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गुरुभक्तियोग – स्वामी शिवानंद जी सरस्वती


याद रखना चाहिए कि मनुष्य की अंतरात्मा पाशवी वृत्तियों, भावनाओं तथा प्राकृत वासनाओं के जाल में फँसी हुई है । मनुष्य के मन की वृत्ति विषय और अहं की ओर ही जायेगी, आध्यात्मिक मार्ग में नहीं मुड़ेगी । आत्मसाक्षात्कार की सर्वोच्च भूमिका में स्थित गुरु में शिष्य अगर अपने व्यक्तित्व का सम्पूर्ण समर्पण कर दे तो साधना-मार्ग के से भयस्थानों से बच सकता है । ऐसा साधक संसार से परे दिव्य प्रकाश को प्राप्त कर सकता है । मनुष्य की बुद्धि एवं अंतरात्मा को जिस प्रकार निर्मित किया जाता है, अभ्यस्त किया जाता है उसी प्रकार वे कार्य करते हैं । सामान्यतः वे दृश्यमान मायाजगत तथा विषय-वस्तु की आकांक्षा एवं अहं की आकांक्षा पूर्ण करने के लिए कार्यरत रहते हैं । सजग प्रयत्न के बिना वे आध्यात्मिक ज्ञान के उस उच्च सत्य को प्राप्त करने के लिए कार्यरत नहीं होते ।

‘गुरु की आवश्यकता नहीं है और हरेक को अपनी विवेक-बुद्धि तथा अंतरात्मा का अनुसरण करना चाहिए’ – ऐसे मत का प्रचार प्रसार करने वाले भूल जाते हैं कि ऐसे मत का प्रचार करके वे स्वयं गुरु की तरह प्रस्तुत हो रहे हैं । ‘किसी भी शिक्षक की आवश्यकता नहीं है’ – ऐसा सिखाने वालों को उनके ही शिष्य मान-पान और भाव अर्पित करते हैं । भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों को बोध दिया कि ‘तुम स्वयं ही तार्किक विश्लेषण करके मेरे सिद्धान्त की योग्यता अयोग्यता और सत्यता की जाँच करो । ‘बुद्ध कहते हैं’ इसलिए सिद्धान्त को सत्य मानकर स्वीकार कर लो ऐसा नहीं ।’ किसी भी भगवान की पूजा नहीं करना, ऐसा उन्होंने सिखाया लेकिन इसका परिणाम यह आया कि महान गुरु एवं भगवान के रूप में उनकी ही पूजा शुरु हो गयी । इस प्रकार ‘स्वयं ही चिंतन करना चाहिए और गुरु की आवश्यकता नहीं है’ इस मत की शिक्षा से स्वाभाविक ही सीखने वाले के लिए गुरु की आवश्यकता का इनकार नहीं हो सकता । मनुष्य के अनुभव कर्ता-कर्म के परस्पर संबंध की प्रक्रिया पर आधारित है ।

पश्चिम में कुछ लोग मानते हैं कि गुरु पर शिष्य का अवलम्बन एक मानसिक बंधन है । मानस-चिकित्सा के मुताबिक ऐसे बंधन से मुक्त होना जरूरी है । यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि मानस-चिकित्सावाले मानसिक परावलम्बन से, गुरु शिष्य का संबंध बिल्कुल भिन्न है । गुरु की उच्च चेतना के आश्रय में शिष्य अपना व्यक्तित्व समर्पित करता है । गुरु की उच्च चेतना शिष्य की चेतना को आवृत कर लेती है और उसका ऊर्धवीकरण करती है । गुरु-शिष्य का व्यक्तिगत संबंध एवं शिष्य का गुरु पर अवलम्बन केवल आरम्भ में ही होता है, बाद में तो वह परब्रह्म की शरणागति बन जाता है । गुरु सनातन शक्ति के प्रतीक बनते है । किसी दर्दी का मानस-चिकित्सक के प्रति परावलम्बन का संबंध तोड़ना अनिवार्य है क्योंकि यह संबंध दर्दी का मानसिक तनाव कम करने के लिए केवल अस्थायी संबंध है । जब चिकित्सा पूरी हो जाती है तब परावलम्बन तोड़ दिया जाता है और दर्दी पूर्व की भाँति अलग और स्वतंत्र हो जाता है । किंतु गुरु-शिष्य के संबंध में प्रारंभ में या अंत में कभी भी अनिच्छनीय परावलम्बन नहीं होता । यह तो केवल पराशक्ति पर ही अवलम्बन होता है । गुरु को देहस्वरूप में या एक व्यक्ति के स्वरूप में नहीं माना जाता है । गुरु पर अवलम्बन शिष्य के पक्ष में देखा जाय तो आत्मशुद्धि की निरंतर प्रक्रिया है, जिसके द्वारा शिष्य ईश्वरीय परम तत्त्व का अंतिम लक्ष्य प्राप्त कर सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2009, पृष्ठ संख्या 23 अंक 199

