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भारतीय संस्कृति, हिन्दू धर्म, संतों और मानवता पर हो रहा आक्रमण


जुलाई 2008 में आश्रम के अहमदाबाद गुरुकुल के दो बच्चों की आकस्मिक मृत्यु हुई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि मृत्यु नदी में डूब जाने से हुई है। गुजरात सरकार द्वारा नियुक्त त्रिवेदी जाँच आयोग ने भी इस घटना को हत्या नहीं बताया है फिर भी गुजरात पुलिस की सी.आई.डी. क्राईम ब्रांच ने आश्रम के सात संचालकों-ट्रस्टियों पर धारा 114 व 304 के अन्तर्गत मुकद्दमा दायर कर दिया। गुजरात हाई कोर्ट ने इस बेबुनियाद मुकद्दमे के लिए भी सी.आई.डी. क्राईम कड़ी फटकार लगायी तथा साधकों पर कोई भी कार्यवाही करने पर फिलहाल रोक लगा दी है।

घटनाक्रम की सत्यता यह होते हुए भी गुजरात के ‘संदेश’ अखबार द्वारा संत श्री आसाराम जी बापू एवं आश्रम के विरूद्ध द्वेष एवं ईर्ष्या से प्रेरित होकर बिना सबूत के झूठे, कपोलकल्पित, अश्लील समाचार एवं लेख छापे जाते रहे हैं। इससे करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँची है। इसके विरोध में दिनांक 28 नवम्बर को हजारों लोगों द्वारा गाँधीनगर में प्रतिवाद रैली निकाली गयी थी। इस रैली में कुप्रचारकों के सुनियोजित षडयंत्र के तहत ‘संदेश’ के गुंडों ने साधकों जैसे कपड़े पहन कर भीड़ में घुसकर पथराव किया, जिसके प्रत्युत्तर में क्रुद्ध पुलिस ने साधकों भक्तों एवं आम जनता पर, जिनमें अनेक महिलाएँ भी थीं, न सिर्फ बुरी तरह लाठियाँ बरसायीं बल्कि आँसू गैसे के 60 गोले और 8 हैंडग्रेनेड छोड़े, जैसे ये लोग आम जनता नहीं कोई खूँखार, देशद्रोही आतंकवादी हों। इसमें सैंकड़ों लोग बुरी तरह से  घायल हुए। बहुत से लोगों के हाथ-पैर भी फ्रैकचर हो गये। उनमें से 234 साधकों-भक्तों को पुलिस ने लाठियों से पीटकर घसीटते हुए अपनी गाड़ियों में डालकर थाने में बन्द कर दिया। पुलिस लाठीचार्ज में घायल जो लोग अस्पताल में भर्ती हुए थे, उन्हें भी मरहम पट्टी होने के बाद सीधा अस्पताल से उठाकर जेल में डाल दिया गया।

‘संदेश’ के लोगों द्वारा बापू जी व उनके साधकों को बदनाम करने के लिए अत्यंत सुनियोजित ढंग से यह सारा षडयंत्र रचा गया था व ‘संदेश’ के विरूद्ध हो रहे जन-आन्दोलन का रूख मोड़ने के लिए उन्होंने भी पुलिस क साधकों के खिलाफ भिड़ाना चाहा था, जबकि साधकों भक्तों ने तो 4 कि.मी. लम्बी यात्रा शांतिपूर्ण ढंग से पूरी की थी किंतु पुलिस ने इस ओर जरा भी गौर किये बिना जिस बर्बर ढंग से लाठीचार्ज किया वह अत्यंत शर्मनाक व निन्दनीय है। पुलिस के द्वारा पकड़े गये सभी लोगों को अगले दिन धारा 143, 147, 148, 149, 332, 333, 337, 338, 120(B), 186 बी.पी. एक्ट कल्म 135 आदि तथा हत्या से संबंधित धारा 307 के अंतर्गत कोर्ट में पेश कर जेल भिजवा दिया गया।

