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Tatva Gyan

परमात्मा का गोत्र


परमात्मा के गुणों में से एक गुण है ‘अगोत्रं‘ । वंश का जो मूल पुरुष होता है, उससे गोत्र चलता है । जैसे  पराशर, गर्ग, गौतम, शांडिल्य आदि गोत्र हैं । जिनका गोत्र ज्ञात नहीं हैं  उनके लिये धर्मशास्त्र ने नियम किया है – अज्ञातगोत्राणां सर्वेषां कश्यपगोत्रत्वम् । सब अज्ञात गोत्र लोगों का कश्यप गोत्र मानना चाहिए क्योंकि कश्यप सबके मूल पुरुष हैं । उनसे ही प्राणी सृष्टि का  विस्तार हुआ है । किंतु जो कश्यप के भी पिता-पितामह का मूल है, जो सबका कारण है, उस परमात्मा का गोत्र कैसे हो सकता है ?

परमात्मा अगोत्र है अतः वह सबका अपना स्वरूप है । परमात्मा का कोई गोत्र होता तो उसकी भी शाखा होती और तब उससे भिन्न गोत्र एवं शाखा के लोग कैसे प्राप्त कर पाते ? (नियम यह है कि यजमान और पुरोहित का गोत्र एक होना चाहिए । यदि एक गोत्र न हो तो कम से कम दोनों की शाखा तो एक होनी ही चाहिए, कारण कि प्रत्येक शाखा का गृह्यसूत्र (कुलाचार) कुछ भिन्न होता है और मंत्रोचारण शैली में भी अन्तर होता है । यजमान एवं पुरोहित की शाखा एक नहीं होगी तो दोनों के कर्म-नियमों के पालन में असंगति होगी ।)

भगवान शंकर के विवाह में जब शाखोच्चारण का समय आया तो आचार्य ने पूछाः “आपके पिता का नाम ?”

शंकर जी ने कहाः “ब्रह्मा ।”

“पितामह का नाम ?”

“विष्णु ।”

आचार्य ने फिर पूछाः ‘प्रपितामह (परदादा) का नाम ?”

कम से कम प्रपितामह तक का नामोच्चारण तो किया ही जाना चाहिए ।

शंकर जी हँसे और बोलेः “अब आप ऐसे पूछो तो सबके पिता हम स्वयं हैं ।”

परमात्मा के गोत्र में कोई मूल पुरुष नहीं है । वह स्वयं मूल – अनुपादान है – उसका कोई उपादान कारण नहीं है । जैसे घड़े का उपादान कारण (जिससे घड़ा बना वह वस्तु) मिट्टी है, उस प्रकार परमात्मा का कोई उपादान कारण नहीं है ।

तुम परमात्मा का ज्ञान चाहते हो तो जो कुछ नेत्र, कर्ण, नासिका, रसना और त्वचा से जाना जाता है, जो कुछ हाथ-पैर, जिह्वा आदि की पकड़ में आता है, उसको छोड़ो । जिसमें कार्य-कारण भाव, व्याप्य-व्यापक भाव है, उस सबको मन से निकाल दो ।

न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ।।

श्रुति कहती है कि उस परमात्मा का न कोई पिता है न स्वामी । श्रीराम जी के पिता तो दशरथ जी थे किंतु ब्रह्मा का पिता ? क्या कल्पना से भी सम्भव है ?

उस अगोत्र सर्वोपादान परमात्मा को प्राप्त करना है तो तुम्हें भी अगोत्र होना पड़ेगा । गोत्र का, देह का अभिमान छोड़ना होगा । तुम अपने को जब अमुक गोत्री कर लोगे तो उस गोत्र की शाखा में, उस शाखा में विहित कर्म में बुद्धि लगेगी । तब बुद्धि अगोत्र-परमात्मा में कैसे लगेगी ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 6, अंक 338

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आओ विचार करें कि ईश्वर कैसा है !


यह परमात्मा क्या है ? ज्ञान के सिवाय और कुछ की कल्पना छोड़ दो, बिल्कुल साक्षात् अपरोक्ष है । ज्ञान के सिवाय बाहर कोई विषय है या भीतर विषय है, यह कल्पना छोड़ दो । बाहर भीतर तो कल्पित है ज्ञान में । ज्ञान में बाहर-भीतर की एक आकृति समायी हुई है, वह तो ज्ञान में फुरनामात्र है ।

अब देखो बाहर क्या हो और भीतर क्या हो, भीतर समाधि लगे और बाहर ब्याह हो, इस कल्पना को छोड़कर जो ज्ञान है वह परमात्मा का स्वरूप है । और कल यह हो गया और आगे यह होने वाला है – इस कल्पना को छोड़ दो तो ज्ञान है । यह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध है – इस कल्पना को छोड़ दो तो ज्ञान है । यह आँख, कान, नाक, जीभ है – इस कल्पना को छोड़ दो तो ज्ञान है । यह संकल्प है यह विकल्प है, यह निश्चय है, यह अहंक्रिया है – अंतःकरण की इन वृत्तियों को छोड़ दो तो ज्ञान है । यह अपवाद की प्रक्रिया है । विक्षेप और समाधि को छोड़ दो तो ज्ञानम् है । संतोष-असंतोष को छोड़ दो ज्ञानम् है । ज्ञान में ज्ञान का विषय कुछ न हो और ज्ञान में ज्ञातापने का अभिमानी कोई न हो । और विषय में देश-काल-वस्तु सब, देश में दूर और निकट, बाहर और अंतर – यह भेद मत करो और काल में भूत-भविष्य-वर्तमान का भेद मत करो और अपने में ज्ञाता-ज्ञेय का भेद मत करो । ये सब ज्ञान के विलास हैं, ज्ञान से ही सिद्ध होते हैं । ज्ञान में ही स्थित हैं, ज्ञान में ही लीन होते हैं और ज्ञानस्वरूप तुम हो । देखो, यह तो बिल्कुल हाजरा-हुजूर है । यह भगवान कैसा ? बोले हाजरा-हुजूर । यह तो बिल्कुल हाजिर-नाजिर है माने साक्षात् अपरोक्ष है । नाजिर माने ‘साक्षात्’ । ईश्वर कैसा ? बोले हाजिर-नाजिर । ज्ञानम्

