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Tatva Gyan

परमात्म साक्षात्कार के लिए यह भजन नींव का काम करेगा –
पूज्य बापू जी



जिनका आयुष्य पूरा हो रहा है (जो मृत्युशैय्या पर हो) अथवा
जिनका शरीर शांत हो गया है उनके लिए एक भजन बनाया है ताकि
उनको ऊँची गति, मोक्षप्राप्ति में मदद मिले । मृतक व्यक्ति के लिए
रुदन नहीं करना चाहिए, कीर्तन करना चाहिए । कीर्तन तो लोग करते हैं
लेकिन मृतक व्यक्ति की सदगति करने वाला ऐसा भजन बना है कि
यह सुनो-सुनाओ तो महाकीर्तन हो जायेगा ।
ऐसा कोई शरीर है ही नहीं जो मरे नहीं । चो आप जिसका शरीर
शांत हो गया है उसकी सद्गति के लिए इस भजन के द्वारा प्रार्थना
करना और उसके लिए यह भाव करना, उसे प्रेरणा देना कि ‘तुम
आकाशरूप हो, चैतन्य हो, व्यापक हो…।’
यह भजन मृतक व्यक्ति के लिए सद्गतिदायक बनेगा और अपने
लिए भी अब से ही काम में आयेगा । सद्गति की सूझबूझ, सत्प्रेरणा
और सत्स्वरूप अंतरात्मा की मदद सहज में पायें, मृतक और आप स्वयं
अपने सत्स्वरूप में एक हो जायें ।
मृतक व्यक्ति सत्स्वरूप परमात्मा से पृथक नहीं होता, वह
पुण्यात्मा पुण्यस्वरूप ईश्वर का अविभाज्य अंग है । अपनी और उस
महाभाग की परमात्मा-स्मृति जगाइये । अर्जुन कहते हैं- नष्टो मोहः
स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं
तव ।।
ऐसे ही सभी की स्मृति जगह । भगवत्प्रसाद, भगवद्ज्ञान, भगवद्-स्मृति,
अंतरात्मा भगवान की भक्ति, प्रीति पाइये, जगाइये… जगाइये, पाइये ।

मृत्यु के जो नजदीक हैं वे भी लगें, जिनकी हो गयी हैं उनके लिए भी
करें । इससे अपने पिया स्वभाव (परमात्म-स्वभाव) को पाओगे,
अंतरात्म-स्वभाव में आओगे, विकारों से, जन्म-मरण के चक्कर से छूट
जाओगे । ॐ आनंद… ॐ शांति… ॐॐॐ प्रभु जी… ॐॐॐ प्यारे
जी… ॐॐॐ मेरे जी… ॐॐॐ अंतरात्मदेव… परमात्मदेव…। मंगलमय
जीवन और मृत्यु भई मंगलमय ! ‘
मंगलमय जीवन-मृत्यु’ पुस्तक पढ़ना उसमें भी मृतक व्यक्ति के
लिए प्रेरणा है, उसके अनुसार उसे प्रेरणा देना और जहाँ भी कोई व्यक्ति
संसार से चले गये हों अथवा जाने वाले हों वहाँ इस भजन दोहरा दिया

यह भजन परमात्म-साक्षात्कार के लिए नींव का काम करेगा,
सत्संगी-सहयोगी साथी का काम करेगा । धन्य हैं वे लोग जो इसको
सुन पाते हैं, सुना पाते हैं ! देखें वीडियो
http://www.bit.ly/sadgatibhajan
https://www.youtube.com/watch?v=yzQBgMZviek
मृतक की सद्गति के प्रार्थना
परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिये
हे नाथ ! जोड़े हाथ सब हैं प्रेम से ये माँगते ।
साँची शरण मिल जाय हिय से आपसे हैं माँगते ।।
जो जीव आया तव निकट ले चरण में स्वीकारिये ।
परमात्मा उस आत्मा को शांति सच्ची दीजिये ।।1।।
फिर कर्म के संयोग से जिस वंश में वह अवतरे ।
वहाँ पूर्ण प्रेम से आपकी गुरु भक्ति करे ।।
चौरासी लक्ष के बंधनों को गुरुकृपा से काट दे ।