हिन्दू धर्म, संस्कृति में आस्था रखने वाले इन सीधे सादे आम लोगों को इतना कठोर दण्ड दे देने पर भी गुजरात पुलिस को संतोष नहीं हुआ। 27 नवम्बर को पुलिस की लगभग 25 गाड़ियों, 200 पुलिसकर्मियों तथा बहुत से मीडियाकर्मियों के साथ पुलिस ने आश्रम पर अचानक धावा बोल दिया। आश्रम में जो भी, जहाँ भी, जिस स्थिति में भी मिला – लातों, जूतों, लाठियों और बंदूक के कुंदों से बुरी तरह पीटते हुए दौड़ा-दौड़ा पुलिस की गाड़ियों में ठूँस दिया गया। आश्रम के मुख्य श्रद्धा केन्द्र मोक्ष कुटीर, सिद्ध वटवृक्ष, मौन साधना गृह, साधक व संत निवास के कमरे, सत्साहित्य केन्द्र, आरोग्य केन्द्र (दवाखाना), टेलिफोन ऑफिस, ऋषि प्रसाद आदि में पुलिसवालों ने स्वयं लाठियों व बंदूकों के मुट्ठों से बुरी तरह तोड़-फोड़ की एवं अंदर का सामान तहस-नहस कर दिया। शो-केस व खिड़कियों के शीशे अकारण तोड़ डाले गये। बाहर से आये कितने ही जप-अनुष्ठान कर रहे वृद्ध साधकों तथा माताओं बहनों एवं कुछ नाबालिग बच्चों को भी पीटते हुए पुलिस की गाड़ियों में भर दिया गया। यहाँ तक कि मौन मंदिर में एक सप्ताह की मौन साधना कर रहे एक साधक को दरवाजा तोड़कर बालों से पकड़कर घसीटते हुए तथा अनेक पुलिसकर्मियों द्वारा डंडे बरसाते हुए ले जाया गया। भक्तों तथा पीले कपड़े पहने साधुओं को पुलिस ने विशेष रूप से ढूँढ-ढूँढकर मारा। भजन कर रहे साधकों-साधुओं को और भी बुरी तरह से पीटा गया। बार-बार, छः-छः पुलिसवालों ने मिलकर एक-एक को मारा, क्या यही गुजरात पुलिस की इंसानियत है ? इस समस्त घटनाक्रम का साक्षी पुलिस के साथ आया हुआ इलेक्ट्रानिक मीडिया स्वयं है, जिन्होंने पुलिस के इस बर्बर कृत्य का प्रसारण अपने चैनलों पर किया।

सत्साहित्य विभाग, ऋषि प्रसाद, लोक कल्याण सेतु, कैसेट विभाग आदि के काउंटरों पर जो कुछ रुपये पैसे थे, वे भी पुलिस ने लूट लिये। साधकों को आतंकित करने के लिए पुलिस ने नदी किनारे फायरिंग भी की।

आश्रम से ले जाने के बाद गाड़ियों से उतरने के स्थान से लगभग 50 मीटर दूर बंदी साधकों को मैदान में बैठाया जाना था। उस पूरे रास्ते के दोनों तरफ लट्ठधारी पुलिस के बीसों जवान जमकर साधकों पर लाठियाँ बरसा रहे थे। सबसे ज्यादा शर्म की बात तो यह है कि गाँधीनगर पुलिस इन 200 से भी ज्यादा साधकों को 26 घँटे तक बिना किसी एफ.आई.आर., बिना किसी केस के बंदी बनाकर उनकी मार-पिटाई करती रही और भयंकर मानसिक प्रताड़ना देती रही। सारी रात गाँधीनगर पुलिस भक्तों-आश्रमवासियों को शराब पीकर पीटती रही, उन्हें मांस खाने व मदिरा पीने के लिए मजबूर करने का प्रयास करती रही। संत श्री आसाराम जी बापू के फोटो पर इन भक्तों को थूकने, जूते मारने के लिए तथा बापू जी के लिए गंदी गालियाँ बोलने के लिए मजबूर करने के भी प्रयास किये गये। भक्तों-साधकों के ऐसा करने से मना करने पर उन्हें और भी पीटा गया। 27 नवम्बर को शाम के 4 बजे जिन्हें बंदी बनाया गया था, उनमें से 192 व्यक्तियों को 28 नवम्बर को शाम 6 बजे घायल अवस्था में आश्रम लाकर छोड़ा गया। उनमें से कितने ही लोगों के हाथ पैर सिर फूट गये थे, जिन्हें सिविल व प्राइवेट अस्पतालों में तुरंत दाखिल कराना पड़ा।

मानवता को दहला देने वाले इस दृश्य के सूत्रधार ‘संदेश’ अखबार वाले थे, जिन्होंने धर्मांतरण वालों के विदेशी पैसों के बल से डेढ़ वर्ष से पाप के बाप – लोभ के प्रभाव में आकर उनका हत्था बनकर बापू जी के विरूद्ध क्या-क्या आरोप नहीं लगाये, क्या-क्या साजिशें नहीं करवायीं ! सभी कुप्रचारों, षडयंत्रों में इनके सीधे जुड़े होने की खबर ‘साजिश का पर्दाफाश’ सी.डी. द्वारा जगजाहिर हो जाने से ‘संदेश’ वालों ने कुटिलतापूर्ण चाल द्वारा रैली में अशांति फैलाकर पुलिस को आश्रम के साथ उलझा दिया और अपने पूरे आर्थिक, राजनैतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस पूरी घटना को इस तरह अंजाम दिया।

