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अगर है शौक मिलने का तो कर खिदमत फकीरों की


संत श्री रैदास जी महाराज जयंतीः 8 फरवरी 2001

काशीनरेश अपने मंत्री से कहते हैं-

“बाहर से तो मैं बड़ा सुखी हूँ क्योंकि मेरे पास यौवन, आरोग्यता और संपत्ति है, लेकिन भीतर से दुःखी भी बहुत हूँ क्योंकि हृदय में शांति नहीं है। अभी मैंने परम शांति नहीं पाई है, अपनी अंतरात्मा के सुख का स्वाद नहीं पाया है।

काशीनरेश का मंत्री बुद्धिमान था। उसने कहाः “अगर परम शांति चाहिए तो जिन्होंने परम शांति पाई, उनकी संगति में जाना पड़ेगा। जिन्होंने परम शांति पायी है ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की निगाहें आप पर पड़ें, उनके हाथ का प्रसाद मिल जाये, उनकी करुणा-कृपा से हृदय की ज्योति जग जाये तभी शांति मिल सकती है, राजन् !”

काशीनरेशः “मैं कथा तो रोज सुनता हूँ।”

मंत्रीः “राजन् ! कथा तो आप पंडियों से सुनते हैं, कथाकारों से सुनते हैं। किन्हीं आत्मारामी संत का सत्संग सुनिये तो शांति मिलेगी। यदि ऐसे महापुरुष के बारे में आप मुझसे पूछें तो इस वक्त काशी में ब्राह्मण, पंडित, साधु तो बहुत हैं लेकिन आत्मपद को पाये हुए जिन महापुरुष को मैं जानता हूँ वे हैं संत श्री रैदासजी महाराज।”

काशीनरेशः “जूते सीने वाले रैदास ! एक उच्च कोटि के संत !!”

मंत्रीः “हाँ, राजन् ! उनका व्यवसाय भले मोची का है लेकिन वे परमपद को पाये हुए महापुरुष हैं। यदि वे आप पर कृपा कर दें तो आपको हृदय की शांति मिल सकती है।”

काशीनरेशः “मैं उन रैदासजी के पास कैसे जा सकता हूँ ? मैं काशी का राजा और वे जूते सीने वाले एक मोची…”

मंत्रीः “राजन् ! उन महापुरुष का व्यवसाय न देखिये। मैं उनके दर्शन करके आया हूँ, उनके श्रीचरणों में बैठकर आया हूँ। आप भी एक बार अवश्य उनके दर्शन करें।”

मंत्री की बात सुनकर राजा को थोड़ा भरोसा हुआ किन्तु अभी-भी मन में थोड़ी खटक थी कि ʹराजा होकर एक मोची के पास जाना !ʹ उन्होंने मंत्री से कहाः “मैं उन रैदासजी महाराज के पास कैसे जाऊँ ? लोग कहेंगे कि राजा होकर मोची के पास गये थे….”

उस जमाने में नात-जात का बड़ा बोलबाला था।

मंत्रीः “राजन् ! फिर भी आपको उन महापुरुष के पास अवश्य जाना चाहिए। जिन मीराबाई के श्रीचरणों में भारत के बादशाह अकबर ने सिजदा करके अपना भाग्य बनाया, उन मीराबाई ने भी रैदासजी महाराज का मार्गदर्शन पाया है। रैदास जी के कृपा-प्रसाद को विकसित करके मीराबाई ने मेवाड़ को पावन कर दिया।”

काशीनरेशः “ठीक है…. मैं भी मौका देखकर उनके पास जाऊँगा लेकिन ऐसे ढंग से जाऊँगा कि किसी को पता न चले।”

अवसर पाकर राजा सेठ के वेष में रैदासजी के पास पहुँचे।

उस वक्त रैदास जी महाराज जूते सी रहे थे। जूते सीने के ले चमड़े को भिगोना पड़ता है। जिस लकड़ी के बर्तन में पानी रखा जाता है उसे कठौती बोलते हैं। कठौती में चमड़ा भिगोने से पानी रंगीन हो जाता है। रैदासजी महाराज अपने काम में लगे हुए थे। राजा ने कहाः “महाराज ! मैं काशीनरेश हूँ। आपके यहाँ वेष बदलकर आया हूँ। मुझे पता चला है कि आप कृपा करते हैं। मुझे भी शांति का प्रसाद दीजिये।”

