी नजरिये के धनी है। सदगुणों का आधार, परम तेजस्वी, देवताओं और दैत्यों को उपदेश देने में समर्थ हैं।

न्याय-धर्म का तत्त्व न जानने वाले राजा-महाराजाओं, जति जोगियों को अपना सुहृद बनाकर उन्हें भी उपदेश दे के सजग करने वाले हैं।

नारद जी जहाँ देखते हैं कि संधि से या विग्रह के बिना काम नहीं होगा, वहीं झगड़ा कराते हैं। और कलह भी करेंगे-करवायेंगे तो उसके पीछे भी उनका उद्देश्य क्रांति से शांति होता है।

दोनों पक्षों का मंगल हो यह उनका नजरिया होता है। नर-नारी के अयन ‘नारायण’ से जो मिलने की प्रेरणा दें वे ‘नारद’ हैं।

वेदव्यास जी जैसे महापुरुष को श्रीमद्भागवत की रचना की प्रेरणा देने वाले और वाल्मीकि ऋषि को श्रीरामजी के चरित्र सुनाने वाले थे देवर्षि नारद। तीनों लोकों में, लोक-लोकांतर में भी जाने में समर्थ हैं और सब कुछ करते-कराते भी सर्व से असंग आत्मा को जानने-पाने में भी समर्थ रहे हैं।

ताना मारकर भई किसी का मंगल होता है तो भई कर देते थे। किसी को आशीर्वाद देकर उसका मंगल होता है तो वैसा करत देते हैं और किसी का संगठन, विद्रोह या विग्रह से मंगल होता है तो उनके द्वारा भी मंगल करते हैं मंगलमूर्ति नारदजी।

कंस को ऐसा भ्रमित किया कि ‘क्या पता देवकी की कौन-सी संतान आठवीं होगी !’ ऐसा करके जल्दी-जल्दी उसका पाप का घड़ा भरवाकर भी पृथ्वी पर शांति लाने वाले थे नारदजी ! और दैत्यों को भी अलग-अलग प्रेरणा देकर उनकी दैत्य-वृत्तियों से उन्हें उपराम कराने वाले भी थे।

देवर्षि नारद जी ने मीडियावालों का भी मंगल चाहा है। वे कहते हैं कि पत्रकारिता में इस प्रकार की मानसिकता होनी चाहिए कि समाज में सत्य, अहिंसा, संवेदनशीलता, परस्पर भाईचारा, विश्वास फैले। स्नेह और सौहार्द बढ़े, सदाचार तथा शिष्टाचार में लोगों की रुचि हो। नकारात्मक, द्वेषात्मक खबरों को नहीं फैलाना चाहिए। घृणात्मक विचारों को महत्त्व न दें न फैलायों। राग, द्वेष, ईर्ष्या, जलन से रहित, तटस्थ पत्रकारिता आदर्श मानी जाती है।

नारद जी कहते हैं- ‘अपने धर्म में मर जाना अच्छा है, परधर्म भयावह है।’ सैनिक का धर्म है सीमाओं की रक्षा करना और वहाँ से वह भागता है तो धर्मच्युत है, भीरू है, वह दंड का पात्र है लेकिन व्यापारी, हकीम, डॉक्टर आदि सभी लोग युद्ध करने चले जायें, जिससे देश पर और आपत्ति आये तो वे सभी अपने-अपने धर्म से च्युत हो जायेंगे। शिक्षक चले जायें तो आने वाली पीढ़ी विद्याशून्य हो जायेगी। किसान चले जायेंगे तो सैनिकों को अनाज कौन पहुँचायेगा ? तो किसान अपनी काश्तकारी (खेती-बाड़ी) का धर्म निभायें और वकील, डॉक्टर अपना धर्म निभायें, उपदेशक, विद्वान अपना धर्म निभायें और सभी के धर्मों के पीछे सार यह है कि परमात्मा में, समत्व में रहें और संसार के साधनों का ईश्वर की प्रीति के लिए सदुपयोग करें।

