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Shastra Prasad

महानता के 8 दिव्य सूत्र और 7 हानिकारक बातें


जीवन को महान बनाने के 8 दिव्य सूत्र जीवन में आने चाहिएः

  1. शांत स्वभावः शांत रहना सीखो मेरे बच्चे-बच्चियो ! ‘ॐऽऽऽऽ….’ उच्चारण किया और जितनी देर उच्चारण किया उतनी देर शांत हो गये। ऐसा 10 से 15 मिनट तक ध्यान करो। फिर देखो आप समय पाकर कैसे सदगुणों व सद्विचारों की प्रेरणा पाते हैं व फैलाते हैं ! शांत रहने का जो दिव्य गुण है उससे यादशक्ति, सामर्थ्य बढ़ेगा और दूसरे भी कई लाभ होंगे। इसलिए शांत व एकाग्र रहने का गुण विकसित करो। तपःसु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः।
  2. सत्यनिष्ठाः सत्य बोलना बड़ा हितकारी है। झूठ-कपट और बेईमानी से थोड़ी देर के लिए लाभ दिखता है किंतु अंत में दुःख-ही-दुःख होता है। सत्य के आचरण से भगवान जल्दी रीझते हैं, भक्ति, ज्ञान और योग में बरकत आती है एवं अंतःकरण जल्दी शुद्ध होता है।

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।

गांधी जी की सत्यता की सुवास अभी भी महक रही है।

  1. उत्साहः जो काम करें उत्साह व तत्परता से करें, लापरवाही न बरतें। उत्साह से काम करने से योग्यता बढ़ती है, आनंद आता है। उत्साहहीन हो के काम करने से कार्य बोझ बन जाता है।
  2. धैर्यः जिसका हृदय धैर्य और सही विचार से सराबोर रहता है वह छोटी-मोटी बातों से दुःखी नहीं होता। बड़े-बड़े उतार-चढ़ावों में भी वह उतना प्रभावित नहीं होता जितने निगुरे लोग होते हैं। अगर वह निष्फल भी हो जाय तो हताश-निराश नहीं होता बल्कि विफलता को खोजकर फेंक देता है और फिर तत्परता से ऊँचे उद्देश्य की पूर्ति में लग जाता है।
  3. समताः समता सबसे बड़ा सदगुण है। ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि विपरीत परिस्थिति में भी समता बनी रहे। सुख-दुःख में सम रहने का अभ्यास करो।
  4. साहसः साहसी बनो। जीवन में तुम सब कुछ कर सकते हो। नकारात्मक विचारों को छोड़ दो। एक लक्ष्य (परमात्मप्राप्ति) से जुड़े रहो। फिर देखो, सफलता तुम्हारी दासी बनने को तैयार हो जायेगी।
  5. नम्रताः नम्र व्यक्ति बड़े-बड़े कष्टों और क्लेशों से छूट जाता है और दूसरों के हृदय में भी अपना प्रभाव छोड़ जाता है। नम्रता व्यक्ति को महान बनाती है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि जहाँ-तहाँ बदमाश, लुच्चे और ठगों को भी प्रणाम करते रहें। नम्रता कहाँ और कैसे दिखानी हैं – यह विवेक भी होना चाहिए।
  6. सहनशक्तिः जीवन में सहनशक्ति बढ़ायें। माँ ने कुछ कह दिया तो कोई बात नहीं, माँ है न ! पिता ने या शिक्षक ने कुछ कह दिया तो रूठना नहीं चाहिए। उद्विग्न न हों, धैर्य रखें।

7 बड़ी हानिकारक बातें

  1. अधिक बोलनाः अधिक न बोलें अपितु सारगर्भित और कम बोलें।
  2. व्यर्थ का भटकनाः जो अधिक भटकता है, अधिक हँसी-मजाक करता है उसको हानि होती है।
  3. अधिक शयनः जो अधिक सोता है, दिन में सोता है उसको भी बड़ी हानि होती है।
  4. अधिक भोजनः जो ठाँस-ठाँसकर खाता है, बार-बार खाता है उसका पाचनतंत्र खराब हो जाता है और वह आलसी बन जाता है।
  5. श्रृंगारः जो शरीर को ज्यादा सजाते है, ज्यादा टीपटाप करते हैं, अश्लील चित्र देखते हैं, अश्लील साहित्य पढ़ते हैं व ऐसे लोगों का संग करते हैं वे असंयमी हो जाते हैं, अपनी बड़ी हानि करते हैं।
  6. हीन-भावनाः जो अपने को कोसता है कि ‘मैं गरीब हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ…..’ ऐसा व्यक्ति विकास में पीछे रह जाता है। अनंतशक्ति-नायक अंतरात्मा-परमात्मा तुम्हारे साथ है। उसको पुकारे, प्रयत्न करे तो व्यक्ति महान बन जाता है। पूर्वकाल में साधारण, हारे थके विद्यार्थियों ने भी पुरुषार्थ करके बड़ी ऊँची सफलताएँ प्राप्त कीं। साधारण में से महान बनने वालों की बातें बतायी जायें तो असख्य पन्ने भर जायेंगे।
  7. अहंकारः जो धन, बुद्धि, योग्यता का घमंड करता है वह भी जीवन में विशेष उन्नति नहीं कर पाता। वह रावण की नाईं करा-कराया चौपट कर देता है। लेकिन सदगुरु वसिष्ठजी का सान्निध्य-सत्संग पाकर श्रीरामजी सारगर्भित बोलते, बोलने में आप अमानी रहते और दूसरों को मान देते। वे प्रातः नींद में से उठते ही ध्यान करते, माता-पिता व गुरु को प्रणाम करते। कभी किसी को नीचा दिखाने का प्रयत्न नहीं करते, छल-कपट के व्यवहार से दूर रहते, अहंकार-अभिमान को परे ही रखते। इस प्रकार के अनंद गुणों की खान श्रीराम को जान, मत कर गर्व-गुमान !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 304