संत रैदासजी ने सोचा किः “राजा बनकर आया है, वह भी ईमानदारी से नहीं। बेईमानी से सेठ जैसा कोट पहनकर आया है। इसका अहं भी तो थोड़ा पिघलना चाहिए।ʹ अगर इसमें योग्यता है, अधिकारिता है और थोड़ा मिटेगा तो कुछ पा लेगा।ʹ रैदासजी ने युक्ति की। उन्होंने कठौती में से आधी कटोरी पानी राजा को दिया एवं कहाः “यह पानी पी लो। इससे शांति मिल जायेगी।”

राजा अहं लेकर आया है लेकिन कैसे होते हैं वे करुणामय संत ! कठौती के पानी के रूप में कृपा बरसाने को तैयार हो जाते हैं कि ʹअगर थोड़ा अहं पिघलेगा तो शांति पा लेगा।ʹ लेकिन राजा तो राजा था ! एक तो राजा… फिर मुश्किल से वेष बदलकर आया…. ऊपर से प्रसाद में चमड़े का पानी ! राजा ने सोचाः “अररर… नहीं पीते हैं तो देने वाले का अपमान होता है और पीते हैं तो कै (उल्टी) होती है। अब क्या करें ?ʹ

आखिर राजा था… राजवी आदमी को किस समय क्या करना चाहिए उसकी थोड़ी बहुत सूझ-बूझ तो होती ही है। रैदासजी को बुरा भी न लगे और पानी भी न पीना पड़े, इसलिए राजा ने मुँह घुमा लिया और पीने की अदा करके कटोरी का पानी कोट के अंदर कमीज पर गिरा दिया ताकि बाहर भी न ढुले। राजा ने वहाँ से विदा ली।

महल में आकर काशीनरेश ने अपने खास धोबी को बुलवाया और कहाः “इस कमीज को चुपचाव धुलवा देना। किसी को पता न चले।”

धोबीः “क्या हुआ, राजन् !”

राजाः “यह मत पूछो। बस, इसको जल्दी से धुलवाकर भिजवा देना।”

धोबी ने अपनी बेटी सुजलु को वह कमीज धोने के लिए दे दी। राजा साहब की कमीज धोते समय उस रंग का उसे स्पर्श हुआ। स्पर्श होते ही सुजलु भीतर से ईश्वरीय रंग में रंगती गयी। कमीज का बाहर का रंग धुलता गया और सुजलु के हृदय में प्रेमरस उभरने लगा, ईश्वरीय मस्ती उभरने लगी।

प्रेम न खेतों ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो, शीश दिये ले जाय।।

रैदासजी ने उस चमड़े के पानी के रूप में आत्मशांति का, भक्ति का प्रेम-प्रसाद दिया था। राजा को तो अपने राजापने का अहं था अतः उसने तो पानी गिरा दिया लेकिन धोबी की वह बच्ची निर्दोष थी, अहंकाररहित थी अतः उस पानी के स्पर्श से ही उसे भक्ति का, ईश्वरीय मस्ती का प्रसाद मिल गया।

संत-महापुरुष कब, कैसे, किस पर कृपा कर दें कहना कठिन है लेकिन उनकी कृपा पचाने का अधिकारी वही होता है जो छल-कपट एवं अहंकार रहित होता है। ʹश्रीरामचरितमानसʹ में भी आता हैः