है आत्मा परमात्मा ही ज्ञान पाकर मुक्त हो ।।2।।
इहलोक औ परलोक की होवे नहीं कुछ कामना ।
साधन चतुष्टय और सत्संग प्राप्त हो सदा ।।
जन्मे नहीं फिर वो कभी ऐसी कृपा अब कीजिये ।
परमात्मा निजरूप में उस जीव को भी जगाइये ।।3।।
संसार से मुख मोड़कर, जो ब्रह्म केवल ध्याय है ।
करता उसी का चिंतवन, निशदिन उसे ही गाय है ।।
मन में न जिसके स्वप्न में भी, अन्य आने पाय है ।
सो ब्रह्म ही हो जाय है, न जाय है ना आय है ।।4।।
आशा जगत की छोड़कर, जो आप में ही मग्न है ।
सब वृत्तियाँ हैं शांत जिसकी, आप में संलग्न है ।।
ना एक क्षण भी वृत्ति जिसकी, ब्रह्म से हट पाय है ।
सो तो सदा ही है अमर, ना जाय है ना आय है ।।5।।
संतुष्ट अपने आप में, संतृप्त अपने आप में ।
मन बुद्धि अपने आप में, है चित्त अपने आप में ।।
अभिमान जिसका गल गलाकर, आप में रत्न जाय है ।
परिपूर्ण है सर्वत्र सो, ना जाय है ना आय है ।।6।।
ना द्वेष करता भोग में, ना राग रखता योग में ।
हँसता नहीं है स्वास्थ्य में, रोता नहीं है रोग में ।।
इच्छा न जीने की जिसे, ना मृत्यु से घबराय है ।
सम शांत जीवन्मुक्त सो, ना जाय है ना आय है ।।7।।
मिथ्या जगत है ब्रह्म सत्, सो ब्रह्म मेरा तत्त्व है ।
मेरे सिवा जो भासता, निस्सार सो निस्तत्त्व है ।।
ऐसा जिसे निश्चय हुआ, ना मृत्यु उसको खाय है ।

सशरीर भी अशरीर है, ना जाय है ना आय है ।।8।।
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं ।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं ।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ।।
ब्रह्मस्वरूपाय नमः ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2023, पृष्ठ संख्या 27, 29 अंक 362
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तो आपके जन्म कर्म दिव्य हो जायेंगे – पूज्य बापू जी



भगवान श्री कृष्ण मध्यरात्रि 12 बजे प्रकट हुए, रामजी मध्याह्न
12 बजे प्रकट हुए और आपके बाबा जी भी मध्याह्न 12 बजे… यह
कैसी लीला है ! आत्मप्रसाद बाँटने वाले भगवद्-अवतार, संत-अवतार इस
प्रकार सुयोग्य समय में अवतरित होते हैं ।
श्रीकृष्ण ने तो खुलेआम रास्ता बता दिया है – जन्म कर्म च मे
दिव्यं… मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं ऐसा जो तत्त्व से जानता है उसके
भी जन्म, कर्म दिव्य हो जाते हैं ।
जन्म किसको बोलते हैं ? छुपी हुई वस्तु प्रकट हो, जन्मे । छुपा
हुआ अंतवाहक शरीर साकार रूप में प्रकट हुआ तो हो गया जन्म ।
अंतवाह शरीर सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं दिखेगा । यंत्रों से जीवाणु
(बेक्टीरिया) तो दिख जायेगा, और भी कई चीजें दिख जायेंगी परंतु
आत्मा अथवा सुक्ष्म शरीर यंत्रों से नहीं दिख सकता है, इतना सूक्ष्मतम
होता है ।
है तो जन्मदिन परंतु जन्म और कर्म दिव्य हो जायें ऐसी श्रीकृष्ण
की और महापुरुष की अनुभूतिवाली बात आपको सहज में मिल रही है ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्तित तत्त्वतः।… (गीताः4.9)
कर्म इन्द्रियों से होते हैं, मन से होते हैं, वासना से होते हैं, उनको
देखने वाला मैं चैतन्य हूँ ऐसी भगवान की मति को अपनी मति बना लो
तो तुम्हारे कर्म और जन्म दिव्य हो जायेंगे ।
और लोग कर्मबंधन से जन्म लेते हैं पर भगवान और संतों के
अवतार परहित के लिए होते हैं । तो साधारण जीवों का जन्म होता है,
संतों और ईश्वर का प्राकट्य होता है । जब चाहो तुम आत्मदृष्टि करो
तो प्रकट होने वाले हो गये, जीवदृष्टि करो तो जन्मने वाले हो गये,

