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Sant Charitra

वाल्मीकिजी द्वारा भगवान को बताये हुए घर


वाल्मीकि जयंतीः 24 अक्तूबर 1999

वनवास के समय भगवान श्रीराम माँ सीता एवं अनुज श्री लक्ष्मणजी के साथ वाल्मीकि जी के आश्रम में आये। महर्षि वाल्मीकिजी ने कन्दमूल-फलादि से उनका आतिथ्य सत्कार किया। तत्पश्चात श्रीराम ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक महर्षि वाल्मीकिजी से अपने रहने योग्य स्थान के बारे में पूछा।

महर्षि वाल्मीकि जी श्रीराम की महिमा का वर्णन करते हुए बोलेः “आप पूछते हैं कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते हुए सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। फिर मैं आपके रहने के लिए स्थान बताऊँ।”

वाल्मीकि जी के रहस्ययुक्त वचनों को सुनकर श्रीरामजी मुस्कराये। फिर वाल्मीकि जी ने श्रीरामजी को सीता जी एवं लक्ष्मणजीसहित निवास करने के लिए स्थान बतलाये। वाल्मीकिजी ने उन स्थानों का जो वर्णन किया है वह मानवमात्र के लिए अऩुकरणीय है क्योंकि उसमें उन सुन्दर साधनों का वर्णन किया गया है, जिनके द्वारा साधक अपने साध्य तत्त्व को, परमात्मा को अवश्य ही पा सकता है।

वाल्मीकि जी कहते हैं- “जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथारूपी अनेकों सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे तृप्त नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं।

जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं तथा जो बड़ी-बड़ी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौन्दर्यरूपी मेघ के एक बूँद जल से सुखी हो जाते हैं, हे रघुनाथजी ! उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में भाई लक्ष्मणजी और सीतासहित आप निवास कीजिये।

आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिनकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी, आप उनके हृदय में बसिये।

जिनकी नासिका प्रभु के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुन्दर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं, जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मण को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य प्रभुचरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में प्रभु का ही भरोसा है दूसरा नहीं तथा जिनके चरण प्रभु के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे राम जी ! आप उनके मन में निवास कीजिये।

जो नित्य आपके रामनामरूप मंत्रराज को जपते हैं और परिवारसहित आपकी पूजा करते हैं, जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा हृदय में गुरु को  आपसे भी अधिक बड़ा जानवर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं  इऩ सब कर्मों का एकमात्र फल आपके श्रीचरणों की प्रीति ही चाहते हैं उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में आप श्रीसीताजी सहित बसिये।

जिनको न काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दंभ और माया ही है, हे रघुनाथ ! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।

जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा और निन्दा समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं और आपको छोड़कर जिनकी दूसरी कोई गति नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिये।

जो परायी स्त्री को उसे जन्म देने वाली माता के समान मानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी लगता है, जो दूसरों की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं तथा हे रामजी ! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।

हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मनरूपी मंदिर में आप दोनों भाई सीतासहित निवास कीजिये।

जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिए संकट सहते हैं, नीति निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है।

जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझते हैं, जिन्हें सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और रामभक्त जिन्हें प्यारे लगते हैं उऩके हृदय में आप सीतासहित निवास कीजिये।

जाति, पाँति, धन, धर्म, मान-बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर-इन सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किये रहते हैं, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये।

स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिनकी दृष्टि में समान हैं क्योंकि वे सर्वत्र आपको ही देखते हैं और जो कर्म, वचन और मन से आपके दास हैं, हे रामजी ! आप उनके हृदय में डेरा डालिये।

जिनको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिनका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उनके मन में निरन्तर निवास कीजिये, वह आपका अपना घर है।”

इस प्रकार वाल्मीकिजी ने श्रीरामजी को निवास स्थान बताये। वास्तव में यदि कोई वाल्मीकि जी द्वारा दर्शाये गये संकेतों के अनुसार अपना हृदय बना ले तो उस हृदय में हृदयेश्वर परमात्मा अवश्य निवास करने लगें।

