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Shastra Prasad

भागवत प्रसाद


पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू

कलियुगे के आदमी का जीवन कोल्हू के बैल जैसा है। उसके जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं है। किसी ने कलियुग के मानव की दशा पर कहा हैः

पैसा मेरा परमेश्वर और पत्नी मेरी गुरु।

लड़के-बच्चे शालिग्राम अब पूजा किसकी करूँ।।

लोग इतने अल्प मति के हो गये हैं कि जिधर का झोंका आया उधर मुड़ जाते हैं। अपनी इष्ट की, गुरु की पूजा कभी नहीं करते हैं, उपासना नहीं करते हैं, पर किसी ने लिख दिया किः

ʹजय संतोषी माँ…. यह पत्र पढ़कर, ऐसे और पत्र आप लिखोगे तो आपका कल्याण होगा। अगर इसका अनादर करोगे तो आपका बहुत बुरा होगा….ʹ तो आदमी भयभीत हो जाते हैं और पत्र लिखने लग जाते हैं। संतोषी माँ की पूजा भी करने लग जाते हैं, पाठ भी करने लग जाते हैं

वेदव्यासजी ने अपनी दीर्घदृष्टि से यह जान लिया था कि कलियुग के आदमी में इतनी समता, इतनी शक्ति न होगी कि वह घर-बार छोड़कर ऋषियों के द्वार पर जाए और सेवा-सुश्रुषा करके हृदय शुद्ध कर सके….. ऋषियों के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना करके आत्मज्ञान, आत्मशांति के विषय में प्रश्न पूछे। इसलिए उऩ्होंने कृपा करके श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने के साथ साथ तत्त्वज्ञान की, आत्मज्ञान की बातें भी जोड़ दीं। ग्वालों के साथ गाय चराईं, मक्खन चुराया, गोपियों के चीर हरण किये, कभी तो बंसी बजाई, कभी धेनकासुर-बकासुर को यमसदन पहुँचाया। ऐसी बातों से हास्यरस, श्रृंगाररस, विरहरस, वीररस जैसे रस भरकर रसीला ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ बनाया। इस ग्रंथ की रचना करके वेदव्यास जी ने जगत पर बड़ा उपकार किया है।

ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना के पहले वेदव्यास जी ने कई ग्रन्थों की रचना की थी, पुराणों का संकलन किया था, पर उनके मन में कुछ अभाव खटकता रहता था।

एक बार नारदजी पधारे, तब वेदव्यासजी ने अपनी मनोव्यथा सुनाई। उन्होंने कहाः “देवर्षि ! मैंने पुराण लिखे, ब्रह्मसूत्र की रचना की, कई भाष्य लिखे, उपनिषदों का विवरण लिखा, लेकिन अभी भी मुझे लगता है कि मेरा कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है। कुछ अधूरा रह गया है, कुछ छूट गया है। मुझे आत्मसंतोष नहीं मिल रहा है।”

नारदजी ने कहाः “तुम्हारा कहना ठीक ही है, तुम्हारा कार्य सचमुच में अधूरा है। ये ʹब्रह्मसूत्रʹ उपनिषद सब लोग समझ नहीं पायेंगे। जिनके पास विवेक-वैराग्य तीव्र होगा, मोक्ष की तीव्र इच्छा होगी उनके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ जरूरी है। जैसे, किसी आदमी का गला पकड़कर पानी में डुबा दें और वह बाहर निकलने के सिवाये और कुछ नहीं चाहता-ऐसी जिसमें ईश्वर प्राप्ति की इच्छा हो, उसके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ अच्छा है। लेकिन जिन लोगों में परमात्म प्राप्ति की तड़प नहीं है, जो संसार में रचे पचे हैं और जो संसार को सत्य मानते हैं, संसार को ही सार मानते हैं, देह में जिनकी आत्मबुद्धि है, जगत में सत्यबुद्धि है और परमात्म-प्राप्ति के लिए जिनके पास समय नहीं है-ऐसे लोगों में ब्रह्मसूत्र और उपनिषद पढ़ने की रूचि नहीं होगी। कदाचित् वे पढ़ेंगे तो समझ भी नहीं पायेंगे। विवेक-वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मोक्ष की इच्छा-इन चार साधनों से युक्त आदमी वेदान्त को सुनेगा, ब्रह्मसूत्र सुनेगा तो उसे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। लेकिन जो साधन-चतुष्टय से सम्पन्न नहीं होगा, वह कितना भी सुनेगा, उस पर असर नहीं होगा। जगत में प्रायः ऐसे लोग ही ज्यादा होते हैं। आपने उन लोगों के उत्थान के लिए क्या उपाय किया है ?