पुलिस का यह घिनौना आचरण मानवता व लोकतंत्र के नाम पर कलंक है। इसकी जितनी भर्त्सना की जाय कम है। आज तक कितनी ही धार्मक एवं राजनैतिक रैलियाँ निकाली होंगी, कलेक्टर को ज्ञापन दिये गये होंगे परंतु इतनी बर्बरतापूर्वक कभी भी पुलिस ने लाठीचार्ज, इतने आँसू गैस तथा हैंडग्रेनेड का इस्तेमाल नहीं किया होगा।

पूज्य बापू जी के खिलाफ चलाये जा रहे षडयंत्रों की पराकाष्ठा अब यहाँ तक पहुँची है कि अपराधी मनोवृत्तिवाले, चरित्रहीन राजू चांडक के मात्र कह देने भर से, बिना किसी सबूत एवं गवाह के, उस पर किये गये हमले का दोषी बापू जी को करार देते हुए उसी दिन एफ.आई.आर. दर्जद कर दी गयी। जबकि पुलिस द्वारा 27 नवम्बर को अहमदाबाद आश्रम के साधकों की बेरहमी से की गयी पिटाई व आश्रम में की गयी तोड़फोड़ के बारें में बार-बार निवेदन करने के बावजूद भी अभी तक कोई भी एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की गई।

पूज्य बापूजी से भयंकर द्वेष रखने वाले राजू चांडक द्वारा इस मामले में  बापूजी तथा उनके दो साधकों पर संदेह करना एकदम झूठा, आधारहीन तथा पूर्वाग्रह से ग्रस्त आरोप है। वस्तुतः साजिश का पर्दाफाश सी.डी. द्वारा अपने सारे झूठे आरोपों की पोल खुल जाने से बौखलाये हुआ राजू प्रतिशोधात्मक कार्यवाही के रूप में अपने ऊपर हुए गोलीकांड का दोष यदि बापू जी पर लगाता है तो इसकी सत्यता में कितना दम हो सकता है यह बात पुलिस अच्छी तरह समझ सकती है। ऐसे में केवल राजू चांडक जैसे अपराधी के कह देने मात्र से बापू जी जैसे विश्ववंदनीय संत पर पुलिस द्वारा हत्या के षडयंत्र जैसा संगीन आरोप लगाना कितना हास्यास्पद एवं आधारहीन है यह सभी लोग समझ सकते हैं। इस प्रकरण में एक प्रतिशत का हजारवाँ हिस्सा भी साधकों का हाथ नहीं हो सकता। यह नाटक भी हो सकता है और सच्चाई भी, और सचमुच में गोली लगी हो तो वह इन्हीं की टोला के लोगों की घिनौनी साजिश है। हो सकता है राजू लम्बू के स्टिंग ऑपरेशन के दौरान जिन लोगों के नाम उजागर हुए, उन लोगों ने यह करवाया हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद दिसम्बर 2009 अंक 204

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हिन्दुत्व की बात करना साम्प्रदायिकता कैसे ?


हमारी आर्य संस्कृति एक दिव्य संस्कृति है। इसमें प्राणिमात्र के हित की भावना है। हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि हिन्दुत्व अन्य मत पंथों की तरह मारकाट करके अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा की पूर्ति हेतु किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं है तथा अन्य तथाकथित शांतिस्थापक मतों की तरह हिन्दू धर्म ने यह कभी नहीं कहा कि जो हिन्दू नहीं है उसे देखते ही मार डालो और मंदिरों के अलावा सारे पूजास्थलों को नष्ट कर दो। जो हिन्दू बनेगा उसकी का उद्धार होगा दूसरे का नहीं। ऐसी बेहूदी बातें हिन्दू धर्म एवं समाज ने कभी भी स्वीकार नहीं की। फिर भी हिन्दुत्व की बात करने को साम्प्रदायिकता कहना कितना बड़ा पाप है !

हिन्दुत्व एक व्यवस्था है मानव में महामानव और महामानव में महेश्वर को प्रगट करने की। यह द्विपादपशु सदृश उच्छृंखल व्यक्ति को देवता बनाने वाली एक महान परम्परा है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उद्घोष केवल इसी संस्कृति के द्वारा किया गया है…..

विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता भारत में ही मिली है। संसार का सबसे पुराना इतिहास भी यहीं पर उपलब्ध है। हमारे ऋषियों ने उच्छृंखल यूरोपियों के जंगली पूर्वजों को मनुष्यत्व एवं सामाजिक परिवेश प्रदान किया, इस बात के लाखों ऐतिहासिक प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं।

यूनान के प्राचीन इतिहास का दावा है कि भारतवासी वहाँ जाकर बसे तथा वहाँ उन्होंने विद्या का खूब प्रचार किया। यूनान के विश्वप्रसिद्ध दर्शनशास्त्र का मूल भारतीय वेदान्त दर्शन ही है।

यूनान के प्रसिद्ध विद्वान एरियन ने लिखा हैः ‘जो लोग भारत से आकर यहाँ बसे थे, वे कैसे थे ? वे देवताओं के वंशज थे, उनके पास विपुल सोना था। वे रेशम के दुशाले ओढ़ते थे और बहुमूल्य रत्नों के हार पहनते थे।’

