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हनुमान जी की सेवानिष्ठा


हनुमान जयंतीः 

(पूज्य बापू जी की अमृतवाणी)

सेवा क्या है ? जिससे किसी का आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक हित हो वह सेवा है। सेवक को जो फल मिलता है वह बड़े-बड़े तपस्वियों, जती-जोगियों को भी नहीं मिलता। सेवक को जो मिलता है उसका कोई बयान नहीं कर सकता लेकिन सेवक ईमानदारी से सेवा करे, दिखावटी सेवा न करे। सेवक को किसी पद की जरूरत नहीं है, सच्चे सेवक के आगे-पीछे सारे पद घूमते हैं।

कोई कहे कि ʹमैं बड़ा पद लेकर सेवा करना चाहता हूँʹ तो यह बिल्कुल झूठी बात है। सेवा में जो अधिकार चाहता है वह वासनावान होकर जगत का मोही हो जाता है लेकिन जो सेवा में अपना अहं मिटाकर दूसरे की भलाई तथा तन से, मन से, विचारों से दूसरे का मंगल चाहता है और मान मिले चाहे अपमान मिले उसकी परवाह नहीं करता, ऐसे हनुमान जी जैसे सेवक की जन्मतिथि सर्वत्र मानी जाती है। चैत्री पूर्णिमा हनुमान जयंती के रूप में मनायी जाती है।

हनुमान जी को, तो जो चाहे सेवा बोल दो, ʹभरत के पास जाओʹ तो भरत के पास पहुँच जाते, ʹसंजीवनी लाओʹ तो संजीवनी ले आते, समुद्र पार कर जाते। भारी इतने कि जिस पर्वत पर खड़े होकर हनुमान जी ने छलाँग मारी वह पाताल में चला गया। छोटे भी ऐसे बन गये कि राक्षसी के मुँह में जाकर आ गये। विराट भी ऐसे बन गये कि विशालकाय ! ब्रह्मचर्य का प्रभाव लँगोट के पक्के हनुमानजी के जीवन में चम-चम चमक रहा है।

लंका में हनुमान जी को पकड़ के लंकेश के दरबार में ले गये। हनुमान जी भयभीत नहीं हुए, उग्र भी नहीं हुए, निश्चिंत खड़े रहे। हनुमानजी की निश्चिंतता देखकर रावण बौखला गया। बौखलाते हुए हँस पड़ा, बोलाः “सभा में ऐसे आकर खड़ा है, मानो तुम्हारे लिए सम्मान-सभा है। तुमको पकड़ के लाये हैं, अपमानित कर रहे हैं और तुमको जरा भी लज्जा नहीं ! सिर नहीं झुका रहे हो, ऐसे खड़े हो मानो ये सारे सभाजन तुम्हारे सम्मान की गाथा गायेंगे।”

हनुमानजी ने रावण को ऐसा सुनाया कि रावण सोच भी नहीं सकता था कि हनुमान जी की बुद्धि ऐसी हो सकती है। हनुमानजी तो प्रीतिपूर्वक सुमिरन करते थे, निष्काम भाव से सेवा करते थे। बुद्धियोग के धनी थे हनुमानजी। हनुमानजी ने सुना दियाः

ʹमोहि न कुछ बाँधे कइ लाजा।

मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं  है। तुम बोलते हो कि निर्लज्ज होकर खड़ा हूँ, यह लाज-वाज का जाल मुझे बाँध नहीं सकता।

कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।

मैं तो प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ। चाहे बँधकर तुम्हारे पास आऊँ, चाहे आग लगाते हुए तुम्हारे यहाँ से जाऊँ, मुझे तो भगवान का कार्य करना है। मुझे लाज किस बात की ? मैं तो टुकुर-टुकुर देख रहा हूँ। तुमने मेरे स्वागत की सभा की हो या अपमान की सभा – यह तुम जानो, मैं तो निश्चिंत हूँ। मैं प्रभु के कार्य में सफल हो रहा हूँ।” सेवक अपने स्वामी का, गुरु का, संस्कृति का काम करे तो उसमें लज्जा किस बात की ! सफलता का अहंकार क्यों करे, मान-अपमान का महत्त्व क्या है ?