वाल्मीकि जी के तीन अवतार हुए। ʹश्रीयोगवाशिष्ठमहारामायणʹ के ʹकागभुशुण्डी-वशिष्ठ संवादʹ में वर्णन आता है। जो लोग वाल्मीकि जी के नाम या और किसी नाम से समाज और संत को बीच विद्रोह फैलाकर आगेवानी चाहते हैं उनको वाल्मीकि जी के वचन ठीक से समझने चाहिए। वालिया में से वाल्मीकि बने वे वाल्मीकि या तीन बार वाल्मीकि आये वे वाल्मीकि ? आप कौन-से वाल्मीकि को मानकर विद्रोह फैलाना चाहते हैं ? कृपा करके आप महापुरुष के होकर महापुरुषों के प्रति स्नेह रखें और उनके अंतःकरण को समझें। विद्रोह करके या करवाके अपने को, जाति को, समाज को खोखला न बनायें।

सभी समाजों की गहराई में राम जी, वाल्मीकि जी की आत्मा है। वाल्मीकि जी की समझ कितनी ऊँची है ! उनकी समझ सभी के लिए है, उनका ज्ञान सभी के लिए है। उनके ज्ञान का आदर करें, उनकी प्रेमदृष्टि का आदर करें। उनका नाम आगे रखकर विद्रोह का…..

भगवान सबको सदबुद्धि दे। देशवासी परस्पर मिलजुलकर रहें। सभी वर्ग, सभी जातियाँ इस विराट भारत माँ की संतानें हैं।

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

एक ही माँ के बच्चे हम सब, एक ही पिता हमारा है।

फिर भी ना जाने किस मूरख ने, लड़ना तुम्हें सिखाया है।।

भिड़ना-भिड़ाना तुम्हें सिखाया है।

बदला जमाना तुम भी बदलो, कलह के कृत्य छोड़ो…

प्रेम से समजा को जोड़ो….

तुझमें राम मुझमें राम, सबमें राम समाया है।

कर लो सभी से प्यार जगत में, कोई नहीं पराया है।।

क्यों भैया ! समझ गये न !

हाथ में जल लें और आज से ही संकल्प करें कि ऐसे विद्रोह में आयेंगे नहीं और विद्रोह फैलायेंगे नहीं। ૐ…..ૐ…..ૐ…. शांति….

जय वाल्मीकि ऋषि

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 19-21 अंक 82

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वास्तविक कल्याण का मार्ग


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

2 मई, 1999-नारद जयंती पर विशेष

एक दिन राजा उग्रसेन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहाः “जनार्दन ! सब लोग नारदजी के गुणों की प्रशंसा करते हैं। अतः तुम मुझसे उनके गुणों का वर्णन करो।”

सच ही है, जो अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करता, सर्वत्र नारायण के नाम-कीर्तन व गुणगान में ही अनुरक्त रहता है, उसकी प्रशंसा सभी लोकों में विस्तरित हो जाती है तथा भगवान स्वयं उसका गुणगान करते हैं।

वास्तव में गुणहीन पुरुष ही अधिकतर अपनी तारीफ के पुल बाँधा करते हैं। वे अपने में गुणों की कमी देख दूसरे गुणवान पुरुषों के दोष बताकर उन पर आक्षेप किया करते हैं। उनका यह कृत्य निंदनीय साबित होता है। किन्तु जो दूसरों की निंदा व अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा सर्वगुण-संपन्न विद्वान ही यश का भागी होता है।

फूलों की पवित्र एवं मनोहर सुगंध बिना बोले ही महककर अनुभव में आ जाती है तथा सूर्य भी बिना कुछ कहे ही आकाश में सबके समक्ष  प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार विद्वान पुरुष गुफा में छिपा रहे, आत्मप्रशंसा न करे तो भी उसकी प्रसिद्धि सर्वत्र हो जाती है जबकि मूर्ख मनुष्य अपनी तारीफ की पुलें बाँधता रहता है, फिर भी संसार में उसकी ख्याति नहीं होती। नारदजी मनुष्य, देव, दानव सबको सम्मान रूप से प्रिय हैं। संपूर्ण गुणों से सुशोभित, कार्यकुशल, समय का मूल्य समझने वाले और आत्मतत्त्व के ज्ञाता नारदजी के गुणों की चर्चा भगवान श्री कृष्ण करते हैं-

एक समय गालव मुनि ने कल्याण प्राप्ति की इच्छा से अपने आश्रम पर पधारे हुए ज्ञानानंद से परिपूर्ण व मन को सदा अपने वश में रखने वाले देवर्षि नारद से पूछाः

“भगवन ! आप उत्तम गुणों से युक्त और ज्ञानी हैं। लोकतत्त्व के ज्ञान से शून्य और चिरकाल से निवारण सर्वगुणसम्पन्न आप जैसे ज्ञानी महात्मा ही कर सकते हैं।