एरियन भारतीयों के ज्ञान, चरित्र एवं उज्ज्वल-तेजस्वी जीवन के कारण उन्हें देवताओं के वंशज कहता है। यहाँ पर उसने भारतीयों के आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास को स्पष्ट किया है।

विश्व का आदिग्रंथ ‘ऋग्वेद’ हमारे ऋषियों की ही देन है। संसार की जिस अनादिकालीन व्यवस्था को आज के बुद्धिहीन लोग संप्रदाय की दृष्टि से देखते हैं, उसी व्यवस्था से अध्यात्म का उदय हुआ है। विशुद्ध अध्यात्म विद्या के द्वारा भगवद्प्राप्ति का मार्ग इसी ने बताया जबकि यूरोप और अरब में धर्म के नाम पर हिंसा, लूट, बलात्कार जैसे पाशविक कृत्यों को ही बढ़ावा मिला, यह बात उनके इतिहास एवं धर्मग्रंथों से स्पष्ट हो जाती है।

सैमुअल जानसन के अनुसारः ‘हिन्दू लोग धार्मिक, प्रसन्नचित्त, न्यायप्रिय, सत्यभाषी, दयालु, कृतज्ञ, ईश्वरभक्त तथा भावनाशील होते हैं। ये विशेषताएँ उन्हें सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिली हैं।’

यही तो है वह आदर्श जीवनशैली जिसने समस्त संसार को सभ्य बनाया और आज भी विलक्षण आत्ममहिमा की ओर दृष्टि, जीते जी जीवनमुक्ति, शरीर बदलने व जीवन बदलने पर भी अबदल आत्मा की प्राप्ति तथा ऊँचे शाश्वत मूल्यों को बनाये रखने की व्यवस्था इसमें विराजमान है। यदि हिन्दू समाज में कहीं पर इन गुणों का अभाव भी है तो उसका एकमात्र कारण है धर्मनिरपेक्षता के भूत का कुप्रभाव। जब इस आदर्श सभ्यता को साम्प्रदायिकता का नाम दिया जाने लगा तथा कमजोर मन-बुद्धिवाले लोग इससे सहमत होने लगे तभी इन आदर्शों की हिन्दू समाज में कमी होने लगी और पश्चिमी पशुता ने अपने पैर जमा लिये। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि अन्य किसी भी मत-पंथ के अस्त होने से विश्वमानव की इतनी दुर्गति नहीं हुई जितनी हिन्दू धर्म की आदर्श जीवन-पद्धति को छोड़ देने से हुई।

मोहम्मद साहब से 156 वर्ष पूर्व हुए अरब के जिर्रहम बिन्तोई नामक प्रसिद्ध कवि की एक कविता इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है। भारतीय इतिहास के अनुसार भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने सम्पूर्ण अरब को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाया था। सम्राट विक्रमादित्य के शासन से पूर्व और उसके बाद की स्थिति का वर्णन हम वहाँ के विख्यात कवि की रचना में ही देखें तो अच्छा है। अरबी भाषा में लिखी उस कविता का अर्थ इस प्रकार हैः

‘वे अत्यन्त भाग्यशाली लोग हैं जो सम्राट विक्रमादित्य के शासनकाल में जन्मे। अपनी प्रजा के कल्याण में रत वह एक कर्तव्यनिष्ठ, दयालु एवं नेक राजा था। किन्तु उस समय खुदा को भूले हुए हम लोग (अरबवासी) इन्द्रिय विषय-वासनाओं में डूबे हुए थे, षड्यंत्र और अत्याचार करना खूब प्रचलित था। हमारे देश को अज्ञान के अंधकार ने घेर रखा था। ….अपने ही अज्ञान के कारण हम शांतिपूर्ण और व्यवस्थित जीवन से भटक गये थे। किन्तु शिक्षा का वर्त्तमान ऊषाकाल एवं सुखद सूर्यप्रकाश उस नेक चरित्र सम्राट विक्रम की कृपालुता का परिणाम है। उसका दयामय जीवन विदेशी होने पर भी हमारी उपेक्षा नहीं कर पाया। उसने अपना पवित्र धर्म हम लोगों में फैलाया (धर्म का प्रचार किया धर्मान्तरण नहीं)। उसने अपने देश से विद्वान लोग भेजे जिनकी प्रतिमा सूर्य के प्रकाश सदृश हमारे देश में चमकी। उन विद्वान और दूरद्रष्टा लोगों की दयालुता एवं कृपा से हम फिर एक बार खुदा के अस्तित्व को अनुभव करने लगे और सत्य के मार्ग पर चलने लगे। वे हमें शिक्षा देने के लिए महाराज विक्रमादित्य के आदेश पर ही यहाँ आये थे।’