पसंद तुम्हें करना है । जीव बनना चाहो लो बनो जीव – मैं फलानी हूँ,
फलाना हूँ… और मैं साक्षी-द्रष्टा हूँ, चैतन्य हूँ तो लो जन्म कर्म दिव्य !
बड़ा आसान है, कठिन नहीं है । लेकिन जिनको कठिन नहीं लगता है
ऐसे महापुरुषों का मिलना कठिन है, ऐसों में अपनत्व होना कठिन है,
यह हो गया तो फिर जरा-जरा बात में खिन्न होना कठिन है, पतंगे की
नाईं जरा-जरा बात में आकर्षित-प्रभावित होने वाले लल्लू-पंजू होना
कठिन है ।
अवतरण दिवस का कल्याणकारी संदेश
इस दिवस का संदेश यही है कि आप अपने जन्म और कर्म दिव्य
बनाने का पक्का संकल्प करें । और मैं कसम खा के कहता हूँ कि यह
जो शरीर का जन्म है वह वास्तव में आपका जन्म नहीं है, माँ-बाप का
विकार है । आप इसके पहले थे और इसके मरने के बाद भी रहेंगे ।
और आपको अपने कुछ नहीं चाहिए । आप सत्य हैं, शरीर मिथ्या है ।
आप नित्य हैं, शरीर अनित्य है । आप चेतन हैं, शरीर जड़ है । आप
शाश्वत हैं, शरीर मरने वाला है । इस मरने वाले को मैं मानते हैं तो
आपका जन्म तुच्छ है, मरने वाले शरीर की वस्तुओं को मेरा मानते हैं
तो आपके कर्म तुच्छ हैं और मरने के पहले जो आप थे उसको आप मैं
मानते हैं अथवा मैं को जानने के रास्ते चल रहे हैं और कर्मों में
कर्ताभाव नहीं, सेवाभाव छुपा है तो आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे । जैसे
पुरुष नहीं चाहता कि मेरे पीछे-पीछे मेरी छाया आये’ तो भी छाया आती
है ऐसे ही आप न चाहओ तो भी मुक्ति, माधुर्य, सफलता और यश
आपके पीछे लग ही जायेंगे ।
कबिरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर ।
पीछे पीछे हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ।।

शरीर को मैं माना और संसार से सुख लेने का भाव आया तो मन
मलिन हो जायेगा, खटपट चालू हो जायेगी । बातें चाहे कितनी मीठी
करो, भाषण चाहे जितन कर दो लेकिन दृष्टि किसी की जेब पर या
शरीर की सुख-सुविधा पर है तो फिर आपकी खैर नहीं है हुजूर ! आगर
दृष्टि सबके हृदय में छुपे हुए प्रभु है और सबके मंगल के लिए आपके
कर्म हैं तो आपके कर्म दिव्य हो जायेंगे, आपका जन्म दिव्य हो जायेगा

यह मैं आपसे धोखा नहीं कर रहा हूँ भाई । झूठ और कपट से
अपने आत्मा के साथ ही अन्याय होता है तो दूसरे से न्याय क्या होगा !
ज्यों-ज्यों अऩित्य संसार में प्रीति होगी और संसार से सुख चाहेगा
त्यों-त्यों झूठा, कामी, क्रोधी, लोभी, मोही, कपटी बन जायेगा । और
ज्यों-ज्यों अपने नित्य परमेश्वर से शाश्वत प्रीति की और अंतरात्मा का
सुख चाहा त्यों-त्यों कामी की जगह रामी हो जायेगा, मोही की जगह
पर निर्मोही हो जायेगा ।
मोह (अज्ञान) सब व्याधियों का मूल है । शरीर को मैं मानने से
मोह पैदा होता है । जिसका शरीर में ज्यादा मोह है वह कुटुम्ब में
आदरणीय नहीं होता, जिसका केवल कुटुम्ब में ही ज्यादा मोह है वह
पड़ोस में आदरणीय नहीं होता, जिसका केवल पड़ोस में ही मोह है वह
गाँव में आदरणीय नहीं होगा, जिसका केवल गाँव में ही मोह है वह
तहसील में आदरणीय नहीं होगा, जिसका केवल तहसील में ही मोह है
वह जिले में आदरणीय नहीं होगा परंतु जिनका किसी एक व्यक्ति या
एक दायरे से मोह नहीं है वे तो संत हैं ! उन संतों का प्राकट्य दिवस वे
स्वयं नहीं मनाना चाहते हैं तो करोड़ों लोग मनाने लग जाते हैं क्योंकि
मोह नहीं है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2023, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 363
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आखिरी बात – पूज्य बापू जी


