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हनुमान जी की सेवानिष्ठा


हनुमान जयंतीः 

(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

सेवा क्या है ? जिससे किसी का आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक हित हो वह सेवा है। सेवक को जो फल मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों, जती-जोगियों को भी नहीं मिलता। सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवा न करे। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है, सच्चे सेवक के आगे-पीछे सारे पद घूमते हैं।

कोई कहे कि ʹमैं बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हूँʹ तो यह बिल्कुल झूठी बात है। सेवा में जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर जगत का मोही हो जाता है लेकिन जो सेवा में अपना अहं मिटाकर दूसरे की भलाई तथा तन से, मन से, विचारों से दूसरे का मंगल चाहता है और मान मिले चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की जन्मतिथि सर्वत्र मानी जाती है। चैत्री पूर्णिमा हनुमान जयंती के रूप में मनायी जाती है।

हनुमान जी को, तो जो चाहे सेवा बोल दो, ʹभरत के पास जाओʹ तो भरत के पास पहुँच जाते, ʹसंजीवनी लाओʹ तो संजीवनी ले आते, समुद्र पार कर जाते। भारी इतने कि जिस पर्वत पर खड़े होकर हनुमान जी ने छलाँग मारी वह पाताल में चला गया। छोटे भी ऐसे बन गये कि राक्षसी के मुँह में जाकर आ गये। विराट भी ऐसे बन गये कि विशालकाय ! ब्रह्मचर्य का प्रभाव लँगोट के पक्के हनुमानजी के जीवन में चम-चम चमक रहा है।

लंका में हनुमान जी को पकड़ के लंकेश के दरबार में ले गये। हनुमान जी भयभीत नहीं हुए, उग्र भी नहीं हुए, निश्चिंत खड़े रहे। हनुमानजी की निश्चिंतता देखकर रावण बौखला गया। बौखलाते हुए हँस पड़ा, बोलाः “सभा में ऐसे आकर खड़ा है, मानो तुम्हारे लिए सम्मान-सभा है। तुमको पकड़ के लाये हैं, अपमानित कर रहे हैं और तुमको जरा भी लज्जा नहीं ! सिर नहीं झुका रहे हो, ऐसे खड़े हो मानो ये सारे सभाजन तुम्हारे सम्मान की गाथा गायेंगे।”

हनुमानजी ने रावण को ऐसा सुनाया कि रावण सोच भी नहीं सकता था कि हनुमान जी की बुद्धि ऐसी हो सकती है। हनुमानजी तो प्रीतिपूर्वक सुमिरन करते थे, निष्काम भाव से सेवा करते थे। बुद्धियोग के धनी थे हनुमानजी। हनुमानजी ने सुना दियाः

ʹमोहि न कुछ बाँधे कइ लाजा।

मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं  है। तुम बोलते हो कि निर्लज्ज होकर खड़ा हूँ, यह लाज-वाज का जाल मुझे बाँध नहीं सकता।

कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।

मैं तो प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ। चाहे बँधकर तुम्हारे पास आऊँ, चाहे आग लगाते हुए तुम्हारे यहाँ से जाऊँ, मुझे तो भगवान का कार्य करना है। मुझे लाज किस बात की ? मैं तो टुकुर-टुकुर देख रहा हूँ। तुमने मेरे स्वागत की सभा की हो या अपमान की सभा – यह तुम जानो, मैं तो निश्चिंत हूँ। मैं प्रभु के कार्य में सफल हो रहा हूँ।” सेवक अपने स्वामी का, गुरु का, संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता का अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है ?

यह सुन क्रोध में आ के रावण ने हनुमानजी की पूँछ में कपड़ा बाँधकर आग लगाने को कहा। हनुमानजी ने  पूँछ लम्बी कर दी, अब इन्द्रजीत कहता हैः “इस पूँछ को हम ढँक नहीं सकते इतनी लम्बी पूँछ कर दी इस हनुमान ने। कहीं यह पूँछ लम्बी होकर लंका में चारों तरफ फैलेगी तो लंका भी तो जल सकती है !” घबरा गया इन्द्रजीत। हनुमान जी ने पूँछ छोटी कर दी तो ढँक गयी। दैत्य बोलते हैं- “हमने पूँछ ढँक दी, हमने सेवा की।”

