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Sant Charitra

बाधाएँ कब रोक सकी हैं…..


(योगी अरविन्द पुण्यतिथिः 5 दिसम्बर 2014)

अरविन्द एक महान योगी, क्रांतिकारी, राष्ट्रवाद के अग्रदूत और प्रखर वक्ता होने के साथ-साथ एक अच्छे निष्पक्ष पत्रकार भी थे। वे उन पत्रकारों में से एक थे जिन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से जनमानस को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। भारतीय संस्कृति के रक्षणार्थ भी उन्होंने बहुत काम किया।

उनके समाचार पत्रों से विचलित होकर अंग्रेज वाइसराय के निजी सचिव ने लिखा था कि ‘सारी क्रांतिकारी हलचल का दिल और दिमाग यह व्यक्ति है जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता। अगर सब क्रांतिकारी जेल में भर दिये जायें, केवल अरविन्द ही बाहर रहें तो वे फिर से क्रांतिकारियों की एक सेना खड़ी कर लेंगे।’

अंग्रेज भारतवासियों को गुलाम बनाये रखना चाहते थे और श्री अरविन्द लोगों को जगाना चाहते थे। फलस्वरूप अंग्रेजों ने उनको अपने मार्ग से हटाने की बहुत कोशिश की। लेकिन जब अंग्रेज उनसे सीधी टक्कर न ले सके तो उन्हें साजिश के तहत फँसाया गया।

षडयंत्र के तहत जेल भेजा

30 अप्रैल 1908 को दो अंग्रेज महिलाएँ मारी गयीं और अंग्रेज सरकार को योगी अरविन्द पर आरोप लगाने का मौका मिल गया। 3 मई 1908 को योगी अरविन्द के घर पर पुलिस ने छापा मारा और उनके व्यक्तिगत सामान को जब्त करके जेल भेज दिया।

कारागार बना तपोवन

कारागार को तपःस्थली बनाकर योगी अरविन्द एकांत का खूब लाभ उठाते हुए पहले से भी अधिक ध्यान समाधि में तल्लीन रहने लगे। इस एकांतवास में भी वे समाजहित का चिंतन करते रहे। अब राष्ट्रहित की साधना और भी सूक्ष्म स्तर से जारी थी। लगभग 1 वर्ष 3 दिन जेल में रखने के बाद उन्हें निर्दोष रिहा कर दिया गया। उऩके देशहितकारी कार्यों के बावजूद उन पर इतने लम्बे समय तक जुल्म ढाये जाने से अब लोगों की सहानुभूति उनके प्रति अनेक गुना बढ़ चुकी थी। जेल से आने के बाद वे सूक्ष्म जगत में ही तल्लीन रहकर अंतिम समय तक देशसेवा करते रहे।

जब-जब भारतीय संस्कृति के दुश्मनों ने संस्कृति-रक्षक महापुरुषों के सर्वमांगल्य के पथ पर षड्यंत्ररूपी रोड़े बिछाकर उन्हें रोकना चाहा, तब-तब महापुरुषों ने पथ की बाधाओं को भी मानवता व राष्ट्रहित का साधन बना लिया और आगे बढ़ते ही चले गये।

आज पूज्य बापू जी को भी संस्कृति-द्रोहियों ने झूठे केस में फँसाया है लेकिन परम पवित्र बापू जी की उपस्थिति ने जेल को भी एक तपःस्थली बना दिया है। जेल के कितने ही कैदियों का जीवन उन्नत हो गया है। सुबह जल्दी उठना, भगवन्नाम लेना, आपस में प्रेम-सौहार्द रखना, सत्संग सुनना, सत्साहित्य पढ़ना तथा आदर्श दिनचर्या का पालन करना – ये सदगुण उनके जीवन में विकसित हो रहे हैं।

ऐसे महापुरुष जिनके सान्निध्य से गुनहगारों का भी जीवन संयमी, सदाचारी हो जाता है, जिनके संयम सादगीपूर्ण जीवन से प्रेरित होकर लाखों करोड़ों युवक-युवतियाँ एवं देश विदेश के उच्च शिक्षित लोग भी संयम-सदाचार के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं, जिन्होंने देश के युवापीढ़ी रूपी धन की सुरक्षा करने के लिए ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ चलाया, उन्हीं के ऊपर ऐसे घृणित आरोप एवं षडयन्त्र कब तक ? देशवासियों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ सदैव आवाज उठाने वाले महापुरुषों के साथ इतना अन्याय कब तक ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 263

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यातनाएँ सहकर भी जिन्होंने किया समाज का मंगलः संत तुकाराम जी


महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत तुकारामजी शरीर की सुधबुध भूलकर भगवान विट्ठल के भजन-कीर्तन में डूबे रहते। भगवान की भक्ति में प्रगाढ़ता आयी और उनके श्रीमुख से अभंगों के रूप में शास्त्रों का गूढ़ ज्ञान प्रकट होने लगा। तुकाराम जी भगवद् रस से सम्पन्न वाणी से लोगों के रोग-शोक दूर होने लगे, समाज उन्नत होने लगा पर तुकाराम जी की फैलती हुई यश-कीर्ति कुछ लोगों को खटकने लगी। उन्होंने अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करके शंका-कुशंका उठाकर उन्हें तंग करना तथा समाज में बदनाम करना शुरु कर दिया। तब तुकाराम जी अपने एक अभंग के माध्यम से कहते हैं-

कलियुगीं बहु कुशल हे जन।

छळितील गुण तुझे गाता।।

मज हा संदेह झाला दोहींसवा।

भजन करूँ देवा किंवा नको।।

“कलियुग में लोग बड़े कुशल हैं। तुम्हारे गुण जो गायेगा उसे ये सतायेंगे। इसलिए मुझे यह संदेह हो गया है कि अब तुम्हारा भजन करूँ या न करूँ ?’ हे नारायण ! अब यह बाकी रह गया है कि इन लोगों को छोड़ दूँ या मर जाऊँ !

दुष्टों के अत्याचार से तंग आकर वे कहते हैं- किसी के घर मैं तो भीख माँगने नहीं जाता, फिर भी ये काँटे जबरदस्ती मुझे देने आ ही जाते हैं। मैं न किसी का कुछ खाता हूँ, न किसी का कुछ लगता हूँ। जैसा समझ पड़ता है भगवन् ! तुम्हारी सेवा करता हूँ।”

नाना प्रकार के शुष्कवाद करने वाले अहमन्य विद्वान और भगवद भजन का विरोध करने वाले मानो हाथ धोकर तुकाराम जी के पीछे पड़े थे। अनेक प्रयास करने पर भी जब लोगों ने तुकाराम जी के कीर्तन में जाना बंद नहीं किया तो उन्होंने तुकाराम जी को देहू गाँव से निकालने का षड्यंत्र रचा। ‘तुका ने हरि-कीर्तन करके भोले-भाले श्रद्धालु लोगों पर जादू कर दिया, वह भक्ति नहीं पाखंड करता है।’ इस प्रकार की और भी कई बेबुनियाद बातों से हाकिम (गाँव के मुखिया) के कान भरने शुरु कर दिये।

उधर दूसरी ओर वाघोली में रहने वाले एक विद्वान रामेश्वर भट्ट को भी तुकारामजी के विरुद्ध भड़काया गया। ग्रामाधिकारी को रामेश्वर भट्ट ने चिट्ठी लिखी कि ‘तुकाराम को देहू से निकाल दो।’ ग्रामाधिकारी ने यह चिट्ठी तुकारामजी के पढ़ सुनायी तब वे बड़ी मुसीबत में पड़ गये। उस समय के उनके उदगार हैं-

“अब कहाँ जाऊँ ? गाँव में रहूँ किसके बल-भरोसे ? पाटील नाराज, गाँव के लोग भी नाराज ! कहते हैं अब यह उच्छृंखल हो गया है, मनमानी करता है। हाकिम ने भी फैसला कर डाला। भले आदमी ने जाकर शिकायत की, आखिर मुझ दुर्बल को ही मार डाला। तुका कहता है ऐसों का संग अच्छा नहीं, अब विट्ठल को ढूँढते चल चलें।”

इसे कलियुग का ही प्रभाव कहना चाहिए कि राजसत्ता भी संतों द्वारा हो रही समाज की उन्नति को दरकिनार करके धर्म के भक्षक ऐसे दुष्टों की हाँ-में-हाँ मिला देती है।

तुकारामजी को इतना मजबूर किया गया कि भगवान के विरह और प्रेम में निकले अभंगों की बही उऩ्हें दह नदी में डालनी पड़ी। आखिर तुकाराम जी पर देशनिकाले की नौबत आ गयी, अपने श्री विट्ठल मूर्ति से बिछुड़ने का समय आ गया। भक्तजनों को इससे बड़ा दुःख हुआ और कुटिल-खल-निंदक इससे बड़े सुखी हुए, मानो उन्हें कोई बड़ी सम्पत्ति मिल गयी हो। दूसरों का कुछ भी हीनत्व देखकर जिनकी जीभ निंदा करने के जोश में आ जाती है। ऐसे लोग तुकारामजी के पास आकर उनका तरह-तरह से उपहास करने लगे।