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

रैदास जी के उस कृपा-प्रसाद युक्त जल के स्पर्श से धोबी की बच्ची सुजलु की सुषुप्त शक्ति जाग्रत हो उठी। वह शांत भाव से बैठती तो उसे अंदर से आनंद आने लगता। कभी हँसने लगती तो कभी आँसू बहने लगते, कभी-कभी प्रेमविभोर होकर नृत्य करने लगती…. ऐसा करते-करते उसकी आंतरिक योग्यता विकसित होती गयी। उसकी निष्कामता एवं ईश्वरीय मस्ती बढ़ती गयी। उसकी वाणी सुनकर लोग प्रभावित होने लगे। दो, पाँच, पंद्रह, पचीस…. करते-करते कई लोग उसके दर्शन-सत्संग के लिए आने लगे।

धीरे-धीरे उसकी ख्याति उस पुण्यात्मा मंत्री तक पहुँची जिसने काशीनरेश को संत रैदास जी से मिलवाया था। सुजलु का दर्शन-सत्संग करने वह उसके घर गया। वह स्वयं भी रँगा  हुआ तो था ही, समझदार भी था। सुजलु के वचन सुनकर बड़ा प्रभावित हुआ एवं राजा से कहाः

“राजन् ! आप रैदासजी के पास गये तो सही लेकिन वे मोची हैंʹ ऐसा सोचकर उनके सत्संग का लाभ नहीं ले पाये। खैर, सुजलु तो आपके धोबी की पुत्री है। अपने धोबी की पुत्री के पास जाने में क्या हर्ज है ? राजन् ! आप उससे तो सत्संग-लाभ उठा ही सकते हैं।”

मंत्री के आग्रह से राजा सुजलु के पास गये और बोलेः “सुजलु मुझे शांति चाहिए।”

जिन्हें परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो गया है ऐसे महापुरुष जो वस्त्र पहनते हैं उसमें भी उनके आध्यात्मिक आन्दोलन (वायब्रेशन) होते हैं। वे जिस वस्तु को छू देते हैं वह भी प्रसाद हो जाती है। जिस पर उनकी निगाहें पड़ती हैं वह भी निहाल हो जाता है।

यद् यद् स्पृश्यति पाणिभ्यां यद् यद् पश्यति चक्षुषा।

स्थावरणापि मुच्यन्ते किं पुनः प्राकृताः जनाः।।

ʹब्रह्मज्ञानी महापुरुष ब्रह्मभाव से जिन जड़ पदार्थों को अपने हाथों से स्पर्श करते हैं, आँखों के द्वारा देखते हैं वे भी कालांतर में जीवत्व पाकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, तो फिर उनकी दृष्टि में आये हुए व्यक्तियों के देर-सबेर होने वाले मोक्ष के बारे में तो शंका ही कैसी ?ʹ

भले ही वह कठौती का पानी था, चमड़े का रंग से रँगा हुआ पानी था लेकिन रैदासजी के करकमलों के स्पर्श को प्राप्त हुआ था, उनकी कृपादृष्टिवाला पानी था एवं उसमें उनका सत्य संकल्प भी था तो उसका प्रभाव पड़ा।

सुजलु ने कहाः “आप मेरे पास शांति लेने आये हैं ? आपकी कमीज धोकर तो मैं इतनी महान हुई हूँ और आप मुझसे शांति पाना चाहते हैं ?”

राजा की बुद्धि में प्रकाश हुआ किः ʹअरे ! मैंने मिला हुआ मौका खो दिया…. मैं रैदासजी को नहीं पहचान पाया….ʹ

अगर है शौक मिलने का, तो कर खिदमत फकीरों की।

ये जौहर नहीं मिलता, अमीरों के खजाने में।।

संत-महापुरुष का बाह्य वेष या व्यवहार देखकर ही उनके बारे में अनुमान लगा लेने वाले, निंदकों के चक्कर में आने वाले यूँ ही कोरे-के-कोरे रह जाते हैं। उनके कृपा-प्रसाद को तो वे ही पचा पाते हैं जो निरभिमानी होकर उनके श्रीचरणों में नतमस्तक होते हैं।

मीरा ने पहचाना था रैदासजी को। उन्होंने सच्ची श्रद्धा से रैदासजी के श्रीचरणों में सिर झुकाया था और उनकी कृपा-प्रसाद को पचायी थी। उनका मार्गदर्शन पाकर मीरा लाखों विघ्न-बाधाओं के बीच भी मेवाड़ में, प्रभु-प्रेम में मग्न होकर नाचती रहीं, गुनगुनाती रहीं, मुस्कराती रहीं।