नारदजी सभी विषयों में, सभी क्षेत्रों में और सभी जातियों का भला करने में पीछे नहीं हटे। उन्होंने क्या-क्या कहा है इसका विचार करते ही हृदय द्रवीभूत हो जाता है, अहोभाव से भर जाता है। ऐसे मंगलमूर्ति महापुरुष नारदजी का भगवान भी आदर करते हैं।

नारद जी की जयंती के दिन नारद जी के चरणों में प्रणाम हैं, भगवान वेदव्यास जी, परम पूज्य लीलाशाह जी बापू जैसे ब्रह्मवेत्ता संतों के चरणों में प्रणाम हैं ! और भी महापुरुष, जिनके नाम हम नहीं जानते, जो हरि के प्यारे हैं, जगत, हरि और अपने स्वरूप को ब्रह्मरूप से जानकर अद्वैत स्वरूप में एकाकार हो गये हैं, उनको हम नमन करते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 292

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आद्य शंकराचार्य जी का जीवन


जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य जी का जीवनकाल मात्र 32 वर्ष का था। धर्म व दर्शन के क्षेत्र में तो उनका बहुत बड़ा योगदान है। मानव जीवन के अन्य पहलुओं के लिए भी उनके सद्ग्रंथों से अमूल्य प्रेरणाएँ मिलती हैं।

बालकों के लिए आदर्शः शंकर

आदर्श बालक का हृदय निर्मल व पारदर्शी होता है। वह जो सोचता है वही कहता है और उसी के अनुसार आचरण करता है। उसकी वह निखालिसता और सरलता ही सबको उसकी ओर आकृष्ट करती है।

एक आदर्श बालक जिस लक्ष्य को अपना लेता है,  उसको भूलता नहीं। लक्ष्य का निश्चय करके वह तुरंत उसके पूरा करने में जुट जाता है। वह धीर होता है और किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता। इन सब गुणों से युक्त शंकर एक विलक्षण बालक थे। उनकी अल्प आयु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। उन्होंने मृत्यु को निकट से देखा। छोटी सी उम्र में ही वैराग्य के बीज उनके कोमल चित्त में अंकुरित हो गये। लगभग 7 वर्ष की उम्र में उन्होंने चारों वेदों व वेदांगों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। कितनी तीव्र लगन थी उनमें ! कोई भी बालक ऐसी प्रतिभा को प्राप्त कर सकता है यदि वह शंकर की तरह जितेन्द्रिय, एकाग्रचित्त और जिज्ञासु बने तो।

गुरुभक्तों के लिए प्रेरणास्रोत शंकर

अब बालक शंकर को ब्रह्मजिज्ञासा हुई। अतः किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की खोज में वे अपने घर से निकल पड़े। श्री गोविंदपादाचार्य जी को पाकर शंकर बहुत प्रसन्न हुए। गुरु से विनीत भाव से प्रार्थना कीः “अधीही भगवो ब्रह्म !” अर्थात् भगवन् ! मुझे ब्रह्मज्ञान से अनुगृहीत करें।

बालक को देखकर उन्होंने प्रश्न कियाः “वत्स ! तुम कौन हो ?” बस, अपना परिचय देते हुए बालसंन्यासी शंकर के मुँह से वाग्धारा प्रवाहित हो उठीः

न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायु-

र्न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः।।

अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्ध-

स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।।

‘मैं पृथ्वी नहीं हूँ, जल भी नहीं, तेज भी नहीं, न वायु, न आकाश, न कोई इन्द्रिय अथवा न उनका समूह भी। मैं तो सुषुप्ति में भी सर्वानुगत एवं निर्विकार रूप से स्वतः सिद्ध हूँ, सबका अवशेषरूप एक अद्वितीय केवल शिवस्वरूप हूँ।’

गुरुगोविंदपादाचार्य जी ने बालक शंकर को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया और उन्हें विधिवत् संन्यास की दीक्षा दी। वे गुरुचरणों में रहकर ब्रह्मसूत्र, महावाक्य चतुष्टय आदि की गहन शिक्षा लेने लगे।