जो दैत्यवृत्ति के होते हैं वे सेवा के नाम से अहंकार का चोला पहनते हैं लेकिन हनुमान-वृत्तिवाले सेवा के नाम पर सरलता का अमृत बरसाते हैं।

तो हनुमानजी ने पूँछ को सिकोड़ भी दिया लेकिन उनके पिता हैं वायुदेव, उनसे प्रार्थना कीः “पिता श्री ! आपका और अग्नि का तो सजातीय संबंध है, पवन चलेगा तो अग्नि पकड़ेगी। हे वायुदेव और अग्निदेव ! थोड़ी देर अग्नि न लगे, धुआँ हो – ऐसी कृपा करना।”

राक्षस फूँकते-फूँकते अग्नि लगाने की मेहनत कर रहे थे। रावण ने कहाः “देखो ! अग्नि क्यों नहीं लग रही ? हनुमान तुम बताओ।”

हनुमानजी ने कैसी कर्मयोग से सम्पन्न बुद्धि का परिचय दिया ! बोलेः “ब्राह्मण को जब बुलाते हैं, आमंत्रित करते हैं तभी ब्राह्मण भोजन करते हैं। अग्निदेव तो ब्राह्मणों के भी ब्राह्मणों हैं। यजमान जब तक शुद्ध होकर अग्नि देवता को नहीं बुलाता, तब तक अग्नि कैसे लगेगी ? तुम तुम्हारे दूतों के द्वारा लगवा रहे हो। तुम खुद अग्निदेव को बुलाओ। वे तो एक-एक मुख से फूँकते हैं, तुम्हारे तो दस मुख हैं।” देखो, अब हनुमानजी को ! सेवक स्वामी का यश बढ़ाता है।

हनुमान जी ने कहाः “एक-एक फूँक मारकर उसमें थूक भी रहे हो तो अशुद्ध आमंत्रण से अग्निदेव आते नहीं। तुम तो ब्राह्मण हो, पुलस्त्य कुल में पैदा हुए हो, पंडित हो।” मूर्ख को उल्लू बनाना है तो उसकी सराहना करनी चाहिए और साधक को महान बनाना हो तो उसको प्रेमपूर्वक या तो डाँट के, टोक के, उलाहने से समझाना चाहिए।

रावण को लगा कि ʹहनुमानजी की युक्ति को ठीक है। चलो, अब हम स्वयं अग्नि लगायेंगे।ʹ रावण ने अंजलि में जल लिया, हाथ पैर धोये। अब रावण ने पूरा घी छँटवा दिया, ʹ अग्नये स्वाहा।ʹ करके अग्नि देवता का आवाहन किया और बोलाः “दस-दस मुख से मैं फूँकूँगा तो अग्नि बिल्कुल प्रज्जवलित हो जायेगी ! राक्षस फूँक रहे हैं तो अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो रही है। धुआँ नाक में, आँखों में जाने से राक्षस परेशान से हो गये हैं, उन्हें जलन हो रही है।”

रावण के मन में पाप था, बेईमानी थी कि ʹदस मुखों से ऐसी फूँक मारूँगा कि पूँछ के साथ हनुमानजी भी जल जायें। इसको जलाने से मेरा यश होगा कि राम जी का खास मंत्री, जिसने छलाँग मारी तो पर्वत ऐसा दबा कि पाताल में चला गया, ऐसे बहादुर हनुमान को जिंदा जला दिया !”

अब मन में बेईमानी है और अग्नि देवता का सेवक बन रहा है। फूँक तो मारी लेकिन हनुमानजी तो क्या जलें, उस आग में उसकी दाढ़ी और मूँछें जल गयीं, नकटा हो गया। जो सेवा का बहाना करके सेवा करता है उसकी ऐसी ही हालत होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 231

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गुरुसेवा से मिलता परम अमृत


(संत एकनाथ षष्ठीः 13 मार्च 2012)

एकनाथ जी गुरुसेवा से अपने को धन्यभाग समझते थे। जो भक्त नहीं है उन्हें सेवा में बड़ा कष्ट मालूम हो सकता है, पर एकनाथ जैसे गुरुभक्त के लिए वही सेवा परमामृतदायिनी होने से उसी को उन्होंने अपना महद् भाग्य समझा। उन्होंने स्वयं स्वलिखित ʹभागवतʹ में गुरु और गुरु भजन की महिमा गयी है। उन्होंने कहा है कि ʹभवसागर से पार उतरने के लिए मुख्य साधन गुरु-भजन ही है।ʹ और गुरु का लक्षण क्या है ?

