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विभु तत्त्व को जानकर व्यापक हो जाओ


श्रीराम नवमीः 8 अप्रैल

संत श्री एकनाथ जी महाराज ने ‘भावार्थ रामायण’ के द्वारा तात्त्विक ज्ञान की दृष्टि से भगवान श्रीराम के जीवन-चरित्र का निरूपण किया है, जो अध्यात्म के जिज्ञासुओं तथा आत्मकल्याण के इच्छुकों के लिए बहुत ही उपयोगी है।

भक्त की आत्मानंद में लीन हो जाने की स्थिति का वर्णन करते हुए संत एकनाथ जी महाराज कहते हैं- “जो त्रिभुवन में नहीं समा पाते वे ब्रह्म स्वरूप श्रीराम महारानी कौसल्या के गर्भ में स्थित थे। जो ब्रह्म त्रिभुवन में नहीं समा पाता, वह स्वयं श्रद्धाभाव में समा जाता है। साधक के मन में विशुद्ध भक्ति उत्पन्न होने पर उसे अनुभव होता है कि हृदयरूपी आकाश में सम्पूर्ण ब्रह्म (व्याप्त हो गया) है। श्रीरघुनंदन राम के रूप में पूर्ण ब्रह्म पूर्ण रूप से कौसल्या के गर्भ में आने पर वे अऩ्यान्य बातों के प्रति आत्मीयता का त्याग करके प्रेम से एकांत में रहने लगीं। उनमें देह के प्रति अनासक्त होने के लक्षण दिखाई दे रहे थे। यही अत्यधिक दृढ़ वैराग्य का लक्षण होता है। उन्होंने अपनी कल्पना का दमन करके निर्विकल्प कल्पतरू जैसे राम का आश्रय ग्रहण किया था, अतः निर्विकल्प समाधि-अवस्था को वे प्राप्त हुई थीं।

उनकी प्रवृत्ति सांसारिक बातों से विमुख होकर परमार्थ की ओर हो गयी थीं। वे सृष्टि को आत्मवत् देखने लगी थीं। जैसे किसी योगी को उन्मनी अवस्था प्राप्त हुई हो, इस प्रकार बैठी हुई अपनी धर्मपत्नी को देखकर राजा दशरथ आनंदित हुए। वे बोलेः “मन में जो दोहद (इच्छाएँ) हों, बता दो।” फिर भी उन्होंने उनके अस्तित्त्व को नहीं देखा। उनकी मनोवृत्ति रामस्वरूप में लवलीन थी। इसलिए वे व्यक्त तथा अव्यक्त को नहीं देख रही थीं। उनके उदर में निराकार ब्रह्म गर्भरूप में उदित था। इसलिए उऩ्हें देह के विषय में कोई स्मृति नहीं हो रही थी। वे स्तब्ध होकर श्रीराम को देख रही थीं। यह देखकर राजा ने कहाः “हाय ! यह सुंदरी किस प्रकार भूत-पिशाच की पकड़ में आकर बहक गयी है ! पुत्रप्राप्ति की मेरी कामना किस प्रकार सिद्ध होगी ? पुरुषोत्तम आत्माराम रघुवीर इसे किस प्रकार सिद्धि को प्राप्त करा देंगे ?”

रामनाम सुनते ही कौसल्या ने आँखें खोलीं तो सृष्टि को राममय देखा। उनका सृष्टि से संबंध टूट गया था। देह में विदेह राम व्याप्त थे। जब उऩ्होंने दसों दिशाओं की ओर देखा, तब उनमें रामरूप की मुद्रा अंकित हुई दिखाई। उनके श्वासोच्छ्वास में राम व्याप्त थे। वृक्ष, लताएँ और मंडप सबको वे रामरूप देख रही थीं। जो उदर में उत्पन्न हुए थे, वही समस्त अंगों में छलक रहे थे। उनके लिए समस्त संसार ब्रह्मरूप हो गया था।”