शास्त्रों में बहुत से कर्तव्य-कर्म बताये गये हैं। उनमें से जिसके अनुष्ठान से ज्ञान में मेरी प्रवृत्ति हो सकती है, उसका मैं निश्चय नहीं कर पाता हूँ। इसलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप कृपा करके मुझे श्रेय (कल्याण) के वास्तविक मार्ग का उपदेश कीजिये।”

नारदजी कहते हैं- “तात ! जो अच्छी तरह कल्याण करने वाला और संशय से रहित हो, उसे ही ʹश्रेयʹ कहते हैं। पापकर्म से दूर रहना, पुण्यकर्मों का निरन्तर अनुष्ठान करना, सत्पुरुषों के साथ रहकर सदाचार का ठीक-ठाक पालन करना, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमल एवं व्यवहार में सरल होना, मीठी वाणी बोलना, देवताओं, पितरों और अतिथियों को उनका भाग देना तथा भरण-पोषण करने योग्य व्यक्तियों का त्याग न करना-यह श्रेय का निश्चित साधन है।

सत्य बोलना ही श्रेयस्कर है। मैं तो उसे ही सत्य कहता हूँ, जिससे प्राणियों का अत्यंत हित होता हो।

अकेले रहकर धर्म का पालन, धर्माचरण पूर्वक वेद वेदान्तों का स्वाध्याय तथा उनके सिद्धान्तों को जानने की इच्छा कल्याण का अमोघ साधन है।

जिसे कल्याण-प्राप्ति की इच्छा हो उस मनुष्य को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-इन विषयों को अधिक सेवन नहीं करना चाहिए।

रात में घूमना, दिन में सोना, आलस्य, चुगली, गर्व, अधिक परिश्रम करना अथवा परिश्रम से बिल्कुल दूर रहना-ये सब बातें श्रेय चाहने वाले के लिए त्याज्य है।

दूसरों की निंदा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता है, वह उत्तम गुणों द्वारा ही प्रकट होना चाहिए।

मनुष्य को सदा धर्म में लगे रहने वाले साधु-महात्माओं तथा स्वधर्मपरायण उदार पुरुषों के समीप निवास करने का प्रयास करना चाहिए।

किसी कर्म का आरंभ न करने वाला और जो कुछ मिल जाये उसी से संतुष्ट रहने वाला पुरुष भी पुण्यात्माओं के साथ रहने से पुण्य का और पापियों के संसर्ग में रहने से पाप का भागी होता है।

जैसे जल और अग्नि के संसर्ग से क्रमशः शांत और उष्ण स्पर्श का अनुभव होता है, उसी प्रकार पुण्यात्माओं और पापियों के संग से पुण्य एवं पाप दोनों का संयोग हो जाता है।

जो पुरुष अपनी रसना का विषय समझकर स्वादु-अस्वादु का विचार रखते हुए भोजन करते हैं उन्हें कर्मपाश में बँधे हुए समझना चाहिए। रसास्वादन की ओर दृष्टि न रखकर जीवन-निर्वाह के लिए भोजन करना ही श्रेय है।”

निन्दक और पाखण्डियों के संग से दूर रहने का उपदेश देते हुए देवर्षि नारदजी ʹमोक्षधर्म पर्वʹ में कहते हैं-

आकाशस्थ ध्रुवं यत्र दोष ब्रुयुर्विपश्चिताम्।

आत्मपूजाभिः कामो वै को वसेत्तत्रः पण्डितः।।43।।

यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रावशो धर्मसेतवः।

प्रदीप्तमिव चैलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत्।।44।।

“जहाँ के लोग बिना किसी आधार के ही विद्वानों पर दोषारोपण करते हों, उस देश में आत्मसम्मान की इच्छा रखने वाला कौन मनुष्य निवास करेगा ?”

जहाँ लालची मनुष्यों ने प्रायः धर्म की मर्यादाएँ तोड़ डाली हों, जलते हुए कपड़े की भाँति उस देश को कौन नहीं त्याग देगा ?”

