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Shastra Prasad

समस्या बाहर, समाधान भीतर


 

एक राजा बड़ा सनकी था। एक बार सूर्यग्रहण हुआ तो उसने राजपंडितों से पूछाः “सूर्यग्रहण क्यों होता है ?”

पंडित बोलेः “राहू के सूर्य को ग्रसने से।”

“राहू क्यों और कैसे ग्रसता है ? बाद में सूर्य कैसे छूटता है ?” जब उसे इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर नहीं मिले तो उसने आदेश दियाः “हम खुद सूर्य तक पहुँचकर सच्चाई पता करेंगे। एक हजार घोड़े और घुड़सवार तैयार किये जायें।”

राजा की इस बिना सिर-पैर की बात का विरोध कौन करे ? उसका वफादार मंत्रि भी चिंतित हुआ। मंत्री का बेटा था वज्रसुमन। उसे छोटी उम्र में ही सारस्वत्य मंत्र मिल गया था, जिसका वह नित्य श्रद्धापूर्वक जप करता था। गुरुकुल में मिले संस्कारों, मौन व एकांत के अवलम्बन से तथा नित्य ईश्वरोपासना से उसकी मति इतनी सूक्ष्म हो गयी थी मानो दूसरा बीरबल हो।

वज्रसुमन को जब पिता की चिंता का कारण पता चला तो उसने कहाः “पिता जी ! मैं भी आपके साथ यात्रा पर चलूँगा।”

पिताः “बेटा ! राजा की आज्ञा नहीं है। तू अभी छोटा है।”
“नहीं पिता जी ! पुरुषार्थ व विवेक उम्र के मोहताज नहीं हैं। मुसीबतों का सामना बुद्धि से किया जाता है, उम्र से नहीं। मैं राजा को आने वाली विपदा से बचाकर ऐसी सीख दूँगा जिससे वह दुबारा कभी सनकभरी आज्ञा नहीं देगा।”

मंत्रीः “अच्छा ठीक है पर जब सभी आगे निकल जायें, तब तू धीरे से पीछे-पीछे आना।”

राजा सैनिकों के साथ निकल पड़ा। चलते-चलते काफिला एक घने जंगल में फँस गया। तीन दिन बीत गये। भूखे प्यासे सैनिकों और राजा को अब मौत सामने दिखने लगी। हताश होकर राजा ने कहाः “सौ गुनाह माफ हैं, किसी के पास कोई उपाय हो तो बताओ।”

मंत्रीः “महाराज ! इस काफिले में मेरा बेटा भी है। उसके पास इस समस्या का हल है। आपकी आज्ञा हो तो….”
“हाँ-हाँ, तुरंत बुलाओ उसे।”

वज्रसुमन बोलाः “महाराज ! मुझे पहले से पता था कि हम लोग रास्ता भटक जायेंगे, इसीलिए मैं अपनी प्रिय घोड़ी को साथ लाया हूँ। इसका दूध-पीता बच्चा घर पर है। जैसे ही मैं इसे लगाम से मुक्त करूँगा, वैसे ही यह सीधे अपने बच्चे से मिलने के लिए भागेगी और हमें रास्ता मिल जायेगा।” ऐसा ही हुआ और सब लोग सकुशल राज्य में पहुँच गये।

राजा ने पूछाः “वज्रसुमन ! तुमको कैसे पता था कि हम राह भटक जायेंगे और घोड़ी को रास्ता पता है ? यह युक्ति तुम्हें कैसे सूझी ?”