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अपनी कद्र करना सीखें – पूज्य बापू जी


हमको श्रद्धा के साथ-साथ सत्संग के द्वारा समझना चाहिए कि शिवलिंग यह भगवान तो है लेकिन इस भगवान में घन सुषुप्ति में चैतन्य बैठा है । तर्क करना हो और अश्रद्धा करनी हो तो भगवान साक्षात् आ जायें तो भी दुर्योधन जैसा व्यक्ति उनमें भी अश्रद्धा करता है । दुर्योधन ने श्रीकृष्ण को कैद करने का आदेश दिया तो श्रीकृष्ण द्विभुजी से चतुर्भुजी होकर आकाश में स्थित हुए लेकिन दुर्योधन कहता है कि यह तो जादूगर है । दुर्योधन और शकुनि श्रीकृष्ण के लिए कुछ-का-कुछ बकते हैं लेकिन अर्जुन श्रीकृष्ण से फायदा उठाता है, गीता बनी और हम लोग भी फायदा उठा रहे हैं ।

श्रद्धाविहीन लोग श्रीकृष्ण के दर्शन व चतुर्भुजी नारायण के दर्शन के बाद भी दुर्बुद्धि का परिचय देते हैं । ऐसे दुर्योधनों की कमी नहीं है समाज में । श्रद्धालु व समझदार सज्जन तो शालग्राम, शिवलिंग और मूर्ति में श्रद्धा एवं भगवद्भाव से अपनी बुद्धि और जीवन में चिन्मय चैतन्य को प्रकट करते हैं ।

जिसके जीवन में सूझबूझ है, जिसे अपने जीवन की कद्र है वह महापुरुषों, शास्त्रों, वेदों की कद्र करेगा । शराब व माँस का सेवन करने वालों की मति ईश्वरप्राप्ति के योग्य नहीं रहती । ऐसे लोग स्वयं का ही अवमूल्यन करते हैं । ‘गुरुवाणी’ में आता हैः

जे रतु1 लगै कपड़ा जामा2 होइ पलीतु3

जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ4 निरमलु चीतु5 ।।

1 रक्त 2 वस्त्र 3 अपवित्र 4 कैसे 5 शुद्ध चित्त ।

भगवान राम कहते हैं-

निर्मल मन जन सो मोहि पावा ।

शराब और मांस निर्मल मति को मलिन कर देते हैं । आत्मसाक्षात्कार की योग्यतावाला मनुष्य अपने को अयोग्य बनाने वाला खान-पान और चिंतन करे, अपने आत्मदेव को छोड़कर देश-देशान्तर में ईश्वर को माने या स्वर्ग अथवा बिहिश्त की कल्पना करे यह कितनी तुच्छ बात है ! कितनी छोटी मान्यता, मति गति है !

जिसको अपने जीवन की कद्र नहीं है वह शास्त्रों की कद्र क्या करेगा, महापुरुषों की कद्र क्या करेगा, अपना ही जीवन खपा देगा । यदि तुमको अपने जीवन की कद्र है, अपने जीवनदाता की, शास्त्रों की, अपने माता-पिता की कद्र है कि कितनी मेहनत करके तुम्हें पढ़ाया, बड़ा किया तो तुम ऐसे कर्म करो जिनसे तुम्हारे सात कुल तर जायें ।

दुःख आया तो दुःखी हो गये, सुख आया तो सुखी हो गये तो तुम्हारे-हमारे में और कुत्ते में क्या फर्क है ? अरे, सुख को सपना, दुःख को बुलबुला, दोनों को मेहमान जान…. अपने को दास क्यों बनाता है ? पदोन्नति हो गयी तो हर्षित हो गये, बदली हो गयी तो सिकुड़ गये । इतनी लाचार जिंदगी क्यों गुज़ारता है ? गुरु की शरण जा । जरा सा किसी ने डाँट दिया, तेरी खुशी गायब ! ज़रा सा किसी ने पुचकार दिया तो खुश ! तो तू तो जर्मन का खिलौना है और क्या है ? जरा सा नोटिस आ गया तो तेरी चिंता बढ़ गयी । जरा सा कहीं छापा पड़ा तो तेरी मुसीबत बढ़ गयी । जरा सी अफसर से पहचान हो गयी तो तूने छाती फुला दी । तू इन खिलौनों को सच मानकर क्यों उलझ रहा है ? अपने आत्मा को जानने के लिए कुछ तो आगे बढ़ भाई ! जो परम मित्र, परम हितैषी है उसका अहोभाव से चिंतन कर, उसकी स्मृति कर और उसका ज्ञान पाकर उसी में आनंदित हो, प्रशांत हो और विश्रांति पा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2009, पृष्ठ संख्या 9 अंक 194