ईश्वर को पाने की तड़पवाला तो कोई विरला ही होगा, बाकी लोग तो यूँ ही अपना समय गँवा देते हैं। आप कोई ऐसे ग्रंथ की रचना कीजिये जिसमें वीरों के लिए वीररस भी हो, विनोद चाहने वालों के लिए हास्यरस भी मिले, भक्तिमार्गवालों के लिए भक्तिरस भी मिले, जो सँसार में प्रेम रखते हैं उनको कुछ प्रेम की बातें मिल जायें और साथ में तत्त्व का चिंतन भी हो। सब प्रकार के लोगों की मनोदशा का विचार करके ऐसा ग्रंथ बनाया जाये जो सब प्रकार के रसों में सराबोर करते हुए तत्त्वज्ञान का रास्ता दिखाकर परमात्मरस तक पहुँचा सके।”

नारदजी की बात व्यासजी को सौ प्रतिशत जँची। व्यासजी ने समाधि में बैठकर श्लोकों की रचना की। भागवत में तीन सौ पैंतीस अध्याय और अठारह हजार श्लोक हैं। ऐसा नहीं कि वेदव्यासजी श्रीकृष्ण के पीछे लेखनी लेकर घूमे और ग्रंथ की रचना की। समाधि में बैठने पर उन्हें युग-युगान्तर में, कल्प-कल्पान्तर में श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आदि जो जो दिखा उसे लिखने के लिए उन्होंने गणपति जी का आवाहन किया। वेदव्यासजी श्लोक बोलते गये और गणपति जी लिखते गये। गणपति जी तो ऋद्धि सिद्धि के दाता हैं। उन्होंने श्लोक लिखने में मदद की और इस तरह ʹश्रीमद् भागवतʹ का ग्रंथ तैयार हो गया।

वेदव्यासजी ने वृद्धावस्था में ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना की थी। उऩ्हें लगा कि वे खुद इसका प्रचार नहीं कर पायेंगे इसलिए उऩ्हें चिन्ता हुई किः ʹयह शास्त्र मैं किसको दूँ ?ʹ आखिर उऩ्होंने शुकदेवजी को पसंद किया। शुकदेव जी जन्म से ही विरक्त थे, निर्विकार थे। जन्म से ही उन्हें संसार के विषयों में राग नहीं था। वेदव्यास जी ने यह ग्रंथ शुकदेव जी को पढ़ाया और उन्हीं के द्वारा इस ग्रंथ का प्रचार हुआ।

शुकदेवजी ने इस पवित्र ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ की कथा परिक्षित को सुनाई। शुकदेवजी उत्तम वक्ता थे और परीक्षित उत्तम श्रोता थे।

इस कथा के प्रारम्भ में आता है कि भक्तिरूपी स्त्री रो रही हैः “मेरे ज्ञान और वैराग्यरूपी दो पुत्र अकाल वृद्ध हो गये हैं और मूर्च्छित होकर पड़े हैं।”

जवान माँ के बेटे अकाल वृद्ध होकर मृतप्रायः हो रहे हैं – यह कुछ मर्म की बात है।

कलियुग के आदमी के पास भक्ति तो होगी परन्तु ज्ञान और वैराग्य बेटे अगर मूर्च्छित होंगे तो भक्ति रोती रहेगी। भक्ति को स्त्री का रूप देकर और ज्ञान-वैराग्य को बेटों का रूप देकर ऐसी कथा बनाकर लोगों को जगाने का प्रयास जिन्होंने किया है, उन वेदव्यासजी की दृष्टि कितनी ऊँची होगी ! कितनी विशाल होगी !