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बंधन तोड़कर मुक्त हो जाओ !


 

दूसरों के साथ आपका दो प्रकार का संबंध हो सकता है।

मोह का संबंधः परिवार के जन सदस्यों पर आप अपना अधिकार मानते हैं, जिनसे सुख, सुविधा, सम्मान, सेवा, आराम, वस्तुएँ लेने की आशा रखते हैं, उनके साथ आपका ‘मोह’ का संबंध है। यदि वे आपकी आशा पूरी कर देंगे तो आपको सुख होगा और आशा पूरी नहीं करेंगे तो दुःख होगा। मोह का संबंध आपको सुख-दुःख के बंधन में फँसा देगा। सुख भोगेंगे आप अपनी इच्छा से और दुःख भोगना पड़ेगा आपको विवशता से। यह अटल सिद्धान्त है कि जो सुख का भोग करेगा, उसे विवश होकर दुःख भोगना पड़ेगा।

प्रेम का संबंधः जिनका आप अपने पर अधिकार मानते हैं, जिनके लिए आपके हृदय में यह भावना रहती है कि आप उन्हें अधिक-से-अधिक सुख, सुविधा, सम्मान, सेवा, आराम, प्रसन्नता दें और बदले में उनसे कुछ भी न लें तो उनके साथ आपका ‘प्रेम’ का संबंध है। जब आप उनकी इच्छा पूरी कर देते हैं, उन्हें खुश देखते हैं तो आपका हृदय प्रसन्नता से भर जाता है, जब आप इनकी इच्छा पूरी नहीं कर पाते, उन्हें अप्रसन्न देखते हैं तो आपका हृदय करुणा से भर जाता है।

दोनों संबंधों का अंतर

मोह में अपना सुख प्रधान होता है, प्रेम में दूसरे का हित व प्रसन्नता मुख्य होती है। मोह के संबंध में आप अनुभव करेंगे कि इच्छा पूरी हुई तो सुख हुआ, इच्छा पूरी नहीं हुई तो दुःख हुआ। प्रेम के संबंध में अपनी कोई इच्छा नहीं होती, हृदय में दूसरों के हित की भावना होती है। यदि वे लोग उस भावना के अनुरूप कार्य कर देते हैं तो उनकी प्रसन्नता से आपका हृदय भी प्रसन्नता से भर जाता है। यदि वे उस भावना के अनुरूप कार्य नहीं करते हैं तो आप सोचते हैं कि उन्हें दुःख होगा, उनके दुःख से आपका हृदय करुणा से भर जाता है। मोह आपको सुख-दुःख में बाँधेगा। प्रेम में ‘सुख’ के स्थान पर ‘करुणा’ रहेगी। सुख-दुःख बंधनकारी है। करुणा व प्रसन्नता बहुत बड़ी साधना है। मोह संबंध सीमित लोगों के साथ होता है, प्रेम का संबंध सम्पूर्ण विश्व व विश्व के नाथ भगवान के साथ होता है।
यदि आपके हृदय में सुख-दुःख है तो आप भोगी हैं, यदि आपके हृदय में करुणा व प्रसन्नता है तो आपके हृदय में संतत्व की सुवास है। भगवान राम जी ने स्वयं संतों का यह लक्षण बताया है-
पर दुःख दुःख सुख सुख देखे पर।
‘संतों को पराया दुःख देखकर दुःख (अर्थात् करुणा) और पराया सुख देख के सुख (अर्थात् प्रसन्नता) होता है।’ (श्री रामचरितमानस, उ.कां. 37.1)