आप इसको फिर-फिर विचार करें । आप एक चित्र देख रहे हैं, जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन के रथ पर बैठ के घोड़ों का संचालन कर रहे हैं । यह रूप है, यह दृश्य है । इसका प्रतिबिम्ब जब आँख में पड़ता है, तब वह दिखाई पड़ता है ।

रूपं दृश्यं लोचनं दृक्…

चित्र दृश्य और आँख ज्ञान है । और आँख दृश्य है, मन ज्ञान है । मन दृश्य है, मैं ज्ञान हूँ । और देश-काल-वस्तु का जो भेद या द्वैत भासता है, वह मन में भासता है कारण कि सुषुप्ति (प्रगाढ़ नींद) की अवस्था में मन शांत हो जाता है तो वह द्वैत नहीं भासता । तो अद्वय, अमिट, शुद्ध, सच्चा ज्ञान कौन हुआ ? कि मैं । तो मैं से ही मन, इन्द्रिय और विषय की सिद्धि है और मैं के रहते ही इनका प्रलय है । यह अशुद्ध अद्वय ज्ञान है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 5 अंक 337

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परिप्रश्नेन….


साधकः गुरुदेव ! मन को मारना चाहिए या मन से दोस्ती करनी चाहिए ?

पूज्य बापू जीः मन से दोस्ती करेंगे तो ले जायेगा पिक्चर में, ले जायेगा ललना के पास, कहीं भी ले जायेगा मन तो । मन को मारोगे तो और उद्दंड होगा । मन से दोस्ती भी न करो, मन को मारो भी नहीं, मन को मन जानो और अपने को उसका साक्षी मानो । ठीक है ?

साधकः कितना भी प्रयत्न करने पर सुख आने पर उसमें सुखी हो जाते हैं और जब दुःख आता है तो प्रयत्न करने पर भी उसमें दुःखी हो जाते हैं । इससे कैसे बचें ?

पूज्य श्रीः प्रयत्न करने पर भी सुख का प्रभाव पड़ता है, दुःख का प्रभाव पडता है और परमात्मा में विश्रांति नहीं मिलेगी । आईना हिलता रहेगा तो चेहरा ठीक से नहीं दिखेगा । तो जब भी प्रभाव पड़ता है तब वह जानते हैं न अपन ? ‘सुखद अवस्था आयी, यह प्रभाव पड़ रहा है । प्रभाव पड़ रहा है मन, चित्त पर । उसको जानने वाला मैं कौन ?’ यह प्रश्न ला के खड़ा कर दो । दुःख का प्रभाव पड़ता है… गुस्सा आया… तो गुस्सा आया उसको मैं जान रहा हूँ ऐसा सजग रहकर फिर मैं गुस्सा करूँ तो मेरे नियंत्रण में रहेगा । सुख का प्रभाव न पड़े…. सुखी तो हम भी होते दिखते हैं और अभी (चालू सत्संग) में कोई उठ के खड़ा हो जाय तो ‘ऐ ! बैठ जा ।’ ऐसा डाँटकर बोलूँगा । तो दुःखी तो हम भी दिखेंगे लेकिन हम दुःख और सुख – दोनों को जानते हुए सब करते हैं ।

जैसा बाप ऐसा बेटा, जैसा गुरु ऐसा चेला । हमने जैसे युक्ति से पा लिया, अभ्यास कर लिया ऐसे तुम भी अभ्यास करो । यह एक दिन का काम नहीं है – सतर्क रहें, सावधान रहें । सुख में भी सावधान रहें, दुःख में भी सावधान रहें । तो सावधानी, सजगता – एक बड़ी महासाधना होती है ।

साधिकाः हम सभी साधक अनेक व्यक्तियों से मिलते हैं, अनेक परिस्थितियों से, अनेक व्यवहारों से गुजरते हैं । सबकी तरफ से हमें कुछ भी मिले लेकिन हमारी आंतरिक स्थिति मजबूत हो, हम उद्विग्न न हों, हमरे चित्त की रक्षा हो – ऐसा कैसे हो ? कभी-कभी हम फिसल जाते हैं इसमें ।

पूज्य बापू जीः ‘हम फिसले नहीं’ यह भाव बहुत तुच्छ है । फिसलें नहीं तो अच्छा है लेकिन फिसल गये तो फिर उठें । फिसलते-फिसलते भी जो उठने का यत्न करता है वह उठकर अच्छी तरह से पहुँच भी जाता है । फिसलने के डर से चले ही नहीं अथवा फिसले तो फिसल के पड़ा ही रहे, नहीं । फिसलाहट है तो उठ  के भी फिर गिरना हुआ तो पड़े रहे, नहीं । फिसले नहीं तो अच्छा है लेकिन फिसले तब भी ‘हम नहीं फिसलते हैं, मन फिसला है……ॐॐॐ इन्द्रियाँ फिसली हैं, अभी सावधान रहेंगे, मन को बचायेंगे ।’ – इस प्रकार विचार करे । अपने को फिसला हुआ मानने से फिर बल मर जाता है । इन्द्रियाँ, मन फिसलते हैं, उनको फिर उठाओ । ठीक है ?

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 34, अंक 337

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