एकनाथ महाराज कहते है कि ʹसदगुरु वे ही हैं जो आत्मस्वरूप का बोध कराकर समाधान करा दें।ʹ लौकिक विद्याओं के लौकिक गुरु अनेक हैं पर सदगुरु वे ही ऐसे सदगुरु प्राप्त होते हैं। और ऐसे सदगुरु की सेवा सत्शिष्य कैसे करता है ? एकनाथ महाराज वर्णन करते हैं- ʹगुरु ही माता, पिता, स्वामी और कुलदेवता हैं। गुरु बिना और किसी देवता का स्मरण नहीं होता। शरीर, मन, वाणी और प्राण से गुरु का अनन्य ध्यान हो – यही गुरुभक्ति है। प्यास जल को  भूल जाय, भूख मिष्टान्न भूल जाय और गुरु चरण-सवांहन करते हुए निद्रा भी भूल जाय। मुख में सदगुरु का नाम हो, हृदय में सदगुरु का प्रेम हो, देह में सदगुरु का ही अहर्निश अविश्रान्त कर्म हो। गुरुसेवा में मन ऐसा लगे कि स्त्री, पुत्र, धन भी भूल जाय, यह भी ध्यान न हो कि मैं कौन हूँ।ʹ

गुरु ही भगवान, गुरु ही परब्रह्म और गुरु भजन ही भगवद-भजन है। गुरु और भगवान एक ही हैं, यही नहीं प्रत्युत ʹगुरुवाक्य ही ब्रह्म का प्रमाण है अन्यथा ब्रह्म केवल एक शब्द है।ʹ

गुरुसेवा का मर्म बताते हुए एकनाथ महाराज कहते हैं- ʹगुरु को आसन, भोजन, शयन में कहीं भी न भूले। जिनको गुरु माना उन्हें जाग्रत और स्वप्न के सारे निदिध्यासन में गुरु माना। गुरु स्मरण करते-करते भूख-प्यास का विस्मरण हो जाता है और देह एवं गेह का सुख भी भूल जाता है, उनके बदले सदा परमार्थ ही सम्मुख रहता है।ʹ

सदगुरु के सामर्थ्य और सत्सेवा का सुख कैसा है, इस विषय में एकनाथ महाराज के ये प्रेमभरे उदगार हैं- ʹसदगुरु जहाँ वास करते हैं वहीं सुख की सृष्टि होती है। वे जहाँ रहते हैं वहीं महाबोध स्वानंद से रहता है। उन सदगुरु के चरण-दर्शन होने से उसी क्षण भूख-प्यास भूल जाती है। फिर कोई कल्पना ही नहीं उठती। अपना वास्तविक सुख गुरुचरणों में ही है।”

गुरुसेवा के संबंध में नाथ फिर अपना अनुभव बतलाते हैं- सेवा में ऐसी प्रीति हो गयी कि उससे आधी घड़ी भी अवकाश नहीं मिलता। सेवा में आलस्य तो रह ही नहीं गया क्योंकि इस सेवा से विश्रांति का स्थान ही चला गया। प्यास जल भूल गयी, भूख मिष्टान्न भूल गयी। जम्हाई लेने की भी फुरसत नहीं रह गयी। सेवा में मन ऐसे रम गया कि एका (एकनाथ जी) गुरु जनार्दन स्वामी जी की शरण में लीन हो गया।ʹ

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 17, अंक 230

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हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा पल चार….


