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श्रद्धा सब धर्मों में जरूरी


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ʹनारद पुराणʹ में आता है कि श्रद्धा से ही भगवान संतुष्ट होते हैं।

श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

ʹनारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से ही सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।ʹ

नेता को भी ʹमैं जीत जाऊँगा…ʹ यह श्रद्धा होती है तभी वह चुनाव में तत्पर होता है और सफल होता है। दुकानदार को भी श्रद्धा होती है कि ʹदुकान चलाने में लाभ होगा…. धंधा चलेगा…..ʹ भी वह पगड़ी देकर दुकान खरीदता है और सफल होता है। विद्यार्थी को भी श्रद्धा होती है कि ʹमैं पढ़ूँगा और पास होऊँगा….।ʹ हालाँकि सब विद्यार्थी पास नहीं होते हैं – 100 प्रतिशत विद्यार्थी पास नहीं होते हैं। कहीं 70 तो कहीं 80 प्रतिशत पास होते हैं तो 20 या 30 प्रतिशत फेल भी होते हैं। अगर हजार विद्यार्थी परीक्षा में बैठें तो आठसौ पास होंगे लेकिन अगर आठसौ बैठें तो आठसौ पास नहीं होंगे। किन्तु हजार के हजार विद्यार्थी सोचते हैं कि ʹहम तो पास हो जायेंगेʹ तभी 700-800 पास हो पायेंगे।

परीक्षा में भी जो फेल होते हैं उन्हें कुछ  तो ज्ञान मिलता ही है। ऐसे ही जो श्रद्धा से ईश्वर के रास्ते पर चल पड़ता है उसे पूर्णता की प्राप्ति होती है किन्तु कभी-कभार अगर इस जन्म में न भी हुई फिर भी उस साधक की साधना व्यर्थ नहीं जाती। स्वर्ग या ब्रह्मलोक का सुख-वैभव  उसे मुफ्त में मिल ही जाता है और वह उस सुख का उपभोग करके पुनः किसी श्रीमान के घर, किसी योगी के घर जन्म लेता है। बचपन से ही भोग-सामग्री के बीच होते हुए भी, पूर्वकाल की श्रद्धा के बल से किया हुआ भजन, दान-पुण्य एवं सत्कर्म उसके हृदय को उठाता जाता है और वह परम पद की, पूर्णता की प्राप्ति कर लेता है।

जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है, उसका जीवन रसहीन हो जायेगा। फिर वह इन्जेक्शनों एवं गोलियों से तन्दुरुस्ती माँगता फिरेगा, डिस्को और वाइन, सिगरेट, पान-मसाले (गुटखा) से प्रसन्नता माँगता फिरेगा और इधर-उधर के छोटे-मोटे अखबारों, नॉवेल-उपन्यास आदि में ज्ञान खोजता फिरेगा लेकिन जिसके जीवन में श्रद्धा है उसके अंतर में आत्मज्ञान प्रगटेगा, उसकी अंतरात्मा से आत्मसुख प्रगटेगा, उसकी अंतरात्मा से आरोग्यता के कण प्रगटेंगे और देर-सबेर अंतरात्मा की यात्रा करके वह परमात्म पथ की यात्रा में भी सफल हो जायेगा।

जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं होती वह तत्पर नहीं होगा, संयमी भी नहीं होगा, स्नेहवान भी नहीं होगा। जिसके जीवन में श्रद्धा है उसके जीवन में तत्परता होगी, संयम होगा, रस होगा। जो लोग श्रद्धावान का मजाक उड़ाते हैं, उनके लिए आचार्य विनोबा भावे कहते हैं “श्रद्धावान को अंधश्रद्धालु कहना यह भी  अंधश्रद्धा है।”

अपने बाप पर भी तो श्रद्धा रखनी पड़ती है। जो श्रद्धावान का मजाक उड़ाते हैं वे भी तो श्रद्धावान हैं। ʹयह मेरा बाप…. यह मेरी जाति….ʹ यह श्रद्धा से ही तो मानते हैं। पायलट पर, बसड्राईवर पर भी तो श्रद्धा रखनी पड़ती है। हालाँकि कई बार दुर्घटना भी हो जाती है।