(संदर्भः भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें, पी.एन.ओक)

सम्राट विक्रमादित्य के शासन ने अरब की कायापलट कर दी, हिंसा, षड्यंत्र एवं अत्याचारों की धरा पर स्वर्ग लाकर रख दिया परंतु अरब से आये मुगल शासकों ने भारत में काम किया ? अँग्रेजों ने भारत में आकर यहाँ की जनता के साथ कैसा व्यवहार किया ? यदि पत्थरदिल व्यक्ति भी उस इतिहास को पढ़े तो वह भी पीड़ा से तड़प उठेगा।

बस, यही तो अंतर है हिन्दुत्व तथा अन्य सम्प्रदायों में। इतना बड़ा अंतर होने पर भी हिन्दुत्व को अन्य सम्प्रदायों के साथ रखा जाना बहुत बड़ी मूर्खता है।

भारतीय संस्कृति के प्रति विश्वभर के महान विद्वान की अगाध श्रद्धा अकारण नहीं रही है। इस संस्कृति की उस आदर्श आचार संहिता ने समस्त वसुधा को आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति से पूर्ण किया, जिसे हिन्दुत्व के नाम से जाना  जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2002, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 110

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महात्मा गाँधी की नजर में ईसाई मिशनरियाँ


लेखकः डॉ. कमल किशोर गोयनका

ईसाई मिशनरियों का विचार था कि गाँधी को ईसाई बना लिया जाय तो भारत को ईसाई देश बनाना बहुत आसान हो जायेगा।

दक्षिण अफ्रीका में कई बार ऐसे प्रयत्न हुए और भारत आने पर कई पादरियों, ईसाई मिशनरियों तथात 80 वर्ष के ए.डब्ल्यू बेकर, 86 वर्ष की एमिली किनेर्डके जैसे अनेक ईसाइयों ने उऩ्हें ईसाई बनाने के लिए प्रेरित किया और यहाँ तक कहा किः ʹयदि आपने ईसा मसीह को स्वीकार नहीं किया तो आपका उद्धार नहीं होगा।ʹ

(ʹहरिजनःʹ 4 अगस्त 1940)

गाँधी जी ईसा मसीह और उनके जीवन तथा ʹबाइबिलʹ एवं ईसाई सिद्धान्तों की परम्परागत ईसाई व्याख्या को अस्वीकार करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत करते थे। उन्होंने 16 जून, 1927 को डबल्यू. बी. स्टोवर को पत्र में लिखा भी था किः “मैं बाईबिलʹʹ या ʹईसाʹ के जीवन की परम्परागत व्याख्या को स्वीकार नहीं करता हूँ।”

गाँधी जी ने प्रमुख रूप से ईसा के ʹदेवत्वʹ तथा ʹअवतारʹ स्वरूप का खंडन किया।

उन्होंने आर.ए.ह्यूम को 13 फरवरी, 1926 को पत्र में लिखाः “मैं ईसा मसीह को ईश्वर का एकमात्र पुत्र या ईश्वर का अवतार नहीं मानता, लेकिन मानव जाति के एक शिक्षक के रूप में उनके प्रति मेरी बड़ी श्रद्धा है।”

गाँधी जी ने अनेक बार कहा और लिखा कि वे ईसा को अन्य महात्माओं और शिक्षकों की तरह ʹमानव प्राणीʹ ही मानते हैं। ऐसे शिक्षक के रूप में वे ʹमहान्ʹ थे परन्तु ʹमहानतम्ʹ नहीं थे। (गाँधी वाङमयः खंड 34, पृष्ठ 11)

गाँधी जी ने ईसा का ईश्वर का एकमात्र पुत्रʹ होने की ईसाई धारणा का भी खंडन किया और 4 अगस्त 1940 को हरिजन में लिखाः “वे ईश्वर के एक पुत्र भर थे, चाहे हम सबसे कितने ही पवित्र क्यों न रहे हों। परन्तु हम में से हर एक ईश्वर का पुत्र है और हर कोई वही काम करने की क्षमता रखता है जो ईसा मसीह ने कर दिखाया था, बशर्ते कि हम अपने भीतर विद्यमान दिव्यत्व को व्यक्त करने की कोशिश करें।” इसके साथ गाँधी जी ने ईसा के चमत्कारों का सतर्क भाषा में खंडन किया।

महात्मा गाँधी ने ईसाई अंधविश्वासों का अनेक रूपों में खंडन किया। ʹईसा मुक्ति के लिए आवश्यक है….ʹ उनकी इस मान्यता का उन्होंने अस्वीकार किया।

(11 दिसम्बर, 1927 का पत्र)

उन्होंने ईसा द्वारा सारे पापों को घी डालने की बात का भी सतर्क खंडन किया।

(यंग इंडियाः 22 दिसम्बर, 1927)