आज तो कोई भागवत की कथा करवाते हैं तो उसका फल ऐहिक ही चाहते हैं और इसकी कथा करने वाला भी अगर लोभी होगा तो कथा के द्वारा भी धन पाना चाहेगा। ʹआज तो श्रीकृष्ण का जन्म है… चाँदी का पालना ले आओ…  आज तो श्रीकृष्ण की शादी है….. रुक्मणि के लिए गहने लाओ….ʹ ऐसा कहकर कथाकार धन कमाना चाहेगा। इसलिए वेदव्यासजी ने ʹभक्तिरूपी स्त्री के ज्ञान-वैराग्य दो बेटे मूर्च्छित हैं…ʹ ऐसा उदाहरण देकर लोगों को समझाया है कि ज्ञानसहित, वैराग्यसहित दृढ़ भक्ति करोगे तो शीघ्र ही कल्याण होगा।

इस ग्रंथ के और भी कई नाम हैं। एक नाम है ʹभागवत महापुराणʹ शेष 17 पुराणों को पुराण कहते हैं लेकिन इस भागवत को महापुराण कहा जाता है क्योंकि इसमें जगह-जगह पर उस महान तत्त्व का चिन्तन और ज्ञान की बातें विशेष मिलती हैं। दूसरा नाम है ʹपरमहंस संहिताʹ। शुकदेव जी जैसे आत्मानंद में मस्त रहने वाले व्यक्ति को भी भागवत के श्लोक और भागवत के आधाररूप मुख्य पात्र श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन बड़ा आनंदमयी लगता है। इसका एक और नाम है ʹकल्पद्रुमʹ। जो मनोकामना रखकर श्रवण-मनन करोगे तो वह तुम्हारी मनोकामना देर-सबेर पूरी होगी ही। ऐसे ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ में श्रीकृष्ण की लीलाओं के साथ तत्त्वज्ञान की बातें इस ढंग से लिखी गई हैं कि पढ़ने वाले और सुनने वाला इसमें सराबोर हो जाता है और आनंद को पा लेता है।

कई पुण्यशाली लोग अनेक प्रसंगों पर ʹभागवतʹ की कथा का आयोजन करते हैं। जहाँ भी ʹभागवत सप्ताहʹ होता है, ʹभागवतʹ की कथा होती है वहाँ कथा के चौथे दिन श्रीकृष्ण का जन्म मनाया जाता है। ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण का जन्म बारह महीने में एक बार ही मनाते हैं। जब-जब, जहाँ-जहाँ ʹभागवत कथाʹ होती है तब-तब श्रीकृष्ण का जन्म मनाते हैं। सुबह को भी मनाते हैं, शाम को भी मनाते हैं, अमावस्या को भी मनाते हैं, पूनम को भी मनाते हैं। वैसे तो ऐतिहासिक ढंग से लोग भादों (गुजरात-महाराष्ट आदि के अनुसार श्रावण) मास की कृष्ण-अष्टमी की रात को बारह बजे श्रीकृष्ण-जन्म मनाते हैं, पर भक्त लोग तो जब अनुकूलता हुई, जब मौका मिला कि श्रीकृष्ण-जन्म मनाने को उत्सुक रहते हैं। जब पुण्य जोर पकड़ते हैं, जब हृदय से ʹमेरे-तेरेʹ का भाव मिट जाता है, तब हृदय में आनंदरूपी श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं। हृदय में कृष्णतत्त्व का आनंद छलकने लगता है।