यह सुन क्रोध में आ के रावण ने हनुमानजी की पूँछ में कपड़ा बाँधकर आग लगाने को कहा। हनुमानजी ने  पूँछ लम्बी कर दी, अब इन्द्रजीत कहता हैः “इस पूँछ को हम ढँक नहीं सकते इतनी लम्बी पूँछ कर दी इस हनुमान ने। कहीं यह पूँछ लम्बी होकर लंका में चारों तरफ फैलेगी तो लंका भी तो जल सकती है !” घबरा गया इन्द्रजीत। हनुमान जी ने पूँछ छोटी कर दी तो ढँक गयी। दैत्य बोलते हैं- “हमने पूँछ ढँक दी, हमने सेवा की।”

जो दैत्यवृत्ति के होते हैं वे सेवा के नाम से अहंकार का चोला पहनते हैं लेकिन हनुमान-वृत्तिवाले सेवा के नाम पर सरलता का अमृत बरसाते हैं।

तो हनुमानजी ने पूँछ को सिकोड़ भी दिया लेकिन उनके पिता हैं वायुदेव, उनसे प्रार्थना कीः “पिता श्री ! आपका और अग्नि का तो सजातीय संबंध है, पवन चलेगा तो अग्नि पकड़ेगी। हे वायुदेव और अग्निदेव ! थोड़ी देर अग्नि न लगे, धुआँ हो – ऐसी कृपा करना।”

राक्षस फूँकते-फूँकते अग्नि लगाने की मेहनत कर रहे थे। रावण ने कहाः “देखो ! अग्नि क्यों नहीं लग रही ? हनुमान तुम बताओ।”

हनुमानजी ने कैसी कर्मयोग से सम्पन्न बुद्धि का परिचय दिया ! बोलेः “ब्राह्मण को जब बुलाते हैं, आमंत्रित करते हैं तभी ब्राह्मण भोजन करते हैं। अग्निदेव तो ब्राह्मणों के भी ब्राह्मणों हैं। यजमान जब तक शुद्ध होकर अग्नि देवता को नहीं बुलाता, तब तक अग्नि कैसे लगेगी ? तुम तुम्हारे दूतों के द्वारा लगवा रहे हो। तुम खुद अग्निदेव को बुलाओ। वे तो एक-एक मुख से फूँकते हैं, तुम्हारे तो दस मुख हैं।” देखो, अब हनुमानजी को ! सेवक स्वामी का यश बढ़ाता है।

हनुमान जी ने कहाः “एक-एक फूँक मारकर उसमें थूक भी रहे हो तो अशुद्ध आमंत्रण से अग्निदेव आते नहीं। तुम तो ब्राह्मण हो, पुलस्त्य कुल में पैदा हुए हो, पंडित हो।” मूर्ख को उल्लू बनाना है तो उसकी सराहना करनी चाहिए और साधक को महान बनाना हो तो उसको प्रेमपूर्वक या तो डाँट के, टोक के, उलाहने से समझाना चाहिए।

रावण को लगा कि ʹहनुमानजी की युक्ति को ठीक है। चलो, अब हम स्वयं अग्नि लगायेंगे।ʹ रावण ने अंजलि में जल लिया, हाथ पैर धोये। अब रावण ने पूरा घी छँटवा दिया, ʹ अग्नये स्वाहा।ʹ करके अग्नि देवता का आवाहन किया और बोलाः “दस-दस मुख से मैं फूँकूँगा तो अग्नि बिल्कुल प्रज्जवलित हो जायेगी ! राक्षस फूँक रहे हैं तो अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो रही है। धुआँ नाक में, आँखों में जाने से राक्षस परेशान से हो गये हैं, उन्हें जलन हो रही है।”

रावण के मन में पाप था, बेईमानी थी कि ʹदस मुखों से ऐसी फूँक मारूँगा कि पूँछ के साथ हनुमानजी भी जल जायें। इसको जलाने से मेरा यश होगा कि राम जी का खास मंत्री, जिसने छलाँग मारी तो पर्वत ऐसा दबा कि पाताल में चला गया, ऐसे बहादुर हनुमान को जिंदा जला दिया !”

अब मन में बेईमानी है और अग्नि देवता का सेवक बन रहा है। फूँक तो मारी लेकिन हनुमानजी तो क्या जलें, उस आग में उसकी दाढ़ी और मूँछें जल गयीं, नकटा हो गया। जो सेवा का बहाना करके सेवा करता है उसकी ऐसी ही हालत होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 231

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अनन्य निष्ठा का संदेश देते हैं हनुमानजी