गाँधी जी ने यह भी अस्वीकार किया कि ʹधर्मांतरण ईश्वरीय कार्य है।ʹ उन्होंने ए.ए. पॉल को उत्तर देते हुए ʹहरिजनʹ के 28 दिसम्बर, 1935 के अंक में लिखा कि ईसाई धर्म  प्रचारकों का यह कहना कि ʹवे लोगों को ईश्वर के पक्ष में खींच रहे हैं और ईश्वरीय कार्य कर रहे हैं…ʹ तो मनुष्य ने यह कार्य उसके हाथों से क्यों ले लिया है ? ईश्वर से कोई कार्य छीनने वाला मनुष्य कौन होता है तथा क्या सर्वशक्तिमान् ईश्वर इतना असहाय है कि वह मनुष्यों को अपनी ओर नहीं खींच सकता ?

(गाँधी वाङमयः खंड 61, पृष्ठ 87 तथा 494)

गाँधी जी ने लंदन में 8 अक्टूबर, 1931 को ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की मिशनरी संस्थाओं के सम्मेलन में ईसाइयों के सम्मुख कहा कि ʹगॉड के रूप में ईश्वर की, जो सबका पिता है, पूजा करना मेरे लिए उचित नहीं होगा। यह नाम मुझ पर कोई प्रभाव नहीं डालता, पर जब मैं ईश्वर को राम के रूप में सोचता हूँ तो वह मुझे पुलकित कर देता है। ईश्वर को गॉड के रूप में सोचने से मुझमें वह भावावेश नहीं आता जो ʹरामʹ के नाम से आता है। उसमें कितनी कविता है ! मैं जानता हूँ कि मेरे पूर्वजों ने उसे ʹरामʹ के रूप में ही जाना है। वे राम के द्वारा ही ऊपर उठे हैं और मैं जब राम का नाम लेता हूँ तो उसी शक्ति से ऊपर उठता हूँ। मेरे लिए गॉड नाम का प्रयोग, जैसा कि वह बाइबिल में प्रयुक्त हुआ है, सम्भव नहीं होगा। उसके द्वारा सत्य की और मेरा उठना मुझे सम्भव नहीं लगता। इसलिए मेरी समूची आत्मा आपकी इस शिक्षा को अस्वीकार करती है कि ʹरामʹ मेरा ईश्वर नहीं है।ʹ

(गाँधी वाङमयः खंड 48, पृष्ठ 141)

महात्मा गाँधी ने 2 मई, 1933 को पं. जवाहरलाल नेहरू को पत्र में लिखाः “हिन्दुत्व के द्वारा मैं ईसाई, इस्लाम और कई दूसरे धर्मों से प्रेम करता हूँ। यह छीन लिया जाये तो मेरे पास रह ही क्या जाता है ?” …..और इसीलिए वे हिन्दू धर्म की रक्षा करना चाहते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं किः “हिन्दू धर्म की सेवा और हिन्दू धर्म की रक्षा को छोड़कर मेरी कोई दूसरी प्रवृत्ति ही नहीं है।”

(गाँधी वाङमयः खंड 37, पृष्ठ 100)

गाँधी जी एक और तर्क देते हैं। वे कहते हैं किः “धर्म ऐसी वस्तु नहीं जो वस्त्र की तरह अपनी सुविधा के लिए बदला जा सके। धर्म के लिए तो मनुष्य विवाह, घर-संसार तथा देश तक को छोड़ देता है।”

(मणिलाल गाँधी को लिखे पत्र से, 3 अप्रैल 1926)

ईसाई मिशनरियों का यह तर्क था कि वे भारत को शिक्षित, संस्कारी तथा धार्मिक बनाना चाहते हैं, तो गाँधी जी ने इन मिशनरियों से कहा किः “जो भारतवर्ष का धर्मपरिवर्तन करना चाहते हैं, उनसे यही कहा जा सकता है किः हकीमजी पहले अपना इलाज कीजिये न ?”

(ʹयंग इंडियाःʹ 23 अप्रैल, 1931)

गाँधी जी आगे कहते हैं किः “भारत को कुछ सिखाने से पहले यहाँ से कुछ सीखना, कुछ ग्रहण करना होगा।”

(ʹयंग इंडियाʹ 11 अगस्त, 1927)

ʹक्या मनुष्य का धर्मान्तरण हो सकता है ?ʹ महात्मा गाँधी ने अनेक बार इस प्रश्न का भी उत्तर दिया था। उनका मत था कि यह सम्भव नहीं है, क्योंकि कोई भी पादरी या धर्म प्रचारक नये अनुयायी को यह कैसे बतलायेगा कि ʹबाइबिलʹ का वह अर्थ ले जो वह स्वयं लेता है ? कोई भी पादरी या मिशनरी ʹबाइबिलʹ से जो प्रकाश स्वयं लेता है, उसे किसी भी दूसरे मनुष्य के हृदय में शब्दों के द्वारा उतारना सम्भव नहीं है।”