“राजन् ! सूर्य हमसे करोड़ों कोस दूर है और कोई भी रास्ता सूरज तक नहीं जाता। अतः कहीं न कहीं फँसना स्वाभाविक था।

दूसरा, पशुओं को परमात्मा ने यह योग्यता दी है कि वे कैसी भी अनजान राह में हों उन्हें अपने घर का रास्ता ज्ञात होता है। यह मैंने सत्संग में सुना था।

तीसरा, समस्या बाहर होती है, समाधान भीतर होता है। जहाँ बड़ी-बड़ी बुद्धियाँ काम करना बंद करती हैं वहाँ गुरु का ज्ञान, ध्यान व सुमिरन राह दिखाता है। आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ ?”
“बिल्कुल निःसंकोच कहो।”

“यदि आप ब्रह्मज्ञानियों का सत्संग सुनते, उनके मार्गदर्शन में चलते तो ऐसा कदम कभी नहीं उठाते। अगर राजा सत्संगी होगा तो प्रजा भी उसका अनुसरण करेगी और उन्नत होगी, जिससे राज्य में सुख-शांति और समृद्धि बढ़ेगी।”

राजा उसकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ, बोलाः “मैं तुम्हें एक हजार स्वर्ण मोहरें पुरस्कार में देता हूँ और आज से अपना सलाहकार मंत्री नियुक्त करता हूँ। अब मैं भी तुम्हारे गुरु जी के सत्संग में जाऊँगा, उनकी शिक्षा को जीवन में लाऊँगा।” इस प्रकार एक सत्संगी किशोर की सूझबूझ के कारण पूरे राज्य में अमन चैन और खुशहाली छा गयी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 15 अंक 267
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वसंत ऋतु में बीमारियों से सुरक्षा


वसंत ऋतु में शरीर में संचित कफ पिघल जाता है। अतः इस ऋतु में कफ बढ़ाने वाले पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए। दिन में सोने से भी कफ बढ़ता है। इस ऋतु में नमक का कम उपयोग स्वास्थ्य के लिए हितकारी है। तुलसी पत्ते व गोमूत्र के सेवन एवं सूर्यस्नान से कफ का शमन होता है। मुँह में कफ आने पर उसे अंदर न निगलें। कफ निकालने के लिए जलनेति, गजकरणी का प्रयोग कर सकते हैं। (देखें आश्रम से प्रकाशित पुस्तक ‘योगासन’, पृष्ठ संख्या 43,44)
वसंत ऋतु में सर्दी-खांसी, गले की तकलीफ, दमा, बुखार, पाचन की गड़बड़ी, मंदाग्नि, उलटी दस्त आदि बीमारियाँ अधिकांशतः देखने को मिलती हैं। नीचे कुछ सरल घरेलु उपाय दिये जा रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आसानी से इन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है।
मंदाग्निः 10-10 ग्राम सोंठ, काली मिर्च, पीपर व सेंधा नमक – सभी को कूटकर चूर्ण बना लें। इसमें 400 ग्राम काली द्राक्ष (बीज निकाली हुई) मिलायें और चटनी की तरह पीस के काँच के बर्तन में भरकर रख दें। लगभग 5 ग्राम सुबह खाने से भूख खुलकर लगती है।
कफ, खाँसी और दमाः 4 चम्मच अडूसे के पत्तों के ताजे रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर दिन में 2 बार खाली पेट लें। (रस के स्थान पर अडूसा अर्क समभाग पानी मिलाकर उपयोग कर सकते हैं। यह आश्रम व समितियों के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध है।) खाँसी, दमा, क्षयरोग आदि कफजन्य तकलीफों में यह उपयोगी है। आश्रमनिर्मित गोझरण वटी की 2 से 4 गोलियाँ दिन में 2 बार पानी के साथ लेने से कफ का शमन होता है और कफ व वायु जन्य तकलीफों में लाभ होता है।
दस्तः इस्बगोल में दही मिलाकर लेने से लाभ होता है। अथवा मूँग की दाल की खिचड़ी में देशी घी अच्छी मात्रा में डालकर खाने से पानी जैसे पतले दस्त में फायदा होता है।
दमे का दौराः साँस फूलने पर 20 मि.ली. तिल का तेल गुनगुना करके पीने से तुरंत राहत मिलती है।
सरसों के तेल में थोड़ा सा कपूर मिलाकर पीठ पर मालिश करें। इससे बलगम पिघलकर बाहर आयेगा और साँस लेने में आसानी होती है।
उबलते हुए पानी में अजवायन डालकर भाप सुँघाने से श्वास-नलियाँ खुलती हैं और राहत मिलती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 30, अंक 267
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राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत भारतीय कालगणना


