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Shri-Yogavashishtha

सब दुःखों का नाशकः आत्मविचार


संत श्री आसाराम जी के सत्संग प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः

“हे राम जी ! एक आत्मदृष्टि ही सबसे श्रेष्ठ है, जिसे पाने से सारे दुःख नष्ट हो जाते हैं और परमानंद प्राप्त होता है। यह आत्मचिंतन सब दुःखों का नाशक है। यह चिरकाल से तीनों तापों से तपे और जन्म मरण से थके हुए जीवों के श्रम को दूर करता है और तपन मिटाता है। अनर्थकारिणी, समस्त दुःखों की खान अविद्या को आत्मचिंतन ही नष्ट करता है।”

जप, स्मरण और ध्यान – ये सब अपनी-अपनी जगह पर ठीक हैं लेकिन आत्मविद्या का विचार अपनी जगह पर है। जप में जो मंत्र होगा उसकी आवृत्ति होते-होते रजो-तमोगुण क्षीण होगा, सत्वगुण की अभिवृद्धि होगी। स्मरण में बार-बार वृत्ति इष्ट की ओर जायेगी तो चित्तवृष्टि इष्टाकार बनेगी। एक ही जगह पर चित्त की वृत्ति स्थित करने का अभ्यास करना अथवा निःसंकल्प होने का अभ्यास करना ध्यान है।

यज्ञ, व्रत, तप, तीर्थ आदि बहिरंग साधन हैं। जप, स्मरण, ध्यान – ये अंतरंग साधन हैं, अन्तरात्मा के निकटवाले हैं। फिर भी आत्मविचार के आगे ये साधन भी बहिरंग हैं। आत्मविचार और ज्यादा अंतरंग हैं। अविद्या का नाश आत्मविचार से ही होता है।

सारे दुःखों की खान, सारे कष्टों का मूल अविद्या ही है। अविद्या कैसे ? जो पहले विद्यमान नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा और अभी भी नहीं की तरफ जा रहा है। ये सारा जगत, जगत के पदार्थ और जगत की परिस्थितियाँ अविद्या के कारण ही सत्य भासती हैं। अगर अविद्या हट जाय तो सब दुःख सदा के लिए नष्ट हो जायें।

अविद्या कैसे हटेगी ? अविद्या हटेगी विद्या से, अंधेरा हटेगा उजाले से। आत्मविद्या का श्रवण, मनन, निदिध्यासन करें तो सब दुःखों की मूल अविद्या हट जाती है और जीवात्मा को अपने परमेश्वर-स्वभाव का ज्ञान हो जाता है।

ऐसा नहीं कि खूब ध्यान भजन करेंगे, जप-तप करेंगे तो भगवान आ जायेंगे और अविद्या मिट जायेगी ! हाँ, इनसे भगवान तो आ सकते हैं लेकिन अविद्या नहीं मिटती है। भगवान जिससे भगवान हैं और भगवान को बुलाने वाल भक्त जिससे भक्त है उस असली स्वरूप को पहचानना ही विद्या है।

भगवान के असली स्वरूप को न पहचान कर भक्त भगवान से कुछ माँगता है और भगवान मर्यादा के अनुकूल, नीति के अनुकूल जो कुछ दे सकते हैं, वह भक्त को दे देते हैं। इससे माँगने वाला तो मँगता (भिखारी) बना रहता है और देने वाला दाता बन जाता है। माँगने वाला डरता रहता है कि देने वाले कभी रूठ न जाय ! इस प्रकार अविद्या तो बनी ही रहती है और जब तक अविद्या रहेगी तब तक भय भी बना रहेगा।

जब आत्मज्ञान सुनेंगे, उसका मनन करके उसमें शांत होते जायेंगे, मौन होते जायेंगे तो आत्मविषयिणी बुद्धि पैदा होगी। आत्मविषयिणी मति पैदा होने से अविद्या हट जायेगी। अविद्या हटते ही जीव को अपने शिवस्वरूप का बोध हो जायेगा और वह उसी में जग जायेगा।

राम जी बोलेः “हे मुनीश्वर ! आपका उपदेश दृश्यरूपी तृणों का नाशकर्ता दावानल के समान है। हे मुनीश्वर ! आपके उपदेश से मैंने पाँच विकल्प विचारे हैं। प्रथम यह कि जगत मिथ्या है और इसका स्वरूप अनिर्वचनीय है। दूसरा यह कि जगत आत्मा में आभासरूप है। तीसरा यह कि इसका स्वभाव परिणामी है। चौथा यह कि जगत अज्ञान से ही उपजा है और पाँचवा यह कि जगत अनादि और अज्ञानपर्यंत है। ज्ञान होते ही चित्त से उसका प्रभाव बाधित हो जाता है।