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श्रद्धा-विश्वास


जब आपके मन में चिंता होती है तो शरीर पर शिकन पड़ती है, भय होता है तो घिग्गी बंध जाती है। काम आने पर उत्तेजना होती है, क्रोध आने पर आँखें लाल हो जाती हैं, खाने का लोभ आने पर जीभ पर पानी आ जाता है। तो इनसे स्पष्ट है कि मनोभावों का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। राग और द्वेष होने पर आप क्या-क्या नहीं कर बैठते हैं ? तब क्या श्रद्धा-विश्वास हमारे मन में आयेंगे तो उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ? क्या वे इतने तुच्छ हैं कि आपको मनोबल की किंचित भी सहायता न करें ?

श्रद्धा-विश्वास आपके शरीर को शांत करते हैं, मन को निःसंशय करते हैं, बुद्धि को द्विगुणित-त्रिगुणित कर देते हैं, अहंकार को शिथिल कर देते हैं। श्रद्धा-विश्वास दीनता, अधीनता, मलिनता को नष्ट करते हैं, शरीर में ऐसे रासायनिक परिवर्तन करते हैं कि मन-विक्षेप दूर हो जाये, रोग-शोक दूर हो जाय। महात्माओं के अनुभव ग्रहण करने के लिए यह अचूक उपाय है।

जब ईश्वर पर श्रद्धा-विश्वास हृदय में क्रियाशील होता है तो सारी मलिनताओं को धो बहाता है। काम के स्थान पर शांति, क्रोध के स्थान पर उदासीनता, मोह के स्थान पर समता, लोभ के स्थान पर संतोष – ये हृदय में आ जाते हैं। श्रद्धा-विश्वास के ऐसे मानसिक तत्त्व हैं, जो सहारा तो लेते हैं ईश्वर और महात्मा का, परंतु स्वयं में अतिशय बलवान हो जाते हैं। जब श्रद्धा-विश्वास भगवान की भक्ति का रूप धारण करता है तब भय, मूर्खता, दुःख, भेद-बुद्धि इनके चंगुल से मनुष्य छूट जाता है। आप जैसे शारीरिक कर्म को महत्त्व देते हैं, वैसे ही श्रद्धा-विश्वास को महत्त्व दीजिये। यह आपके रग-रग में, रोम-रोम में, जीवन-मन-प्राण में ऐसा रासायनिक परिवर्तन लायेगा, जिसको समझने में अभी यांत्रिक उपायों को बहुत विलम्ब होगा।

आइये, लौट आइये ! यांत्रिक और आनुमानिक ज्ञान से मुक्त हो जाइये। यह संशय ग्रस्त है, अनिश्चित है। उसका कभी अंत नहीं होगा। आप श्रद्धा विश्वास के द्वारा संसारी भावनाओं से निवृत्त हो जाइये और अपने हृदय में अंतर्यामी की जो ललित लीला हो रही है, उसको निहारिये। वह मधुर-मधुर, लोल-लोक, अमृत-कल्लोल एक बार आपको दर्शन दे तो आपके सारे दुःख-शोक तुरन्त दूर हो जायेंगे। ईश्वर में विश्वास तत्काल मोहजन्य पक्षपात और क्रूरता से मुक्त कर देता है।

श्रद्धा-विश्वास जीवन के मूलभूत तत्त्व हैं। यह मेरी माँ है – इस पर भी श्रद्धा ही करनी पड़ती है, माँ के बताये व्यक्ति को अपना पिता मानना पड़ता है। नाविक पर, पाचक पर, नौकर पर, चिकित्सक पर – विश्वास ही करना पड़ता है। बिना विश्वास के जीवन एक क्षण भी नहीं चल सकता। आप ईश्वर के दर्शन और ज्ञान का प्रयास फिर कभी कर लीजियेगा और वह तो होगा ही होगा, पहले आप ईश्वर पर पूरी श्रद्धा रखिये।

  • ब्रह्मलीन ब्रह्मनिष्ठ स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2002, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 119

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