यहाँ भगवान कहते हैं- श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा… सब धर्मों को श्रद्धा पूर्ण करती है, चाहे स्त्रीधर्म हो – जो स्त्री, पुरुष में साक्षात नारायण का वास समझकर उसकी सेवा करती है, अपनी इच्छा-वासनाओं को महत्त्व न देते हुए पति के संतोष में अपना संतोष मान लेती है, उस स्त्री के पातिव्रत्य धर्म में इतना सामर्थ्य आ जाता है जितना उसके पति में भी शायद न हो और यह सामर्थ्य आता है उसकी श्रद्धा से। विद्यार्थी का धर्म भी श्रद्धा से संपन्न होता है और चिकित्सक आदि का धर्म भी श्रद्धा से संपन्न होता है। यदि नकारात्मक विचार रखकर चिकित्सक इलाज करे या मरीज करवाये तो दोनों को हानि होगी। अतः श्रद्धा, तत्परता सब धर्मों में चाहिए, सब कर्मों में चाहिए।

श्रद्धापूर्णाः सर्वधर्मा मनोरथफलप्रदाः।

श्रद्धया साध्यते सर्वं श्रद्धया तुष्यते हरिः।।

ʹनारद ! श्रद्धापूर्वक आचरण में लाये हुए ही सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं। श्रद्धा से सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान श्रीहरि संतुष्ट होते हैं।ʹ

श्रद्धा से साधक में तत्परता आती है, श्रद्धा से ही मन-इन्द्रियों पर संयम किया जाता है और श्रद्धा से ही परमात्मस्वरूप की प्राप्ति होती है। श्रद्धा से उत्तम गुण उत्पन्न होते हैं और श्रद्धा से ही उत्तम रस की प्राप्ति होती है।

राजा द्रुपद ने संतान-प्राप्ति के लिए श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना की। शिव की आराधना का फल हुआ कि राजा द्रुपद को संतान तो प्राप्त हुई किन्त कन्या के रूप में।

तब राजा द्रुपद ने पुनः आराधना की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रगट हुए। तब राजा ने प्रार्थना कीः “भगवन्, ! मैंने तो संतान अर्थात् पुत्र की प्राप्ति के लिए आराधना की थी लेकिन यह तो कन्या है।”

शिवजीः “हमारी दी हुई वस्तु को तुम प्रसाद समझकर स्वीकार करो। यह दिखती तो कन्या है लेकिन तुम इसे पुत्र ही समझो।”

राजा द्रुपद ने भगवान के वचनों पर श्रद्धा की। उस कन्या का कन्यापरक नाम नहीं रखा परंतु पुत्रपरक नाम-शिखण्डी रखा। उसके संस्कार भी पुत्र के अऩुसार एत। जब वह युवती हुई तब उसे युवक मानकर किसी कन्या से उसकी शादी करवा दी। श्रद्धा के बल से वह कन्या पुत्र के रूप में बदल गयी, शिखण्डी पुरुष हो गया। आज भी कभी-कभी आप सुनते हैं कि लड़की में से लड़का हो गया।

यह सब परिणाम है दृढ़ श्रद्धा का। दृढ़ श्रद्धा असंभव को भी संभव करने में सक्षम है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 51

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कुप्रचार से हानि संतों को नहीं, समाज को है…..


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

किसी व्यक्ति ने एक महात्मा के पास जाकर कहाः

“बाबा जी ! सनातन धर्म के प्रति कुप्रचार करने वाले लोग कहते हैं कि ʹरामायण सच्ची नहीं है।ʹ वे लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं यह तो हम जानते हैं लेकिन बाबाजी ! जब हम बार-बार सुनते हैं तो कभी-कभी लगता है कि यह बात सच्ची है क्या ?”