जगत अनिर्वचनीय है का मतलब है, इसको सत्य नहीं कह सकते क्योंकि सत्य हो तो सदा हो। इसको असत्य भी नहीं कह सकते क्योंकि असत्य हो तो दिखे नहीं। इसलिए जगत मिथ्या और अनिर्वचनीय कहा गया है।

जगत आत्मा में आभासरूप है अर्थात् जैसे जलाशय में चन्द्रमा आभासरूप है, सूरज आभासरूप है, वैसे ही परब्रह्म परमात्मा में यह जगत आभासरूप है।

जगत परिणामी है अर्थात् बदलने वाला है। कितना भी बढ़िया भोजन बनाकर रखो, दो-चार घंटे बाद देखो तो बासी हो जायेगा, सड़ना-गलना, परिणाम शुरु हो जायेगा। प्रत्येक  वस्तु में क्षण-क्षण में परिवर्तन होता ही रहता है इसीलिए इसे परिणामी कहा गया है।

जगत अविद्या से भासता है और अनादि है। जगत लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़, अरब  अथवा दस अरब वर्ष से चल रहा है, ऐसी बात नहीं है और लाख, दस लाख वर्ष बाद बंद हो जायेगा, ऐसी बात भी नहीं है। यह अनादि है और अज्ञानपर्यंत है। जब परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है तब इसकी सत्यता शांत हो जाती है। इसलिए अज्ञान को मिटाकर आत्मज्ञान पाना ही सार है।

जगत मिथ्या है, आभासरूप है, परिणामी है, अविद्या का कार्य है और अनादि, अज्ञानपर्यंत है लेकिन भगवान सत्य हैं, शाश्वत हैं, एकरस हैं, ज्ञानस्वरूप हैं और सारे गुण उन्हीं में से स्फुरते हैं। जैसे, सूर्य के अपनी जगह पर होते हुए भी धरती पर पेड़-पौधे पुष्ट हो जाते हैं, प्राणियों के शरीरों को जीवनीशक्ति मिलती है, ऐसे ही परमात्मा की सत्ता अपने-आपमें शांत हैं, उससे अंतःकरण में सारे सदगुण स्फुरित होते हैं। वासना होती है तो द्वेष स्फुरित होता है और शुभ भावना होती है तो सदगुण स्फुरित होते हैं, इन शुभाशुभ का मूल उदगम-स्थान आप परमात्मा, साक्षी चैतन्य है, उसको नहीं जानते और अविद्यमान जगत को सच्चा मानते हैं इसीलिए दुःखी हो रहे हैं। यदि आत्मविचार द्वारा एक बार भी इस जगत के मूल को, परमात्मा को जान लें तो जगत की सत्यता नष्ट हो जाती है और जगत की सत्यता नष्ट होते ही सब दुःख भी सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 8-9, अंक 107

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चित्त को वश कैसे करें ?


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में आता है किः “चित्तरूपी पिशाच भोगों की तृष्णारूपी विष से पूर्ण है और उसने फुत्कार के साथ बड़े-बड़े लोक जला दिये हैं। शम-दम आदि धैर्यरूपी कमल जल गये हैं। इस दुष्ट को और कोई नहीं मार सकता…. हे राम जी ! यह चित्त शस्त्रों से नहीं काटा जाता, न अग्नि से जलता है और न किसी दूसरे उपाय से नाश होता है। साधु के संग और सत्शास्त्रों के विचार से नाश होता है।”

चित्तरूपी पिशाच को, मन रूपी भूत को समझाने के लिए वशिष्ठजी महाराज कहते हैं। ‘शम’ माने मन को रोकना, ‘दम’ माने इन्द्रियों को रोकना और भगवान में लगाना। इन शम दमादि सारे सदगुणों को चित्तरूपी पिशाच ने नष्ट कर दिया है। इस चित्तरूपी पिशाच को शनैः शनैः वश करने का यत्न करना चाहिए। नियम में निष्ठा रखें एवं अपने को व्यस्त रखें। सत्प्रवृत्ति, सत्कर्म में ऐसे लगे रहो कि दुष्प्रवृत्ति और दुष्कर्म के विषय में सोचने का समय ही न मिले, करने की बात तो ही दूर रही।