छोटी जाति में जन्म लेकर भी रैदास जी ने उन ऊँचाइयों को छुआ था, जहाँ विरले ही पहुँचते हैं। वे स्वयं कहते हैं-

जाति भी ओछि, करम भी ओछा, ओछा किसब हमारा।

नीचे से प्रभु ऊँच कियो है, कह ʹरैदासʹ चमारा।।

उनके ईश्वर प्रेम से परिपूर्ण इस भजन को तो आज भी भारतवासी बड़े प्रेम से गाते हैं-

प्रभु जी ! तुम चंदन हम पानी। जाकी अँग अँग वास समानी।।

प्रभु जी ! तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा।।

प्रभु जी ! तुम दीपक हम बाती। जाकि जोति बरै दिन राती।।

प्रभु जी ! तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।।

प्रभु जी ! तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001, पृष्ठ संख्या 17-19, अंक 98

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सेवा का रहस्य


अपने निजी स्वार्थ को जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाकर एक संकुचित क्षेत्र के अंदर कोल्हू के बैल की तरह घूमते हुए मानव समाज की वास्तविक उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यकता है ʹसेवाʹ की।

सेवा संकुचित क्षेत्र में फँसे हुए स्वार्थी मानव को विश्वात्मा के साथ एकत्व कराने की एक अनुपम कला है। श्रद्धा से सम्पृक्त सेवा ही धर्म है। स्नेह-संयुक्त सेवा वात्सल्य है। मैत्रीपरम सेवा सख्य है। मधुर सेवा श्रृंगार है। प्रेमयुक्त सेवा ही अमृत है। संयोग में यह रससृष्टि तथा वियोग में हितवृष्टि करती है। सेवा एक ऐसी दृष्टि है जो पाषाणखण्ड में ईश्वर को प्रगट कर सकती है, मृत को अमर बना सकती है। सेवा क्षुद्र अहंकार को मिटाकर ब्रह्मभाव को प्रगट कर देती है। अपने हितैषी के प्रति जो श्रद्धा, विश्वास अथवा सेवा की भावना है, वर उस पर उपकार करने के लिए नहीं है। ʹमैं अपनी सेवा के द्वारा अमुक को सुख पहुँचाता हूँ….ʹ यह भावना अहंकार को आभूषण पहनाती है। सेवा दूसरे पर उपकार करने के लिए नहीं अपितु अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए होती है। सेवा चित्त को गंगाजल के समान निर्मल एवं स्वच्छ बनाने वाली है।

सेवानिष्ठा की परिपक्वता के लिए उसका विषय एक होना आवश्यक है। फिर चाहे माता-पिता हों गुरु, ईश्वर अथवा समाज हो, सभी में एक ही ईश्वर है। एक की भावना से सेवा अचल हो जाती है और वेदान्त के अनुसार अचल वस्तु ब्रह्म से पृथक नहीं होती। चल ही माया है, अचल नहीं। साधना में निष्ठा की परिपक्वता ही सिद्धि है। यदि सेवा की वृत्ति परिपक्वता दशा में शांत हो जायेगी तो वह आत्मा से एकत्व करा देगी और स्वयं भी आत्मस्वरूप हो जायेगी।