पापकर्म से जीविकोपार्जन करने वाले लोगों के संग से दूर रहने का उपदेश देते हुए कहते हैं किः

कर्मणा यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः।

त्यवधावेत्ततस्तूर्ण ससर्पाच्छरणादिवं।।47।।

“जहाँ जीवन की रक्षा के लिए लोग पापकर्म से जीविका चलाते हों, सर्पयुक्त घर के समान उस स्थान से तुरंत दूर हट जाना चाहिए।”

अन्त में, पापकर्म से दूर रहने की प्रेरणा देते हुए नारदजी साधकों को सावधान करते हैं किः

येन खटवां समारूढ कर्मणानुशयी भवेत्।

आदि तस्तन्न कर्त्तव्यमिच्छता कुभवमात्मेनः।।48।।

“अपनी उन्नति की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि जिस पापकर्म के संस्कारों से युक्त हुआ मनुष्य खाट पर पड़कर दुःख भोगता है, उस कर्म को पहले से ही न करें।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 77

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पयाहारी बाबा


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दुनियादार जहाँ सिर पटकते हैं।

वहाँ आशिक कदम रखते हैं।।

भोगी जिस संसार के पीछे आँखें मूंदकर अँधी दौड़ लगाता है, वह संसार उसका कभी नहीं होता। संसार उसे सुख तो नहीं देता वरन् देता है मुसीबतें, जिम्मेदारियाँ, तनाव और अशांति। जबकि योगी, भक्त या सेवक सेव्य को प्रसन्न करने के लिए संसार की सेवा करता है। वह संसार से कुछ चाहता नहीं है फिर भी उसे बिना माँगे ही बहुत कुछ मिल जाता है।

भोगी चाहता है यश और मान, फिर भी उसे इतना नहीं मिलता जबकि योगी नहीं चाहता है फिर भी उसे अथाह मान, अथाह प्रेम और अथाह आनंद मिलता है। दुनियादार जिस यश, मान और सुख को चाहते हैं – योगी सेवक उसकी परवाह तक नहीं करता वरन् यश, मान और सुख उसके पीछे पड़ता है।

हनुमानजी के पीछे क्या यश-मान नहीं पड़ा ? अभी तक हनुमानजी का यश है, मान है और अभी तक हनुमानजी को करोड़ों लोग प्रेम करते हैं और रावण….? रावण चाहता था यश-मान, लेकिन फिर भी हर साल आग लगा दी जाती है उसके पुतले को। रावण भोगवाद का प्रतीक है और हनुमानजी, श्रीरामजी और श्रीकृष्ण योगवाद के प्रणेता हैं।

एक बार पृथ्वीराज चौहाण सुप्रसिद्ध ʹभक्तमालʹ के रचयिता नाभाजी महाराज के शिष्य पयाहारी बाबा के चरणों में प्रणाम करने गये और बोलेः

“बाबा ! आप चलिए, मैं आपको द्वारिकाधीश की यात्रा करवाकर आऊँ।”

बाबा मुस्कराये। रात्रि को जब पृथ्वीराज चौहाण शयन कर रहे थे तब बाबा उनके बंद शयनखंड में प्रकट हुए और बोलेः

“पृथ्वीराज ! तू मुझे द्वारिकाधीश के दर्शन करवाने के लिए ले जाना चाहता है ? मैं तुझे यहीं द्वारिकाधीश के दर्शन करवा देता हूँ।”

बाबा ने पृथ्वीराज के नेत्रों पर हाथ रखा और थोड़ी ही देर में बोलेः

“खोल आँखें। क्या दिख रहा है ?”

पृथ्वीराज देखते हैं तो साक्षात् द्वारिकाधीश ! वे गिर पड़े पयाहारी बाबा के चरणों में।

पयाहारी बाबा श्रीरामजी को अपना इष्ट मानते थे। एक बार जयपुर के निकट गलता में अपनी गुफा में बैठे थे तब एक शेर आया और बाबा को हुआः

ʹयह शेर आकर द्वार पर खड़ा है, अतिथि के रूप में आया है और खुराक चाहता है। यह अतिथि रोटी-सब्जी तो खायेगा नहीं। इसे तो माँस की जरूरत है। अब क्या करें ?ʹ

पयाहारी बाबा ने उठाया चाकू और अपनी जाँघ का माँस काटकर रख दिया शेर के सामने। अतिथि देवो भव। द्वार पर अतिथि आया है तो उसकी भूख-प्यास मिटाना अपना कर्त्तव्य है। यह भारतीय संस्कृति है।

शेर तो माँस खाकर चल दिया किन्तु श्रीरामजी से रहा न गया। भगवान श्रीराम साकार रूप में प्रगट हो गये। पयाहारी बाबा ने श्रीराम का स्तवन किया और श्रीराम ने प्रेम से पयाहारी बाबा का आलिंगन किया। भगवान के संकल्प से पयाहारी बाबा की जाँघ पूर्ववत् हो गयी और चित्त श्रीरामदर्शन से पुलकित हो उठा।