आपकी मति सुसंस्कृत हो जाये, आत्मज्ञान के रंग से रंग जाये, आपकी मति आत्मदेव के कृष्णतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित हो जाये-इसके लिए जिन ग्रन्थकारों ने, आत्मवेत्ता महापुरुषों ने, वेदव्यासजी जैसे नामी-अनामी ऋषियों ने, महर्षियों ने अपना सर्वस्व लुटा दिया, आपको जगाने के लिए ही अपने जीवन का हर क्षण गुजार दिया उन महापवित्र आत्माओं के चरणों में हमारे हजारों-हजारों प्रणाम हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 25-28, अंक 79

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गुरुवर को प्रणाम


चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनम्।

नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चैतन्य, शाश्वत, शांत, आकाश से परे हैं, इन्द्रियों से परे हैं, जो नाद, बिंदु और कला से परे हैं, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम हैं !ʹ

यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन विभाति यत्।

यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजिसके अस्तित्त्व से संसार का अस्तित्त्व है, जिसके प्रकाश से जगत प्रकाशित होता है, जिसके आनंद से सब आनंदित होते हैं उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

कर्मणा मनसा वाचा सर्वादઽઽराधयेद् गुरुम्।

दीर्घदण्डनमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ।।

ʹगुरुदेव के समक्ष निःसंकोच होकर लंबा दण्डवत प्रणाम करके मन, कर्म तथा वचन से हमेशा गुरुदेव की आराधना करनी चाहिए।ʹ

आनन्दमानन्दकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजभावयुक्तम्।

योगीन्द्रमीडयं भवरोगवैद्यं श्रीसदगुरुं नित्यमहं नमामि।।

ʹजो आनन्दस्वरूप हैं, जो आनंदमय करने वाले हैं, जो सदैव प्रसन्न हैं, जो ज्ञानस्वरूप हैं, जो निज भाव से युक्त हैं, जो योगियों के आराध्यदेव हैं, जो संसाररूपी रोग के वैद्य हैं ऐसे श्री सदगुरु को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।ʹ

नित्यशुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनम्।

नित्यबोधं चिदानंदं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम्।।

ʹजो नित्यशुद्ध हैं, जो आभासरहित हैं, जो निराकार हैं, जो इन्द्रियों से परे हैं, जो नित्य ज्ञानस्वरूप हैं, जो चिदानंद हैं ऐसे ब्रह्मस्वरूप श्रीगुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।ʹ

नमः शिवाय गुरवे सच्चिदानन्दमूर्तये।

निष्प्रपंचाय शान्ताय निरालम्बाय तेजसे।।

ʹशिवस्वरूप, सच्चिदानंदस्वरूप, प्रपंचों से रहित, शान्त निरालम्ब, तेजयुक्त श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

नमः शान्तात्मने तुभ्यं नमो गुह्यतमाय च।

अचिन्त्यायाप्रमेयाय अनादिनिधनाय च।।

ʹहे रहस्यमय, अचिन्तनिय, अपरिमित और आदि-अंत से रहित, शान्त आत्मस्वरूप ! तुझे प्रणाम है !ʹ

नमस्ते सते ते जगत्कारणाय। नमस्ते चिते सर्वलोकाश्राय।।

नमोद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय। नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय।।

ʹजगत के कारण सत् तुझे प्रणाम है ! सर्व लोकों के आश्रयस्वरूप चित् तुझे प्रणाम है ! मुक्ति प्रदान करने वाले अद्वैत तत्त्व तुझे प्रणाम है ! शाश्वत, सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म तुझे प्रणाम है !ʹ

सत्यानन्दस्वरूपाय बोधैकसुखकारिणे।

नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे।।

ʹजो सत्य और आनंदस्वरूप हैं, चेतनानंद के साधनस्वरूप हैं, बुद्धि के साक्षी हैं, वेदांत के द्वारा ज्ञेय हैं ऐसे श्रीगुरुदेव को नमस्कार है !ʹ