सेवा के प्रारम्भ में स्व-सुख की वासना उपस्थित हो सकती है परन्तु जब सेवक सेवा के द्वारा सेव्य को प्रसन्न करना चाहता है और सेव्य की प्रसन्नता में स्वयं हर्षित होता है तब उसकी स्व-सुख की वासना धीरे-धीरे कम होने लगती है। केवल अपने इष्ट के सुख में सुखी होना उसका स्वभाव बन जाता है और अन्य सुखों की इच्छा निवृत्त होने लगती है। ʹमैं अपनी सेवा से किसी को सुख देता हूँ….ʹ यद्यपि यह भावना भी पूर्ण निःस्वार्थता नहीं है परन्तु यह स्वार्थ-निवृत्ति का एक साधन है। अतः प्रारम्भिक अवस्था में इसे दोष नहीं माना जा सकता। यह प्रभु प्रेमरूपी महल में पहुँचाने वाली प्रथम सीढ़ी है क्योंकि जिस हृदय में अपने इष्ट को देखना है, रखना है, वहाँ प्रारम्भ में इष्ट के लिए हित की भूमिका का बनना आवश्यक भी है। यह प्रारम्भ है, पूर्णता नहीं। वेदान्त की भाषा में जब तक सेवक का ʹमैंʹ पूर्ण रूप से स्वामी के ʹमैंʹ में विलीन नहीं हो जाता, तब तक सेवा पूर्ण नहीं होती।

सेवा में इष्ट तो एक होता ही है, सेवक भी एक ही होता है। वह सब सेवकों के रूप में स्वयं ही अनेक रूप धारण करके अपने स्वामी की सेवा करता है। अनेक सेवकों के साथ वह सेवा के अनेक  प्रकारों को भी अपना ही रूप मानता है। भिन्न दृष्टि होने पर ईर्ष्या का प्रागट्य होता है जो कि सेवा में विष है। सरलता सेवा में अमृत है।

किसी भी कारण किसी के प्रति चित्त में कटुता आ जाने से सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि सेवा शरीर का विषय नहीं अपितु रसमय हृदय का मधुर उल्लास है। सेवा में क्रिया की अपेक्षा भाव की प्रधानता है। भाव की मधुरता से सेवा भी मधुर रहती है। कटुता चाहे किसी के प्रति भी हो परन्तु उसका निवास-वस्तु स्वयं ही अशुद्ध हो जायेगी। अपने अन्तर को शांत व निर्मल रखकर रोम-रोम को रसमय करने का नाम है ʹसेवाʹ।

सेवा में सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है सेवक का लक्ष्य। क्या किसी मनोरथ की पूर्ति, प्रतिष्ठा की आकांक्षा या किसी को वश में करने की इच्छा है ? यदि ऐसा है तो यह सेवा नहीं, स्वार्थ का ताण्डवमात्र है। सेवा का फल न तो स्वर्गादि की प्राप्ति है और न ही भोग-ऐश्वर्य की। सेवा स्वयं एक सर्वोत्तम फल है। सेवा केवल उपाय नहीं अपितु उपेय (प्राप्तव्य) भी है।

जिसके मन में ऐसी कल्पना उठती हो किः ʹमुझे तो सेवा का कोई फल नहीं मिला….ʹ वह सेवा का रहस्य नहीं जानता। उसकी दृष्टि प्राप्त जीवनशक्ति एवं प्रज्ञा के सदुपयोग की ओर न होकर किसी आगन्तुक पदार्थ पर है। यह स्वार्थ का खेल है, सेवा नहीं। सेवा चित्तशुद्धि का साधन होने के साथ-साथ शुद्ध वस्तु का अनुभव भी है।

स्पर्धा सेवा को कलंकित करने वाला मैल है। सेवा में स्पर्धा का आ जाना, दूसरे को पीछे छोड़ने के लिए स्वयं आगे बढ़ने की इच्छा रखना, दूसरे की सेवा को देखकर ईर्ष्या होना अथवा तो दूसरे को अपनी सेवा में बाधा मान लेना, इनसे सेवा के अंतरंग मर्मस्पर्शी रूप का दर्शन नहीं हो पाता। सेवा चित्त को निर्मल व उज्जवल बनाती है। उसमें अनुरोध ही अनुरोध है, विरोध अथवा अवरोध नहीं है।