दुनिया जिन श्रीराम के दर्शन करने के लिए तड़पती है, वे ही श्रीराम अतिथिधर्म के प्रति निष्ठा देखकर सेवक के दीदार के लिए आ गये। सेवा में कितनी शक्ति है ! दुनिया तो सेव्य को चाहती है और सेव्य सेवक को चाहता है।

जो सुख सेवा से मिलता है, जो सुख निष्कामता से मिलता है वह सुख डॉलरों से कहाँ ? वह सुख दुनिया के भोगों में कहाँ ? प्राणीमात्र में बसे परमात्मा के नाते कर्म करने से जिस शांति, सुख और सच्चे जीवन का छोर मिलता है वह दूसरों का शोषण करने की बेवकूफी में कहाँ ? दूसरों का शोषण करने वालों को फिर सुख के लिए शराब-कबाब और कुकर्मों की शरण लेनी पड़ती है।

निष्काम कर्म करने में जिन्हें मजा नहीं आता वे बेचारे कामना-कामना के चक्कर में चौरासी के चक्कर में चलते ही रहते हैं।

एक दिन में 1440 मिनट का समय है हमारे पास। उसमें से कम-से-कम 20-20 मिनट सुबह, दोपहर, शाम तो निकालें निष्काम होने के लिए ! 24 घण्टों में से 1 घण्टे ही सही, निष्काम भाव से ईश्वर का भजन करें… आज तो भजन भी दुकानदारी हो गया है। ʹइतनी माला करें, जप-ध्यान करें तो जरा प्रॉब्लेम् न आयें…. नौकरी अच्छी चले…. छोकरे अच्छे रहें…।ʹ जप-ध्यान से भी यदि नश्वर ही चाहा तो फिर शाश्वत के लिए कब समय निकालोगे ? ईश्वर के लिए ईश्वर का भजन करना चाहिए।

महाभारत में एक बात आती है कि पाँच पाण्डवों सहित द्रौपदी जब वन में विचरण कर रही थी तब एक शाम को युधिष्ठिर महाराज पर्वतों की हारमाला की ओर निहारते हुए, शान्ति एवं आनंद का अनुभव करते हुए प्रसन्नमुख नजर आ रहे थे। द्रौपदी के मन में आयाः ʹमहाराज युधिष्ठिर संध्या करते हैं, ध्यान-भजन करते हैं, भगवान का सुमिरण-चिंतन करते हैं फिर भी हम दुःखी हैं….. वन में दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और दुष्ट दुर्योधन को कोई कष्ट नहीं ?ʹ अतः उसने महाराज युधिष्ठिर से पूछाः

“महाराज ! आप भजन कर रहे हैं, धर्म का अनुष्ठान कर रहे हैं, सच्चाई से चल रहे हैं और दुःख भोग रहे हैं जबकि वह दुष्ट दुर्योधन कपट करके, जुआ खेलकर भी सुखी है। यह कैसी बात है ? आप भजन करते हैं तो भगवान से क्यों नहीं कहते कि हमें न्याय मिले ?”

युधिष्ठिर महाराज ने बड़ा गजब का जवाब दिया है जो भारतीय संस्कृति के गौरव का एक ज्वलंत उदाहरण है। युधिष्ठिर ने कहाः “द्रौपदी ! उसके पास कपट से वैभव और सुख है। वैभव और सुख बाहर से दिखता है किन्तु वह भीतर से सुखी नहीं, वरन् अशांत है। जबकि हमारे पास बाहर की सुविधाएँ नहीं हैं फिर भी हमारे चित्त का सुख नहीं मिटता। मैं भजन इसलिए नहीं करता हूँ कि मुझे सुविधाएँ मिलें अथवा मेरे शत्रु का नाश हो जाए वरन् मैं भजन के लिए भजन करता हूँ। उस सुखस्वरूप, आनंदस्वरूप, चैतन्यघन से क्या माँगना ?”