‘खाली दिमाग शैतान का घर’ होता है अतः अपने को व्यस्त रखें। अपने समय का सदुपयोग करें। सत्पुरुषों के रास्ते चलें, ईश्वर के नाम का आश्रय लें। इसी से अपना मंगल होता है, कल्याण होता है।

यह चित्तरूपी पिशाच जो जन्म-मरण के चक्कर में ले जाता है, विकारों में तपाता है वह शस्त्रों से काटा नहीं जाता, आग से जलाया नहीं जाता और न ही अन्य हथियारों से नष्ट किया जा सकता है। यह तो केवल संतों के संग, सत्शास्त्रों के विचार और भगवन्नाम के जप से ही शांत होता है और बड़े लाभ को प्राप्त कराता है।

बड़े में बड़ा लाभ है-आत्मसुख, हृदय का आनंद, हृदयेश्वर का बोध प्राप्त हो जाय। फिर सुख और दुःख की चोट नहीं लगती। दिव्य ज्ञान की, दिव्य आनंद की दिव्य प्रेरणा मिलती है। अपने आत्मखजाने की प्राप्ति होने से सारे दुःख सदा के लिए मिट जाते हैं। ऐसा पुरुष स्वयं तो परमसुख पाता ही है दूसरों को भी सुख देने में सक्षम हो जाता है।

जरूरत है तो केवल चित्तरूपी वैताल को वश करने की। ईश्वर में मन लगता नहीं है इसलिए इधर-उधर भटकता है। जप-ध्यान, सेवा में नियम से लगता नहीं है, इधर-उधर की बातों में ज्यादा लगता है। अतः यत्नपूर्वक मन को जप ध्यान-सेवा में लगायें। इधर-उधर के फालतू विचार आयें तो मन को कह दें-खबरदार ! मेरा मनुष्य जीवन है और परमात्मा में लगाना है। मन ! तू इधर-उधर की बातें कब तक सुनेगा और सुनायेगा ? एक-दूसरे के झगड़े में, टाँग खींचने में अथवा विकारों में कब तक खपता रहेगा ?”

जो अपना समय एक-दूसरे को लड़ाने में, टाँग खींचने में अथवा विकारों में नष्ट करते हैं, उऩका विनाश हो जाता है। फिर वे ‘कोचमैन’ का घोड़ा बनकर भी कर्म नहीं काट सकते और कुम्हार का गधा बनने पर भी उनके पूरे कर्म नहीं कटते। सुअर, कुत्ता, पेड़-पौधा आदि कई योनियों में भटकते हैं फिर भी कर्मों का अंत नहीं होता।

केवल मनुष्य जन्म में ही जीव सारे कर्मों का अन्त करके अनंत को पा सकता है। मनुष्य जीवन बड़ी कीमती है। इस कीमती समय को जो गप-शप में खर्चता है उसके जैसा अभागा दूसरा कोई नहीं है। इस कीमती समय को जो दूसरों की टाँग खींचने में या निंदा-चुगली में लगाता है, उसके जैसा बेवकूफ दूसरा कौन हो सकता है ? इस कीमती समय को छल-कपट करके अपने हृदय को जो मंद बना देता है उस जैसा आत्महत्यारा कौन ?

रक्षताम् रक्षताम् कोषानामपि हृदयकोषम्।

‘रक्षा करो, रक्षा करो अपने हृदय की रक्षा करो।’ इसमें मलिन विचार न आयें, इसमें छल-कपट न आये। अगर किसी कारणवश आ भी जाये तो तुरंत सचेत होकर उससे अलग हो जायें। तभी हृदय शुद्ध होगा। यदि कोई हृदय में छल कपट, बेईमानी रखता है तो जप-ध्यान पूरा फलता नहीं है।

कोई बोलते हैं किः ‘राम-राम करेंगे तो तर जायेंगे। गीध, गणिका, अजामिल आदि तर गये, बिल्वमंगल तर गये।’ लेकिन कब तरे ? जब वैश्या का रास्ता छोड़ सच्चाई से ईश्वर का रास्ता पकड़ा, ध्यान-भजन में बरकत आयी तब तरे। अजामिल ‘नारायण-नारायण’ करके तर गये। कैसे तरे कि बुराइयाँ छोड़कर अच्छे मार्ग पर कदम रखा, तब तरे। ऐसा हीं कि भलाई का काम भी करते रहे और अंदर से बुराई, छल-कपट भी करते रहे ! बुराई को बुराई जानें और जो सच्चाई है उसको सच्चाई जानें।