वे एक सुलझे हुए महात्मा थे। वे बोलेः “मैं यह तो नहीं जानता कि रामायण सही है या गलत लेकिन इससे मेरा जीवन सही हो गया है और जो इसका अध्ययन करता है उसका जीवन सही होता है। यही प्रमाण सच्चा है। रामायण के अनुकरण से मेरे कुटुम्ब में स्नेह बढ़ गया है, भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पिता-पुत्र में मर्यादा और स्नेह बढ़ गया है। अतः रामायण के विषय में ʹवह सही है या गलतʹ – यह सोचना ही बेवकूफी है।”

अगर दोषदृष्टि से ही देखना हो तो भगवान श्रीकृष्ण में दुर्गुण दिख जायेंगे पापी को और राम में भी दोष दिख जायेंगे, संत-महापुरुषों में भी दोष दिख जायेंगे निगुरों को। अगर निंदा ही करनी हो तो कोई भी निमित्त उत्पन्न करके आरोपर लगाने लगेंगे निंदक…..

कवि गेटे एक सज्जन व्यक्ति थे। उनकी एक पुस्तक सज्जनों को तो बहुत अच्छी लगी किन्तु जरूरी नहीं है कि अच्छी बात सभी को अच्छी लगे। अतः कुछ निंदकों ने कवि गेटे पर ऐसे-ऐसे आरोप लगाने शुरु किये, जिसे सुनकर गेटे के प्रशंसकों को आघात लगा कि ʹइतने महान् कवि के लिए यह क्या अनर्गल बोला जा रहा है ?ʹ अतः कुछ सज्जन लोग मिलकर कवि गेटे के पास आये और बोलेः

“आपकी पुस्तक अत्यंत बढ़िया है फिर भी आरोपियों ने उसकी धज्जियाँ उड़ाई हैं। उनकी नीच प्रवृत्ति आपके श्रेष्ठ कार्य को नहीं देख सकती अतः अगर आप संकेत करें  हम उनके आरोपों का मुँहतोड़ जवाब दे देवें।”

तब गेटे ने कहाः “जिन लोगों को मेरे प्रति प्रेम है और जो मेरे स्वभाव को जानते मानते हैं, वे लोग यदि ऐसे कुप्रचार करने वाले हजार लोग और भी बढ़ जायें, तब भी विचलित होने वाले नहीं हैं। जिसने मुझे नजदीक से देखा है, उसकी मेरे प्रति श्रद्धा, कितना भी कुप्रचार होने पर भी कम नहीं होगी। वह कुप्रचार का शिकार नहीं बनेगा। बैठो, मैं आप लोगों को एक कविता सुनाता हूँ।”

कवि गेटे ने उनको टॉलस्टाय की एक कविता सुनायी, जिसका आशय थाः ʹजब कोई तुम्हारी कड़ी आलोचना करता है, तब तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारा फूल सुविकसित है इसीलिए भौंरे डंक मारने आ रहे हैं। इसी प्रकार जब तुम्हें निंदकों के डंक लगने लगें यह समझ लेना कि तुम्हारा कार्य सुविकसित हुआ है। अर्धविकसित फूल पर भ्रमर  कहाँ बैठता है ?ʹ

इसलिए जब आलोचक अऩाप-शऩाप आलोचना करने लगें तब तुम्हें संतोष मानना चाहिए कि तुम्हारा पुरुषार्थ और सेवाकार्यरूपी पुष्प इतना सुविकसित हुआ है कि उन बेचारों को तकलीफ हो रही है…. हालाँकि तुम्हारा इरादा उऩ्हें तकलीफ देने का नहीं है।