भजन के लिए भजन तभी होगा जब भगवान से कुछ न माँगा जाये। ʹजो आयेगा देखा जायेगा…. जो आयेगा सह लेंगे… जो आयेगा गुजर जायेगा…ʹ इस भाव से भजन करें तभी भगवान के लिए भजन होगा अन्यथा, ʹयह हो जाये… वह हो जाये….ʹ इस भाव से किया गया भजन भगवान के लिए नहीं होगा। भगवान से कुछ माँगने के लिए भजन करना तो भगवान को नौकर बनाने के लिए भजन करना है।

भजन प्रेमपूर्वक किया जाय अहोभाव से किया जाये, भगवान को अपना और अपने को भगवान का मानकर भजन किया जाये, निष्काम होकर किया जाये तभी भजन, भजन के लिए होगा अन्यथा मात्र दुकानदारी ही रह जायेगा।

अतः सावधान ! समय बहुत कम है। भजन ही करें व्यापार नहीं, दुकानदारी नहीं। कहीं यह अनमोल मनुष्य जन्म यूँ ही व्यर्थ न बीत जाए….

पयाहारी बाबा एक बार घूमते-घामते जयमल के राज्य में आये। उस समय जयमल खड़े-खड़े अपना महल बनवा रहा था। महल बनवाने में पानी की जरूरत पड़ती है। पानी भरने वाला एक पखाली पाड़े पर तालाब से पानी ले जाता  था।

पयाहारी बाबा तालाब के किनारे जा बैठे थे। उऩ्हें पता चला कि यह राजा का पखाली है अतः उन्होंने कहाः

“तुम्हारे राजा से कहना कि साधु आये हैं। उनके लिए पावभर दूध सुबह और पावभर दूध शाम को यहाँ भेज दिया करें।”

जयमल को पता ही न था कि संत-सेवा की महिमा का, अतः पखाली के कहने पर जयमल के अहं को चोट लगी। वह ठहाका मारकर हँसा।

अहंकार कहीं झुकना नहीं चाहता, अहंकार मजाक उड़ाना चाहता है। यह सुविदित सत्य है कि आप जो देते हो वही पाते हो। आप जो चाहते हो वह दो तो वह अनंत गुना होकर आपको मिलता है। आप अपमान चाहते हो तो दूसरों का अपमान करो। फिर आप देखोगे कि ʹहोलसेलʹ में आपको अपमान मिल रहा है। अगर आप धोखा चाहते हो तो दूसरों को धोखा दो। आपको खूब धोखा मिलेगा। अगर आप अशांति चाहते हो तो दूसरों को अशांति पहुँचाओ। आपको खूब अशांति मिलेगी। आप अशांति दोगे किसी को और मिलेगी किसी और से, किन्तु मिलेगी जरूर।

ईश्वर के केवल दो ही हाथ नहीं हैं। आप किसी व्यक्ति की सेवा करते हो तो जरूरी नहीं है कि वही व्यक्ति उन्हीं हाथों से तुम्हारी सेवा का बदला दे। भगवान के अनंत-अनंत हाथ हैं, अनंत-अनंत हृदय हैं। अनंत-अनंत हृदयों के द्वारा यह सेवा कर देता है। आप जो देते हैं, वह अनंतगुना पाते हैं।

सूरत में एक संत-महापुरुष किसी भक्त के अतिथि हुए थे जिसके यहाँ दो-चार भैंसें बँधी थीं। एक और भैंस का दूध रखा हुआ था, जिसे देखकर संत ने पूछाः

“वह क्या है ?”

भक्तः “भैंस का दूध है।”

संतः “लाओ।”

भक्त ने बड़े प्रेम से दूध दिया और संत प्रेम से वहीं पर दूध छींटने लगे। भक्त की तो श्रद्धा थी अतः उसने कुछ नहीं कहा किन्तु बेटों को हुआ कि ʹसाधु बाबा के चक्कर में आकर पिता ने पूरा दूध छिंटवा दिया ! यह कोई रीत है ?ʹ

पिता बोलाः “तुम लोगों को कुछ समझ में नहीं आयेगा, जाने दो। क्या हुआ ? 10-12 सेर दूध ही तो गया ! वह भी गुरु जी की सेवा में ही तो लगा है !”

दूसरे-तीसरे दिन भी संत ने दूध लेकर छींट दिया। बेटे परेशान हो गये तब भक्त ने हाथ जोड़कर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक संत से पूछाः “गुरु जी ! यह क्या कर रहे हैं ?”