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।

चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹअज्ञानरूपी अंधकार से अंधे बने हुए की आँखों को ज्ञानरूपी अंजन-शलाका से खोलने वाले उऩ श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चर और अचर सृष्टि में अखण्ड-मण्डलाकार रूप में व्याप्त हैं, जिन्होंने ʹतत्पदʹ का दर्शन कराया है, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

स्थावरं जङ्गमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम्।

त्वंपदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चर और अचल सृष्टि में स्थावर एवं जंगम सब जीवों में व्याप्त हैं, जिन्होंने ʹत्वंपदʹ का दर्शन कराया है, उऩ श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

चिन्मयं व्यापितं सर्व त्रैलोक्यं सचराचरम्।

असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ʹजो चिन्मयस्वरूप, तीनों लोकों के चल एवं अचल सब जीवों में व्याप्त है, जिन्होंने ʹअसिपदʹ का दर्शन कराया है, उन श्रीगुरुदेव को प्रणाम है !ʹ

(स्कन्दपुराण)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 79

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हस्तामलक स्तोत्र


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

दक्षिण भारत के श्रीबली नामक गाँव में प्रभाकर नाम के एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। उनका एक पागल सा लड़का था। वह लड़का बचपन से ही सांसारिक कार्यों के प्रति उदासीन वृत्ति रखता था। उसका व्यवहार एक गूंगे और बहले बालक के समान था। एक बार जब शंकराचार्य अपने शिष्योंसहित इस गाँव में पधारे तब प्रभाकर अपने पागल जैसे दिखने वाले पुत्र को लेकर आचार्य भगवान शंकर के समीप गये। उन्होंने आचार्य को साष्टांग दंडवत प्रणाम किये। श्री शंकराचार्य ने उन दोनों को उठाया और प्रभाकर से प्रश्न किया। उसके जवाब में प्रभाकर ने कहाः “हे स्वामिन् ! मेरा यह पुत्र बचपन से ही गूंगा और तमाम प्रकार के व्यवहार से उदासीन है। अभी इसकी आयु तेरह साल हुई है फिर भी यह हमारी बातचीत नहीं समझता है। इसको इसमें रस नहीं है। जो शास्त्र ब्राह्मणों को पढ़ने चाहिए ऐसे किसी भी शास्त्र का अभ्यास इसने नहीं किया है और न ही इसने वेद पढ़ा है। इसको अक्षरज्ञान ही नहीं है। बड़ी मुश्किल से मैंने इसके उपनयन संस्कार किये हैं। यह अपने किसी मित्र के साथ खेलने नहीं जाता है। इसका ऐसा स्वभाव देखकर कोई शरारती लड़का इसे मारता है तो उसकी मार यह सहन कर लेता है। फिर भी इसे क्रोध नहीं आता है। कभी तो यह भोजन करता है और कभी नहीं करता है। उसके बावजूद भी यह सदैव आनंदी और सुखी रहता है। इसकी यह मूढ़ दशा किस कारण से हुई है ? कृपा करके आप मेरे इस पुत्र का उद्धार कीजिये।”

शंकराचार्य ने उस बालक को प्रश्न पूछे। वह बालक बहरा या गूंगा न था। वह तो पूर्ण प्रकाशित ज्ञानी था, जीवन्मुक्त था। उस बालक ने शंकराचार्य द्वारा पूछे गये प्रश्नों के जो उत्तर दिये वे एक स्तोत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए।

ये प्रश्नोत्तर इस प्रकार हैं-

कस्त्वं शिशो कस्य कुतोसि गन्ता किं नाम ते त्वं कुत आगतोसि।

एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं मत्प्रीत्ये प्रीतिविवर्धनोसि।।1।।