क्या सारा संसार आपका परिवार है ?
मोहजनित संबंध के आधार पर सम्पूर्ण संसार आपका परिवार नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण संसार की अनुकूलता-प्रतिकूलता में आप सुख-दुःख का अनुभव नहीं करते। विश्व में रोज हजारों लोग जन्मते-मरते हैं, लाखों व्यक्ति बीमार हैं, करोड़ों रुपयों की धन-सम्पत्ति आती जाती है, करोड़ों रुपयों की लाभ-हानि होती है, हजारों दुर्घटनाएँ होती हैं पर इन्हें लेकर न आपको सुख होता है और न दुःख। इस दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व आपका परिवार नहीं है। हाँ, प्रेम जनित संबंध के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को आप अपना परिवार मान सकते हैं। ऐसा मानना तो आपकी साधना है, महानता है।

आप कहाँ, किनसे बँधे हैं ?
आप क्या चाहते हैं और क्या नहीं चाहते हैं ? इसका उत्तर है आप सुख चाहते हैं, दुःख नहीं चाहते क्योंकि आपका असली स्वभाव सुखस्वरूप है। आप प्रसन्नता, शांति, विश्राम चाहते हैं, परेशानी, अशांति, तनाव नहीं चाहते। आप निश्चिंतता, निर्भयता व सामर्थ्य चाहते हैं, चिंता, भय व शक्तिहीनता नहीं चाहते। आप आनंदपूर्वक जीना चाहते हैं, निराशा-दुःखभरा जीवन नहीं चाहते। आपके जीवन में दुःख, चिंता, भय, निराशा, मानसिक तनाव, अशांति आदि विकार कब और किनको लेकर पैदा होते हैं ? उस शरीर, उन संबंधियों व उस सम्पत्ति को लेकर ही दुःख व चिंता होती है जिसके साथ आपका मोह का संबंध है, जिसे आप अपना परिवार मानते हैं। जिन-जिन व्यक्तियों व वस्तुओं की प्रतिकूलता में आपको दुःख होता है, आप उन्हीं से बँधे हुए हैं।
यदि आप दुःखों, परेशानियों से हमेशा के लिए छूटना चाहते हैं तो आप मोहजनित संबंध को छोड़कर प्रेम के संबंध को महत्त्व दीजिये। ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग का आश्रय लीजिये और हर व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति में सर्वेश्वर-परमेश्वर को निहार के भगवत्प्रेम को उभारिये। साथ ही थोड़ा समय असंग होने में लगाकर अपने असंग मुक्तस्वरूप को जान के मुक्त हो जाइये। फिर करुणा या प्रसन्नता का सुख पाने के लिए दूसरे को खोजने की गुलामी भी छूट जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 21, अंक 275
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इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता….


 

सिख समाज के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव जी बचपन से ही धार्मिक कार्यों और सत्संगियों की सेवा में रूचि लेते थे। अर्जुनदेव अपने पिता गुरु रामदास जी से पिता के नाते उतना लगाव नहीं रखते थे, जितना गुरु के नाते रखते थे। एक भी क्षण के लिए वे अपने गुरु रामदास जी से दूर होना नहीं चाहते थे। गुरु राम दास जी ने अपने पुत्र अर्जुन देव में सेवा, गुरुचरणों में समर्पण, अधिकार नहीं कर्तव्य में रूचि, आज्ञापालन में निष्ठा आदि सदगुणों को देख के यह निश्चय कर लिया था कि ‘गुरुगद्दी का अधिकारी तो अर्जुनदेव ही हो सकता है।’ इसलिए उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया।
एक बार गुरु रामदासजी के पास उनके एक संबंधी का संदेश आया कि ‘मेरे पुत्र का विवाह है। आप इस अवसर पर लाहौर अवश्य पधारें।’ गुरु रामदास जी ने अपने बड़े बेटे पिरथीचंद को वहाँ जाने के लिए कहा तो पिरथीचंद ने अपने पीछे कहीं छोटे भाई अर्जुनदेव को गुरुगद्दी न सौंप दी जाय इस भय से मना कर दिया। तब गुरु जी ने दूसरे बेटे बाबा महादेव जी को वहाँ जाने के लिए कहा उन्होंने भी मना कर दिया क्योंकि उन्हें संसारी बातों में रूचि नहीं थी। तब रामदास जी ने अर्जुनदेव जी कहाः “बेटा ! तुम लाहौर जाओ और जब तक मैं न बुलाऊँ, तुम वहीं रहना।”

अर्जुनदेव जी गुरुआज्ञा पाते ही लाहौर निकल पड़े। विवाह-कार्य सम्पन्न हुआ। 3-4 महीने हो गये लेकिन अभी तक गुरु जी की ओर से न कोई पत्र आया न ही बुलावा। उनको 4 महीने का बिछुड़ना 4 युगों के समान प्रतीत होने लगा। गुरुदेव के बिना एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया तब अर्जुनदेव जी ने गुरु जी को पत्र लिखाः

मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई।
बिलप करे चात्रिक की निआई।…..