एक बार नर्मदा नदी में बाढ़ आ गयी। नदी का पानी बढ़कर गुरुगोविंदपादाचार्यजी की गुफा तक पहुँच गया। वे ध्यान में लीन थे। उन्हें किसी प्रकार का विक्षेप न हो इसलिए संन्यासी शंकर सेवा में तल्लीन थे। पानी बड़ी तेजी से बढ़ रहा था। परिस्थिति बड़ी विकट थी पर शंकर की गुरुभक्ति व सेवानिष्ठा भी अटूट थी। शंकर ने उठाया अपना कमंडल और गुफा के द्वार पर रख दिया। बस, नर्मदा की बाढ़ उसी कमंडल में अंतर्लीन हो गयी। शंकर का समर्पण और ब्रह्मज्ञान पाने की तड़प देखकर गुरुदेव का हृदय छलक पड़ा और गुरुकृपा ने शंकर को ‘स्व’ स्वरूप ब्रह्मस्वरूप में स्थित कर दिया।

इन्हीं शंकराचार्य जी ने अद्वैत वेदांत का प्रचार कर भारतीय संस्कृति की धारा में प्रविष्ट हो चुके पलायनवाद, दुःखवाद, भेद-दर्शन, भ्रष्टाचार आदि दोषों को हटाया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 13,26 अंक 292

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संत चरनदास जी


 

अलवर शहर (राजस्थान) से 8 कि.मी. दूर डेहेरा नामक गाँव में सन् 1703 ई. के भादों शुक्ल तृतिया, मंगलवार के दिन पिता मुरलीधर व माता कुंजीदेवी के घर संत चरनदास जी का अवतरण हुआ। नामकरण संस्कार के समय उनका नाम रणजीत रखा गया। उनके पिताश्री साधु स्वभाव के, त्यागी वृत्तिवाले, प्रभुभक्त और एकांत प्रेमी थे। वे घंटों तक ध्यान में लीन रहते थे। उनकी माता कुंजीदेवी संतसेवी और विदुषी थीं।

संत चरनदास जी को 5 वर्ष की अल्पायु से ही रामनाम के जप का स्वाद लग गया था। वे स्वयं तो प्रेम से रामनाम जपते थे, साथ में अपने साथियों को भी प्रभु के नाम-सुमिरन की प्रेरणा देते थे। एक दिन वे जब, रामनाम कीर्तन में मस्त थे, तब वैरागी तपस्वी वेदव्यासनंदन, शुकदेव जी उन्हें अपनी गोद में लेकर प्यार किया, इससे उनके हृदय में प्रभुप्रेम की प्रबल धारा प्रवाहित हो गयी। तत्कालीन रीति के अनुसार छठे वर्ष में उन्हें पाठशाला पढ़ने के लिए भेजा गया, परंतु अध्यापकों के लाख प्रयत्नों के बावजूद भी उन्होंने लौकिक विद्या पढ़ना अस्वीकार कर दिया। उन्होंने एक दिन अध्यापकों का हठ देखकर कहाः

आल जाल तू क्या पढ़ावे।

कृष्ण नाम लिख क्यों न सिखावे।।

जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओ।

तो मोकू तुम फेर बुलाओ।।

इस पंक्ति से उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनकी रुचि प्रभुनाम-जप में अधिक और लौकिक विद्या में कम है।

जब रणजीत 8 वर्ष की आयु अवस्था के हुए, तब एक दिन उनके पिता जी जंगल में एकांत साधना करते हुए अचानक लोप हो गये। इस घटना के कुछ महीने बाद उनके दादा प्रागदास जी व दादी यशोदा का भी अचानक निधन हो गया। पति के बाद सास-ससुर की छाया भी सिर से उठ जाने से कुंजीदेवी के दिल पर गहरा आघात लगा। रणजीत अपनी माता के दुःखी हृदय पर प्रेम के फाहे रखने में सफल हो गये। माता कुंजीदेवी का मन दुःख और चुप्पी से अब ऊब चुका था। उनके लिए अब डेहरा गाँव में रहना असहनीय हो गया था, इस कारण वे पुत्र के साथ दिल्ली में स्थित अपने मायके चली गयीं।