(ʹहरिजनʹ 12 दिसम्बर, 1936)

गाँधी जी कई बार नये बने ईसाइयों की दुश्चरित्रता तथा मिशनरियों के कुकृत्यों का उल्लेख करते हैं। वे अपनी युवावस्था की एक घटना की चर्चा करते हुए कहते हैं-

“मुझे याद है, जब मैं नौजवान था उस समय एक हिन्दू ईसाई बन गया था। शहर भर जानता था कि नवीन धर्म में दीक्षित होने के बाद वह संस्कारी हिन्दू ईसा के नाम पर शराब पीने लगा, गोमांस खाने लगा और उसने अपना भारतीय लिबास छोड़ दिया। आगे चलकर मुझे मालूम हुआ, मेरे अनेक मिशनरी मित्र तो यही कहते हैं कि अपने धर्म को छोड़ने वाला ऐसा व्यक्ति बन्धन से छूटकर मुक्ति और दारिद्रय से  छूटकर समृद्धि प्राप्त करता है।”

(यंग इंडियाः 20 अगस्त, 1925)

“अभी कुछ दिन हुए, एक मिशनरी एक दुर्भिक्षपीड़ित अंचल में पैसा लेकर पहुँच गया। अकाल पीड़ितों को उसने पैसा बाँटा, उन्हें ईसाई बनाया, फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुड़वा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है ? जिन हिन्दुओं ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था, उनका अधिकार तो उस मंदिर पर नहीं रहा था और ईसाई मिशनरी का भी उस पर कोई हक नहीं था, पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचता है और जो कुछ ही समय पहले यह मानते थे कि उस मंदिर में ईश्वर का वास है, उन्हीं के हाथ से उसे तुड़वा डालता है।”

(गाँधी वाङमयः खंड 61, पृष्ठ 49)

गाँधी जी ईसाई धर्म के एक और ʹव्यंग्य चित्रʹ की ओर मिशनरियों का ध्यान आकर्षित करते हैं कि यदि मिशनरियों की संख्या बढ़ती है तो हरिजनों में आपस में ही लड़ाई-झगड़े और खून खराबे की घटनाएँ बढ़ेंगी।

गाँधी जी इसी कारण ईसाइयों के धर्मान्तरण को ʹअशोभनʹ, ʹदूषितʹ, ʹहानिकारकʹ, ʹसंदेह एवं संघर्षपूर्णʹ, ʹअध्यात्मविहीनʹ, ʹभ्रष्ट करने वालाʹ, ʹसामाजिक ढाँचे को तोड़ने वालाʹ तथा ʹप्रलोभनों से पूर्णʹ कहते हैं। गाँधी जी का सम्पूर्ण वाङमय पढ़ जायें, ऐसी ही कटु आलोचनाओं से भरा पड़ा है।

गाँधी जी ने ईसाई मिशनरियों द्वारा चिकित्सा एवं शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कार्यों की कई बार प्रशंसा भी की, किन्तु उन्होंने इसके मूल में विद्यमान प्रलोभनों तथा उनके धर्म परिवर्तन के उद्देश्य पर गहरी चोट करते हुए एक मिशनरी से कहाः “जब तक आप अपनी शिक्षा और चिकित्सा संस्थानों से धर्मपरिवर्तन के पहलू को हटा नहीं देते, तब तक उनका मूल्य ही क्या है ? मिशन स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्रों को ʹबाइबिलʹ की कक्षाओं में भाग लेने को बाध्य क्यों किया जाता है या उनसे इसकी अपेक्षा ही क्यों की जाती है ? यदि उनके लिए ईसा के संदेशों को समझना जरूरी है तो बुद्ध और मुहम्मद के संदेश को समझना जरूरी क्यों नहीं है ? धर्म की शिक्षा के लिए शिक्षा का प्रलोभन क्यों देना चाहिए ?”

(हरिजनः 17 अप्रैल,1937)

चिकित्सा क्षेत्र में गाँधी जी ने ईसाइयों द्वारा कोढ़ियों की सेवा करने की भी तारीफ की, लेकिन यह भी कहा कि “ये सारे रोगियों और सारे सहयोगियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे धर्मपरिवर्तन करके ईसाई बन जायें।”

(हरिजनः 25 फरवरी, 1939)

गाँधी जी इन प्रलोभनों की धर्मनीति से व्याकुल थे। वे जानते थे कि अमेरिका तथा इंग्लैण्ड से ईसाई मिशनरियों के पास खूब धन आता है और उसका उपयोग मूलतः धर्मपरिवर्तन के लिए ही होता है। अतः उन्होंने स्पष्ट कहा कि  “आप ʹईश्वरʹ और ʹअर्थ-पिशाचʹ दोनों की सेवा एक साथ नहीं कर सकते।”