संत तुकाराम जी ने देखा कि अपने ईश्वरीय समाधि सुख का त्याग करके जिस समाज की भलाई के लिए अभंगों को लिपिबद्ध किया गया, उस समाज को ज्ञान के उस खजाने की जरा भी कद्र नहीं है। इस बात से तुकाराम जी समाज से उपराम हो गये। वे श्री विट्ठल-मंदिल के सामने तुलसी के पौधे के समीप एक शिला पर तेरह दिन अन्न जल त्याग के भगवत्-चिंतन में पड़े रहे। अंत में भगवत्कृपा से उनकी बहियाँ उन्हें पुनः प्राप्त हुईं, जो आज भी समाज को सही दिशा देने का कार्य कर रही हैं। उन निंदकों का क्या हाल हुआ होगा जिन्होंने ऐसे संत को 13-13 दिनों तक अन्न-जल त्यागने पर मजबूर कर दिया !

वास्तव में समाज की उन्नति या अवनति से नीच बुद्धि के संस्कृतिद्रोहियों को कोई लेना-देना नहीं होता। वे तो अपने स्वभाववश द्वेषबुद्धि से प्रेरित होकर स्वार्थसिद्धि के लिए उचित-अनुचित कुछ भी कर डालते हैं।

नीच लोगों की टोली में मम्बाजी नाम का एक व्यक्ति था। जिसने अपने शिष्यों द्वारा तुकारामजी के विरोध में बहुत कुप्रचार करवाया परंतु उसका कोई भी परिणाम नहीं हुआ। तब उसने तुकारामजी के आँगन और विट्ठल-मंदिर के परिसर में काँटें बिखेरना प्रारम्भ कर दिया ताकि तुकारामजी को कष्ट हो और उनके कीर्तन में आने वाले भक्तों को भी पीड़ा का सामना करना पड़े। जब इस पर भी उनके भक्तों की संख्या कम नहीं हुई तो मम्बाजी और बौखला गया। खूब सताकर भी उस दुष्ट का मन नहीं भरा तो एक दिन उसने मौका पाकर मंदिर परिसर में खूब गाली गलौज करना शुरु कर दिया। हद तो तब हो गयी जब उस क्रूर ने काँटें लगी बबूल की टहनी से तुकाराम जी को पीट-पीटकर कपड़े फाड़ दिये और शरीर लहू-लुहान कर दिया।  वहाँ खड़े लोग चुपचाप सब देखते रहे।

आश्चर्य की बात यह है कि जिस समाज को भक्ति, ज्ञान, कीर्तन, ध्यान के द्वारा सुखी बनाने के लिए संत समाजद्रोहियों के निशाने पर आ जाते हैं, वही समाज संत पर हो रहे अत्याचारों का मूक दर्शक बनकर रह जाता है। तुकारामजी के साथ भी यही हुआ।

मम्बाजी तुकारामजी के शिष्यों को भी उनके विरुद्ध भड़काने का कार्य करता था। वह बहिणाबाई (तुकारामजी का अनन्य भक्त) को तुकारामजी के कीर्तन में जाने से मना करता। जब बहिणाबाई ने तुकाराम जी की निंदा का विरोध किया तो मम्बाजी के क्रोध की आग भड़क उठी। उसने बहिणाबाई की गाय को बाँधकर बड़ी क्रूरता से उस पर डंडे चलाये। जब सीधी लड़ाई से मम्बाजी और उनके दुष्ट साथी अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हुए तो उन्होंने कूटनीति का सहारा लिया। हर संत के खिलाफ ऐसे ही हथकंडे अपनाये जाते हैं। साजिश-पर-साजिश, षड्यंत्र-पर-षड्यंत्र…. संतों को सताने की यह परम्परा कब समाप्त होगी ?

एक वेश्या को तैयार करके तुकाराम जी को बदनाम कर लोगों की श्रद्धा तोड़ने की साजिश रची गयी पर मम्बाजी का यह वार भी खाली गया। इस प्रकार दुष्टों ने अनेक प्रकार से पवित्र, निष्कलंक संत तुकाराम जी को सताया। समता के धनी तुकाराम जी तो सब सहते गये परंतु सबसे बड़ा नुकसान तो समाज का ही हुआ जिसे उनके सुखप्रद ज्ञान से, भक्ति के अमृत से वंचित होना पड़ा।

आज लोग भारत के इन महान संत की महिमा गाते हैं, उनके अभंगों पर पी.एच.डी. करते हैं, उनकी तस्वीरें लगाकर दीप-अगरबत्ती करते हैं लेकिन हयातीकाल में उनके कितना सताया गया ! संतों के साथ ऐसा आखिर कब तक होता रहेगा ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2014, पृष्ठ  संख्या 22,23 अंक 257

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जिन्होंने पिलाया भक्तिरस, उन्हें हमने क्या दिया ?