एक बार एक ब्रह्मवेत्ता महापुरुष को उनके शिष्य-समुदाय ने घेर लिया एवं प्रार्थना कीः “गुरुदेव ! हम सब आपके दर्शन तो कई बार करते हैं लेकिन अब हमें प्रभु-तत्त्व का साक्षात्कार करना चाहिए – यह हम आपके सत्संग-प्रसाद से समझते हैं, मानते हैं । अतः अब एक बार आप हमें आखिरी बात सुनाने की कृपा कर दीजिये ।” गुरु बोलेः “हम तो ढूँढते ही रहते है कि आखिरी बात सुनने वाला कोई मिल जाय । लगता है तुम लोगों को भगवान ने ही भेजा है ।” “गुरुदेव ! अब आप आखिरी बात सुना ही दीजिये ।” “जिस किसी को आखिरी बात सुननी है वह मेरे जन्मदिन पर आ जाय ।” “किस जन्मदिन पर ?” “जिस दिन मेरे गुरुदेव ने मुझे आत्मसाक्षात्कार कराया था, जिस दिन गुरुरूप में मेरा जन्म हुआ था उस दिन तुम लोग आ जाना ।” चारों तरफ खबर फैल गयी कि अपने आत्मसाक्षात्कार के दिन गुरुदेव आखिरी बात बताने वाले हैं । अतः दूर दराज से लोग गुरु-आश्रम में एकत्र होने लगे । कई विद्वान, पंडित एवं शास्त्रज्ञ भी आये । इस प्रकार वहाँ बड़ी भीड जमा हो गयी । बड़े-बड़े मंडप बन गये । किंतु उन महापुरुष को मानो इन सबसे कोई लेना-देना ही नहीं था । वे तो अपनी कुटिया से सहज-स्वाभाविक मस्ती में बाहर निकले । ‘सद्गुरु महाराज की जय !…’ इस जयघोष से गगनमंडल गूँज उठा । जयघोष के बाद दो-चार प्रतिनिधि साधकों ने आगे बढ़कर कहाः “गुरुदेव ! आज वही दिन है जिस दिन आप आखिरी बात सुनाने वाले हैं ।” गुरुः “ठीक है, अच्छा हुआ मुझे याद दिला दिया । आज आखिरी बात सुनानी है । सब लोग तैयार होकर बैठ जाओ ।” सब शांत होकर बैठ गये ताकि गुरुदेव की आखिरी बात का एक शब्द भी कहीँ छूट न जाय । आज तो मानो कानों को भी आँखें फूट निकलीं कि ‘हम सुनेंगे भी और देखेंगे भी ।’ और मानो आँखों को कान फूट निकले कि ‘हम निहारेंगी भी और सुनेंगी भी ।’ इतने में वे महापुरुष मंच पर आये और लेट गये । 10… 20… 30… 40… 50 मिनट हो गये, घंटा… दो घंटा हो गये… शिष्यों ने सोचा कि ‘पता नहीं गुरुदेव को क्या हो गया है !’ लल्लू पंजू शिष्य तो रवाना हो गये लेकिन जो जिज्ञासु थे उन्होंने सोचा कि ‘बैठे-बैठे तो गुरुदेव को कई बार सुना है, आज वे लेट गये हैं तो लेटे-लेटे ही कुछ-न-कुछ कहेंगे ।’ इस प्रकार सब अपनी-अपनी मति एवं भावना के अनुसार विचरने लगे । फिर उनमें से भी कुछ लोग ऊबकर चले गये । इस प्रकार लगभग 4 घंटे व्यतीत हो गये । अब कुछ गिने-गिनाये लोग ही बचे । तब संत उठे । उन्हें उठा देखकर प्रतिनिधि शिष्यों ने कहाः “गुरुदेव ! आज तो आपने बहुत देर तक आराम किया । अब तो चारों ओर लोग आपका और हमारा मखौल उड़ायेंगे कि ‘अच्छी आखिरी बात सुनायी…।’ गुरुदेव ! आपने तो कुछ सुनाया ही नहीं वरन् आराम करने लगे । आप कुटिया में आराम कर लेते । इधर लोगों के सामने मंच पर… ? आपने यह क्या किया !