श्री एकनाथ जी महाराज परम अवस्था में पहुँचे साधक के बारे में कहते हैं- “जब साधक को ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उसे अऩुभव हो जाता है कि ब्रह्मत्व, ब्रह्मांड तथा ब्रह्म से उत्पन्न पंच महाभूत तथा जीव-अजीव की परम्परा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। तब वह अऩुभव करता है कि मैं ब्रह्म हूँ, मेरा शत्रु भी ब्रह्म है, मेरे सन्मित्र, बंधुजन ब्रह्म ही हैं।”

ब्रह्म को धारण करने से सर्वत्र ब्रह्मदर्शन की जो दृष्टि, ज्ञानमयी समाधि की जो स्थिति कौसल्या जी की हुई थी, आनंदमयी माँ, रानी मदालसा या साँईं लीलाशाह जी महाराज, कबीर जी, नानक जी व अन्य सत्पुरुषों की हुई थी, वही आपकी भी हो सकती है।

आप भी अपने भीतर आत्माराम को धारण करो। अंतर्मुख होकर तो माई-भाई, रोगी-निरोगी, बाल-वृद्ध, सभी लोग आत्मराम को पा सकते हैं। मनुष्यमात्र आत्मप्राप्ति का अधिकारी है। राजा दशरथ के घर में भगवान राम ने अवतार लिया था पर राम केवल इतने ही नहीं हैं बल्कि जो सदा, सर्वकाल और सर्वदेश में व्याप्त हैं और अपना आत्मा बनकर भी बैठे हैं वही राम हैं।

एक राम घट-घट में बोले, दूजो राम दशरथ घऱ डोले।

तीजो राम का सकल पसारा, ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

जितना हम राम को दिव्य समझकर उनकी उपासना करेंगे, उतने ही हम दिव्यता की ओर बढ़ते जायेंगे। हम राम को जितना व्यापक मानेंगे उतने हम भी व्यापक होते जायेंगे और व्यापक होते-होते एक ऐसी वेला आयेगी जब सारी सीमाएँ, संकीर्णताएँ ध्वस्त होकर असीम रामतत्त्व का, अपने अद्वैत निजस्वरूप का ज्ञान हो जायेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2014, पृष्ठ संख्या 20, अंक 255

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ऐसे थे भगवान श्रीराम !


(श्रीरामनवमीः 1 अप्रैल)

(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी)

देवताओं ने देखा कि रावण के उपद्रव से प्रजा बहुत दुःखी है, त्राहिमाम् पुकार रही है। यज्ञ आदि पुण्यकर्म नहीं हो रहे हैं। देवताओं की, पितरों की तृप्ति का कार्य भी रावन नहीं करने देता है। इसलिए देवताओं ने ब्रह्माजी की आराधना की। ब्रह्माजी प्रकट हुए तो देवताओं ने लोगों की व्यथा सुनायी कि ʹरावण अपने अहं की प्रधानता से सर्वेसर्वा होकर बैठा है।ʹ

ब्रह्मा जी ने कहाः ʹʹरावण तो शिवभक्त है। उसे तो शिवजी का आशीर्वाद है। अतः उनके पास चलो।”

शिवजी के पास गये, स्तुति की। शिवजी प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी की आगेवानी में देवताओं ने प्रार्थना कीः “हे देव ! कुछ कृपा कीजिये। रावण की उद्दण्डता से प्रजा पीड़िता है, त्राहिमाम् पुकार रही है।” रावण शिवजी का तो भक्त था लेकिन मूल में भगवान नारायण का खास पार्षद था। शिवजी ने सोचा कि ʹनारायण के पार्षद को मैंने ही वरदान दिये हैं। अब मैं ही उससे भिड़ूँ यह ठीक नहीं है। जिनका पार्षद है, वे ही निर्णय करें।ʹ पहले से ही नियति थी उनकी तो शिवजी ने कहाः “आप यहीं भगवान नारायण की स्तुति करके उनका आवाहन करो। भगवान नारायण ही रास्ता निकालेंगे।”