ʹहे शिशो ! तू कौन है ? किसका पुत्र है ? तू कहाँ जा रहा है ? तेरा नाम क्या है ? तू कहाँ से आया है ? मेरी प्रीति के लिए हे बालक ! तू मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे। तू हमें बहुत प्रिय लगता है।ʹ

तब उस बालक ने जवाब दियाः

नाहं मनुष्यो न च देवयक्षौ न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।

न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो भिक्षुर्न चाहं निजबोधरूपः।।2।।

ʹमैं मनुष्य नहीं हूँ, देव या यक्ष नहीं हूँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी नहीं हूँ। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थी या वानप्रस्थी भी नहीं हूँ और संन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो ज्ञानस्वरूप परम पवित्र परमानंदरूप ब्रह्म हूँ।ʹ

निमित्तं मनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः।

रविर्लोकचेष्टानिमित्तं यथा यः स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।3।।

ʹजिस प्रकार सूर्य लोगों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करता है, उसी प्रकार मन और इन्द्रियों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करने वाला एवं आकाशादि उपाधियों से रहित ऐसा शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यमग्न्युष्णवन्नित्यबोधस्वरूपं मनश्चक्षुरादीन्यबोधात्मकानि।

प्रवर्तन्त आश्रित्य निष्कंपमेकं स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।4।।

ʹजैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है, ऐसे ही अविकारी और शुद्ध चित्स्वरूपवान मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जिसका आश्रय लेकर स्थूल मन तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने व्यवहार में प्रवृत्त रहते हैं।ʹ

मुखाभासको दर्पणो दृश्यमानो मुखत्वात्पृथक्त्वेन नैवास्तु वस्तु।

चिदाभासको धीषु जीवोपि तद्वत् स नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।5।।

ʹजैसे दर्पण में दिखता हुआ मुख का प्रतिबिम्ब वस्तुतः बिम्बरूप मुख से पृथक नहीं है, किन्तु बिम्बरूप ही है वैसे ही बुद्धिरूपी दर्पण में जीवरूप से प्रतीयमान चैतन्य का प्रतिबिम्ब बिम्बरूप चैतन्य से पृथक नहीं है किन्तु चैतन्य रूप ही है। वही नित्य, शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा दर्पणाभाव आभासहानौ मुखं विद्यते कल्पनाहीनमेकम्।

तथा धीवियोग निराभसको यः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।6।।

ʹजिस प्रकार दर्पण के या दर्पण में दिखने वाले चेहरे के प्रतिबिम्ब के अभाव में भी चेहरे का अस्तित्व तो होता ही है, उसी प्रकार बुद्धि के अभाव में भी अस्तित्व रखने वाला मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

मनश्चुरादेर्वियुक्तः स्वयं यो मनश्चक्षुरादेर्मनश्चक्षुरादिः।

मनश्चक्षुरादेरगम्यस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।7।।

ʹमैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, जो मन और चक्षु आदि से परे है, जो मन का भी मन और चक्षु आदि का भी चक्षु आदि है एवं जो मन, चक्षु आदि से प्राप्त नहीं है।ʹ

य एको विभाति स्वतःशुद्धचेताः प्रकाशस्वरूपोपि नानेव धीषु।

शरावोदकस्थो यथा भानुरेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।8।।

ʹजो स्वयं अकेला ही अपने विशुद्ध स्वप्रकाश अखंड चैतन्यरूप से प्रकाशता है… जैसे जल से भरे हुए अनेक मटकों में एक ही सूर्य अनेक रूप से भासता है उसी प्रकार एक ही स्वयं ज्योति आत्मा अनेक बुद्धियों में अनेक रूप से भासता है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथानेकचक्षुः प्रकाशो रविर्न क्रमेण प्रकाशीकरोति प्रकाश्यम्।

अनेका धियो यस्तथैकः प्रबोधः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।9।।