संतः “दूध बोता हूँ।”

वे महापुरुष तो चल दिये लेकिन वहाँ भैंसे खड़ी करने पर इतना दूध आता कि समय पाकर वही जगर ʹभैंसों का तबेलाʹ नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

जब जड़ वस्तु फेंकते हो तो वह अनंतगुनी होकर आती है तो चेतन विचार फेंकने पर भी अनंतगुने होकर आयेंगे ही, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

शक्कर खिला शक्कर मिले।

टक्कर खिला टक्कर मिले।।

यह कलजुग नहीं करजुग है।

इक हाथ ले इक हाथ दे।।

जो औरों को डाले चक्कर में।

वह खुद भी चक्कर खाता है।।

औरों को देता शक्कर जो।

वह खुद भी शक्कर पाता है।।

….किन्तु जयमल को तो इन सब बातों का पता ही नहीं था। अतः वह हँसकर अपने मंत्री से बोलाः “आजकल साधु-बाबाओं का दिमाग भी आसमान में है। राजा को कहलाकर भेजा कि पावभर दूध सुबह-शाम भेजना !” फिर पखाली से  बोलाः

“पखाली ! महाराज को बोलना की पाड़ा दुहकर जितना भी दूध निकले वह रोज ले लिया करें…. जयमल ने ऐसा कहा है।”

पखाली ने जाकर राजा का संदेश सुना दिया पयाहारी बाबा को। पयाहारी बाबा आ गये अपनी यौगिक मस्ती में। संकल्प करके पखाली के पाड़े पर पानी छींटा, हाथ घुमाया और वह पाड़ा भैंस बन गया। उसके थन दूध से भर गये। वह देखकर पखाली बाबा के चरणों में गिर पड़ा।

पखाली पानी भरकर पाड़े को ले जाने लगा तो उसके थनों से दूध टपक रहा था। वह रास्ते चलते लोगों को भी यह चमत्कार बताने लगाः “देखो देखो… बाबा ने यह कैसा जादू कर दिया !”

जब जयमल ने देखा तो उसे हुआ कि ʹधत् तेरे की ! लोगों का शोषण करके फिर हम मजा लेना चाहते हैं किन्तु इनका तो संकल्प मात्र ही प्रकृति में परिवर्तन कर देता है !ʹ

जयमल आया और पयाहारी बाबा के चरणों में गिरता हुआ बोलाः

“महाराज ! क्षमा करें। यह सब कैसे होता है, बताने की कृपा करें।”

पयाहारी बाबाः “हरि अनंत हैं। हरि की शक्ति अनंत है। वही अनंत शक्तिमान ब्रह्माण्डनायक हरि तेरा अन्तरात्मा बनकर बैठा है, मूर्ख ! इस महल को बना-बनाकर फिर छोड़कर मरेगा। इससे तू हृदय के महल को बना ताकि तेरा परलोक सुधर जाये। इन परिस्थितियों का सुख तू कब तक लेगा ? चापलूसों की खुशामद का सुख तू कब तक लेगा ? मूर्ख ! तू दिखता तो बाहर से राजा है किन्तु भीतर से महाकंगाल है…”

जयमल का हृदय बदल गया। पुनः चरणों में गिरकर बोलाः “फिर सुख कैसे मिलेगा ?”

पयाहारी बाबाः “जो सुखस्वरूप श्रीहरि हैं उनकी पूजा उपासना और भजन करना सीख।”

जयमन ने प्रार्थना करके थोड़ी बहुत पूजा की विधि सीख ली और अपने महल के ऊपर एक सुन्दर कक्ष बनवाया। जयमल ने श्रीहरि का पूजाकक्ष सात्त्विक ढंग से सजाया और उसमें ऐसी सीढ़ी रखी जिससे केवल वही जा सके। बाद में सीढ़ी उठाकर रख दी जाये। अपने सेवकों को सख्त आदेश दे दिया कि ʹउसके सिवाय यदि कोई उस सीढ़ी का उपयोग करके ऊपर के कक्ष में जायेगा तो उसे कठोर दंड दिया जायेगा।ʹ

उस कक्ष में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करके जयमल रोज उसकी पूजा करता और गुरुमंत्र का जप करता। इस प्रकार दिन बीत चले।

एक दिन जयमल थका हुआ था अतः रात्रि में जल्दी से नीचे के कमरे में आकर सो गया। तब उसकी पत्नी को हुआः ʹदेखा जाये, ऊपर क्या है ? ये रोज आकर पूजा करते हैं, भोग चढ़ाते हैं और सबको प्रसाद बाँटते हैं। आजकल बड़े भक्त हो गये हैं तो किस प्रकार सेवा-पूजा करते हैं ?ʹ