दिल्ली में कुंजीदेवी के चाचा भिखारीदास शाही दरबार में उच्च पदाधिकारी थे। उन्होंने कुंजीदेवी को हर प्रकार से मदद देने का आश्वासन दिया। उन्होंने रणजीत को अरबी व फारसी भाषा सिखाने के लिए कादिरबख्श नामक एक मौलवी को नियुक्त किया। उस मौलवी ने भी रणजीत को पढ़ाने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी।

उन दिनों छोटी उम्र में ही विवाह हो जाते थे। रणजीत के लिए भी कई रिश्ते आये, परंतु वे विवाह के लिए राज़ी न हुए। माता ने उनके सामने वंश को आगे बढ़ाने की इच्छा प्रकट की तथा नाना ने धर्मग्रंथो के उदाहरणों से गृहस्थ आश्रम की विशेषता सिद्ध करके और शास्त्रों में से वंश को आगे बढ़ाने के धर्म का विवरण देकर उन्हें विवाह की प्रेरणा देनी चाही, परंतु रणजीत ने संसार की नश्वरता, मनुष्य-जन्म के मूल उद्देश्य आदि का उल्लेख करके बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ‘मेरा मन प्रभुभक्ति में इतना लीन हो चुका है कि मेरे लिए गृहस्थ धर्म निभा पाना असम्भव है।

10 वर्ष की अल्पायु में ही रणजीत के हृदय सागर में प्रभुप्रेम की लहरें पूरे जोर से उठने थीं। वे सदा साधु-संतों की संगति और भजन मंडलियों में सम्मिलित होने के लिए उत्सुक रहते थे। भूखे-प्यासे, गरीब, लाचारों की सेवा-सहायता में उनकी विशेष रूचि थी। उनका ध्यान एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित था और वह था परमात्म-प्राप्ति ! प्रभु प्रेम में उनकी आँखों से प्रेमाश्रुओं की झड़ी लगी रहती थी और वे अपने खाने पीने, पहनने, सोने तक की सुध-बुध खो बैठते थे।

16 वर्ष की उम्र तक जब अपने प्रयत्नों से प्रभु के दर्शनों की तड़प शांत न हुई तो उनके हृदय में सदगुरु मिलन की प्यास जाग उठी। वे सदगुरु के विरह में पल-पल, क्षण-क्षण व्याकुल रहने लगे।

चातक मीन पतंग जब, पिया बिन नहीं रह पाये।

साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय।।

वे कभी सदगुरु की खोज में दूर-दूर तक जाते, कभी नागाओं, सिद्धों, योगियों के पास जाते तो कभी संन्यासियों, उदासियों के पास, परंतु उन्हें कहीं भी शांति प्राप्त न हुई। वे 16 से 19 वर्ष त सदगुरु की खोज में दर-दर भटकते रहे। आखिर मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के पास गंगा-यमुना के दोआबे पर स्थित मोरनातीस नामक स्थल पर उन्हें एक महात्मा के दर्शन हुए, जिन्हें देखते ही उनके मन में प्रेम, श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रबल तरंग उठीं कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी वर्षों की खोज आज पूरी हो गयी है। वे महात्मा और कोई नहीं बल्कि वही शुकदेव जी महाराज थे, जिन्होंने बालक रणजीत को गोदी में बिठाकर प्यार किया था। जिन सदगुरु की खोज थी वे मिल गये। उस वक्त रणजीत की उम्र 19 वर्ष थी। उन्होंने प्रेममय हृदय और आँसुओं से भरे नेत्रों से सदगुरु के चरणकमलों में माथा टेकते हुए स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। महात्मा शुकदेव जी ने उन्हें विधिवत दीक्षा दी और उनका परमार्थी नाम श्यामचरनदास रख दिया। शुकदेव जी ने उन्हें दिल्ली वापस जाकर दीक्षा के अनुसार अभ्यास करने की आज्ञा दी। आगे चलकर वे संत चरनदास जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे टूटे हृदय से दिल्ली प्रस्थान कर गये। सदगुरु से बिछुड़ने के कारण वे बड़े व्याकुल हो गये। दिन भूखे-प्यासे विरह में व्यतीत हो गया, रात्रि को सदगुरु ने ध्यान में आकर ढाढस बँधाया और कहाः