1703 ईस्वी में अलवर शहर से 8 कि.मी. के अंतर पर डेहरा गाँव में एक दिव्य आत्मा का अपतरण हुआ, नाम रखा गया – रणजीत। संसाररूपी रण को सचमुच जीतने वाला वह होनहार बालक रणजीत हीरा था। उनके चित्त में विवेक जगता कि खाना-पीना, रहना-सोना, मिलना-जुलना, आखिर बूढ़े होना और मर जाना… बस, इसके लिए मनुष्य जीवन नहीं मिला। मनुष्य जीवन किसी ऊँची अनुभूति के लिए मिला है। अब सद्गुरु तो थे नहीं उनके, फिर भी वे सुना-सुनाया राम-राम रटते थे। इससे पाँच वर्ष की उम्र में उनकी ऐसी मति-गति हो गयी कि मन में भगवत्प्रेम और बुद्धि में भगवत्प्रकाश छाने लगा।

एक दिन जब वे रामनाम कीर्तन में मस्त थे, तब वैरागी-तपस्वी वेदव्यासनंदन शुकदेव जी ने उन्हें अपनी गोद में लेकर प्यार किया। इससे उनके हृदय में प्रभुप्रेम की प्रबल धारा प्रवाहित हो गयी। छः वर्ष की उम्र में उनकी पढ़ाई शुरु करवा दी गयी। मुल्ला-मौलवियों ने बहुत प्रयास किया लेकिन बालक रणजीत उन मुल्ला-मौलवियों और पढ़ाने वाले उस्तादों के सामने देखता रहे, कुछ पढ़े ही नहीं। उस्तादों ने खूब समझाया, बदले में उन्होंने उनको एक ही बात सुनायी-

आल जाल तू कहा पढ़ावे।

कृष्णनाम लिख क्यों न सिखावे।

जो सबको कर्षित-आकर्षित, आनंदित करता है, सबका अंतरात्मा होकर बैठा है उस परमात्मा का नाम आप मुझे क्यों नहीं पढ़ाते ?

जो तुम हरि की भक्ति पढ़ाओ।

तो मोकू तुम फेर बुलाओ।।

जो भगवान की भक्ति पढ़ा सकते हो तो मुझे बुलाना, नहीं तो यह आल-जाल मेरे को मत पढ़ाओ। जोर मारने वाले थक गये।

आठ वर्ष की उम्र मं इनके पिता मुरलीधर अचानक लापता हो गये, फिर उनका पता न चल सका। माता कुंजी देवी पतिपरायणा थीं। उनके चित्त को बहुत क्षोभ हुआ। ये आठ वर्ष के बाल माँ को ढाढस बँधाते कि ‘मैया ! यह सब पति-पत्नी, लेना-देना – यह संसार का खिलवाड़ है, आत्मा अमर है।’ वे उस रामस्वरूप परमात्मा की भक्ति की बात करते।

पति एवं सास-ससुर के चले जाने के बाद कुंजी देवी के लिए डेहरा में रहना असहनीय हो गया। जिससे वे पति के चाचा से अनुमति लेकर बालक रणजीत के साथ दिल्ली अपने मायके चली गयीं। दिल्ली जाते समय वे रास्ते में ‘कोट कासिम’ में बालक रणजीत के पिता की बुआ के घर पर रुके।

बालक रणजीत को देखकर बुआ जी बड़ी प्रसन्न हुई और बालक के स्नेहपाश में ऐसी बँध गयीं की कुंजी देवी को समझाकर रणजीत को अपने घर रख लिया। थोड़े दिन वहाँ रहने के बाद बालक अपनी माँ के पास दिल्ली आ गया।

यहाँ भी मुल्ला-मौलवी और फारसी तथा संस्कृत के विद्वानों को रखा गया कि बालक कुछ पढ़ ले। परंतु बालक रणजीत ने तो ऐसी विश्रांति पढ़ी थी और भगवान के नाम में ऐसे रत रहते थे कि सारी पढ़ाइयाँ जहाँ से सीखी जाती हैं, उस परम पद में अनजाने में ध्यानस्थ हो जाते थे। एक दिन रणजीत ने कहाः

हमें आज से पढ़ना नाँहीं।

जिकर न होय फिकर के माँहीं।।

यह सुनकर मुल्ला-मौलवी हैरत में आ गये।

सुनि मुल्ला हैरत में आया।

इस लड़के पर रब की छाया।।

बहुत प्रयत्न करने के बाद आखिर मुल्ला-मौलवियों को कहना पड़ा कि “इस पर तो अल्लाह की, रब की छाया है। अल्लाह के सिवाय इसको कोई सार नहीं लगता। यह सारों के सार में आनंदति है, सारों के सार में सुखी है, सारों के सार में संतुष्ट है। यह तो भगवान की पढ़ाई के बिना की और सारी पढ़ाई झूठी है, झूठी माया में फँसाने वाली है।” – ऐसी बात कहता है। हमारे दिल को भी इस बालक की बात सुनकर इसके दीदार करके बड़ा आराम मिलता है।”