अपनी बुद्धि को बलवान बनायें। आत्मविषयिणी बुद्धि करें, फिर मन उसके अनुरूप चले और इन्द्रियाँ भी उसके कहने पर चलें। एक बार परब्रह्मपरमात्मा का साक्षात्कार कर लें फिर विकारों में होते हुए भी निर्विकारी नारायण में रहेंगे। भोग में रहते हुए भी आत्मयोग में रहेंगे। तमाम व्यवहार करने पर भी, जनक की तरह लेना-देना, राज्य करना पड़े फिर भी अंतःकरण में भगवत्-रस, भगवत्-ज्ञान, भगवत्-शांति बनी रहेगी।

एक बार भगवत्तत्व को पाने तक अपने चित्त की रक्षा करो, फिर तो स्वाभाविक ही सुरक्षित रहता है। जैसे एक बार दही से मक्खन निकाल दो फिर छाछ में डालो तब ऊपर ही रहेगा, ऐसे ही एक बार बुद्धि को इन विकारों से, प्रपंचों से ऊपर ऩिकालकर परमात्मसुख का स्वाद दिला दो फिर बुद्धिपूर्वक संसार में रहो तो भी कोई लेप नहीं लगता। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। (गीता) उसकी प्रज्ञा परब्रह्म में प्रतिष्ठित हो जाती है।

अतः आप भी प्रयत्न करो, पुरुषार्थ करो, शाश्वत फल पाओ। प्रज्ञा को परब्रह्म में प्रतिष्ठित करके मोक्ष सुख को पा लो। स्वर्ग भी जहाँ फीका हो जाय उस आत्म-परमात्म सुख को दाँव पर लगा कर वृद्ध होने वाले, बीमार होने वाले और छूट जाने वाले कल्पित शरीर के पीछे आत्मा का घात कर रहे हैं। चैतन्य-चंदन को भूले जा रहे हैं, खोय जा रहे हैं। काश ! अभी भी रुक जायें। आखिर कब तक इस नश्वर की ममता करेंगे ! शाश्वत का संगीत, शाश्वत आनंद और शाश्वत सुख को पाने के  प्रयास में लगें। ॐ शांति…. ॐ आंतरिक सुख… ॐ अंतरात्मा का माधुर्य-ज्ञान…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2001, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 105

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ईश्वरप्राप्ति कठिन नहीं है


संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता है किः

‘ईश्वर हमसे दूर नहीं है, उसमें और हम में भेद भी कुछ नहीं है तथा वह दुर्लभ भी नहीं है।’

ईश्वर को पाना कठिन नहीं है लेकिन उसका ज्ञान सुनने, विचारने को नहीं मिलता है, उसमें प्रीति नहीं होती है इसलिए उसे पाना कठिन लगता है। जैसे जिसको लिखने-पढ़ने का अभ्यास नहीं है उसे लिखना-पढ़ना कठिन लगता है ऐसे ही मन को ईश्वर विषयक अभ्यास नहीं है। जैसे, स्कूल के प्रारम्भ के दिनों में क….ख….ग… A….B….C….1….2…3… आदि लिखना कठिन लगता था लेकिन अब बड़ी सरलता से लिख लेते हो, ऐसी ही ईश्वर के विषय में है। अभ्यास की बलिहारी है।

दिले तस्वीरे है यार ! जबकि गरदन झुका ली और मुलाकात कर ली।

‘मेरे भाई ने थप्पड़ मार दी…..’ याद आया तो दुःख हो रहा है। अब दुःख किसको हो रहा है ? उसको देखो। दुःख होता है मन को, अपने मन के भी द्रष्टा हो जाओ तो दुःख गायब हो जायेगा। शरीर बीमार है, ऊँह…. ऊँह… करता है। उसको भी देखो तो हँसी आ जायेगी। एक बार इस शरीर को जहरीले मलेरिया और इन्जैक्शनों के रिएक्शन से भयंकर पीड़ा का एहसास हुआ था तो ‘ऊँह… ऊँह…. ऊँह…’ निकल जाता था। मैं अपने शरीर को पूछताः ‘ऊँह…ऊँह..ऊँह.. क्या करता है ?’ ….तो हँसी निकल जाती थी। मैं फिर मन से कहताः ‘तू ऊँह…ऊँह….ऊँह… कर। मैं देखता हूँ।” तो फिर वह ऊँह….ऊँह….ऊँह…. नहीं करता था। देखने वालों को बेचारों को बड़ी पीड़ा होती थी, छुप करके रोते थे कि…..’न जाने क्या हो गया है….’ लेकिन हमको ऐसा नहीं होता था। शरीर को तो पीड़ा होती थी लेकिन हम उसे देखते थे। ऐसे ही अभ्यास हो जाये तो गहरी नींद में भी उसको देखने वाला द्रष्टा अपने को शरीर से पृथक महसूस करता है। जैसे हम दूसरे व्यक्ति को देखते हैं ऐसे ही अपनी नींद में अपने को भी देख सकते हैं। सूक्ष्मता का अभ्यास बढ़ जाने से ऐसा हो जाता है।