किसी भी संत की जीवन गाथा देखेंगे तो यह जानने को मिलेगा कि उन्हें अपने जीवन में कई यातनाएँ सहनी पड़ीं। भक्तिमती मीराबाई भी ऐसी ही एक संत थीं जिन्होंने अपने जीवन में अति कष्ट सहा परंतु भगवदभक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा।

मीराबाई का देवर राणा विक्रमादित्य नासमझ और कुबुद्धि था। वह मीराबाई के भजन-पूजन, सत्संग में विघ्न उत्पन्न करने लगा। इसका प्रमाण मीराबाई के इस पद में आता हैः

सासू लड़े  म्हारी नणद खिजावे देवर रह्यो रिसाय।

पेहरो बिठायो चौकी मेली तालो दियो जड़ाय।।

मीराबाई को प्रताड़ित करने के लिए राणा विक्रमादित्य ने कई नीच हथकंडे अपनाये। उसने मीराबाई के लिए भगवान का चरणामृत बताकर हलाहल विष भेजा। विष-प्रयोग असफल रहा तो एक पिटारी में काला नाग बंद करके शालिग्राम के नाम से भेजा। मीराबाई कहती हैं-

राणा भेज्या विष रा प्याला चरणामृत कर पी जाणा।।

काला नाग पिटारयां भेज्या शालगराम पिछाणा।

कभी जहरीले तीक्ष्ण काँटोंवाली शैय्या (शूल सेज) मीरा के लिए भेजी गयी तो कभी मीरा को भूखे शेर के पिंजड़े में पहुँचा दिया गया लेकिन मीराबाई को मारने के ये सभी दुष्प्रयत्न असफल साबित हुए।

एक बार मीराबाई की ख्याति सुनकर उनके कीर्तन में आया अकबर भावविभोर हुआ और उसने एक मोतियों की माला रणछोड़जी के लिए मीराबाई को भेंट कर दी। इस वजह से राणा द्वारा मीरा पर चारित्रिक लांछन लगाया गया और मीराबाई की काफी बदनामी हुई। (इस प्रसंग का उल्लेख भक्तमाल में मिलता है।)

सोचने की बात है कि जिनके पदों को, वचनों को पढ़-सुनकर और गा के लोगों के विकार मिट जाते हैं, ऐसे मीराबाई जैसे पवित्र संतों पर लगाये गये चारित्रिक लांछन क्या कभी सत्य हो सकते हैं ? और उन्हें सत्य मान के उनसे लाभान्वित होने से वंचित रहने वाले भोले लोगों का कैसा दुर्भाग्य !

अब राणा इतना क्षुब्ध हो उठा कि उसने स्वयं अपने हाथों से मीराबाई को मारने का निश्चय किया। तलवार लेकर उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ परंतु ईश्वरकृपा से वह इसमें भी सफल न हो सका।

इस प्रकार मीराबाई के लिए नित्य नयी विपत्तियाँ आने लगीं। कई दिनों तक ऐसी स्थिति बनी रहने पर वे ऊब गयीं। प्रभु-भक्ति के मार्ग में सतत आ रही कठिनाइयों के समाधान के लिए मीराबाई ने संत तुलसीदासजी के पास एक पत्र भेजा। जिसमें लिखा थाः

घर के स्वजन हमारे जेते, सबनि उपाधि बढ़ाई।

साधु संग और भजन करत, मोंहि देत कलेश महाई।….

पत्र के जवाब में संत तुलसीदास जी ने लिखाः

जाके प्रिय न राम-बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम स्नेही।।…

चाहे कोई हमारा परम स्नेही क्यों न हो, अगर ईश्वर की भक्ति में बाधक बने तो वह करोड़ों वैरियों के समान है। मीराबाई की भक्ति में विघ्नों के चलते आखिर अपनी ससुराल चित्तौड़ को छोड़ना पड़ा।

जिनके द्वारा रचित भजनों को गाकर लोगों की भक्ति बढ़ती है, ऐसी महान भक्तिमती मीराबाई को दुष्टों ने कष्ट देने में कोई कमी नहीं छोड़ी परंतु मीराबाई तो अपने गाये भगवद्-भजनों के रूप में सभी के हृदय में आज भी अमिट स्थान बनाये हुए हैं। भगवद्-भक्ति, भगवद्-ज्ञान देने एवं जनसेवा करने-कराने में रत संतों-महापुरुषों पर अत्याचार करने का सिलसिला बंद नहीं हुआ है, वह तो आज भी चल रहा है। समाज को जागृत होने की आवश्यकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2014, पृष्ठ संख्या 27, अंक 257

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