जब-जब ध्यान करे हो।

ऐसे ही तुम दर्शन पै हो।

अरु हम तुम कभू जुदे जू नाहीं।

तुम मो में मैं तुम्हारे माँही।।

सदगुरु शिष्य के अंतःकरण में ज्योतिर्मय स्वरूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। यह स्वरूप कभी भी शिष्य का साथ नहीं छोड़ता। सदगुरु-प्रदत्त युक्तियों के अभ्यास से यही ज्योतिर्मय स्वरूप शिष्य को आत्मा-परमात्मा की अभिन्नता का ज्ञान करा देता है। दिल्ली लौटकर चरनदास जी ने बरिम नाले के पास आरामदायक स्थान पर पक्की गुफा बनवा कर उसमें गुरु आज्ञानुसार तन, मन से अभ्यास शुरु कर दिया। वहाँ उन्होंने 12 वर्ष तक अभ्यास किया। वे कई-कई दिनों तक समाधि में लीन रहते थे। एक बार आस-पास फैली हुई आग गुफा में भी पहुँच गयी, पर ध्यानमग्न चरनदास जी उसी प्रकार गुफा में बैठे रहे। लोगों ने यही समझा के वे जलकर राख हो गये होंगे, पर जब वे ध्यान से उठकर बाहर आये तो उन्हें सही-सलामत देखकर सभी दंग रह गये।

वे सदगुरु की आंतरिक प्रेरणा के अनुसार फतेहपुरी में एक आश्रम बनाकर रहने लगे। समाज के हर वर्ग और धर्म के लोग उनके सत्संग में आने लगे। एक बार संत चरनदास जी ने एक गरीब के लड़के की शादी के लिए सोने की 40 मोहरें और बहुत से सेवकों को उसकी सहायता के लिए भेजा। रात में आश्रम को सुनसान देखकर चोर आ गये, उन्होंने बहुत से सामान की कई गठरियाँ बाँध लीं, परंतु उन्हें आश्रम से बाहर जाने का मार्ग ही नहीं दिखाई दिया। चोरों को परेशान देखकर  चरनदास जी ने स्वयं उठकर उन्हें रास्ता दिखाया और सामान ले जाने को कहा। चोर लज्जित होकर क्षमा माँगते हुए कहने लगेः ‘अब हम सुई तक नहीं ले जायेंगे।’ पर संत चरनदास जी ने उनसे जबरदस्ती गठरियाँ उठवायीं और उनके साथ जाकर आश्रम के बाहर छोड़ आये। उन्होंने न कभी किसी का बुरा सोचा और न ही किसी को कुछ बुरा कहा। यदि कोई उनकी निंदा भी करता तो वे कहते कि निंदक शत्रु नहीं अपितु सच्चा मित्र है, जो निंदा के साबुन से हमारे दुर्गुणरूपी मैल को धोता है। उनके परम शिष्य रामरूप जी ने लिखा हैः ‘संत चरनदास कभी भी वाद-विवाद में नहीं उलझते थे। वे एकांत-प्रेमी थे और बार-बार कहते थे कि मैं बुरे-से-बुरा था पर मेरे सदगुरु शुकदेव जी ने मुझ पर कृपा करके मेरा बेड़ा पार कर दिया।’

किसू काम के थे नहीं कोई न कौड़ी देय।

गुरु शुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।

संत चरनदास जी ने दिल्ली में कई आश्रम बनवाये तथा फतेहपुरी आश्रम में 5 वर्ष बिताये। फतेहपुर निवास के समय वे एक बार वृंदावन गये थे। मार्ग में 7 ठगों ने उन्हें घेर लिया, परंतु उनकी अमीदृष्टि से वे स्वयं को ठगाकर उनके अनन्य भक्त बन गये। उनके 108 प्रमुख शिष्यों में इन सातों के नाम भी आते हैं। इसी यात्रा के दौरान उन्हें पुनः सदगुरु जी के दर्शन प्राप्त हुए। गुरुदेव ने उन्हें भक्तिमार्ग का प्रचार करने की आज्ञा दी। यहाँ से लौटकर उन्होंने घासमंडी में आश्रम बनवाया। यहाँ एक वर्ष व्यतीत कर वे परीक्षितपुर आ गये। वहाँ नंददास जी उनसे विधिवत दीक्षा लेने वाले प्रथम शिष्य बने। नंददास जी के बाबा हरि दास जी ने अपनी पत्नी, चारों पुत्रों और एकमात्र पुत्री सहजोबाई, दयाबाई और नूपीबाई संत चरनदास जी की तीन प्रमुख शिष्याएँ थीं।

