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सेवा में सावधानी


 

सेवा वाला जो अधिकार चाहता है , सेवा में जो अधिकार के लोलुप होते है .. जो शुरू में अधिकार चाहता है ..मैं ये करूँगा,ये नहीं  करूँगा..वो सेवक होने में नालायक होता है!

सेवक तो हनुमानजी है ! कोई अधिकार की ख्वाहिश नहीं ! और ये करूँगा… ये नहीं  करूँगा….. नहीं, जिस समय जो सेवा मिल जाती है, लग जाते हैं वो उत्तम सेवक होता है! जो अधिकार लेकर सेवा करना चाहता है वह बाद में वासनावान होकर भोगी बनकर संसार के जन्म मरण में फिरता है।

जो सेवा के सद्गुण से सम्पन्न होकर सेवा करता है तो उसमें विवेक वैराग्य जगता है और अंत में भगवान का प्रेमी और ज्ञानी भक्त बन जाता है। जो सेवक है और प्रेम नहीं  है तो समझो सेवा रॉंग साइड पर है।

सेवा, सब ते सेवा धर्म कठोरा …

क्योंकि मान, बड़ाई और भोग का त्याग करनेवाला ही सच्चा सेवक हो सकता है और जो सेवक को मिलता है वो बड़े बड़े तपस्वियों को भी नहीं  मिलता !

हिरण्यकश्यपु तपस्वी था । सोने की हिरणपूर मिली लेकिन शबरी सेवक को जो सुख मिला वो हिरण्यकश्यपु ने कहाँ देखा ? रावण ने कहाँ देखा ? मुझे मेरे गुरुदेव की सेवा और दैवी कार्य की सेवा से जो मिला है वो बेचारे रावण को कहाँ था!

सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे । दिखावटी सेवक कई आए कई गए, जरा-सा टाईट किया अथवा हेरा-फेरी करनेवाले फिर कई दिनेश जैसे सेवक भाग गए । ये सेवा के बहानेवाले सेवक घुस जाते है न तो गड़बड़ी करते है।

ऋषिप्रसाद में जो सच्चे हृदय से सेवा करेगा तो उसका उद्देश्य होगा । हम क्या चाहते हैं वो नहीं ..वो क्या चाहते हैं और उनका कैसे मंगल हो, सेवक का ये उद्देश्य होता है । आप क्या चाहते है और आपका कैसे मंगल हो ये  मेरी सेवा का उद्देश्य होना चाहिए ।

आपको पटा के दान दक्षिणा ले लूँ तो सेवा के बहाने मैं जन्म-मरण के चक्कर में जा रहा हूँ । सेवा में बड़ी सावधानी चाहिए! जो प्रेमी होता है, सद्गुरुओं का सत्संग होता है जिसके जीवन में, मंत्र दीक्षा होती है, भगवान का महत्व समझता है और मनुष्य जीवन का महत्व समझता है, वही सेवा से लाभ उठाता है, बाकी के सेवा से लाभ क्या उठाते है, सेवा से मुसीबत मोल लेते है । “मैं फलाना हूँ, मैं फलाना हूँ!…वासना बढ़ाते है और संसार में डूब मरते है !

जो संसार में डुबा दे सेवा, वो सेवा नहीं  है, वो तो मुसीबत बुलानेवाली चालाकी है । जो संसार की आसक्ति मिटाकर अपने लिए कुछ नहीं  चाहिए, अपना शरीर भी नहीं रहेगा… हम दूसरों के काम आएंगे तो अपने आप केबिन बनती है, अपने आप रेल गाड़ियाँ बनती है..

अपनी चाह छोड़ दे, दूसरे की भलाई में ईमानदारी से लग जाए उसके दोनों हाथ में लड्डू! यहाँ भी मौज वहाँ भी मौज !

पूरे है वो मर्द जो हर हाल में खुश है…

तो माँ की सेवा करे,पति की सेवा करे,पत्नी की, समाज की लेकिन बदला न चाहे वो उसका कर्मयोग हो जाएगा,उसके भक्ति में योग आ जाएगा, उसके ज्ञान में भगवान का योग आ जाएगा । आपके जीवन में सभी क्षेत्र में आनंद है।

..क्या करें, मुझे सफलता नहीं  मिलती.. तो टट्टू तू सफलता के लिए ही करता है, वाहवाही के लिए! जितना वाहवाही का स्वार्थ  होता है उतना ही विफल होता है और जितना दूसरे की  भलाई का उद्देश्य होता है उतना ही सफल होता है । मैं सफल नहीं  होता हूँ , मैं सफल नहीं  होता हूँ..होगा भी नहीं  !स्वार्थी आदमी क्या सफल होंगे? स्वार्थ में आदमी कितने भी सफल दिखे फिर भी अंदर से अशान्त होंगे, वाईन पीकर  सुख ढूँढेंगे और क्लबों में जाके सुख ढूँढेंगे । क्या खाक तुमने !

