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सत्शिष्य फैलाते सद्गुरु का ज्ञानप्रकाश


 

(संत कबीर जयंतीः 20 जून 2016)

हृदय की बात जानने वाला सत्शिष्य

पंचगंगा घाट पर सभी संत आध्यात्मिक चर्चा कर रहे थे। अंदर गुफा में बैठ के स्वामी रामानंद जी मानसिक पूजा कर रहे थे। वे पूजा की सभी सामग्री एकत्र कर नैवेद्य आदि सब चढ़ा चुके थे। चंदन मस्तक पर लगाकर मुकुट भी पहना चुके थे परंतु माला पहनाना रह गया था। मुकुट के कारण माला गले में जा नहीं रही थी। स्वामी जी कुछ सोच रहे थे।

इतने में रामानंद जी के शिष्य कबीर जी को गुरुदेव के हृदय की बात मालूम पड़ गयी और वे बोल उठेः “गुरुदेव ! माला की गाँठ को खोल कर फिर उसे गले में बाँध दिया जाय।”

कबीर जी की युक्तिभरी बात सुनकर रामानंद जी चौंके कि ‘अरे, मेरे हृदय की बात कौन जान गया ?’ स्वामी जी ने वैसा ही किया। परंतु जो संत बाहर कबीर जी के पास बैठे हुए थे, उन्होंने कहा कि “कबीर जी ! बिना प्रसंग के आप क्या बोल रहे हैं ?”

कबीर जी ने कहाः “ऐसे ही एक प्रसंग आ गया था, बाद में आप लोगों को ज्ञात हो जायेगा।”

पूजा पूरी करने के बाद रामानंद जी गुफा से बाहर आये, बोलेः “किसने माला की गाँठ खोलकर पहनाने के लिए कहा था ?”

सभी संतों ने कहाः “कबीर जी ने अकस्मात् हम लोगों के सामने उक्त बातें कही थीं।”

रामानंद जी का हृदय पुलकित हो गया और अपने प्यारे शिष्य कबीर जी को छाती से लगाते हुए बोलेः “वत्स ! तुमने मेरे हृदय की बात जान ली। मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से संतुष्ट हूँ। तुम मेरे सत्शिष्य हो।”

गुरुदेव का आशीर्वाद व आलिंगन पाकर कबीर जी भावविभोर हो गये और गुरुदेव के श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम करके बोलेः “प्रभो ! यह सब आपकी महती अनुकम्पा का फल है। मैं तो आपका सेवक मात्र हूँ।”

इस प्रकार कबीर जी पर गुरु रामानंद जी की कृपा बरसी और वे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष हो गये।

अग्राह्य को भीतर से बाहर निकालो !

कबीर जी ब्रह्मज्ञान का अमृत लुटाने हेतु देशाटन करते थे। एक बात कबीर जी अरब देश पहुँचे। वहाँ इस्लाम धर्म के एक प्रसिद्ध सूफी संत जहाँनीगस्त रहते थे। कबीर जी ने उनका बड़ा नाम सुना तो उनसे मिलने पहुँचे परंतु फकीर ने अपनी महानता के अहंकार के वशीभूत होकर कबीर जी से मुलाकात नहीं की।

उन फकीर ने सिद्धियाँ तो प्राप्त कर ली थीं परंतु आत्मज्ञान न होने से अहंकार दूर नहीं हुआ था। एक दिन फकीर को रात्रि में स्वप्न आया कि ‘किन्हीं हयात महापुरुष के दर्शन सत्संग के बिना तुम्हारा अज्ञान दूर नहीं होगा। अतः भारत में जाओ और संत कबीर जी के दर्शन करो।’

जहाँनीगस्त फकीर ने पूछाः “कौन कबीर ?”