लेकिन हाँ, तुम सावधान जरूर रहना। श्रद्धाहीन व्यक्तियों के चक्कर में आकर अपनी श्रद्धा को कभी ढीला म करना, सत्संग मत छोड़ना, ध्यान-भजन, जप-स्वाध्यायादि का त्याग मत करना। जैसे दमा, टी.बी. आदि से ग्रस्त मरीज की हम सेवा तो करते हैं लेकिन उसके कीटाणु हमें न लगें इस बात की सावधानी भी रखते हैं। ऐसे ही जो अश्रद्धा के कीटाणु से ग्रस्त हों रहे हों, ऐसे लोगों के बीच रहे, उऩकी ʹहाँʹ में हाँ मिलाते रहें तो फिर तुम्हारी श्रद्धा को भी आँच आने लगेगी और ध्यान-भजन में रूचि कम होती जायेगी।

उन व्यक्तियों से, उन वस्तुओं से, उन परिस्थितियों से, उन बातों से और संसर्ग से बचो जो तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति और प्रेमरस को सुखाते हों। उन्हीं व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों का अवलंबन लो जिनसे तुम्हारे हृदय में श्रद्धा, भक्ति और प्रेम का स्रोत प्रगट होने में मदद मिले। श्रीकृष्ण कहते हैं-

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।

श्रद्धालु ही उस परम ज्ञान को पाता है और ज्ञान से परम शांति का अनुभव यहीं कर लेता है।

सुधन्वा के पिता, चम्पकपुरी के नरेश हंसध्वज ने एक बार अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पकड़कर बाँध दिया तथा राजगुरु शंख एवं लिखित की आज्ञा से यह घोषणा कर दी गयी कि नियत समय तक सब योद्धा रणक्षेत्र में उपस्थित हो जायें। जो ठीक समय पर नहीं पहुँचेगा, उसे उबलते हुए तेल के कढ़ाहे में डाल दिया जायेगा।

आदेश का पालन करते हुए बाकी के सब योद्धा एवं अन्य राजकुमार तो निश्चित समय पर पहुँच गये, किन्तु सबसे छोटे राजकुमार सुधन्वा किसी कारणवश नहीं पहुँच सके। भक्त सुधन्वा को थोड़ी देर हो गयी अतः आज्ञा के मुताबिक सुधन्वा को खौलते कढ़ाहे में डाला गया, किन्तु हरिचिंतन के प्रभाव से सुधन्वा का बाल तक बाँका न हुआ।

सुधन्वा जान गये थे कि ʹमेरे पिता को चढ़ाने-भढ़काने वाले दो मंत्री हैं- शंख और लिखित। इन दोनों के कारण मेरे पिता को इतना क्रोध आ गया है।ʹ सुधन्वा भगवदभक्त तो थे ही, प्रभु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी अतः उन्होंने प्रार्थना कीः ʹयदि मैं निष्कपट भाव से हरि को अपना और अपने को हरि का मानता हूँ तो हरि सर्वत्र हैं, वे ही मेरी सहायता करें….ʹ

सुधन्वा के लिए तेल शीतल हो गया और उनका एक रोम तक न झुलसा ! लोगों को आश्चर्य हुआ कि यहाँ कोई षडयंत्र तो नहीं है। तब कढ़ाहे में नारियल फैंका गया और ज्यों ही नारियल कढ़ाहे में गिरा, त्यों ही दो टुकड़े होकर इतने जोर से उछला कि एक टुकड़ा दूर खड़े शंख के सिर पर और दूसरा टुकड़ा लिखित के सिर पर जा गिरा।

दोनों को परिचय मिल गया कि श्रद्धावान भक्तों के जीवन में हस्तक्षेप करने का परिणाम बड़ा खतरनाक होता है।

संत सताये तीनों जाये तेज बल और वंश।

ऐड़ा ऐड़ा कई गया रावण कौरव केरो कंस।।

हो सके  तो भगवान के भक्तों की सेवा करो अन्यथा किनारे रहो, किन्तु उऩ्हें सताओ मत। यदि तुम सताओगे तो तुम्हारा सताना वे तो थोड़ा सह लेंगे लेकिन श्रीहरि की प्रकृति जब करवट लेगी  तो बहु-बहुत भारी पड़ जायेगी।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,25 अंक 51

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