हनुमान जयंती

स्वयं प्रभु श्रीराम जिनके ऋणि बन गये, जिनके प्रेम के वशीभूत हो गये और सीताजी भी जिनसे उऋण न हो सकीं, उन अंजनिपुत्र हनुमानजी की रामभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता। लंकादाह के बाद वापस आने पर उनके लिए प्रभु श्रीराम को स्वयं कहना पड़ाः “हे हनुमान ! तुमने विदेहराजनंदिनी सीता का पता लगा के उनका दर्शन कर और उनका शुभ समाचार सुनाकर समस्त रघुवंश की तथा महाबली लक्ष्मण की और मेरी भी आज धर्मपूर्वक रक्षा कर ली। परंतु ऐसे प्यारे संवाद देने वाले हनुमानजी का इस कार्य के योग्य हम कुछ भी प्रिय नहीं कर सकते। यही बात हमारे अंतःकरण में खेद उत्पन्न कर रही है। जो हो, इस समय हमारा हृदय से आलिंगनपूर्वक मिलना ही सर्वस्वदान-स्वरूप महात्मा श्रीहनुमानजी का कार्य के योग्य पुरस्कार होवे।”

(बाल्मीकिक रामायणः 6.1.11.13)

श्रीराम-राज्यभिषेक के बाद जब जानकी जी ने हनुमान जी को एक दिव्य रत्नों का हार प्रसन्नतापूर्वक प्रदान किया तब वे उसमें राम-नाम को ढूँढने लगे। तब प्रभु श्रीराम ने हनुमानजी से पूछाः “हनुमान ! क्या तुमको हमसे भी हमारा नाम अधिक प्यारा है?” इस पर हनुमान जी ने तुरंत उत्तर दियाः “प्रभो ! आपसे तो आपका नाम बहुत ही श्रेष्ठ है, ऐसा मैं बुद्धि से निश्चयपूर्वक कहता हूँ। आपने तो अयोध्यावासियों को तारा है परंतु आपका नाम तो सदा-सर्वदा तीनों भुवनों को तारता ही रहता है।”

यह है ज्ञानियों में अग्रगण्य हनुमानजी की भगवन्नाम-निष्ठा ! हनुमानजी ने यहाँ दुःख, शोक, चिंता, संताप के सागर इस संसार से तरने के लिए सबसे सरल एवं सबसे सुगम साधन के रूप में भगवन्नाम का, भगवन्नामयुक्त इष्टमंत्र का स्मरण किया है, इष्टस्वरूप का ज्ञान और उसके साथ साक्षात्कार यह सार समझाया है।

श्री हनुमानजी का यह उपदेश सदैव स्मरण में रखने योग्य हैः ‘स्मरण रहे, लौकिक क्षुद्र कामना की पूर्ति के लिए सर्वदा मोक्षसाधक, परम कल्याणप्रदायक श्रीराम-मंत्र का आश्रय भूलकर भी नहीं लेना चाहिए। श्रीरामकृपा से मेरे द्वारा ही अभिवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी। कोई भी सांसारिक काम अटक जाय तो मुझ श्रीराम-सेवक का स्मरण करना चाहिए।’ (रामरहस्योपनिषदः 4.11)

हनुमान जी यह नहीं चाहते कि उनके रहते हुए उनके स्वामी को भक्तों का दुःख देखना पड़े। यदि कोई उनकी उपेक्षा कर श्रीरामचन्द्रजी को क्षुद्र कामना के लिए पुकारता है तो उन्हें बड़ी वेदना होती है।

एक बार भगवान श्रीराम ने हनुमानजी से कहाः “हनुमान ! यदि तुम मुझसे कुछ माँगते तो मेरे मन को बहुत संतोष होता। आज तो हमसे कुछ अवश्य माँग लो।” तब हनुमान जी ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना कीःक

स्नेहो मे परमो राजंस्त्वयि तिष्ठतु नित्यदा।

भक्तिश्च नियता वीर भावो नान्यत्र गच्छतु।।

श्रीराजराजेन्द्र प्रभो ! मेरा परम स्नेह नित्य ही आपके श्रीपाद-पद्मों में प्रतिष्ठित रहे। हे श्रीरघुवीर ! आपमें ही मेरी अविचल भक्ति बनी रहे। आपके अतिरिक्त और कहीं मेरा आंतरिक अनुराग न हो। कृपया यही वरदान दें।” (बाल्मीकि रामायणः 7.40.16)

अपने परम कल्याण के इच्छुक हर भक्त को अपने इष्ट से प्रार्थना में ऐसा ही वरदान माँगना चाहिए। ऐसी अनन्य भक्ति रखने वाले के लिए फिर तीनों लोकों में क्या अप्राप्य रहेगा ! हनुमानजी के लिए ऋद्धि-सिद्धि, आत्मबोध – कौन सी बात अप्राप्य रही !