‘भारत के कबीर, जिन्होंने सिकंदर लोदी को पराजित किया है और जो तुमसे मिलने आये थे परंतु तुमने अहंकारवश उनसे मुलाकात नहीं की।’

सुबह उठते ही फकीर स्वप्न की बात पर चिंतन करने लगे कि ‘मैं कबीर जी को पहचान न सका। ऐसे महापुरुष मेरे द्वार पर आये और मैंने उनका अपमान कर दिया। इसलिए अल्लाह की ओर मुझे आज यह आदेश हुआ है। अब मैं कबीर जी का दर्शन अवश्य करूँगा।’ ऐसा निश्चय करके जहाँनीगस्त अरब से चल पड़े। इधर कबीर जी पहले ही जान गये कि जहाँनीगस्त आ रहे हैं तो उनके बैठने के लिए आसन की व्यवस्था करा दी। साथ ही उन्होंने आश्रम के सामने एक सूअर बँधवा दिया।

फकीर कबीर जी के आश्रम के निकट पहुँचे। दूर से ही सूअर देखकर उनके मन में घृणा हुई कि ‘कबीर जी सूअर को क्यों बाँधे हुए हैं ? वे तो संत हैं, उनको इससे दूर रहना चाहिए।’ इस  प्रकार तर्क वितर्क कर लौटने का विचार करने लगे। संत कबीर जी उनको मनोभाव को जान गये, बोलेः “संत जी ! आइये, क्यों इतनी दूर से आकर वहाँ रुक गये हो ?”

वे कबीर जी के पास आये। थोड़ा विश्राम व भोजन के बाद कबीर जी के साथ सत्संग की चर्चा होने लगी। जहाँनीगस्त ने कबीर जी से पूछाः “आप बहुत बड़े संत-महापुरुष हैं  परंतु आपने इस अग्राह्य को क्यों ग्रहण किया है ?”

कबीर जी बोलेः “जहाँनीगस्त जी ! मैंने अपने अग्राह्य को भीतर से बाहर कर दिया है परंतु आप अभी उसको भीतर ही रखे हुए हैं।”

“मैं कुछ समझा नहीं !”

“मैंने  भेदबुद्धिरूपी सूअर को भीतर से निकाल कर बाहर बाँध दिया है परंतु आप उसे अपने अंदर रखे हुए हैं और इस पर भी आप पवित्र बनते हैं। इस सूअर को आप अपने अंदर छिपाकर रखे हुए हैं।”

यह सुनते ही फकीर का सारा भ्रम दूर हो गया। कबीर जी के सत्संग से उनकी अविद्या (जगत को सत्य मानना व अद्वैत परमात्मा को न जानना), अस्मिता (देह को मैं मानना), राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु का भय) अलविदा हो गये।

जिधर देखता हूँ खुदा ही खुदा है।

खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।।

जब अव्वल व आखिर खुदा ही खुदा है।।

तो अब भी वही, कौन इसके सिवा है।।

जिसे तुम समझते हो दुनिया ऐ गाफिल1।।

यह कुल हक2 ही हक, नै जुदा नै मिला है।।

1 अज्ञानी 2 सत्यस्वरूप परमात्मा

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 281

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‘हरि’ की महिमा अपरम्पार


पूज्य बापू जी

इंदिरा गाँधी जिनके चरणों में मत्था टेकती थी वे आनंदमयी माँ अपने आश्रम में भी आयी थीं। मैं भी उनके आश्रम में आता-जाता रहता। इंदिरा गाँधी की गुरु आनंदमयी माँ जहाँ मत्था टेकती थीं वे थे हरि बाबा।

एक बार हरि बाबा यात्रा करते हुए कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक किसान पर उनकी नजर पड़ी। वह हल चला रहा था। बाबा तो बाबा होते हैं भाई ! आ गयी रहमत उस पर। किसान के पास गये और बोलेः “भाई ! दोपहर हो गयी है, आओ अब थोड़ी देर हरि नाम कीर्तन करते हैं।”

किसान बोलाः “बाबा ! आपका रास्ता अलग है, मेरा अलग है। आप तो रोटी माँगकर खा लोगे। मैं तो बाल बच्चे वाला हूँ। यह हल छोड़कर तुम्हारे साथ कीर्तन करूँगा तो मेरा क्या होगा ?”

“देख भैया ! तेरा हल मैं चलाता हूँ, तू थोड़ी देर हरिनाम ले ले। हरि ॐ…. हरि ॐ….. प्यारे ॐ…. हरि ॐ… ऐसा कर ले।”

“बाबा ! आप अपने रास्ते जाओ, काहे को मुझे परेशान कर रहे हो ?”