‘हे गुरु जी ! आपके दर्शन के लिए मेरा मन व्याकुल है और चातक की तरह विलाप करता है। हे संतजनों के प्यारे ! आपके दर्शन के बिना प्यास नहीं बुझती।’

यह पत्र पिरथीचंद के हाथ लगा। उन्होंने उसके गुरु जी तक इस डर से नहीं पहुँचने दिया कि कहीं गुरुजी उनको बुला न लें। 10-12 दिन हुए, गुरु जी की ओर से कोई पत्र न आया। अर्जुन देव जी ने दूसरा पत्र लिखाः

तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी।……

‘आपका मुख शोभनीय है और वाणी सहज अर्थात् शांतिरूप है। हे सारंगपाणि ! आपके दर्शन किये चिरकाल हो गया है। हे मेरे प्रभु ! मेरे मित्र ! सज्जन ! यह स्थान धन्य है जहाँ आप बस रहे हैं !’

यह पत्र भी पिरथीचंद को मिल गया, उन्होंने वह पत्र भी छुपा लिया। इधर अर्जुनदेव जी की व्याकुलता बढ़ती गयी। उन्होंने कुछ समय पश्चात् तीसरा पत्र लिखकर जिस सिख के हाथ भेजा, उससे कहा कि वह उसे गुरु जी के सिवा किसी को न दे। उसमें लिखा थाः

इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता।…..

‘एक घड़ी दर्शन न होने पर तो समय कलियुग सा लगता है लेकिन हे प्यारे ! अब आपको कब मिलूँगा ? हे गुरु ! आपका दरबार देखे बिना मुझे नींद नहीं आती और न ही मेरी रात्रि बीतती है। मैं तन, मन और वाणी से उस गुरु पर बलिहारी जाता हूँ, जिसका दरबार सच्चा है।’

सिख ने वह पत्र सीधा गुरु रामदास जी को दिया। गुरु जी ने अर्जुन देव का पत्र पढ़ा, उनके आँसू बह निकले। अर्जुनदेव जी का त्याग एवं समर्पण देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। पत्र पर तीन का अंक देखकर सिख से पूछाः “दूसरे दो पत्र कहाँ हैं ?” सिख ने उत्तर दियाः “मैंने वे पत्र तो पिरथीचंद को दिये थे।”

गुरु जी ने पिरथीचंद को बुलाकर पूछा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। अंतर्यामी गुरु जी ने अपने सेवक को कहाः “जाओ, पिरथीचंद की कोट की जेब में दोनों पत्र पड़े हैं, उनको ले आओ।” सिख जाकर पत्र ले आया।

पिरथीचंद शर्माये। उन्होंने कहाः “पिता जी ! वे पत्र मेरे द्वारा लिखे गये हैं।”

गुरु जी ने अर्जुनदेव जी को बुलवा लिया। फिर दोनों से कहाः “इस वाणी की तीन सीढ़ियाँ (पंक्तियाँ) हैं, जो इसकी चौथी सीढ़ी का उच्चारण करेगा, उसी की पहली तीनों सीढ़ियाँ समझी जायेंगी।”

पिरथीचंद तो झूठ बोला था, उनसे तो वाणी उच्चारित नहीं हो सकी। अर्जुनदेव जी ने चौथी सीढ़ी का उच्चारण करते हुए कहाः

भागु होआ गुरि संत मिलाइआ।
प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ।….

‘जब पुण्यों का प्रभाव हुआ, सौभाग्य हुआ तब संतों ने आप ही गुरु से मिलाप करा दिया और अब (आपकी कृपा से) अविनाशी प्रभु अंतःकरण रूपी घर में प्राप्त हुआ है। अब प्रार्थना है कि आपकी सेवा करते हुए पलभर भी न बिछड़ूँ। मैं आपका दास हूँ।’

गुरु राम दास जी बहुत प्रसन्न हुए और अर्जुनदेव जी को गले लगाकर बोलेः “बस बेटा ! तुम ही गुरु की पदवी के योग्य हो।” अर्जुनदेव जी गुरु के प्रति तड़प जल्दी ही उन्हें गुरु के निकट ले आयी।

जब बच्चा झूठमूठ में रोता है तो माँ ध्यान न भी दे लेकिन जब वह माँ के लिए सचमुच तड़पता है तो माँ उससे दूर नहीं रह पाती, तो हजारों माताओं की करुणा जिनके हृदय में होती है, ऐसे सदगुरु के लिए शिष्य के लिए हृदय में सच्ची तड़प जग जाय तो वे भला दूर कैसे रह सकते हैं !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 274
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