ऐसे ही हम दुःख को भी देख सकते हैं और सुख को भी देख सकते हैं। देखने का अभ्यास हो तो यह आसान हो जाता है। जैसे नाटक में अभिनेता कहता हैः ‘मैं राजा विक्रमादित्य हूँ…. मेरे राज्य में ऐसा नहीं चल सकता…..’ लेकिन भीतर से जानता है कि वह कौन है। थोड़ी ही देर में भिखारी का वेश बदल कर दर्शकों को द्रवित कर देता है। थोड़ी देर पहले ही उसने राजाधिराज की भूमिका अदा की थी और अब भिखमंगे की भूमिका अदा कर रहा है  लेकिन भीतर से वह अच्छी तरह से जानता है कि वह केवल भूमिका अदा कर रहा है। ऐसे ही है जिसको शरीर से पृथक्त्व का अभ्यास हो जाता है वह सुख-दुःख से पार हो जाता है।

इसमें झूठा बेईमान-कपटी आदमी सफल नहीं होता है। वह जितना छल-कपट छोड़ेगा उतना ही आगे बढ़ेगा। जितनी बेईमानी छोड़ेगा उतना ही आगे बढ़ेगा। झूठ-कपट-बेईमानी-दगाबाजी होती भी है देह को ‘मैं’ मानकर एवं संसार को सत्य मानकर सुखी होने की बेवकूफी से। यदि आत्मा को ‘मैं’ माने एवं संसार को मिथ्या जाने तो कितना भी बेईमान इन्सान होगा उसकी बेईमानी व दुर्गुण घटते जायेंगे और वह महान बन जायेगा।

सत्संग की और भगवान को पाने की महत्ता समझ में आ जाये तो मन पवित्र होने लगता है। जब तक भगवान को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाने की महिमा नहीं जानते, ईश्वर ही सार है-ऐसा नहीं जानते, तभी तक छल-कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाना ही सार है-ऐसा समझ में आ जाये तो सारे छल-कपट कम होते चले जायेंगे। सारी शिकायतें दूर होती चली जायेंगी। फिर वह अपनी गलती की सफाई नहीं देगा वरन् उसे अपनी गलती खटकेगी एवं गलती को निकालने में तत्पर बनेगा। जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसकी गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और ज्यों-ज्यों सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जायेगी। उसको पता ही नहीं चलेगा किः ‘मैं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ।’

जो गलती की सफाई देगा, चतुराई करेगा, कपट करेगा उसके जीवन में फिर सच्ची उन्नति नहीं हो सकेगी। जो औरों को धोखा देता है सको भी कोई न कोई बड़ा धोखा दे देता है। दगा किसी का सगा नहीं। झूठ-छल-कपट…. इसी से सारे दुष्कर्म उत्पन्न होते हैं और यह सब होता है शरीर एवं संसार को सत्य  मानने से। संसार को सत्य मानना, संसार की चर्चा करना, आत्मा-परमात्मा से प्रीति नहीं करना – यही सारे दुःखों का मूल है।

जो केवल परमात्मा को ही सत्य मानकर उसे पाने का यत्न करता है, उसके लिए ईश्वरप्राप्ति सरल है। जो भगवान की प्रीति, भगवान की प्रसन्नता एवं भगवदस्वरूप के ज्ञान के लिए ईमानदारी से सेवा करता है उसके लिए भगवदप्राप्ति सहज है। ऐसा साधक शीघ्र ही परमपद को पाकर समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। परमसुख स्वरूप अपने आत्मा-परमात्मा मे प्रीति और तृप्ति का अनुभव करता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2001, पृष्ठ संख्या 9-10, अंक 101

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