छोटी-मोटी समस्या होती है तो ब्रह्माजी हल कर देते हैं, बीच की होती है तो शिवजी बोल देते हैं लेकिन यह बड़ी समस्या थी क्योंकि रावण कोई साधारण व्यक्ति नहीं था, बहुत सारी योग्यताएँ थीं उसमें। शिवभक्त था, यश, गन्धर्व, राक्षस सब उससे काँपते थे। सभी मनुष्य स्वर्ग जा सकें ऐसी सीढ़ी बनाने की उसकी योजना थी। अग्नि की धुआँरहित तथा समुद्र को मीठा बनाने की भी उसकी योजनाएँ थीं। भगवान विष्णु की स्तुति, आराधना की तो वे प्रकट हुए। देवताओं ने कहाः “प्रभु ! आप ही हमारी रक्षा करो।”

रावण क्या है ?

मोहरूपी रावण है। जो हम नहीं हैं उसको ʹमैंʹ मानना, इसी को बोलते हैं ʹमोहʹ। बहुत सूक्ष्म, समझने योग्य बात है।

मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।

तिन्ह से पुनि उपजहिं बहु सूला।।

श्रीरामचरित उ.कां. 120.15

मोह सारी व्याधियों का मूल है, उससे जन्म-मरण का, भव का शूल पैदा होता है।

मोहरूपी रावण को अहंकार हुआ है कि ʹमैं लंकापति रावण हूँ।ʹ अहंकार से वासनाएँ उभरीं। वासनापूर्ति के लिए दम्भ करता है और दम्भ में विघ्न आने से हिंसा होती है।

देवताओं ने कहाः “रावण के द्वारा किसी की शारीरिक हिंसा, किसी की वाचिक, किसी की मानसिक तो किसी की सैद्धान्तिक हिंसा….. हिंसा-ही-हिंसा हो रही है।”

भगवान ने कहाः “अच्छा ! तो मुझे ही आना पड़ेगा। देवताओ ! तुम निश्चिंत रहो, ब्रह्मा जी जो कहें उसके अनुसार अपने-अपने काम में लगो।”

नारायण तो चले गये। ब्रह्मा जी ने वायुदेव, वरूणदेव, कुबेर आदि को कहाः “तुम लोग भी भगवान नारायण की सहायता के लिए अलग-अलग रूप में पृथ्वी पर जन्म लो।”

पवनदेव हनुमान के रूप में आये। वरूण किसी रूप में आये, कोई जामवंत के रूप में आये, बाकी के देव भी विभिन्न वानरों के रूप में आ गये। मनुष्यरूप में आते तो उनके रहने-खाने की बहुत ज्यादा व्यवस्था, सुविधा करनी पड़ती। बंदर हैं तो चलो, पेड़ों पर रह लेंगे, पत्ते भी खा लेंगे।

मेघनाद और लक्ष्मण का युद्ध हुआ। लक्ष्मण की पत्नी थी उर्मिला और मेघनाद की पत्नी थी सुलोचना। दोनों पतिव्रताएँ थीं। अब दोनों के पातिव्रत्य जबरदस्त ! तो दोनों में से कोई योद्धा मरता नहीं, मूर्च्छित हो जाते हैं। आखिर में लक्ष्मण जी ने रामजी का ध्यान किया और दृढ़ संकल्प करके बाण मारा तो मेघनाद का हाथ कटकर सुलोचना के आँगन में जा गिरा।

सुलोचना बोलीः “मैं जीवित हूँ और मेरे पति का हाथ ! अगर मैंने पातिव्रत-धर्म का पालन किया हो तो यह हाथ मुझे लिखकर बताये कि युद्धभूमि में क्या घटित हुआ है।” हाथ में लिखा तो वह विलाप करने लगी।