जड़-चेतन जीवमात्र में भगवान के स्वरूप का दर्शन करके भगवद् बुद्धि करने से अपने प्रत्येक कर्म के द्वारा उनकी यथायोग्य उल्लासपूर्ण सेवा होती है। ऐसे सेवक के प्रत्येक कार्य से चराचर जगत में व्याप्त परमात्मा प्रसन्न होते हैं। यह सेवा अपने-आप में उत्कृष्ट भगवदपूजा है। सबमें भगवद्-दर्शन करने से वह स्वयं भी वही रूप हो जाता है क्योंकि स्वामी की सत्ता की सेवक की सत्ता है। सेवक का अस्तित्त्व स्वामी से पृथक नहीं होता। यदि पृथक हो गया तो सेवा अपूर्ण रहेगी क्योंकि पृथक होने से एक नये ʹमैंʹ की उत्पत्ति हो जाती है और वह सेवा के रस को अपने में समेट लेता है। स्वामी का ज्ञान ही सेवक का ज्ञान है और इस प्रकार अंततः स्वामी का ʹमैंʹ ही सेवक का ʹमैंʹ हो जाता है, सेवक स्वयं स्वामी हो जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2000, पृष्ठ संख्या 6-7 अंक 91

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निःस्वार्थ सेवा


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में हमारे शास्त्र कहते हैं कि जब भगवान नारायण के नाभिकमल से ब्रह्माजी का प्रागट्य हुआ तब ब्रह्माजी दिग्मूढ़ की स्थिति में पड़ गये। वे समझ नहीं पा रहे थे किः ʹमेरा प्रादुर्भाव क्यों हुआ ? मुझे क्या करना है ?ʹ तभी आकाशवाणी हुईः तप कर…. तप… तप कर…

तत्पश्चात ब्रह्माजी समाधि में स्थित हुए। उससे सामर्थ्य प्राप्त करके उन्होंने अपने संकल्प से इस सृष्टि की रचना की। अर्थात् हमारी सृष्टि की उत्पत्ति तप से हुई है। इसका मूल स्थान तप है।

हमारे सत्शास्त्रों में अनेक प्रकार के तप बताये गये हैं। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण तप है निष्काम कर्म, सेवा, परोपकार। इसी तप को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में ʹकर्मयोगʹ कहा तथा ज्ञान, भक्ति और योग की भाँति इस साधना को भी भगवत्प्राप्ति, मोक्षप्राप्ति में समर्थ बताया।

व्यक्ति अपने तथा अपने परिवार के प्रति तो उदार रहता है परन्तु दूसरों की उपेक्षा करता है। वह स्वयं को दूसरों से भिन्न मानता है। इसी का नाम अज्ञान, माया है। जन्म-मरण का, शोक-कष्ट का, उत्पीड़न व भ्रष्टाचार आदि पापों का यही मूल कारण है। भेदभाव और द्वेष ही मृत्यु है तथा अभेद, अनेकता में एकता, सबमें एक को देखना, सबकी उन्नति चाहना ही जीवन है।

समस्त बुराइयों का मूल है स्वार्थ और स्वार्थ अज्ञान से पैदा होता है। स्वार्थी मनुष्य जीवन की वास्तविक उन्नति एवं ईश्वरीय शांति से बहुत दूर होता है। न तो उसमें श्रेष्ठ समझ होती है और न ही उत्तम चरित्र। वह धन और प्रतिष्ठा पाने की ही योजनाएँ बनाया करता है।

मनुष्य के वास्तविक कल्याण में स्वार्थ बहुत बड़ी बाधा है। इस बाधा को निःस्वार्थ सेवा एवं सत्संग के द्वारा निर्मूल किया जाता है। स्वार्थ में यह दुर्गुण है कि वह मन को संकीर्ण तथा हृदय में ʹमैं और मेरेʹ की लघुग्रंथि होती है तब तक सर्वव्यापक सत्ता की असीम सुख-शांति नहीं मिलती और हम अदभुत पवित्र प्रेरणा प्राप्त नहीं कर पाते। इसके लिए हृदय का व्यापक होना आवश्यक है। इसमें निःस्वार्थ सेवा एक अत्यन्त उपयोगी साधन है।

निष्काम कर्म जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने की पहली सीढ़ी है। इसके अभ्यास से चित्त की शुद्धि होती है तथा भेदभाव मिटता है। सबमें ईश्वर की भावना दृढ़ होते ही ʹअहंʹ की लघुग्रन्थि टूट जाती है और सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता से जीव का एकत्व हो जाता है। भगवद् भाव से सबकी सेवा करना यह एक बहुत बड़ा तप है।