अब वो मुबारक राष्ट्रपति बन गए, सेवा का बहाना हुआ लेकिन अभी पुलिस की हिरासत में है। क्या झक मारा सेवा ने! सेवा तो शबरी की है,सेवा तो रामजी की है,सेवा तो कृष्ण की है, सेवा तो कबीर की है और सेवा तो ऋषिप्रसाद वालों की है! सेवा ओर सेवकों की है।  बड़े पद पर बैठ गए, बड़ी सेवा करे, ये बेईमानी है! सेवक को कोई पद की जरूरत नहीं  है । सच्चे सेवक के आगे सारे पद आगे पीछे घूमते है। कोई बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता है बिल्कुल झूठी बात है। सेवा में जो अधिकार चाहता है वो वासनावान होकर जगत का मोही हो जाएगा लेकिन सेवा में जो अपना अहं मिटाकर दूसरे की भलाई तन से, मन से, विचारों से दूसरे का मंगल हो और मान मिले चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं…  ऐसे हनुमानजी जैसे सेवक का.. ये पूर्णिमा हनुमान जयंती की है…

हनुमानजी देखो  तो..जहाँ छोटा बनना है  छोटे और जहाँ बड़ा बनना है तो बड़े बन जाते है, जहाँ पूछ लंबी करनी है तो लंबी करते है और फिर लंबी पूँछ कैसे ढकीं जाएगी…  चिंता में पड़ गए सारे तो हनुमानजी ने पूँछ को सिकोड़ भी लिया!लेकिन अपना पिता है वायुदेव.. बोले पिताश्री आपका और अग्नि का तो सजातीय सबंध है.. हे वायुदेव अग्नि ना लगे ऐसी कृपा करना ।

हओ…………… राक्षस फूँकते फूँकते ..चामते चामते…. अग्नि लग नहीं  रही !

रावण ने कहा देखो, अग्नि क्यों नहीं  लग रही?हनुमान तुम बताओ।

बोले,हम क्या बताएं ? यजमान जबतक शुद्ध होकर अग्निदेवता को नहीं  बुलाता तबतक अग्नि कैसे लगेगी?ये तो तुम्हारे दूतों के द्वारा लगवा रहे है! ब्राम्हण को जब बुलाते है,आमंत्रित करते है तभी ब्राम्हण भोजन करते है । तो अग्निदेव तो ब्राम्हणों का ब्राम्हण है । आप खुद अग्निदेव को बुलाओ । वो तो एक एक मुख से फूँकते है,आपके तो दस मुख है! ”

देखो अब हनुमानजी !सेवक स्वामी का यश बढ़ाता है! हनुमानजी ने…आज हनुमान जयंती की पूर्णिमा चालू हो रही है।

रावण को लगा कि हनुमान की युक्ति तो ठीक है, चलो अब हम स्वयं अग्नि लगाएँगे! उसने बराबर कुल्ला वुल्ला किया। अग्निदेवता का आह्वान किया ..और बोले  दस-दस मुख तो मैं तो फूँकूँगा तो होगा !

वो लोग फूँकते है तो अग्नि जलती नहीं , धुँआ ..नाक में आँखों मे जलन होती है । परेशान परेशान हो गए थे । अब पूरा घी छटवां दिया और अग्निदेव को आवाहन किया । मन में बेईमानी थी कि ऐसी दस मुखों से ऐसी फूँक मारूँगा कि पूँछ के साथ हनुमानजी भी जल जाए। अब मन में बेईमानी है और अग्निदेवता का सेवक बन रहा है! फूँक तो मारी लेकिन फूँक ऐसी मारी कि हनुमानजी तो क्या जले ,वो आग में उसकी दाढ़ी और मूंछे जल गई! नकट्टा हो गया ! ये सेवा का बहाना करके सेवा कर रहा है !  हनुमानजी ने चपट मार दी कि रावण का नाक काट दिया ।

बोला कि ये हनुमानजी मर जाएँगे तो मेरा बड़ा यश होगा..ऐसी फूँक मारूँ कि फूँक उभरे!…फूँक मारी ..सीधे अपने मुँह पे ! एकदम न्यू बुलेटिन है कि नहीं  है हनुमान जयंती की!

ॐ     नारायण नारायण…

हमको दस बजे का जहाज पकड़ना था,वो जहाज पकड़ो न पकड़ो बारह बजे जाएँगे, सवा बारह बजे  जाएँगे…  क्या घाटा पड़ता है! वहाँ सुरेश संभाल लेंगे मोर्चा और यहाँ बहादुरगढ़ के कई बहादुर… जो कल नहीं  आए थे, परसो नहीं आए आज ही आए हैं हाथ ऊपर करो..