रावण को समाचार मिला कि मेघनाद मर गया है तो वह शोकातुर हो गया कि ʹमेरा प्राणप्रिय आज्ञाकारी पुत्र नहीं रहा।ʹ पुत्र जितना वफादार होता है, पिता को उतना ही दुःख होता है। रोती हुई सुलोचना शोकागार में रावण के पास आयी तो रावण क्या कहता हैः “बेटी ! तेरा शोक, तेरा दुःख मैं जानता हूँ लेकिन तेरा ससुर तेरा दुःख-निवारण नहीं कर सकेगा। तू श्रीरामजी के पास जा, तेरा शोक श्रीरामचन्द्रजी मिटायेंगे।”

रावण कितना बुद्धिमान है ! साधारण हस्ती नहीं था। वह जानता था कि जो महापुरुष रामतत्त्व में जगे हैं वे ही निर्दुःख कर सकते हैं। देखो, रावण के पास सूझबूझ कितनी है ! अपनी बहू को अपने बेटे की हत्या करने वाले लक्ष्मण के भाई रामजी के पास भेजता है क्योंकि वह जानता है रामजी कौन हैं। रामजी को शत्रु मानता है पर रामजी की महिमा जानता है।

राम जी कहते हैं- “सुलोचना ! यह लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध नहीं था। बेटी ! तुम्हारे और उर्मिला के बीच का युद्ध था। तुम पतिव्रताओं में शिरोमणि हो और उर्मिला भी ऐसी है।” देखो, ध्यान देना रामजी की वाणी पर। ʹतुमत पतिव्रताओं में शिरोमणि हो, पतिव्रताओं में श्रेष्ठ हो और उर्मिला भी पतिव्रता है।ʹ रामजी मनोवैज्ञानिक ढंग से कितनी दूर का सोचकर एक-एक शब्द बोलते हैं।

“सुलोचना ! मेघनाद मारा गया, इसमें तुम्हारे पातिव्रत्य में कोई कमी नहीं है लेकिन मेघनाद ने मोह, अहंकार, वासना, दम्भ, हिंसा के प्राधान्य को मदद की थी। मेघनाद ने मोहरूपी रावण की मदद की थी। तुम्हारा पातिव्रत्य का बल अधर्म के पक्ष में खड़ा रहा और उर्मिला का पातिव्रत-बल लक्ष्मण के, धर्म के पक्ष में खड़ा रहा। मोह नहीं, यथार्थ वस्तु को जानना…. अहंकार नहीं, स्वस्वरूप में विश्रान्ति….. वासना नहीं, निर्वासना…. लक्ष्मण ब्रह्म के पक्ष में और मेघनाद मोह के पक्ष में था।

मोह सकल ब्याधिन्ह का मूला।

सुलोचना ! यह मोह की हार हुई है। मेघनाद की हार नहीं है, सुलोचना की हार नहीं है। यह मोह की हार है, अहंकार की हार है। यह सब लीला है।”

सुलोचना को समझ आ गयी तो संतुष्ट हो गयी। शोकातुर सुलोचना आत्मज्ञान में जग गयी। शत्रुपक्ष की बहूरानी को आत्मरस से तृप्त करना यह राम जी का ही तो काम है, दूसरे किसकी ताकत है ? रामजी में द्वेष नहीं है, मोह नहीं है, शोक नहीं है। सुलोचना का शोक चला गया। मोह से यह सारा संसार दुःखी होता है और मोह के जाने से यह सब खेल लगता है।

युद्ध पूरा हुआ तो इन्द्रदेव आये, बोलेः “प्रभुजी ! देवताओं का मनोरथ पूरा हुआ। रावण युद्ध में मारा गया। मेरे लिए क्या आज्ञा है ?”

बोलेः “आप अमृत की वृष्टि कर दो।”

अमृतवृष्टि हुई तो सब वानर जीवित हो गये पर राक्षस जीवित नहीं हुए। ʹअमृत सब पर गिरा था तो राक्षस जीवित क्यों नहीं हुए?ʹ – यह सवाल उठता है।

राक्षस लोग राम जी को अपना विरोधी मान कर लड़ रहे थे तो राम जी का चिंतन करते-करते मरे इसलिए वे रामजी के धाम में चले गये और जीवित नहीं हुए। यह है भगवान के चिंतन का प्रभाव !