ʹजैसे सूर्यदेवता अनेक नेत्रों को क्रम से प्रकाश न करता हुआ एक साथ ही प्रकाश करता है वैसे ही अनेक बुद्धियों को एक ही साथ सत्ता-स्फूर्ति देने वाला नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

विवस्वत्प्रभातं यथारूपमक्षं प्रगृह्णाति नाभातमेवं विवस्वान्।

यदाभात आभासयत्यक्षमेकः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।10।।

ʹजैसे सूर्य से प्रकाशित रूप को ही नेत्र ग्रहण कर सकता है यानी देख सकता है, सूर्य से अप्रकाशित रूप को नेत्रेन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती वैसे ही सूर्य भी जिस चैतन्य आत्मा से प्रकाशित हुआ ही रूप, नेत्र आदि प्रकाश देता है। आत्मा से अप्रकाशित सूर्य किसी को कभी भी प्रकाश नहीं दे सकता यानी सर्व-लोक प्रकाशक सूर्यादि ज्योति आत्मप्रकाश से प्रकाशित होती है, वही नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

यथा सूर्य एकोप्स्वनेकश्चलासु स्थिरास्वप्यनन्यद्विभाव्स्वरूपः।

चलासु प्रभिन्नः सुधीष्वेक एव स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।11।।

ʹजिस प्रकार एक ही सूर्य स्थिर और अस्थिर जल के विषय में अलग-अलग प्रतिबिम्बित होता हुआ दृश्यमान होता है, उसी प्रकार चर और अचर – इन दोनों प्रकार की बुद्धियों को प्रकाशित करने वाला मैं अद्वितीय शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा मैं हूँ।ʹ

धनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्क यथा निष्प्रभं मन्यते चातिमूढ़ः।

तथा बद्धवद् भाति यो मूढ़दृष्टेः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।12।।

ʹजिस प्रकार बादलों से ढके हुए सूर्य को मंद बुद्धिवाला पुरुष तेज और प्रकाशरहित समझता है, उसी प्रकार मूढ़ बुद्धिवाले पुरुष को जो बद्ध-स्वरूप दिखता है वह शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप मैं हूँ।ʹ

समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यं न स्पृशन्ति।

वियद्वत्सदा शुद्धमच्छस्वरूपः स न नित्योपलब्धिस्वरूपोहमात्मा।।13।।

ʹजो सदा शुद्ध और निर्मल है तथा जो समस्त पदार्थों के अंतर्गत स्थित होते हुए भी वे पदार्थ उसे स्पर्श नहीं कर सकते या उसे दूषित नहीं कर सकते वह मैं शाश्वत आत्मज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ।ʹ

उपाधी यथा भेदता सन्मणीनां तथा भेदता बुद्धिभेदेषु तेपि।

यथा चन्द्रिकाणां जले चंचलत्वं तथा चंचलत्वं तवापीह विष्णो।।14।।

ʹजिस प्रकार रंग और आकार में भेद होने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के मणियों में भेद की कल्पना होती है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न बुद्धियों के भेद की उपाधि के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न स्वरूप से दृश्यमान होता है। जैसे जल में चंद्र अनेक एवं चंचल दिखता है ऐसे ही हे विष्णु ! तुम भिन्न-भिन्न दिखते हो। (वस्तुतः तो तुम एक, नित्य, शुद्ध और अविकारी हो।ʹ)

ब्राह्मण पुत्र के ये उत्तर सुनकर श्रीमद् आद्य शंकराचार्य समझ गये कि यह बालक तो ब्रह्म को हस्तामकलकवत् यानी हाथ में रखे हुए आँवले की तरह स्पष्टतः जानने वाला ब्रह्मवेत्ता है। अतः उन्होंने उसका नाम भी हस्तामलक रख दिया और वह प्रश्नोत्तररूप स्तोत्र ʹहस्तामलक स्तोत्रʹ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हस्तामलक आगे चलकर शंकराचार्य के चार पट्टशिष्यों में से एक हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 16 से 18 अंक 55

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