बापरे…  बाप.. अब इनको छोड़के कैसे जाऊँ? दस बजे के जहाज की ऐसी-तैसी ! ग्यारह बजे के जहाज में भी नहीं जाएँगे, जाएँगे तो बारह बजे के बाद ही जाएँगे ! यहाँ से तो ग्यारह बजे जाऊँगा लेकिन बारह बजके कुछ मिनट के बाद का जहाज पकडूँगा। भले वलसाड लेट पहुँचेंगे तो क्या बात है? ये नये ग्राहक छोड़ के चले जाएं?..

नए ग्राहक सुन लेना.. कल हमने हरड़ रसायन बाँटी थी । वो दो गोली रोज  चूसने से स्वास्‍थ्य बढ़िया होता है, टॉनिक का काम करती है । जिसको हरड़ रसायन प्रसाद मिली कल वे हाथ ऊपर करो.. ठीक है.. आप आए थे..

जिसको नहीं मिली वे हाथ ऊपर करो.. आप आए नहीं थे तो आपको आज मिले, ऐसी कोशिश करेंगे । अरे बोलते नहीं…  वाह बापू वाह ! वाह गुरु वाह ! वाह गुरु वाह !

अब दीक्षावाले सुन लो …गंजे आदमी को भी कंघी बेचो.. तेरा काला मुँह हो जाएगा । दुसरे को ठग के आप अपना काम सीधा बनाते है आपका भविष्य उज्जवल नहीं  है । अपनेको थोड़ा नुकसान सहके भी दूसरे का भला करते है आपका भविष्य भले में ही भले में ,भले में ही भले में है।

कबीरा आप ठगाइयेऔर न ठगिये कोई

आप ठगायै सुख उपजे,और ठगे दुःख होई….

जो अपने सुख के लिए दूसरे को कष्ट देता है उसको बड़े दुःख के लिए तैयार रहना पड़ेगा लेकिन दूसरे के सुख के लिए अपने को दौड़-धाम में या कष्ट में रख देता है, परवाह नहीं  करता उसके लिए परम-सुख परमात्मा हाजिर हो जाता है, ऐसा है सिद्धांत !

वे लोग धनभागी है जो सत्संग में आते है, सत्संग सुनते है तभी कर्म कर्मयोग होता है, भक्ति भक्तियोग होता है, ज्ञान ज्ञानयोग होता है नहीं  तो रूखा मन… फिर सेक्सी बनता है, शराबी बनता है, पान मसालेवाला बनता है,जिसके जीवन में कर्मयोग का महत्व नहीं वो शुष्क प्राणी चोरी छुपे काला मुँह करता है।

कर्मयोग का आनंद है तो उसके लिए मौज है, अंतरात्मा का रस है फिर काहे को बेईमानी से क्रूर कपट करेगा, गिरेगा ? सेवा का महत्व नहीं जानते है वे ही बदमाशी करते है । तो आप माता की, पिता की, भगवान की…

बोले-माता पिता की सेवा पहले करनी चाहिए कि देश की सेवा पहले करनी चाहिए ? अरे बुद्धू ये पूछने का सवाल है क्या? माता पिता ने जन्म दिया है, उनका आप ऋण लेकर आए हैं, उनकी सेवा करना और उनकी सेवा है तो भगवान को पाया ! तो उनकी 21 पीढ़ी तार लिया! तो वही पहली सेवा है ,देश की भी हो जाएगी ! हम देश की भी सेवा कर रहे है ! लेकिन पहले माता पिता की, संस्कृति की, भगवान की प्राप्ति का इरादा बनाया तो सब सेवाएँ हो जाती है ।

किसकी सेवा करूँ? किसकी सेवा करूँ? तू इरादा बना ले ऊँचा, सब ठीक हो जाएगा ! दीक्षा ले रहे हैं तो ऊँचा इरादा है न? फिर?