पत्नी ने धीरे-से सीढ़ी उठाकर रखी और धीरे-धीरे कमरे में गयी। वहाँ जाकर क्या देखती है कि जयमल जिनकी रोज पूजा करते हैं वे ही ठाकुर जी एक तेजोमय पुरुष के रूप में शैया पर विश्रान्ति कर रहे हैं ! जयमल की पत्नी दंग रह गयी कि ʹमैं क्या देख रही हूँ !ʹ

उसका शरीर पुलकित हो उठा, हृदय रोमांचित और आनंद-माधुर्य से परिपूर्ण हो उठा तथा नेत्रों से प्रेमाश्रु बरस पड़े। वह ज्यादा वहाँ न रह सकी क्योंकि जयमल के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थी। अतः श्रीहरि को प्रणाम करके धीरे-धीरे सीढ़ी उतरने लगी। ज्यों ही आखिरी सीढ़ी से जरा जोर से कूदी त्यों ही गहनों की आवाज सुनकर जयमल की नींद टूट गयी। सीढ़ी लगी देखकर वह पत्नी को डाँटने लगाः “क्यों गयी थी ऊपर ?!”

तब पत्नी ने कहाः “चाहे आप मुझे प्राणदण्ड दे दें किन्तु अब मुझे कोई डर नहीं है।”

जयमलः “तुम्हें मेरे से डर नहीं लगता ?”

पत्नीः “जब डरती थी तब डरती थी किन्तु आज मुझे डर नहीं लग रहा है। पतिदेव ! मैं आपकी अवज्ञा करके चुपके से ऊपर गयी और वहाँ क्या देखा कि जिनकी आप पूजा करते हैं वे ही भगवान मानो साकार होकर आपके पूजाकक्ष की शैया पर शयन कर रहे हैं…”

जयमल को पत्नी के हाव-भाव और मुखमुद्रा देखकर हुआ कि सचमुच ही इसने साकार विग्रह के दर्शन किये हैं। अतः वह तुरंत सीढ़ी से चढ़कर पूजाकक्ष में गया किन्तु उसे कुछ भी दिखाई न पड़ा। वहाँ ठाकुर जी को न पाकर भी उसे उस शैया को प्रणाम किया और कहाः “प्रभु ! अभी मेरे चित्त में दोष हैं। मेरे कषाय अभी परिपक्व नहीं हुए हैं। मैंने अनेकों का शोषण किया है और विलासी जीवन जिया है इसीलिए मेरा भक्तियोग सफल नहीं हुआ। फिर भी गुरुकृपा से आप आते तो हो। पत्नी का निर्दोष हृदय है अतः उसे दीदार दिया। देर सवेर आप मुझे भी दर्शन दोगे ही। अगर नहीं भी दिया तब भी यह मानकर प्रसन्नता आ रही है कि मेरी पूजा आप तक पहुँच तो रही है…..”

आप जो  देते हो वह जरूर उस अन्तर्यामी ईश्वर तक पहुँचता ही है। इसमें संदेह मत करो कि ʹपहुँचता है कि नहीं पहुँचता….ʹ जब आपकी देखने की आँखें खुल जायेंगी तब आपको दिखेगा भी सही।

किसी के लिए आप कुभाव करें और जब वह व्यक्ति मिले तब आप देखें कि वह आपसे कैसा व्यवहार करता है। किसी के लिए आप सदभाव भेजें फिर उसके मिलने पर आप देखें कि वह आपसे कैसा व्यवहार करता है।

भारत कर्मभूमि है। मुक्ति का द्वार है यह देश। उत्तम कर्म एवं सत्संगति, महापुरुषों का सान्निध्य एवं उपदेश मनुष्य को मुक्तिधाम तक ले जा सकता है। शास्त्र कहते हैं।

ʹआसक्ति कभी जीर्ण होने वाली नहीं है किन्तु वही आसक्ति संत महापुरुषों के चरणों में और उनके वचनों में हो जाये, स्वामी लीलाशाह बापू के श्रीचरणों और वचनों में हो जाये, भगवान वेदव्यास जी के श्रीचरणों एवं कथनों में हो जाये तो वही आसक्ति मुक्ति देने वाली है।

डिस्को में, वाइन में, क्लब में स्त्री-पुरुषों के नाचगान में आसक्ति करके तो बरबादी ही होती है, पायमाली ही होती है लेकिन भगवान में और भगवान के प्यारे संतों के वचनों में आसक्ति करने से मुक्ति और भुक्ति दोनों दासियाँ बन जाती हैं…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 12,13,14,15,16,6 अंक 50

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