रावण ने सोचा कि ʹहमारा शरीर राक्षसी-तामसी है, इससे भगवान की भक्ति तो कर नहीं पायेंगे। हम वैर से भी भगवान को याद करेंगे तो भी तर जायेंगे। मैं तो अपने लंकावासियों को वैकुंठ भेजना चाहता हूँ।ʹ अब रावण जैसा आज का कोई नेता हो तो मुझे बताओ तो मैं उसका सत्कार करूँगा। जीते जी तो प्रजा को सुवर्ण के घरों में रखता है, मरने के बाद वैकुंठ दिलाता है ! आज के नेता तो देश-परदेश में करोड़ों-अरबों खरबों जमा करके मर जाते हैं।

जब रामजी के साथ रावण का युद्ध हुआ तो रावण का सिर कटता और फिर लग जाता। हाथ कटे तो फिर से लग जाय क्योंकि शिवजी का वरदान था। रामजी चकित हो गये तो विभीषण ने कहा कि ʹइसकी नाभि में अमृत है इसलिए यह नहीं मरता है। इसकी वासना है कि मैं जीवित रहूँ।ʹ दृढ़ वासना का केन्द्र स्वाधिष्ठान केन्द्र होता है। यह केन्द्र रूपांतरित हो तब रावण मरता है। अमृत अर्थात् न मरने की जो पकड़ है वह नाभि में है। जब वहाँ बाण मारा तब रावण गिरा।

श्रीरामजी ने लक्ष्मण से कहाः “आज धरती से एक महायोद्धा, महाबुद्धिमान, महाप्रजापालक जा रहा है। जाओ, उनसे कुछ ज्ञान ले लो।”

देखो कितना आदर है ज्ञान का ! शत्रु से भी ज्ञान लेने को भेज रहे हैं। यह काम रामजी के अलावा कौन कर सकता है ! पर रामजी के मन में शत्रुभाव नहीं है, द्वेषभाव नहीं है।

लक्ष्मण को यह बात विचित्र लगी, बोलेः “माँ सीता का धोखे से अपहरण करके जो राक्षस ले आया, उसके लिए आप ʹमहान…. महान….ʹ बोलते हैं प्रभु ! मुझे यह समझ में नहीं आता।”

“लक्ष्मण ! सीता-अपहरण के जघन्य अपराध को छोड़ दो तो उनमें बहुत सारी योग्यताएँ थीं। जाओ, उनसे उपदेश लो।”

लक्ष्मण गये और वापस लौटकर आ गये, उपदेश नहीं मिला। रामजी ने पूछाः “उपदेश माँगने के लिए गये थे तो कहाँ खड़े थे ?”

बोलेः “उसके सिर के नजदीक।”

सिर पर चढ़कर कोई ज्ञान लिया जाता है क्या ! चरणों में बैठकर ज्ञान लिया जाता है।

उनके चरणों की तरफ खड़े रहकर विनम्र वाणी से प्रार्थना करना। चलो, मैं भी साथ में चलता हूँ।”