बाद में वे परीक्षितपुर से गद्दनपुर चले गये। वहाँ पर एक मुसलमान फकीर मुहम्मद बाकर ने उनकी शरण ग्रहण की और वहाँ से वे पानीपत आ पहुँचे, यहाँ का नवाब शाकर खाँ और एक खतरनाक डाकू उनके शिष्य बन गये। उन्होंने उस डाकू का नाम रामधड़ल्लामल रखा। इसी यात्रा के दौरान सन् 1757-58 ई. में चरनदास जी की माता का देहांत हो गया। माता के परलोक गमन के पश्चात सुखदेवपुर आ गये। यह स्थान चाँदनी चौक के पास मुहल्ला बन्नीमारां और हौजकाजी के मध्य स्थित है। चरनदासजी अनेक स्थानों की यात्रा की, परंतु उनका कार्यक्षेत्र दिल्ली व उसके आस-पास का क्षेत्र ही रहा।

उन्होंने नादिरशाह के भारत पर आक्रमण के छः महीने पूर्व ही उसके आक्रमण की तिथि मुहम्मदशाह की हार, नादिरशाह द्वारा राज्य वापस देकर लौट जाने की तिथि आदि कई महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी अपने सेवकों को दी थी। उनकी इस भविष्यवाणी को सुनकर नादिरशाह ने उन्हें जेल में डाल दिया, परंतु उस समय उसके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही, जब उसी रात को चरनदास जी नादिरशाह के सिर पर पदाघात कर उसे जगा दिया। आश्चर्यचकित व भयभीत नादिरशाह उनके चरणों में गिर क्षमायाचना करने लगा तथा कई गाँवों की जागीरें व धन-सम्पत्ति उनके नाम कर दी। वे न तो किसी सेवक के घर भोजन करते थे और न ही किसी से धन, वस्त्रादि की भेंट लेते थे, परंतु जरूरतमंदों की भरपूर सहायता करते थे। उनका यह क्रम 60 वर्ष की अवस्था तक चला, तत्पश्चात उन्होंने शिष्यों की अत्यधिक संख्या और उनकी व्यवस्था हेतु सेवा-भेंट लेना स्वीकार किया, परंतु उसमें से अपने लिए एक पाई का भी उपयोग नहीं किया। उन्होंने ब्रह्मलीन होने के एक वर्ष, तीन महीने व दो दिन पहले ही अपने परम धाम जाने के संकेत दे दिये थे। वे उन दिनों फतेहपुरी स्थित सुखदेवपुरा आश्रम में निवास करते थे। संवत् 1839 विक्रमी, मार्गशीर्ष सप्तमी को बुधवार के दिन वे 79 वर्ष की आयु पूरी कर स्वधाम पधार गये। उन्होंने स्वधाम जाने की इच्छा पहले ही प्रकट कर दी थी, फिर भी उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। बाद में उनके 108 शिष्यों ने अलग-अलग गद्दियाँ चलाईं जिनमें रामरूप, सहजोबाई, जुगतानंद आदि की गद्दियाँ प्रमुख थीं। चरनदास जी के शिष्यों ने अपनी रचनाओं में उनकी अलौकिक प्रतिभा व जीवन के विषय में विस्तार से गाया है। सहजोबाई ने तो यहाँ तक कहा किः

साँईं चरनदास पर तन मन वारूँ।

गुरु न तजूँ, पर हरि को तजि डारूँ। (सहजोवाणीः पृष्ठ 3)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2002, पृष्ठ संख्या 14-17 अंक 118

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