अपनी अनन्य निष्ठा को एक अन्य प्रसंग में हनुमान जी ने और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त किया हैः “श्रीराम-पादारविंदों को त्यागकर यदि मेरा मस्तक किसी अन्य के चरणों में झुके तो मेरे सिर पर प्रचण्ड कालदण्ड का तत्काल प्रहार हो। मेरी जीभ श्रीराम-नाम के अतिरिक्त यदि अन्य मंत्रों का जप करे तो दो जीभवाला काला भुजंग उसे डँस ले। मेरा हृदय श्रीराघवेन्द्र प्रभु को भूलकर यदि अन्य किसी का चिंतन करे तो भयंकर वज्र उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। मैं यह सत्य कहता हूँ अथवा यह औपचारिक चाटुकारितामात्र ही है, इस बात को सर्वान्तर्यामी आप तो पूर्णरूप से जानते ही हैं, अन्य कोई जाने अथवा न जाने।”

यह है श्री हनुमान जी की अनन्य श्रीराम-निष्ठा ! हर भक्त की, सदगुरू के शिष्ट की भी अपने इष्ट के प्रति ऐसी ही अनन्य निष्ठा होनी चाहिएक।

‘प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया’ होने के नाते आपने प्रभु से यह याचना कीः “हे रघुवीर ! जब तक श्रीरामकथा इस भूतल को पावन करती रहे, तब तक निस्संदेह (भगवत्कथा-श्रवण करने के लिए) मेरे प्राण इस शरीर में ही निवास करें।।”

(बाल्मीकि रामायणः 7.40.17)

इसी कारण जहाँ-जहाँ श्रीरामकथा होती है, वहाँ-वहाँ हनुमानजी नेत्रों में प्रेमाश्रु भरे तथा ललाट से बद्धांजलि लगाये उपस्थित रहते हैं। हनुमानजी हमें भी यह संदेश देते हैं कि मनुष्य-जीवन में भगवत्प्रीति बढ़ाने वाली भगवदलीलाओं एवं भगवदज्ञान का श्रवण परमानंदप्राप्ति का मधुर साधन है। हम सभी इससे परितृप्त रहकर मनुष्य-जीवन का अमृत प्राप्त करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2011, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 220

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हनुमान जी ने भी उठाया था गोवर्धन


श्री हनुमान जयंतीः

लंका पर चढ़ाई करने हेतु समुद्र पर सेतु का निर्माणकार्य पूरे वेग से चल रहा था । असंख्य वानर ‘जय श्री राम !’ की गर्जना के साथ सेवा में जुटे थे । हनुमान जी उड़ान भर-भरके विशाल पर्वतों को श्रीरामसेतु के लिए जुटा रहे थे । दक्षिण के समस्त पर्वत सेतु में डाल दिये गये थे, इस कारण वे उत्तराखण्ड में हिमालय के समीप पहुँचे । उन्हें वहाँ द्रोणाचल का सात कोस (करीब 14 मील) का विस्तृत शिखर दिखा । पवनपुत्र ने उसे उठाना चाहा किंतु आश्चर्य ! सम्पूर्ण शक्ति लगाने पर भी वह टस-से-मस नहीं हुआ । हनुमान जी ध्यानस्थ हुए तो उन्हें उसका इतिहास पता चला । उन्होंने जान लिया कि भगवान श्री राम जी के अवतार के समय जब देवगण उनकी मंगलमयी लीला का दर्शन करने एवं उसमें सहयोग देने हेतु पृथ्वी पर अवतरित हुए, उसी समय गोलोक से पृथ्वी पर आये हुए ये महान प्रभुभक्त गोवर्धन हैं ।

हनुमान जी महिमामय गोवर्धन के चरणों में अत्यंत आदरपूर्वक प्रणाम किया और विनयपूर्वक कहाः “पावनतम गिरिराज ! मैं आपको प्रभुचरणों में पहुँचाना चाहता हूँ, फिर आप क्यों नहीं चलते ? वहाँ आप प्रभु की मंगल मूर्ति के दर्शन करेंगे और प्रभु आप पर अपने चरणकमल रखते हुए सागर पार करके लंका में जायेंगे ।”

गोवर्धन आनंदमग्न हुए बोलेः “पवनकुमार ! दया करके मुझे शीघ्र प्रभु के पास ले चलें ।”

अब तो हनुमान जी ने उन्हें अत्यंत सरलता से उठा लिया । हनुमानजी के बायें हाथ पर गोवर्धन फूल के समान हलके प्रतीत हो रहे थे ।

उधर श्रीराम जी ने सोचाः ‘गोवर्धन गोलोक के मेरे मुरलीमनोहर श्रीकृष्ण रूप के अनन्य भक्त हैं । यहाँ उन्होंने कहीं मुझसे उसी रूप में दर्शन देने का आग्रह किया तो मुझे मर्यादा का त्याग करना पड़ेगा । क्या किया जाय ?’