लक्ष्मण ने जाकर विनम्र वाणी से प्रार्थना की, तब लंकेश ने उठने की असमर्थता के कारण मन-ही-मन भक्तिभावपूर्वक राम जी को प्रणाम किया और कहाः “हे रघुनाथ ! मेरे पास समुद्र को खारेपन से रहित तथा चन्द्रमा को निष्कलंक बनाने की योजनाएँ थीं। अग्नि कहीं भी जले धुआँ न हो, धूम्र बिना की अग्नि और स्वर्ग तक की सीढियाँ मैं बनाना चाहता था ताकि सामान्य आदमी भी स्वर्ग का रहस्य जान सके और स्वर्ग का यात्रा करके आ सके। मुझे प्रजा के लिए यह सब करना था लेकिन सोचा, ʹयह बाद में करेंगे।ʹ मैंने विषय-सुख में, जरा नाच में, जरा सुंदरी के साथ वार्ता में, वाहवाही में….. पाँचों विषयों में जरा-जरा करके समय गँवा दिया। जो करने थे वे काम मेरे रह गये। इसलिए हे रामजी ! मेरे जीवन का सार यह है कि मनुष्य को अच्छे काम में देर नही करनी चाहिए और विषय-विकारों की बात को टालकर उनसे बचते हुए निर्विषय नारायण के सुख में जाना चाहिए, अन्यथा वह मारा जाता है। मेरे जैसे लंकेश की दुर्दशा होती है तो सामान्य आदमी की बात क्या करना !”

मरते समय रावण कहता हैः “हे रामचन्द्रजी ! आप तो महान हैं, आपके चरणों में मेरे प्रणाम हैं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2012, पृष्ठ संख्या 13,14,15 अंक 231

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राम-राज्यः आदर्श राज्य


(श्रीराम नवमीः 24 मार्च 2010)

पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से

रामावतार को लाखों वर्ष हो गये लेकिन श्रीरामजी अभी भी जनमानस के हृदय-पटल से विलुप्त नहीं हुए। क्यों ? क्योंकि श्रीरामजी का आदर्श जीवन, उनका आदर्श चरित्र हर मनुष्य के लिए अनुकरणीय है। ‘श्री रामचरितमानस’ में वर्णित यह आदर्श चरित्र विश्वसाहित्य में मिलना दुर्लभ है।

एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श पिता, आदर्श योद्धा और आदर्श राजा के रूप में यदि किसी का नाम लेना हो तो भगवान श्रीरामजी का ही नाम सबकी जुबान पर आता है। इसीलिए राम-राज्य की महिमा आज लाखों-लाखों वर्षों के बाद भी गायी जाती है।

भगवान श्रीरामजी के सदगुण ऐसे तो विलक्षण थे कि पृथ्वी के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय और जाति के लोग उन सदगुणों को अपना कर लाभान्वित हो सकते हैं।

श्रीरामजी सारगर्भित बोलते थे। उनसे कोई मिलने आता तो वे यह नहीं सोचते थे कि पहले वह बात शुरू करे या मुझे प्रणाम करे। सामने वाले को संकोच न हो इसलिए श्रीराम जी अपनी तरफ से ही बात शुरु कर देते थे।

श्रीरामजी प्रसंगोचित बोलते थे। जब उनके राजदरबार में धर्म की किसी बात पर निर्णय लेते समय दो पक्ष हो जाते थे, तब जो पक्ष उचित होता श्रीरामजी उसके समर्थन में इतिहास, पुराण और पूर्वजों के निर्णय उदाहरण रूप में कहते, जिससे अनुचित बात का समर्थन करने वाले पक्ष को भी लगे की दूसरे पक्ष की बात सही है।

श्रीराम जी दूसरों की बात बड़े ध्यान व आदर से सुनते थे। बोलने वाला जब तक अपने और औरों के अहित की बात नहीं कहता, तब तक वे उसकी बात सुन लेते थे। जब वह किसी की निंदा आदि की बात करता तब देखते हो कि इससे इसका अहित होगा या इसके चित्त का क्षोभ बढ़ जायेगा या किसी दूसरे की हानि होगी, तब वे सामने वाले की बातों को सुनते-सुनते इस ढंग से बात मोड़ देते कि बोलने वाले का अपमान नहीं होता था। श्रीरामजी तो शत्रुओं के प्रति भी कटु वचन नहीं बोलते थे।

युद्ध के मैदान में श्रीरामजी एक बाण से रावण के रथ को जला देते, दूसरा बाण मारकर उसके हथियार उड़ा देते फिर भी उनका चित्त शांत और सम रहता था। वे रावण से कहतेः ‘लंकेश ! जाओ, कल फिर तैयार होकर आना।’