(यंग इंडियाः 8 दिसम्बर 1927)

इसके दस वर्ष के बाद गाँधी जी जॉन आर. मॉट से यही बात कहते हुए बोले कि “मेरा निश्चित मत है कि अमेरिका और इंगलैण्ड मिशनरी संस्थाओं के निमित्त जितना पैसा देता है, उससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक हुई है। ईश्वर और धनासुर (मेमन) को एक साथ नहीं साधा जा सकता। मुझे तो ऐसी आशंका है कि भारत की सेवा करने के लिए धनासुर को ही भेजा गया है, ईश्वर पीछे रह गया है। परिणामतः वह एक-न-एक दिन उसका प्रतिशोध अवश्य करेगा।”

(हरिजनः 26 दिसम्बर, 1936)

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय और मानवीय दोनों ही दृष्टियों से ईसाई मिशनरियों से अपनी रीति-नीति, आचरण-व्यवहार तथा सिद्धान्त-कल्पनाओं को बदलने तथा विवेक सम्पन्न बनाने का आह्वान करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि परोपकार का काम करो, धर्मान्तरण बन्द करो।

(हिन्दूः 28 फरवरी, 1916)

गाँधी जी 14 जुलाई 1927 को ʹयंग इंडियाʹ में लिखते हैं कि “मिशनरियों को अपना रवैया बदलना होगा। आज वे लोगों से कहते हैं कि उनके लिए ʹबाइबिलʹ और ईसाई धर्म को छोड़कर मुक्ति का और कोई मार्ग नहीं है। अन्य धर्मों को तुच्छ बताना तथा अपने धर्म को मोक्ष का एकमात्र मार्ग बताना उनकी आम रीति हो गयी है। इस दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन होना चाहिए।”

एक ईसाई मिशनरी से बातचीत में उन्होंने कहाः “अगर मेरे हाथ में सत्ता हो और मैं कानून बना सकूँ तो मैं धर्मांतरण का यह सारा कारोबार ही बन्द करा दूँ। इससे वर्ग-वर्ग के बीच निश्चय ही निरर्थक कलह और मिशनरियों के बीच बेकार का द्वेष बढ़ता है। यों किसी भी राष्ट के लोग सेवाभाव से आयें तो मैं स्वागत करूँगा। हिन्दू कुटुम्बों में मिशनरी के प्रवेश से वेशभूषा, रीति-रिवाज, भाषा और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है और इन सबका नतीजा यह हुआ है कि सुन्दर हरे-भरे कुटुम्ब छिन्न-भिन्न हो गये हैं।”

(हरिजनः 11 मई, 1935)

महात्मा गाँधी जैसे सहिष्णु एवं विवेकी व्यक्ति भी स्वतंत्र भारत में कानून बनाकर ईसाई धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध का प्रस्ताव करते हैं और निःसंकोच अपना संकल्प ईसाइयों के सम्मुख करते हैं।

गाँधी जी के उत्तराधिकारियों जैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू आदि ने उनके विचारों की उपेक्षा की और उसका दुःखद परिणाम आज सामने है। देश के कुछ प्रदेशों में ईसाईकरण ने सुरक्षा और एकता के लिए समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं और अब वे पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि नये स्थानों पर भी गिरिजाघर बनाने जा रहे है। विदेशी धन का प्रवाह पहले से कई गुना बढ़ गया है और ईसाई मिशनरियाँ आक्रामक बनती जा रही हैं।

गाँधी जी ने अपने विवेक, दूरदृष्टि तथा मानव-प्रेम के कारण ईसाइयों के उद्देश्यों को पहचाना था तथा उनके बीच जाकर उन्हें अधार्मिक तथा अमानवीय कार्य करने से रोकने का भी प्रयत्न किया था। उनके इस राष्ट्रीय कार्य को अब हमें क्रियान्वित करना है। ईसाई मिशनरियों को धर्मान्तरण से रोकना होगा। हमारी सरकार को इसे गम्भीरता से लेना चाहिए, अन्यथा गाँधी जी के अनुसार संघर्ष और रक्तपात को रोकना असम्भव हो सकता है।

गाँधी जी की कामना थी कि आदिवासियों (भील जाति) के मंदिर में राम की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठ हो, ईसा मसीह की नहीं, क्योंकि इससे ही इन जातियों में नये प्राणों का संचार होगा।

(नवजीवनः 18 अप्रैल, 1936)

राष्ट्र के मानवमंदिर में भी स्वदेशी ईश्वर की प्राणप्रतिष्ठा से ही कल्याण हो सकता है और यह ʹहरा-भरा देशʹ छिन्न-भिन्न होने से बचाया जा सकता है।

विशेष सूचनाः कोई भी इस लेख के परचे छपवाकर देश को तोड़ने वालों से भारत देश की रक्षा कर सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2000, पृष्ठ संख्या 19-21, अंक 90

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