बिस्तर से उठे, थोड़ी कसरत कर लो।

 

ईश्वरप्राप्ति के अनुभव का सबसे सुलभ साधन-पूज्य बापू जी


प्रेमास्पद के प्रति प्रेम का आरम्भ है – निष्काम सेवा, सत्कर्म । सेवा प्रेम का आरम्भ है  और प्रेम सेवा का फल है । फिर सेव्य और सेवक दो दिखते हैं लेकिन उनकी प्रीति एकाकारता को प्राप्त हो जाती है । जैसे, एक ही कमरे में दो दीये दिखते हैं लेकिन प्रकाश दोनों का एक ही होता है । हम का कौन-सा प्रकाश है ।

व्यवहार में अगर ईश्वरप्राप्ति के अनुभव करने हों तो सेवा ईश्वरप्राप्ति का आरम्भ है और हृदय की शीतलता, प्रसन्नता,  आनंद – ये ईश्वर के प्राकट्य के संकेत हैं । सेवा में इतनी शक्ति है कि वह हृदय को शुद्ध कर देती है, विकारी सुखों की वासना मिटा देती है, सुख-दुःख में निर्लेप कर देती है एवं स्वामी के सद्गुण सेवक में भर देती है और स्वामी का अनुभव सेवक का अनुभव हो जाता है ।

श्री रामचरितमानस में आता हैः सब तें सेवक धरम कठोरा । सेवा-धर्म सबसे कठोर तो है लेकिन उसका फल भी सबसे बढ़िया है । उत्तम सेवक सेवा का फल नहीं चाहता । उसको सद्गुरु की ओर से चाहे कितना भी कठोर दंड मिले, वह तो यही समझता है कि ‘यह कठिनाई मेरे विकास के लिए है, मेरी शुद्धि के लिए है ।’ वह ‘ज्ञानी निजजन कठोरा’ – इस सिद्धान्तानुसार शीघ्र आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहता है । सद्गुरु के प्रति अहोभाव का, धन्यता का अनुभव करता है ।

उड़िया बाबा से किसी ने पूछा कि “गुरु जी ने हमें स्वीकार कर लिया है यह कैसे पता चले ?”

उड़िया बाबा ने कहाः “तुम यदि गलती करते हो और गुरु तुम्हें निःसंकोच डाँट दे तो समझ लेना कि गुरु ने तुमको स्वीकार कर लिया है । किंतु गुरु को तुम्हें डाँटने में संकोच हो रहा हो, गुरु सोचते हों कि ‘क्या पता, यह समर्पित है कि नहीं….’ तो समझना कि अभी कमी है । जैसे हम निःसंकोच अपनी वस्तु का उपयोग करते हैं, ऐसे ही गुरु अपने शिष्य को निःसंकोच भाव से कहें कि ‘यह कर दे… वह कर दे….’ तो समझना कि गुरु शिष्य पर प्रसन्न हैं ।”

गुरु प्रसन्न कब होते हैं ।

जब हमारी उन्नति होती है ।

हमारी उन्नति कब होती है ?

जब हम अपना व्यक्तिगत स्वार्थ छोड़कर ईश्वर के लिए काम करते है ।

सेवा में बड़ी शक्ति होती है । सेवा सेव्य को भी सेवक के वश में कर देती है । श्री हनुमान जी ने सेवा ही श्रीरामजी को प्रसन्न कर लिया था…. और कलियुग में सेवाधर्म का बड़ा माहात्म्य है क्योंकि कलियुग में योग-समाधि सब लोग नहीं कर सकते लेकिन अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सेवा तो सभी कर सकते हैं । अतः सेवक को, साधक को, भक्त को चाहिए कि वह निःस्वार्थ होकर, निष्काम हो के तत्परता एवं ईमानदारीपूर्वक सेवा करे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 27, अंक 313

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कौन मिलते, कौन रह जाते ?


(गुरु गोविन्द सिंह जयंतीः 13 जनवरी 2019)

एक दिन गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक सेवक को आज्ञा दी कि “कुछ बताशे तथा कुछ पत्थर के रोड़े पानी से भरे एक घड़े में डाल दो ।”

सेवक ने वैसा ही किया । कुछ देर बाद गुरु जी ने उसे पुनः आज्ञा दीः “वे बताशे तथा पत्थर पानी में से निकालकर ले आओ ।”

सेवक ने घड़े में हाथ डाला तो हाथ में केवल पत्थर ही आये ।

सेवकः “गुरुदेव ! घड़े में केवल पत्थर के टुकड़े ही हैं, बताशे नहीं हैं ।”

गुरु जी ने सेवकों को समझाते हुए कहाः “जो श्रद्धालु शिष्य सच्चे दिल से, तन-मन से, श्रद्धा-प्रेम के साथ गुरु की सेवा करते हैं, वे पानी में घुल मिल गये इन बताशों की तरह हैं । उनका अहंकार गुरुसेवा में गल जाता है, वे सद्गुरु के अनुभव से एक हो जाते हैं परंतु दिखावे की सेवा करने वाले अश्रद्धावान पुरुष पत्थऱ की तरह वैसे-के-वैसे रहते हैं, वे सद्गुरु के आत्मानुभव के साथ नहीं मिल सकते ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, पृष्ठ संख्या 13, अंक 313

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