ऐसा करते-करते काफी समय बीत गया तो देवताओं को चिंता हुई कि राम जी को क्रोध नहीं आता है वे तो समता साम्राज्य में स्थिर हैं, फिर रावण का नाश कैसे होगा ? लक्ष्मणजी, हनुमानजी आदि को भी चिंता हुई, तब दोनों ने मिलकर प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! थोड़े कोपायमान होइये।’

तब श्रीरामजी ने क्रोध का आवाहन कियाः क्रोधं आवाहयामि। क्रोध ! अब आ जा।’

श्रीरामजी क्रोध का उपयोग तो करते थे किंतु क्रोध के हाथों में नहीं आते थे। हम लोगों को क्रोध आता है तो क्रोधी हो जाते हैं, लोभ आता है तो लोभी हो जाते हैं, मोह आता है तो मोही हो जाते हैं, शोक आता है तो शोकातुर हो जाते हैं लेकिन श्रीरामजी को जिस समय जिस साधन की आवश्यकता होती थी, वे उसका उपयोग कर लेते थे।

श्रीरामजी का अपने मन पर बड़ा विलक्षण नियंत्रण था। चाहे कोई सौ अपराध कर दे फिर भी रामजी अपने चित्त को क्षुब्ध नहीं होने देते थे। सामने वाला व्यक्ति अपने ढंग से सोचता है, अपने ढंग से जीता है, अतः वह आपके साथ अनुचित व्यवहार कर सकता है परंतु उसके ऐसे व्यवहार से अशांत होना-न-होना आपके हाथ की बात है। यह जरूरी नहीं है कि सब लोग आपके मन के अनुरूप ही जियें।

श्रीरामजी अर्थव्यवस्था में भी निपुण थे। ‘शुक्रनीति’ और ‘मनुस्मृति’ में भी आया है कि जो धर्म, संग्रह, परिजन और अपने लिए – इन चार भागों में अर्थ की ठीक से व्यवस्था करता है वह आदमी इस लोक और परलोक में सुख-आराम पाता है।

कई लोग लोभ-लालच में इतना अर्थसंग्रह कर लेते हैं कि वही अर्थ उनके लिए अनर्थ का कारण हो जाता है और कई लोग इतने खर्चीले हो जाते हैं कि कमाया हुआ सब धन उड़ा देते हैं, फिर कंगालियत में जीते हैं। श्रीरामजी धन के उपार्जन में भी कुशल थे और उपयोग में भी। जैसे मधुमक्खी पुष्पों को हानि पहुँचाये बिना उनसे परागकण ले लेती है, ऐसे ही श्रीरामजी प्रजा से ऐसे ढंग से कर (टैक्स) लेते कि प्रजा पर बोझ नहीं पड़ता था। वे प्रजा के हित का चिंतन तथा उसके भविष्य का सोच-विचार करके ही कर लेते थे।

प्रजा के संतोष तथा विश्वास-सम्पादन के लिए श्रीरामजी राज्यसुख, गृहस्थसुख और राज्यवैभव का त्याग करने में भी संकोच नहीं करते थे। इसीलिए श्रीरामजी का राज्य आदर्श राज्य माना जाता है।

राम राज्य का वर्णन करते हुए ‘श्रीरामचरितमानस’ में आता हैः

बरनाश्रम निज निज धरम

निरत बेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहि सुखहि

नहिं भय सोक न रोग।।…..

‘राम-राज्य में सब लोग अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद-मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक और न कोई रोग ही सताता है।

राम-राज्य में किसी को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बतायी हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।

धर्म अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान) से जगत में परिपूर्ण हो रहा है, स्वप्न में कहीं पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति (मोक्ष) के अधिकारी हैं।

(श्रीरामचरित. उ. कां. 20.20.1,2)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 26, 27 अंक 207

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