इस प्रकार 12 वर्ष की उम्र हुई। ज्ञान, ध्यान और प्रभुप्रेम की प्रसादी से उनकी निर्णयशक्ति और सूझबूझ तो ऐसी निखरी कि दिखने में तो 12 वर्ष का बालक लेकिन बड़े-बड़े विद्वान उनको देखकर नतमस्तक हो जाते थे !

रणजीत की आँखों से कभी तो भगवान की बात करते-करते आँसुओं की धारा बहे, कभी वे उनके प्रेम में, प्रेम समाधि में शांत हो जायें। इस प्रकार उनकी 16 से 19 वर्ष की उम्र भगवद् विरह, भगवच्चर्चा और एकांत मौन में बीती। अंदर में होता कि ‘जब तक गुरु नहीं तब तक पूर्ण गति नहीं है।’ तो सदगुरु के लिए तड़प पैदा हुई कि ‘ऐसे दिन कब आयेंगे कि मुझे साकार रूप में सद्गुरु प्राप्त होंगे ?’

ऐसी बिरह अगिन तन लागी।

गई भूख अरु निद्रा भागी।।

सतगुरु कू ढूंढन ही लागे।

ढूंढे विरक्त तपसी नागे।।

अब भोजन रुचे नहीं और नींद आये नहीं। कभी साधु-संतों को देखें तो उनसे मिलने जायें। 19 वर्ष की उम्र हुई। ढूँढते-ढूँढते आखिर वह पावन दिन आया। मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) के पास गंगा-यमुना के दोआबे पर स्थित मोरनातीसा नामक स्थल पर उन्हें एक महात्मा के दर्शन हुए, जिन्हें देखते ही उनके मन में प्रेम, श्रद्धा और शांति की ऐसी प्रबल तरंगें उठीं कि उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी वर्षों की खोज आज पूरी हो गयी है।

देखते-ही-देखते दिल खो गया।

जिसको खोजता था उसी का हो गया।।

वे महात्मा और कोई नहीं बल्कि वही शुकदेव जी महाराज थे, जिन्होंने बालक रणजीत को गोदी में बिठाकर प्यार किया था। जिन सदगुरु की खोज थी वे मिल गये। रणजीत ने प्रेममय हृदय और आँसुओं से भरे नेत्रों से सद्गुरु के चरणकमलों में माथा टेकते हुए स्वयं को गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। महात्मा शुकदेव जी ने उन्हें विधिवत दीक्षा दी और उनका पारमार्थिक नाम श्याम चरनदास रख दिया। गुरु और शिष्य के बीच दीक्षा-शिक्षा पाँच प्रहर चली। शुकदेव जी महाराज उनको विभिन्न उपासनाएँ, विभिन्न दृष्टियाँ बताते रहे। अंत में विरक्त शुकदेव जी महाराज ने कहाः “अब तुम दिल्ली में दादा जी के पास जाओ, वहीं अभ्यास करो।” संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्वेष, मेरे तेरे के वातावरण में यह एक दिन भी रहना नहीं चाहता था। अपनी भावनाओं को दबाकर सदगुरु की आज्ञा मान के वे दिल्ली के लिए चल तो दिये परंतु उनकी दशा बहुत दयनीय थी। वे गुरु के वियोग में हर क्षण रोते रहते।

एक रात ध्यान में दर्शन देकर विरक्त शिरोमणि शुकदेव जी ने कहा कि “हम तो अरण्यों में कभी कहीं, कभी कहीं विचरण करते हैं। शरीर से तो हम तुमको साथ में नहीं रख सकते लेकिन आत्मभाव से मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। जब तुम तीव्रता से याद करोगे  तो मैं तुम्हें दर्शन देने को प्रकट हो जाऊँगा।”