चैत्री नूतन वर्ष वि.सं. 2072 प्रारम्भः 21 मार्च
विक्रम संवत् भारतीय शौर्य, पराक्रम और अस्मिता का प्रतीक है। चैत्री नूतन वर्ष आने से पहले ही वृक्ष पल्लवित-पुष्पित, फलित होकर भूमंडल को सुसज्जित करने लगते हैं। यह बदलाव हमें नवीन परिवर्तन का आभास देने लगता है।
भारतीय कालगणना का महत्त्व
ग्रेगेरियन (अंग्रेजी) कैलेंडर की कालगणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है जबकि भारतीय कालगणना अति प्राचीन है। संवत्सर का उल्लेख ब्रह्माण्ड के सबसे प्राचीन ग्रन्थों में से एक यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र 45 व 15 में किया गया है।
भारतीय कालगणना मन-कल्पित नहीं है, यह खगोल सिद्धान्त व ब्रह्माण्ड के ग्रहों-नक्षत्रों की गति पर आधारित है। आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारम्भ होकर क्रमशः बुध, शुक्र, चन्द्र, मंगल, गुरु और शनि की है। सप्ताह के सात दिनों का नामकरण भी इसी आधार पर किया गया। विक्रम संवत में नक्षत्रों, ऋतुओं, मासों व दिवसों आदि का निर्धारण पूरी तरह प्रकृति पर आधारित ऋषि-विज्ञान द्वारा किया गया है।
इस वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य कालगणना के अनुसरण के बावजूद सांस्कृतिक पर्व-उत्सव, विवाह, मुण्डन आदि संस्कार एवं श्राद्ध, तर्पण आदि कर्मकाण्ड तथा महापुरुषों की जयंतियाँ व निर्वाण दिवस आदि आज भी भारतीय पंचांग-पद्धति के अनुसार ही मनाये जाते हैं।
विक्रम संवत् के स्मरणमात्र से राजा विक्रमादित्य और उनके विजय एवं स्वाभिमान की याद ताजा होती है, भारतीयों का सर गर्व से ऊँचा होता है जबकि अंग्रेजी नववर्ष का अपने देश की संस्कृति से कोई नाता नहीं है।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा थाः “यदि हमे गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अंतर्मन में राष्ट्रभक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाये रखने वाले परकीयों के दिनांकों पर आश्रित रहने वाला अपना आत्म-गौरव खो बैठता है।”
महात्मा गाँधी ने अपनी हरिजन पत्रिका में लिखा थाः “स्वराज्य का अर्थ है – स्व-संस्कृति, स्वधर्म एवं स्व-परम्पराओं का हृदय से निर्वहन करना। पराया धन और परायी परम्परा को अपनाने वाला व्यक्ति न ईमानदार होता है, न आस्थावान।”
पूज्य बापू जी कहते हैं- “आप भारतीय संस्कृति के अनुसार भगवदभक्ति के गीत से ‘चैत्री नूतन वर्ष’ मनायें। आप सब अपने बच्चों तथा आसपास के वातावरण को भारतीय संस्कृति में मजबूत रखें। यह भी एक प्रकार की देशसेवा होगी, मानवता की सेवा होगी।”
इस दिन सामूहिक भजन संकीर्तन व प्रभातफेरी का आयोजन करें। भारतीय संस्कृति तथा गुरु ज्ञान से, महापुरुषों के ज्ञान से सभी का जीवन उन्नत हो। इस प्रकार एक दूसरे की बधाई संदेश देकर नववर्ष का स्वागत करें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 10 अंक 267
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