…” गुरुः “मैं सोया नहीं था ।” “आप सोये नहीं थे ?” “नहीं । तुम लोगों ने आखिरी बात सुनाने के लिए कहा था न, मैंने वही आखिरी उपदेश दिया था । आत्मसाक्षात्कार कैसा होता है यही मैंने बताया । गहरी नींद में क्या होता है ? क्या उस समय पता चलता है कि ‘मैं हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, पारसी, गुजराती, पंजाबी या सिंधी हूँ…’ अथवा ‘कुछ लेना है… कुछ देना है…’ आदि ? नहीं । गहरी नींद में कुछ पता नहीं चलता । उस समय कोई स्फुरणा नहीं होता । ऐसे ही आत्मसाक्षात्कार का भी मतलब है कि चित्त में कोई स्फुरणा न हो… जाग्रत में सुषुप्तिवत् । ज्ञान से सब काम निःस्फुरण, निःसंकल्प एवं कर्तृत्वभाव से रहित होते हैं । अभी तक मैं यह बात सैद्धांतिक तौर पर तो बोल ही रहा था किंतु तुमने सुना नहीं अतः आज मैंने प्रयोग करके बताया । आखिरी बात है कि जैसे भगवान विष्णु क्षीरसागर में आराम पाते हैं ऐसे ही आप अपने अंतरात्मा राम में आराम पाओ । ‘मैं चैतन्यघन शांत आत्मा हूँ’ आखिरी बात यही है । शरीर की ममता में, मन के फुरने में, लोगों की ‘हा हा- हें हें, मैं-मैं-तू-तू’ में अपने को उलझाओ मत, यह आखिरी बात है । अपने चित्त को चैतन्य में सुला दो, विश्रांति दिला दो यह आखिरी बात है । 2 हाथ पैर वाले भगवान नहीं हैं, 4 हाथ वाले भगवान नहीं हैं, यह तो भगवान का बाह्य रूप है । जो 2 हाथ-पैरवाले, 4 हाथ-पैरवाले और 10 हाथ-पैरवाले – सबके अंदर सत्ता, स्फूर्ति, चेतना देता है वह चैतन्य आत्मा ही वास्तव में देव है । उस आत्मदेव में विश्रांति पानी चाहिए । आखिरी बात है ‘जीवन्मुक्त आत्मपद’ । उसमें जो टिक गये उनका जीवन होता है कुम्हार के चाक की नाईँ । जैसे चाक को घुमाकर छोड़ दो तो दिया हुआ वेग पूरा होने तक बिना कुछ बल लगाये सहज ही घूमता है, ऐसे ही जीवन्मुक्त महापुरुष के कर्म उनके प्रारब्ध वेग से (प्रारब्धानुसार) सहजभाव से हो जाते हैं, वे अपने अंदर कर्ता-भोक्तापने का बोझा नहीं उठाते ।” फिर बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा हो जाती है जब आत्मसाक्षात्कार करना ही है तो उठो… जागो… अपने-आपसे पूछो कि ‘मैं कौन हूँ ?’ अपने-आपको खोजो । खोजते समय जो कुछ तुम्हारे देखने में आता जाय उसको हटाते जाओ । जैसे – ‘यह भी नहीं… यह भी नहीं… मैं हाथ भी नहीं… पैर भी नहीं…. हाथ और पैरों को क्रिया करने की प्रेरणा देने वाला मन भी नहीं… मन को चलाने वाला प्राण भी नहीं… प्राण को चलाने वाली चिदावली (वासनासंयुक्त चेतना) भी नहीं…’ इस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि को हटाते-हटाते जब तुम्हारी वृत्ति सूक्ष्म हो जायेगी तब आंतरिक मौन को उपलब्ध हो जाओगे । जैसे अँधेरे कमरे में पड़ी हुई किसी वस्तु को देखना है तो दीया, टॉर्च आदि काम आता है किंतु वही दीया जब सूर्य के सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाता है, ऐसे ही व्यवहारकाल में, लेन-देन में, इधर-उधर के प्रसंगों में अथवा परमात्मा की खोज में मन, बुद्धि काम तो आते हैं किंतु जब वे परमात्मप्रकाश में आ जाते हैं तो उनका टिमटिमाते दीये जैसा प्रकाश परमात्मा के प्रकाश में लीन हो जाता है । वे अंतर्मुख हो जाते है, शुद्ध हो जाते हैं । मन-बुद्धि से तुम जगत को जान सकते हो, परमात्मा को नहीं । फिर भी मन-बुद्धि ज्यों-ज्यों परमात्मा के अभिमुख होते जाते हैं त्यों-त्यों परमात्मा में तदाकार होते जाते हैं । जैसे नमक की पुतली सागर की थाह पाने जाय तो स्वयं सागर में ही समा जायेगी फिर उसका अपना अलग से अस्तित्व नहीं रह जायेगा, ऐसे ही जब बुद्धि परमात्मा में स्थिर हो जाती है तो फिर वह बुद्धि, बुद्धि नहीं रहती, ऋतम्भरा प्रज्ञा हो जाती है । वर्णन से परे है वह ! महापुरुष जब परमात्मा में डुबकी लगाकर कोई कार्य करते हैं तब लोगों को लगता है कि उनके मन-बुद्धि एवं इन्द्रियों से कार्य हो रहा है । स्वयं महापुरुषों को कभी नहीं लगता कि ‘ये मन, बुद्धि एवं इन्द्रियाँ हैं ।’ वे तो सदैव एक चैतन्य में होते हैं, अवाच्य पद है वह… फिर भी यह बात वाणी से कही जा रही है, अन्यथा उस अनुभव के आगे तो वाणी भी अधूरी है । मत करो वर्णन हर बेअंत है, क्या जाने वो कैसो रे । फिर भी उनके इर्द-गिर्द की बातें सुनने से जो पुण्य होता है वह पुण्य न तो तप करने से होता है, न यज्ञ करने से और न ही चान्द्रायण व्रत करने से होता है । इसीलिए बड़े-बड़े तपस्वी, यति योगी, संन्यासी आदि भी सत्संग के अभाव में कई बार आत्मसाक्षात्कार की बात से चूक जाते हैं । फिर मन बुद्धि में जगत की सत्यतना नहीं टिकती संत निश्चलदास जी ने विचारसागर नाम का एक ग्रंथ लिखा है । उसमें आत्मसाक्षात्कार से संबंधित बातें भरी हुई हैं । एक दिन संत निश्चलदास जी ने कुछ साधुओं से कहाः “प्रातः ब्राह्ममुहूर्त के समय बुद्धइ सात्त्विक रहती है । वह समय ध्यान-भजन के लिए उपयुक्त रहता है । यदि तुम लोग चाहो तो उस समय तुम्हें विचारसागर पढ़ाऊँगा । उनके पास अनेक साधु आते थे । विचारसागर का सत्संग एक दिन… दो दिन… तीन दि…. चार दिन… चला । फिर एक-एक करके साधु कम होने लगे । ज्यों-ज्यों संत गहरी बात सुनाते गये त्यों-त्यों लोग ऊबते गये । आखिरकार धीरे-धीरे सब साधु भाग गये क्योंकि मन को रूखा लगता था न ! मन को थोड़ा मनोरंरजन चाहिए । इन्द्रियों को भी रुचिकर भोग चाहिए । इन्द्रिय विषयक भोगों का त्याग करते-करते, मन का त्याग करते-करते जब पूर्ण त्याग की घड़ियाँ आती हैं तब आत्मसाक्षात्कार हो जाता है । जैसे लोहे के टुकड़े को एक बार पारस का स्पर्श करा दो तो फिर उसे कीचड़ में रखने पर भी जंग नहीं लगता, ऐसे ही मन-बुद्धि को परमात्मदेव का एक बार अनुभव हो जाय तो फिर उनमें जगत की सत्यता नहीं टिकती । फिर वे पुरुष व्यवहार करते हुए तो दिखेंगे लेकिन उनका व्यवहार दिखने मात्र का होगा । जैसे भुना हुआ बीज और कच्चा बीज – दोनों दिखते तो एक जैसे हैं किंतु कच्चा बीज दूसरे बीज उत्पन्न करने की सम्भावना रखता है जबकि भुना हुआ बीज दिखने मात्र का होता है, वह अपनी वंश-परम्परा नहीं चला सकता ऐसे ही सवासनिक मन (कच्चा बीज) और निर्वासनिक मन (भुना हुआ बीज) के कार्य-व्यवहार हैं । जब सवासनिक मन ब्रह्मविद्या में भुना जाता है तो उससे प्रारब्धवेग से सांसारिक कार्य-व्यवहार होता है पर वह दूसरे कर्मों का जाल उत्पन्न नहीं करता, उसका जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है । इसीलिए संत कबीर जी ने कहा हैः मन की मनसा मिट गयी, भरम गया सब टूट । गगनमंडल में घर किया, काल रहा सिर कूट ।। स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 6-8, 10 अंक 360 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