“अरे बेटा ! परेशानी तो तब है जब हरि से विमुख होते हैं।”

ऐसा कह के बाबा ने बैल की रस्सी एक हाथ में ले ली और दूसरे हाथ से हल का डंडा पकड़ा और उसको बोलेः “तू यहाँ हरि ॐ….. हरे राम….. हरे राम…. नाम ले। मैं तेरा हल चलाता हूँ।”

बाबा का ऐसा जादू छा गया कि वह बोलाः “अच्छा बाबा ! तो क्या बोलना है ?”

बोलेः “हरि ॐ…. हरि ॐ… हे हरि… हरि… जैसा भी आये कहो। हरि… हरि…. यह दो अक्षर का नाम लेगा तो अभी-अभी तेरा मंगल हो जायेगा। क्योंकि जो पाप हर ले वह है हरि, हर समय जो साथ-सहकार दे वह है हरि, हर दिल में जो बसा है वह है हरि।

हरति पातकानि दुःखानि शोकानि इति श्रीहरि।

बेटे ! हरि की महिमा अपरम्पार है ! तू महिमा सुन – न सुन केवल हरि…. हरि…. बोल।”

बाबा ने उनके सामने थोड़ी देर तो हरि का नाम लिया। फिर तो वह निर्दोष था, ज्यादा बेईमान, कपटी, छली नहीं था। उसके पाप तो हरि ने हर लिये और वह जोर-जोर से ‘हरि ॐ… हरि  ॐ…’ कहकर झूमने लगा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। नृत्य के साथ वह ऐसा पावन हुआ कि उसकी बुद्धि में बुद्धिदाता का अनोखा दिव्य प्रभाव आया। उस किसान ने बाबा के हाथ से बैलों की रस्सी ले ली और उनके चरण पकड़कर फूट-फूट के रोने लगाः “बाबा ! बाबा !….”

बोलेः “क्या है बेटा ?”

“बाबा ! बाबा !…”

ऐसा तो वह प्यार-प्यार में बावरा हो गया कि आसपास के लोग दौड़-दौड़कर आये और बोलेः “क्या बात है ? पागल हो गया है ?”

बोलाः “हाँ, मैं पागल हो गया हूँ। गल को मैंने पा लिया है कि कैसे हरि को बुलाकर अपने हृदय में प्रकट किया जाय। मैंने तो बाबा का पहले अपमान कर दिया था लेकिन बाबा ने अपमान करने वाले को भी सम्मानित बना दिया। बाबा ! बाबा !….”

उसका चेहरा देखकर दूसरे किसानों के चेहरे भी खिल उठे।

“अरे, मेरी तरफ देखते क्या हो प्यारे ! बोलो हरि ॐ… हरि ॐ….”

वे किसान भी बोलने लगेः ! “हरि ॐ… हरि ॐ…” सारा टोला “हरि ॐ….. हरि ॐ…” ऐसा करते-करते सबको ऐसा रंग लगा कि हरि के नाम से आसपास के सारे किसान तो इकट्ठे हुए ही, साथ ही गाँव में जो आज तक अतिवृष्टि, अनावृष्टि, झगड़े, मार-काट, शराब, यह-वह होता था, वे सारे ऐब चले गये, सारी समस्यायें चली गयीं। हरिपुर ग्राम बन गया।

संत कबीर जी बोलते हैं- साहेब है मेरो रंगरेज। वह साहेब मेरा हरि है जो हर दिल में रहता है। उस परमात्मा के हजार नामों में से एक नाम है ‘हरि’। जो पाप, दुःख हर लेता है, अपनी कृपा भर देता है, हरदम रहता है, मरने के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता उस भगवान का नाम हरि है। तो भगवान के नाम में अदभुत शक्ति है।

सतयुग में बारह साल सत्यव्रत की तपस्या करते तब जाकर कुछ मिले, त्रेता में तप करे, द्वापर में यज्ञ व ईश्वर की उपासना करे लेकिन कलियुग में तो सिर्फ ‘हरि ॐ…. हरि ॐ…’ करे तो ऐसा काम बने-

कलिजुग केवल हरि गुन गाहा।

गावत नर पावहिं भव थाहा।।

(श्री रामचरित. उ.कां. 102.2)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2014, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 253

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