ʹईशावास्योपनिषद्ʹ में आता हैः

ईशावास्यमिदंसर्वं यत् किं च जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।

ʹअखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतनरूप जगत है वह ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुए इसे त्यागपूर्वक भोगो। किसी भी धन अथवा भोग्य पदार्थ में आसक्त मत होओ।ʹ

यहाँ पर ʹत्यागʹ पहले है और ʹभोगʹ बाद में। यदि व्यक्ति अपने परिवार में ही आसक्त रहे तो वह विश्वप्रेम विकसित नहीं कर सकेगा, विश्वभ्रातृत्व नहीं पनपा सकेगा। सभी के बच्चे अपने बच्चों के समान नहीं लगेंगे। व्यक्ति का प्रेम, जो व्यापक ईश्वर सत्ता को अपने हृदय में प्रगट कर सकता है वह प्रेम नश्वर परिवार के मोह में ही फँसकर रह जायेगा।

परमार्थ को साधने के लिए, कलह, अशांति तथा सामाजिक दोषों को निर्मूल करने के लिए विश्वप्रेम को विकसित करना होगा। संकुचितता को छोड़कर हृदय को फैलाना होगा। सुषुप्त शक्तियों को प्रगट करने का यही सबसे सरल उपाय है।

जिसका प्रेम विश्वव्यापी हो गया है उसके लिए सभी समान हैं। समस्त ब्रह्माण्ड उसका घर होता है। उसके पास जो कुछ है, सबके साथ बाँटकर उसका उपयोग करता है। दूसरों के हित के लिए अपना हित त्याग देता है। कितना भव्य व्यक्तित्व है उस महामानव का ! वह तो धरती पर साक्षात् भगवान है।

सरिताएँ सबको ताजा जल दे रही हैं। वृक्ष छाया, फल तथा प्राणवायु दे रहे हैं। सूर्य प्रकाश, ऊर्जा एवं जीवनीशक्ति प्रदान करता है।  पृथ्वी सभी को शरण तथा धन-धान्य देती है। पुष्प सुगंध देते हैं। गायें पौष्टिक दूध देती हैं। प्रकृति के मूल में त्याग की भावना निहित है।

निःस्वार्थ सेवा के द्वारा अद्वैत की भावना पैदा होती है। दुःखियों के प्रति शाब्दिक सहानुभूति दिखाने वालों से तो दुनिया भरी पड़ी है परन्तु जो दुःखी को अपने हिस्से में से दे दे ऐसे कोमलहृदय लोग विरल ही होते हैं।

निःस्वार्थ सेवा चित्त के दोषों को दूर करती है, विश्वचैतन्य के साथ एकरूपता की ओर ले जाती है। जिसका चित्त शुद्ध नहीं है, वह भले ही शास्त्रों में पारंगत हो, वेदान्त का विद्वान हो, उसे वेदान्तिक शांति नहीं मिल सकती।

सेवा का हेतु क्या है ? चित्त की शुद्धि… अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि कुभावों की निवृत्ति…. भेदभाव की समाप्ति। इससे जीवन का दृष्टिकोण एवं कर्मक्षेत्र विशाल होगा, हृदय उदार होगा, सुषुप्त शक्तियाँ जागृत होंगी, विश्वात्मा के प्रति एकता के आनंद की झलकें मिलने लगेंगीं। ʹसबमें एक और एक में सब…ʹ की अऩुभूति होगी। इसी भावना के विकास से राष्ट्रों में एकता आ सकती है, समाजों को जोड़ा जा सकता है, भ्रष्टाचा की विशाल दीवार को गिराया जा सकता है, हृदय की विशालता द्वारा वैश्विक एकता को स्थापित किया जा सकता है तथा अखूट आनंद के असीम राज्य में प्रवेश पाकर मनुष्य जन्म सार्थक किया जा सकता है

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2000, पृष्ठ संख्या  13,14 अंक 90

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