प्रभु सोच ही रहे थे कि उस पाँचवें दिन सौ योजन लम्बा और दस योजन चौड़ा सुविस्तृत दृढ़तम सेतु का निर्माणकार्य पूर्ण हो गया । फिर क्या था, तुरंत श्री राम जी ने आज्ञा कीः “सेतु का निर्माणकार्य पूर्ण हो गया है, अतः अब पर्वत एवं वृक्षादि की आवश्यकता नहीं है । जिनके हाथ में जो पर्वत या वृक्ष जहाँ कहीं हों, वे उन्हें वहीं छोड़कर तुरंत मेरे समीप पहुँच जायें ।”

वानरों ने दौड़ते हुए सर्वत्र श्रीराम जी की आज्ञा सुना दी । जिनके हाथ में जो पर्वत या वृक्ष थे, वे उन्हें वहीं छोड़कर प्रभु के समीप दौड़ चले । आज दक्षिण भारत में वीर वानरों के छोड़े हुए वे ही पर्वत विद्यमान हैं, वहाँ के पर्वत तो पहले सेतु के काम आ चुके थे । महामहिमाय गोवर्धन को अपने हाथ में लिए केसरीनंदन उस समय वज्रधरा तक पहुँचे ही थे कि उन्होंने प्रभु की आज्ञा सुनी । हनुमान जी ने गोवर्धन को तुरंत वहीं रख दिया किंतु उन्हें अपने वचन का ध्यान था । उसी समय उन्होंने देखा, गोवर्धन अत्यंत उदास होकर उनकी ओर आशाभरे नेत्रों से देख रहे हैं ।

हनुमान जी बोलेः “आप चिंता मत कीजिये, मेरे भ्रक्तप्राणध स्वामी मेरे वचनों की रक्षा तो करेंगे ही ।” और वे प्रभु की ओर उड़ चले ।

हनुमान जी श्रीराम जी के समीप पहुँचे । सर्वज्ञ राम जी ने समाचार पूछा तो उन्होंने कहाः “प्रभो ! मैंने गोवर्धन को आपके दर्शन व चरणस्पर्श का वचन दे दिया था किंतु आपका आदेश प्राप्त होते ही मेंने उन्हें व्रजभूमि में रख दिया है । वे अत्यंत उदास हो गये हैं । मैंने उन्हें पुनः आश्वासन भी दे दिया है ।”

भक्तवत्सल श्रीराम जी बोलेः “प्रिय हनुमान ! तुम्हारा वचन मेरा ही वचन है । गोवर्धन को मेरी प्राप्ति अवश्य होगी किंतु उन्हें मेरा मयूरमुकुटी वंशीविभूषित वेश प्रिय है । अतएव तुम उनसे कह दो कि जब मैं द्वापर में व्रजधरा पर उनके प्रिय मुरलीमनोहर रूप में अवतरित होऊँगा, तब उन्हें मेरे दर्शन तो होंगे ही, साथ ही मैं व्रज बालकों सहित उनके फल-फूल एवं तृणादि समस्त वस्तुओं का उपभोग करते हुए उन पर क्रीड़ा भी करूँगा । इतना ही नहीं, अनवरत सात दिनों तक मैं उन्हें अपनी उँगली पर धारण भी किये रहूँगा ।”

गोवर्धन के पास पहुँचकर हनुमान जी ने कहाः “गिरिराज ! आप धन्य हैं ! भक्तपराधीन प्रभु ने आपकी कामनापूर्ति का वचन दे दिया है ।” और गोवर्धन को भगवान का वचन यथावत सुनाया ।

गिरिराज आनंदमग्न हो गये । नेत्रों में प्रेमाश्रुभरे उन्होंने अत्यंत विनम्रतापूर्वक श्रीरामभक्त हनुमान जी से कहाः “आंजनेय ! आपके इस महान उपकार के बदले मैं आपको कुछ देने की स्थिति में नहीं हूँ । मैं आपका सदा कृतज्ञ रहूँगा ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2009, पृष्ठ संख्या 26,27 अंक 195

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