कहा कि जब जब ध्यान करैहो।

ऐसे ही तुम दर्शन पैहो।।

अरु हम तुम कभू जुदे जु नाही।

तुम मों में मैं तुम्हरे मांही।।

शुकदेव जी महाराज की यह उदारताभरी आशीष पाकर रणजीत को थोड़ा संतोष हुआ। दिल्ली में एक जगह पसंद करके गुफा बना के वे धारणा-ध्यान करने लगे और पाँच-पाँच, सात-सात प्रहर ध्यानमग्न रहने लगे।

वे एक प्रहर लोगों के बीच सत्संग की सुवास फैलाते। दिल्ली की भिन्न-भिन्न जगहों में उन्होंने अपने भिन्न-भिन्न कार्यक्रमों द्वारा लोक-जागृति की। इस  प्रकार कुछ वर्ष बीते और इन महापुरुष के चित्त की शांति से त्रिकाल ज्ञान प्रकट होने लगा। वे बार-बार कहते थे कि “मैं तो बुरे-से-बुरा था पर मेरे सद्गुरु शुकदेव जी ने मुझ पर कृपा करके मेरा बेड़ा पार कर दिया।

किसू काम के थे नहीं, कोई न कौड़ी देह।

गुरु सुकदेव कृपा करी, भई अमोलक देह।।

वाणी उनकी ऐसी थी कि-

पितु सूँ माता सौ गुना, सुत को राखै प्यार।

मन सेती सेवन करै, तन सूँ डाँट अरु गार(गाली)।

मात सूँ हरि सौ गुना, जिन से सौ गुरुदेव।

प्यार करैं औगुन हरैं, चरनदास सुकदेव।।

पिता से माता सौ गुना अधिक बच्चे को प्यार करती है। मन से उसको चाहते हुए भी उसकी भलाई के लिए बाहर से डाँटती है, ऐसे ही माता से भी दस हजार गुना अधिक प्यार देने वाले सद्गुरु मन से तो स्नेह करते हैं और बाहर से डाँटते हैं। इसलिए हे साधक ! उनकी डाँट तेरा हित करेगी। कभी भी अपने सद्गुरु से कतराना नहीं, गुरु से दूर जाना नहीं। गुरु के प्रसाद की पावन अंतःकरण में ठहराये बिना रुकना नहीं।

हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरु सेवा पल चार।

तौ भी नहीं बराबरी, बेदन कियो बिचार।।

भगवान की सेवा सौ वर्ष करे और जाग्रत सद्गुरु की सेवा केवल चार पल करे तो भी सद्गुरु की सेवा के फल की बराबरी नहीं हो सकती, ऐसा वेदों ने विचार करके कहा है।

इस प्रकार का उनका सारगर्भित उपदेश लोगों के हृदय में लोकेश्वर की प्रीति और लोकेश्वर को पाये हुए महापुरुष के ज्ञान की प्यास जगा देता था।

जैसे शुकदेव जी महाराज उस ब्रह्म-परमात्मा में एकाकार होकर निमग्न रहते थे, वैसी ही अवस्था को चरनदास जी ने पाया और चरनदास जी के कई भक्तों ने भी पाया।

गुरु की सेवा साधु जाने,

गुरु सेवा कहाँ मूढ पिछानै।

यह चरनदास महाराज की कृति है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

तो चरनदास जी को भी गुरुकृपा का महाप्रसाद प्राप्त हुआ। मुझे भी गुरुकृपा का प्रसाद प्राप्त हुआ है वरना मेरी औकात नहीं थी कि अपने मन से इतनी ऊँचाइयों का अनुभव कर लूँ। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- “हे गुरुकृपा ! हे मातेश्वरी ! तू सदैव मेरे हृदय में निवास करना।’

गुरु सेवा परमातम दरशै,

त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।

सत्त्व रज, तम – इन तीन गुणों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीन अवस्थाओं से परे चौथे परमार्थ-पद का दर्शन गुरुसेवा करा देती है। चरनदास जी के शिष्यों ने अपनी रचनाओं में उनकी अलौकिक प्रतिभा व जीवन के विषय में विस्तार से गाया है।  उनकी शिष्या सहजोबाई ने तो यहाँ तक कहा कि

चरनदास पर तन मन वारूँ।

गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2011, पृष्ठ संख्या 15-17 अंक 223

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